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शब्द का (वाक् का ) प्रादुर्भाव सृष्टि से पूर्व हुआ और उसी के साथ मानस संयोग करके ब्रह्मा ने समस्त देवताओं और चराचर जगत् का सृजन किया।
जब हम किसी विषय में प्रवृत्त होते हैं तो पहले उस विषय के बोधक शब्दों की मानसिक सृष्टि करते हैं और फिर कर्म में प्रवृत्त होते हैं। इसी उदाहरण को लेकर कहा जाता है कि पहले ब्रह्म-मानस में वेदवाक् का उद्भव हुआ और फिर उसके परिणामस्वरूप पदार्थों की सृष्टि हुई । “भूरलि" वाक्य कह कर भू को (पृथ्वी को) उत्पन्न किया और इसी प्रकार जगत् के समस्त पदार्थों का सृजन हुआ।
परन्तु, यह पूर्व और पर के भेद व्यावहारिक हैं। मानव ईश्वर के समक्ष सदैव अपूर्ण है। वास्तव में प्रत्यय, शब्द और अर्थमय ईश्वर का कारणविग्रह एक है। वह अभिन्न है, किन्तु भिन्न भी प्रतीत होता है। हम केवल समझने-समझाने के लिये कहते हैं कि उसकी सृष्टिकल्पना प्रत्ययरूपी आनन्दमय कारणवित्रह का अंशमात्र है और उसी में स्थूल एवं सूक्ष्म सभी पदार्थों की स्थिति है। उसके 'पर' शब्द से ही परिणाम में समस्त 'अपर' शब्दों की सापेक्ष सत्ता स्वयंसिद्ध है और उसके अर्थों से ही जो प्राकृत शक्ति का प्रथमोदभूत स्वरूप है, समस्त विकृति और तजन्य पदार्थों की अनुभूति होती है। इन्हीं तीनों से ईश्वर के हिरण्यगर्भ और विराटशरीर जाने जाते हैं। प्रत्यय और अर्थ ले हिरण्यगर्भ और शब्द से विराट । इसलिए परा वाक् ही उसका पर शब्द है और मध्यमा एवं वैखरी केवल शब्द अथवा चाल् । मातृका और वर्ण वाक के सूक्ष्म एवं स्थूल रूप है।
अतः वाक् और विश्व के समस्त पदार्थों का एक ही कारण है और वह है प्रत्यय अर्थात् पदार्थ की ओर मानस की गति । . .
सरस्वती वेदों और नामरूपात्मक विश्व की जननी है। वहीं सर्वोपरि शक्ति है। उसी से उद्भूत वाल् शक्ति के द्वारा सरस्वती नाम से उस का चिन्तन और स्तवन किया जाता है। वीणा उसका प्रिय वाद्य है जो नाद अथवा शब्द का सूचक है। उसके श्वेत वस्त्र शब्दगुणप्रधान आकाश और निर्मल बुद्धि के प्रतीक हैं। उसका नाम "सरस्" गति अथवा प्रवाह का सूचक है। वह निस्पन्द शिव अथवा ब्रह्म की एरात्मिका शक्ति है और व्यक्त जगत् में क्रियात्मिका रूप से सृष्टिकाल में "ह": इस गर्जन शब्द के द्वारा उद्भूत होती है और फिर शान्त हो जाती है। यही गति अथवा प्रवाह सदा चलता है। इसी का नाम "सरस्" है और इसी से वह शक्ति सरस्वती है।
वैज्ञानिकों का मत है कि परमाकाश में जड़ पदार्थों के समान जीर्णता और नाशसपी विकार अथवा परिवर्तन नहीं होते। यह अपरिवर्तनीय दृढ़ और शाश्वत परम
1. मनसस्तु समुद्भूता महाभूता नराधिप । महा भा० शा० पर्व । ३१०११६ ।