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( १७ ) . अस्तु, भुवनेश्वरीपञ्चाङ्ग की एक प्रति मेरे मित्र श्री लक्ष्मीनारायणजी गोस्वामी के पास मिल गई। यद्यपि प्रतिष्ठान के संग्रहालय में भी संख्या ७०५६ पर अङ्कित भुवनेश्वरीपद्धति की एक और प्रति मिल गई थी, परन्तु वह अपूर्ण थी । इन दोनों प्रतियों के आधार पर तथा गोस्वामी श्रीशिवानन्दभट्टरचित सिहसिद्धान्तसिन्धु से आवश्यक सन्दर्भ उधृत कर 'प्रेस कापी मुद्रणार्थ प्रेषित कर दी गई। इसी बीच में अलवर संग्रहालय, अलवर से भी एक प्रति प्राप्त हो गई और उस में से भी आवश्यक पाठान्तर टिप्पणी में दे दिये गये। पञ्चाङ्गभाग में प्रतिष्ठान की प्रति को ख. प्रति तथा अलवर वाली प्रति को ग. प्रति के नाम से अभिहित किया गया है और गोस्वामीजी की प्रति को आदर्श क. प्रति माना गया है।
पञ्चाङ्ग भाग का मुद्रण समाप्त हो ही रहा था कि छापरनिवासी श्री लाधूरामजी दूधोडिया के पास भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका' की प्रति मेरे देखने में आई। यह प्रति श्रीपृथ्वीधराचार्य-पद्धति पर आधारित थी । मिलान करने पर यह पद्धति रुद्रयामलान्तर्गत पूर्वपद्धति से भिन्न पाई गई । अतः मैंने इस को भी संलग्न करना आवश्यक समझा । यह प्रति मात्पुरस्थित दाईदेवसम्प्रदायी अनन्तदेवविरचित है। इस पद्धति की भी किसी अन्य प्रति का उल्लेख अन्यत्र नहीं मिला । प्रस्तुत पद्धति के दूसरे कल्प . में दो पत्र (तीसरा और चौथा ) किसी अन्य कृति के संलग्न हैं परन्तु सौभाग्य से इन्हीं अनन्तदेवविरचित 'दक्षिणकालीपद्धति' प्रतिष्ठान के संग्रह में संख्या २७३५ पर उपलब्ध हो गई जिस के आधार पर यह दो पत्रों का त्रुटित अंश पूर्ण कर लिया गया।' इस प्रकार इस पुस्तक को प्रस्तुत रूप प्रात हुआ है।
भुवनेश्वरी महास्तोत्र सिद्ध पारस्वत स्तोत्र है। श्री पृथ्वीधराचार्य ने फलश्रुति में कहा है कि उनके अश्रुप्लावित नेत्रों के समक्ष स्वयं सरस्वती प्रकट हुई और उन्हें वरदान दिया । भगवती सरस्वती ने उनके हृदयपीठ को आसन के रूप में अलंकृत किया और वह नव नव शास्त्रों की शावतारणा के रूप में उन के मुख में अवतीर्ण हुई। भगवती के कृपाप्रसाद से ही आचार्य को वाक् सिद्धि की प्राप्ति हुई।
पूजा और साधना का विधान बताते हुए आचार्य ने कहा है कि साधक व्रतस्थ होकर यदि तीन मास पर्यन्त भगवती आद्याशक्ति भुवनेश्वरी की आराधना करता हुआ स्तोत्रपाठ करे तो समस्त विद्याएं गुरुप्रसाद से उसे प्राप्त होती हैं। व्रतादिबन्धन में न रहते हुए भी यदि साधारणतया इस स्तोत्र का नित्य पाठ किया जाए तो एक वर्ष की अवधि में ही उसे कवित्वपूर्ण पाण्डित्य की सम्प्राप्ति होती है, ऐसा इस महास्तोत्र का अचिन्त्य प्रभाव स्वीकार किया गया है।
....... १. देखिये टिप्पणी पृ० १३३.. . . . . इत्थं प्रतिक्षणमुदश्रुविलोचनस्य
पृथ्वीधरस्य पुरतः स्फुटमाविरासीत् । ..