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________________ (३) पादक वेदभाग को कल्प कहते हैं। मन्त्रों के तात्पर्यार्थ को प्रकाशित करने वाला वेदभाग ब्राह्मण है और व्यवहार में अथवा लोक में प्रयुक्त होने वाली वाक लौकिकी है। .. . इसी प्रकार ऋग्, यजुः, साम और व्यावहारिकी नाम से नरुक्त नियमानुसार समस्त वाङ्मय नियमित है। ऐतिहासिकों का कहना है कि सो, पक्षियों, छोटे छोटे रेंगने वाले जानवरों और व्यावहारिकी वाणी के भेद ले वाक् चतुर्धा विभक्त है। आत्मवादी कहते हैं कि यह वाक् पशु, तूणव, मृग और आत्मा में निहित होने से चार प्रकार की है। मातृकाविज्ञान के आचार्यों का मत इनसे भिन्न है। वे परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी नाम से चार प्रकार की वाक् का प्रतिपादन करते हैं। मूलाधार से उदित होने वाली, एकमात्र प्राण और अपान के अन्तराल में रहने वाली वाक् सूक्ष्म और दुर्निरूप्य होने से परा कहलाती है। वह सामान्य जन के ज्ञान से परे है, आविर्भाव और तिरोभाव से रहित है तथा सम्यक् मनन एवं प्रयोग परिशीलन से ही गम्य है। यह अमृतकला' के नाम से भी अभिहित होती है। वही वाक् जब हृदयगामिनी होती है अर्थात् नाभि-सूल से उद्गत होती है तब योगियों द्वारा द्रष्टव्य होने से पश्यन्ती कहलाती है। अथवा ब्रह्म की अनादि अविद्या से जो परिणाम उपस्थित होता है वह पश्यन्ती वाक् है। इसका कोई वर्णविभागादि क्रम नहीं है यह खयंप्रकाश है। यह अपने पूर्व और अपर अर्थात् परा और मध्यमा को देखती है इसलिए भी:पश्यन्ती वाक् कहलाती है। ___ जव पश्यन्ती वाक् का बुद्धि से संयोग हो जाता है तव विवक्षा की दशा में पहुंच कर हृदय अथवा मध्य से उदित होने के कारण यह वाक् मध्यमा कहलाती है। श्रोत्रग्राह्य वर्णों की अभिव्यक्ति से रहित यह वाक अन्तःसङ्कल्पक्रम से युक्त होती है। यह वाक् का तीसरा रूप है। इसके पश्चात् वही वाक् सुख में आकर तालु, ओष्ठ, जिह्वा, दन्त आदि के व्यापार से बाहर निकलती है, बिखर जाती है, तव वैखरी हो जाती है। विशिष्ट रूप से ख अर्थात् आकाश में यह रम जाती है अथवा फैल जाती १. सेयमाकीर्यमाणापि नित्यमागन्तुकैर्मलैः । अन्त्या कला हि सोमस्य नात्यन्तमभिभूयते ।। तस्यां विज्ञातमात्रायामधिकारो निवर्तते ।।" पुरुपे पोडशकले तामाहुरमृतां कलाम् ॥ सर० कण्ठा० रत्नेश्वरव्याख्यायाम् ।। २. सा प्रसूते कुण्डलिनी शब्दब्रह्ममयी विभुः।। शक्ति ततो ध्वनिस्तस्मान्नादस्तस्मान्निरोधिका ।। ततोऽर्द्वन्दुस्ततो बिन्दुस्तस्मादासीत् परा ततः ॥ पश्यन्ती मध्यमा वाचि वैखरी शब्दजन्मभूः । शा० तिलकम् प्र० ५०
SR No.010619
Book TitleBhuvaneshvari Mahastotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages207
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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