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6.x.
votrop श्रीमद् बुद्धिसागरजी ग्रन्थमाला-ग्रन्थांक ७ योगनिष्ठमुनिराजश्रीबुद्धिसागरजी कृत भजनपदसंग्रह.
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भागांथोर
छपावनार. अमदावादना श्रेष्ठिवर्य ओशवाळ शा. मोहनलाल हेमचंदनी धर्मपत्नी जा. सुदना स्मरणार्थे तेमना सुपुत्रो
mmmmmm छपावी प्रसिद्ध करनार, अध्यात्मज्ञानप्रसारकमंडल.
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धी "डायमंड ज्युबिली' प्रीन्टिग प्रेस-अमदावाद.
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वीर सं. २४३५ सने. १९०९ किंमत.०-८-०
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योगनिष्ठ पूज्य जैनसाधु श्रीमद् बुद्धिसागरजी अने तेमनो काव्य संग्रह.
हरको मनुष्यने सुख प्राप्त करवानी अभिलापा होय छे. अने ए सुख माटेज प्रत्येक प्राणीओ विविध प्रकारनी प्रवृत्तिमां प्रवृत्त थता जणाय छे, तेमां ते मार्गना पटंतरे आवी कोइ विजयवंत निकळता नथी तो एक बाजुए विरल विरल पुरुषो सत्तुखमां निमग्न थयेला होय छे. विशेष स्तुतिपात्र एनेज मानी शकाय के, जाते सत्सुखानन्दी होइ बीजानुं दुःख टाळवा प्रवृत्ति करे छे.
हुं बीजाने सुख आपीश एम धारी घणा माणसो पोताने प्राप्त थयेल साधनो पोताथी अधः स्थितिवाळाने पुरां पाडवा जाय छे. राजाओ, शेठीआओ, अने धनवंत जनो, धनलक्ष्मी एज सुखनुं साधन माने छे अने एथीज बीजा सुखी थशे एम विचारी धनादिकथी अनेक प्रकारे साह्य आपे छे पण आ मार्ग मध्यम छे. कारण के धनादिक पदार्थ मात्र आजन्मपर्यंतने माटे पण अनिश्रयात्मक सुखस्वरूप होय छे. ए करतां महात्मा पुरुषो उपदेशादियी हृदयपूर्वकनुं शुद्ध अध्यात्मज्ञानथी विभूषित् ज्ञान आपे छे. ए ज्ञानथी उत्पन्न थयेल निजानंद स्वरूप सुख कदी एटले जन्मांतरां पण नष्ट यतुं नथी. ए सर्व कोइ मार्गवाळा माने छे.
उपदेश उभय प्रकारे आपी शकाय छे. प्रत्यक्षपणे, अने अप्रत्यक्षपणे, ज्यां सुधी शरीर आलोकपर विचरी शके छे. त्यां सुधीना माटेज प्रत्यक्षपणे उपदेश आपी शकाय छे. पण ग्रंथादिक बनावी अविचळ अक्षर देहथी आपवामां आवतो अप्रत्यक्षपणे उपदेश क्यां सुधी लांबी काळ रही शके ए कहेतुं मानवनी
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बुद्धिनी बहार छे छतां एटलुं तो मानवू पडशे के लांची काळ सुधी ए अक्षरदेह परोपराकार्थ टकी शके छे.
प्रत्यक्ष अने अप्रत्यक्षोपदेश पण उभय प्रकारनो होय छे. एक गद्यमां अने बीजो पद्यमां अक्षरोने अमुक प्रकारनी गोठवणी शिवाय मात्र रसपूरित भावार्थवालु जे लखाण ते गद्य कहेवाय छे. अने वर्णमात्राने अमुक प्रकारनी गणमात्राए बद्धकृतिमां लखेल लेख पद्य कहेवाय छे. आ बेय अक्षरदेह स्वरूप छे. पण बुद्धिनी लालित्यता भाषा गौरव ने हृदय पटपर छाप पाडनार भाव पद्यमां, गद्य करतां अधिक अंशे समायेल छे. साधारण वार्ताओ करतां कवि लोकोए लखेला कविताओना ग्रंथो केवी अस्तित्वता भजवी उन्नतता भोगवे छे ए कोनी जाण बहार छे.
पद्यमां पण बे भेद छे. पिंगळ पद्म, शार्दूलविक्रीडित, स्रगधरा, शिखरिणी आदि वर्ण मेळना छंदो. ए प्रथम प्रकार छे. अने रागरागणीमां भजन कीर्तनो, पद ख्याल, ठुमरीओ, गजलो ए पद्यनो बीजो प्रकार छे. पहेला प्रकार करतां पण काळबळ, देशनी स्थिति रीति मानवनी मनोविचारणाओने अवलोकी, आ पद्यना बीजा प्रकारने अमो प्राधान्य मानीशं. कारण जे भणेल वर्ग होय छे. अने तेमां पण जेमणे पिंगळ वगेरेनो अभ्यास करेलो होय छे उपरांत रस अलंकारना जेओ ज्ञाता होय छे तेमने प्रथम मार्ग सरस मालुम पडशे पण हिंदनी हालनी प्रजा अधमथी ते उत्तम वर्ण सुधी संगितपर जेटली मस्त छे. तेटली प्रथम प्रकारमां गौण अंशे छे. __मानव तो शुं पण सर्प, हरिण, आदि पशु जातिमा संगीत साम्राज्य भोगवे छे. सुंदर चंद्रमानी पवित्र श्वेत छाया अने पवननी सुखद लहरिओमां वीणानादे आरंभेल रागध्वनि हरिणनां
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मनोबळ पर जे खेंचाण करे छे ते तथा मधुर मुरलीनो नाद क्रूर अने भयंकर सर्प जातिमां पोतानी मोहिनी नाखी डोलावी बेभान करीदे छे ए कोना हृदय बहार छ ? अर्थात् सर्वने विदित छे तो मनुष्य के जे सहृदय छे ते प्राणिना हृदयने संगीत केटलुं आकर्षों शके ए सुजनने जाते विचार जोइए.. ___उपरनी वात तो आपणे कही गया पण कइ भाषामां आ रीते उपदेशादिक होवू जोइए. एमां पण वांधा अने तकरारो विद्वानो अनेक प्रकारनी उठावे छे. इंग्रेजी भणेला इंग्रेजी भाषाने सारी अने प्रौढ माने छे. संस्कृत भणेला संस्कृतना प्रेममाथी बीजी भाषा तरफ आंख उघाडीने जोता पण नथी हिंदुस्थानी भाषा वाळाओ 'हिंदुस्थानि के सोलेहि आने मानते हे.'
गुर्जरी भाषाना साक्षरो गुजरातीनी गौरवता गणे छे. आदि आदि अनेक देश प्रचलित भाषाना साक्षरो पोत पोतानी भाषाने वखाणे ए स्वाभाविक छे. उपरनी भाषाओमाथी मात्र संस्कृतने अमो आर्यावर्तना प्रदेशो माटे मानीए. कारण आखा हिंदनी मूळथी मांडीनेज संस्कृत सामान्य अने मोभादार तथा प्रिय भाषा छे. अमो माध्यस्थदृष्टिथी विलोकी कहिए छिए के जे जे देशमा प्रचलित जे भाषा होय ते देश माटे ते भाषा सारी छे.जेमके गु. जराती भाषामां सामान्य रीते सर्व प्राणीना हृदयने आल्हाद आपवा. हिंदुस्थानी के मराठी आदिक भाषाओ होइ शके नहि. गुजरातने माटे गुजरातीज होय. तेम उत्तरहिंदने माटे गुजराती के मराठी उपयोगी परीपूर्ण होइ शके नही. तेम दक्षिणमां हिंदुस्थानीय के गुजराती मिय होइ शके नही. एतो गुजरातीमां गु. जरातीज 'उत्तरहिंदमां हिंदी, दाक्षणमां दक्षणिज' पोशाइ शके. प्रश्न थशे के, संस्कृत के इंग्रेजी आखा आर्यावर्तने माटे हाल सा.
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मान्य भाषाओ छे तो ते भाषा प्रिय केम नही. ?
तेमने पण अमो खुल्ला हृदयथी कहिशु के, गुजरातमा अत्यारे गुजराती भाषा जाणनार जेटलां माणसो छ तेथी केटलाक ओछा अंशे अंग्रेजी अगर संस्कृत भणेलाओ छे. माटे संस्कृत जाणनार माटे संस्कृत भाषा उत्तम अने अंग्रेजीवाळाने इंग्रेजी ठीक. संस्कृत भणेलाने इंग्रेजी नकामी, ने इंग्रेजीवाळाने संस्कृत नकामी छतां गुजराती तो बेउने उपयोगी छे माटे गुजराती भाषानुं प्राधान्य कहीए ए अमने ठीक जणाय छे. गुर्जर देशवाळा मनुष्योने गुर्जर भाषा मातृ भाषा गणाय छे मातृ भाषामां जे हृदयना उद्गार नीकळे छे ते अन्य भाषामां नीकलता नथी.
जे वखतमां संस्कृत भाषा आर्यावर्तमां चालती ते वखतमां संस्कृत ग्रंथो रचाया छे. पण काल बळे जेम जेम भाषामा फेर. फार पडी प्राकृत भाषाो थवा मांडी त्यारे ते ते भाषाओर्नु संस्कृत करतां प्राधान्यत्व थयुं. हाले तो संस्कृत अने इंग्रेजी भाषाओनां गुजरातीमां भाषान्तर बनाववां पडे छे. अमो एम नथी कहेता के संस्कृत भाषा करतां गुजराती अने बीजी प्राकृत भाषाओ खेडायली छे. संस्कृत भाषा: घणी गौरवतावाळी छे ए नकी छे पण हाल आपणा देश, धर्म अने व्यवहारना उदय माटे गुजराती भाषामां ज जनसेवा बजाववानी छे तेम वीजा देशवाळाए पोत पोतानी भाषामां सेवा बजावा जेवु छे.
जेम संस्कृतमा एक अष्टक कयु होय अने हेन्डबील तरीके तेने जन समाजमां मोकल्यु होय तो तेने हजारमा बे चार जणज आदर पूर्वक स्वीकारशे पण जो गुजरातीमां भजन, ख्याल के ठुमरी के दुहा चोपाइ-या छंदमां लखी कोइ मोकलवामां आवे तो हजारके लगभग लाख उपर स्वीकारनार मळशे. छेवटे अभ
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ण पण भणेलाना मुखथी सांभली तेने समजी आल्हादशे. आगळना संस्कृतभाषाना जमानाना संगितपर असारना लोकोनुं हृदय प्रेम तत्ववालुं तेटलं होय एम परिपूर्ण लागतुं नथी. कारण संस्कृतना तमाम ग्रंथो छंदोमांछे, कोइ पण संगितमां कचित् मालुम पडे छे. शोभन स्तुतिना का शोभन मुनि, विनयविजयजी, यशोविजयजी, जयदेव जेवाओए एक वखत आ मार्गे प्रकाश को जणाय छे पण तेना पछी ते मार्गे कोइपंडित परवों होय एम जणातुं नथी.
अरे अत्यारे अनेक जातना लोको पण एकतारो, मंजीरानी धूनमां बे घडी सांगितमयमार्गी भजनमा मस्त जणाय छे. तथा केटलाक ठुमरी अने साधारण पदोमां ईश्वर स्तवनादि पोताना हृदयने मीय लागे तेवा रागोमां गाय छे. केटलाक लोको भैरवी, मालकोश, धनाश्री, सारंग, कल्याण. वगेरे रागोमां सतार, हारमोनीयम वगेरे वाघोमां, छाया जमावी घडीभर दुःखनी विस्मृति करावे छे. नाटकोमां पण गायन, गायन ने गायन ज. अर्थात् आखा देशोना देशोमां संगीतनी लगनी लागी रही छे. • तो आवे समय संगीतद्वाराए लोकोनां हृदयने उन्नत करवा. ए एक मुख्य कर्त्तव्य छे.
जैन साधु योगनिष्ठ पूज्य श्री बुद्धिसागरजी. एओना करेला भजनपद संग्रहना चारे भाग म्हें वांच्या छे. अने ए अवलोकनी म्हारुं हृदय शांत थाय छे. कारण व्यवहार परमार्थ अने स्वदेश ए त्रणनी उन्नतिना सारुं गद्यमां, पद्यमां, ग्रंथो बांधी एमणे अल्प समयमां मुर्जर वर्गर्नु हित साचव्युं छे. एमना भजनोमां गौरवता एवी छे के जेम जेम वांचता जइए छीए तेम तेम पुनः पुनः वांचवा ए कवितामा जिज्ञासा थाय छे.
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एमना माटे कवीश्वर माघ वाक्य सफळ छे,
क्षणे क्षणे यनवता मुपैति,
स्तदेवरूपं रमणियतायाः . जे जे पदार्थ जोतां छतां पण फरी' जोवा आकर्षण करे ते ज रमणीयता.
पहेला भागमां भाषा मस्त छे. एटले पोताना एक अध्यात्म निशानने लेइ सहज स्फुरणाथी ए भाग रच्यो छे तेमां आनंदघन अने चिदानंदजीनी भाषानुं खास अनुकरण कर्यु छे. तेथी ते अप्रासंगिक नहि गणाय. आज रीतने अनुसरी सरस्वतिचंद्रमा द्विभाषिक जे होरी लखी छे.
मेंतो नहिरे रहुंगी ए नगरमें,
धोळे दहाडे कीशनजी लुटे छे अमने, ए गोपीओनां शुद्ध प्रेमने आकर्षाइ प्रेम वाक्यो अने आग. छना महान् कवीश्वरोए विरहावस्थामां के मस्तावस्थामां झाड पहाड नद सरोवरोने मनुष्यो पासे प्रश्नो पुछायल दोप ए छ एम कहेवायज केम? नज कहेवाय. ... तद्वत् आ सागरजी कृत कवितानो प्रेम तथा स्वात्ममस्ता वस्थाने लेइ आनंदघन तथा यशोविजयजी वगेरेनी रीतिने अनुसरतां कोइ आक्षेप मूके तो अमो काढी नाखीये छीए,
भजन करले भजन करले, भजन करले भाइरे, दनिआंदारी दुःखनी क्यारी,
जुठी जगतनी सगाइरे, ए भजन करती वखतनो कानो उमंग एम वैराग्यावस्था अने भजननो राग, छाया, खरेखर असरकारक छे, अने एनी
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तथा
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मान्यता थोडा समयमां एटली थइ छे के हरकोई धर्मवाळा पण कलबमां, भजनमां, अने एकांतमां, उत्साहमा एने उच्चरता जणाय छे. विजापुर वगरेमां वगडाओमां पण लोको हरतां फरतां वैराग्यथी गाय छे. ए शिवाय चिदानंदजी तथा आनंदघनजीनां प्रेमनी मूर्तिस्वरूप थोडां भजनो पण ए भागमा कर्ताए स्नेहे आकर्षा दाखल करेला छे.
कीन गुन भयोरे उदासी भमरा कीन गुन भयोरे उदासी. आनन्दघनजी
मत कोइ प्रेमके फन्दपरे
परत सो निकसत नाही. प्रेमके कारन पपैआ पुकारत दीपक पतंग जरे
मत०
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आनन्दघन प्रभु आय मीलो तब तुम विरहकी पीरटरे
मत०
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मत०
आनन्दघनजी.
आनदघनजी जैनोमां एक योगी महात्मा थइ गया छे,
श्रीमान् बुद्धिमागरजीने अमो जैनोमां तो आनंदघन अने चिदानन्दनी जोडमां भेळवी ए त्रणनी त्रीपुटी करी आल्हादीए छीर. कारण के उपरोक्त बन्ने महात्माओना विचारो स्वात्मनिष्ठतानी कविताओ मां क्वचित् भिन्न जणाता नथी
बीजो भाग हालनी गुज्जर भाषामां रच्यो छे ने घणीखरी
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कविता पिंगळमां बतावेल छंदोमां छे. ते शुद्ध व्यवहारने अति उपयोगी छे. कारण दया, विवेक, न्याय, सत्य आदि लक्षणो आवाळवृद्ध सर्व दर्शनवाळाने उपयोगी छे ए संबंधीनाज लेखो छे. भाषा सरल छे, रसहृदयभेदक छे उपरोक्त वैराग्य. सुख दुखमा समभाव, निंद्रा त्याग, स्वार्थ स्वरूप, परमार्थ स्वरूप, दान स्वरूप, कपट स्वरूप, उपकार माहमा, आदि अनेक उपदेशो समाया छे. वळी योग मार्गमा पोते निष्पक्षपाती होवाथी, योग महिमाना विषयोनां तेमनां भजनो बहुज आनंद आपे छे. ४४ मा पत्रे योग माटे थोडा झूलणा छंद छे. तेमांथी अवकाश स्थळ संकोचने लेइ एक बे टांकी बताएं छु.
योग विद्यातणुं धाम चेतन प्रभु, शक्ति सिद्धो समी रही प्रकाशी योगविद् मानवी चित्तमां ध्यानथी,
पिण्ड ब्रह्माण्ड भावो विलासी. चक्र षद् भेदवां वायुनां पिण्डमां, गगनगढ चालवु वंक नाले ज्योति जळ हळ अति शोक चिन्ता नथी, हंसलो शान्ति सुख मांहि म्हाले. पिण्ड ब्रह्माण्डनी ऐक्यता आत्ममां, शुद्ध उपयोगथी जेह जागे; अष्ट सिद्धि सदा हस्त जोडी रहे, चित्त रंगाय नहि बाह्य रागे, अलखनी धूनमा भासता दिन मणि, भक्ति उत्साहथी यत्न धारो; बुद्धिसागर सदा ज्योतिमा जागजे,
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शुध्धचेतन प्रभु चित्त प्यारो,
आछंदोमां कानुं विद्वान्पणुं यथार्थ जणाय छे. योगविद्यानुं धाम परमात्मा छे. सिद्ध समान शक्ति योगमा छे. अर्थात् सिद्ध थर्बु होय तो पण योग शत्तिथी थइ शकाय छे. पिण्ड तथा ब्रमाण्डनी औक्यता योगथी थइ शके छे. छचक्र भेदीने गगनगढरुप ब्रह्मरंध्रमां जवु, त्यां जवा बंकनाल कहेतां मेरु दंड मार्ग छे. गया बाद अनंततेजोमय औश्वर्यमय आत्मानो भास थाय छे. चिंता अने शोक त्यां जणातां नथी. पिन्ड ब्रह्मांडनी औक्यता आत्मामां थाय छे. त्यारे अष्ट सिद्धि हाथ जोडी वरवा खडी थइ जाय छे पण ते बाह्य रागवाळी सिद्धिओमां ते योगीनुं मन रंगातुं नथी.आसक्त थतुं नथी अलक्ष्यतुं स्वरूप वैखरीना शब्दोथी वर्णी शकातुं नथी. आत्मा वर्णोथी परिपूर्ण रीते लखातो नथी. तेम अज्ञानीना परिपूर्ण लक्ष्यमां आवतो नथी, एटलो जैश्वर्यवंत छ. ते भक्तिना उत्साहथी तेने मेळववा यत्न करो. आ वातने योगीओ कबुल करे छे.
यथा सिंहो गजो व्याघ्रो,
भवेतू वश्यं शनैः शनैः सिंह गज व्याघ्र वगेरे प्राणीओ हळवे हळवे युक्तिथी वश्य थाय छे, तेमज प्राणने वश्य करवो अन्यथा साधकनो प्राण नाश थाय छे. - मात्र एज भजनमां भक्तियोग वैराग्यादिक संपूर्ण समाया छे, माटे कानुं ज्ञान, भक्ति,क्रिया एत्रण पदार्थपर वलण सहज लागे छे. जे जे भजनो गाइए छीए. तेमां निमग्न थइए छीए,माटे अमो तो थोडी थोडी कडीओ लेइ कर्तानो निर्देश अत्र बतावीए छीए कारण दरेक भजनोनुं अवलोकन करता तो ए ग्रंथो करतां
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१२ बीजा नवा कोण जाणे केटला घणा ग्रंथ थाय एम छे.
त्रीजा तथा वोथामां तो मात्रं अलख खूमारीज छे. एक विद्युत् चमत्कारमां जेम मोतिहार परोववा जेटली एकाग्रता अने बाह्यवृत्तिनी निवृत्ति जोइए तेटलीज निवृत्ति लेइ स्वात्मलक्ष्यमां कर्ता चाल्या जाय छे जाणे एक मुक्त महद् पुरुष होय नहि ? उपरना बे करतां आबे भाग वधारे हृदयाकर्षनार छे भाषा उच्च छे. देह तंबुर विषे एक बे वाक्यो. देह तंबुरो सात धातुनो रचना तेनी बेश बनी इडा पिंगळा अने सुषुम्णा नाडिनी शोभा अजब घणी.
देह तंबुरो अलख धुनमां, परा पश्यंतिथी बागे; जाग्रत् तुर्यावस्थामांहि, चेतन यथाक्रमे जागे. देह तंबुरो बगाडनारो, चिदानन्द घटमां जागे; बुद्धिसागर अलख धूनमां, अनंत सुख छे वैराग्ये.
आ आत्मभावनी उच्चदशानी पराकाष्टा कहीए तो चाले. आत्मखुमारी, योगविषय, तत्वज्ञान, वगेरेनां हेडींगवाळी कविताओ अति उत्कृष्ट छे.
अमो हद बहार जइ वखाणता नथी. पण हृदय पूर्वकनी लागणी साथ कहीएछीएके आत्मज्ञान स्वदेशोदय, व्यवहारोदय माटे सर्वे जणने ए भाग बहु उपयोगी छे. जैनोना तीर्थंकरोनी स्तुतिओ एमां समायली छे ते जैनोने अति उपयोगी छे. पण दया, दान तपश्या, ज्ञान भक्ति, वैराग्य, योग आदिना विषयो लखवा निर्लोभताए जनकल्याणमाटे ज ए विरक्तपुरुषे जे प्रयन कर्यो छे तेने धन्यवाद आपीएछीए, पुस्तकोनुं मूल्य एटलं
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सरल राख्यु छे के ए सुशोभित पुस्तकोना मूल्य करतां छपावनारने खर्च वधारे छे. एम करवानुं कारण तेमनी परोपकार दृष्टिज छे.
हवे अमो एटलं कहीने विरमीशु के श्री बुद्धिसागरजी जेवा सत्यग्राही, ज्ञानी, योगी आत्मनिष्ठ अने परोपकार परायण पुरुष धर्म मार्गनो उद्धार करो एटटुंज नही पण व्यवहार तथा देश- पण उदय करो ते माटेज तेमनुं जीवन परमात्मा दीर्घ करें। तथास्तु सं. १९६५ विजया दशमी. वरसोडा निवासी पंडित भोलानाथ शर्मा.
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भजनसंग्रहभागचतुर्थ संबंधी लेख्य.
नवरस रंगित काव्यना आस्वादथी जे मुख थाय छे ते सुख खरेखर अध्यात्म रसनी आगळ एक बिंदु मात्र पण नथी. अध्यात्मरसमा रंगित थतां पराभाषा स्वयमेव खीले छे, अने जे वस्तुनो अनुभव थाय छे, ते वैखरीचाणी द्वारा अक्षर रुपे बहिर प्रकाशे छे. आ भजन संग्रह चतुर्थ भागमा पण विशेषतः तेवीज स्थिति थएली छे. संवत १९६५ ना माह शुदी त्रीजना दीवसे अमदावाद थी डभोइ तरफ जवा विहार कर्यो. त्यारे विहारमा जे जे गामो आवतां तेमा अनुपाधिदशायोगे जेवा जेवा संयोगो पामी जेवा जेवा आध्यात्मिक विचारो उद्भवता हता.ते काव्यरुपे गोठववामां आव्या छे. अमदावादथी मातर अने मातरथी कावीठा अने कावीठाथी बोरसद थइ पादरा जवानुं थयु. पादरामां
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वकीलजी शा. मोहनलालभाइ होमचंदभाइ उत्तम आत्मार्थी श्रा• वक व्रत धारी छे. त्यां मास कल्प करतां. प्रथम चोवीसी रचवामां आवी. चोवीमीमांना केटलांक स्तवन पादरामां पूर्ण कर्या. त्यार बाद त्यांथी डभोई जवानुं थयु. सं. १९६५ फागण मुदी ११ ना दीवसे डभोई जइ श्री यशोविजयजी उपाध्यायनी पादुकानां दर्शन को. परमानंद थयो. त्यां श्री यशोविजयजीनी देरी पासे बेमी चोवीसी संपूर्ण रची. अने श्री यशोविजयजी महाराजनी गुंहली स्तुति भजन वगेरे काव्य बनाव्यां. डभोईमां फागण शुदी १४ ना रोज संघ समक्ष होळी करवी नहि एवो ठराव उपदेशथीथयो. डभोइथी वडोदरा आववानुं थयुं वडोदराशहरमां कंटीयाळानी धर्मशाळामां उतरी त्यां केटलांक भजन र च्यां.सांथी मामानी पोळना उपाश्रये आवी सांकेटलांक भजनरच्यां. मामानी पोळमां शा. केशवलाल लालचंद, तथा अमृतलाल तथा माणेकलाल भाविक श्रावको छे. चैत्र सुदी ४ ना रोज श्रीमत् सयाजीराव गायकवाडनी इच्छाना आग्रहथी लक्ष्मी विलास पेले. समां आत्मोन्नति विषयतुं भाषण आप्यु. त्यांथी विहार करी पादरामां आववानुं थयु. वकीलजी मोहनलाल हीमचंदनो पुत्र सवाइ मरण पामवाथी तेमने शोक थयो हतो तेथी उपदेश आपी शांत कर्या. त्यांथी विहार करी खंभात चैत्रशुदी बारसना रोज आवईं थयु. त्यांना पुस्तकोना भंडार जोया. त्यां सात दीवस व्याख्यान आप्यां त्यां परब्रह्मनिराकरणग्रंथ रचवामां आव्यो. त्यांथी नार गाममां आववान थयु खां चार जाहेर व्याख्यान आप्या. त्यांथी पेटलाद, सुणाव थइ वसो आववानुं थ\. वसोमां जाहेर चार भाषणो आप्यां. लोकोने सारी असर थइ. त्यांथी खेडा आवी त्यां एक जाहेर भाषण आप्यु. त्यांथी वैशाख सुदी
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७ ना रोज पार्छु अमदावाद आववानुं थयुं. आ विहारना गामो मां निरुपाधि दशा विशेषतः रहेती हती ते समये जे उद्गार प्रगटया तेनो भजन संग्रह चोथो भाग थयो छे.
कावीठा, बोरसद, डभोई, वडोदरा, पादरा, खंभात, नार, सुणाव, वसो, खेडा वगेरे अन्य गामोमां विहारमां ज आ भाग रचायो छे तेथी सहज स्फुरणाना ज विशेषतः उद्गारो ले ते वांचवामां आवतां आत्मभिमुख चेतना थाय छे.
शेठाणी गंगा बेन के जे शेठ दलपतभाइ भगुभाइनां पत्नी छे. जेनुं नाम जैनोमा जाहेर छे. तेंमना भक्तिना आग्रहथी अमदावादमां चोमासुं गुरु महाराजनी साथै थयुं.
शेठाणी गंगाबेन शेठ लालभाइ दलपतभाइनी मातुश्री छे. शेठाणीतुं जन्म गाम विजापुर ( विद्यापुर ) छे. शेठ जनाशा पीतांबरनी बेन थाय छे. तेमनां पगलांथी लक्ष्मीनी वृद्धि थवा लागी. शेठाणी गंगाबेननी सासु हरकोर शेठाणी हतां अने ते श्री नेमसागरजी महाराजनां श्राविका हतां, शेठ दलपतभाइनो पण श्री नेमसागरजी महाराज उपर पूर्णराग हतो. एक दीवस श्री नेमसागरजी नरोडाए गया हता सां हरकोर शेठाणी दर्शन करवा गयां हतां. शेठाणी गुरु महाराजने वांदी बोल्यां के महाराजजी अन्य लक्षाधिपतियोनी पेठे माराथी गुरु भक्तिनां मोटां कार्य थतां नथी, अहो मारु केबुं भाग्य. आनुं शेठाणीतुं भक्तिनुं वचन सांभळी श्री नेमसागरजी बोल्या के शेठाणी दीलगीर थशो नहि, तमारा पुत्री तमारी इच्छाओ पूर्ण थशे अने धर्मना प्रभावे सारु थशे. अकस्मात् आ प्रमाणे गुरुनी देवीवाणी नीकळवाथी शेठ दलपतभाने व्यापारमां शुभ कर्मयोगे लाभ थवा लाग्यो, प्रतिदिन लक्ष्मी वृद्धि पामबा लागी, नगर शेठीयाना कुंटुंबमां शेठ दलप
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१६ तभाइ प्रसिद्ध अने वळी लक्ष्मीनी पंधरामणी थइ तेथी कीर्तिमां वृद्धि थइ. धर्मनां कार्य विशेषतः करवा लाग्या. श्री नेमसागरजी तथा श्री बुटेरावजी वगेरे पवित्र साधुओनी भक्ति करवा लाग्या. साधुओनी धर्म देशना सांभळवा लाग्या, शेठाणी गंगाबेननां पगलांथी सर्व प्रकारे श्रावकधर्मनी शोभा वधवा लागी, शेठ दल. पतभाइए १९२२ नी सालमा श्रीसिद्धाचलजाना संघ कहाडयो अने तेमां सारी रीते धननो व्यय कर्यो, एक उझमणुं कर्यु तेमां सारी रीते रुपैया वापर्या. शेठ दलपतभाइए सिद्धाचल तीर्थनां धर्म कार्य करवामां तन मन धनथी प्रयत्न कर्यो छे. शेठ. दलपतभाइ भगुभाइए घणां श्रावक योग्य धर्मनां कार्य कयां छे. तेमनो देहोत्सर्ग थयो छे तेमना त्रण पुत्र हाल विद्यमान छे. जैन श्वेतांबर कोन्फरन्सना जनरल सेक्रेटेरी. शेठ लालभाइ दलपतभाइ शेठ. मणिभाइ दलपतभाइ तथा कोठ. जगाभाइ दलपतभाइ बी. ए.
शेठ लालभाइ दलपतभाइ कोन्फरन्सना जनरल सेक्रेटरी त. रीक थया छे. तथा आणंदजी कल्याणजीनी पेढीनो वहीवट सारी रीते करें छे. स्थावर तीर्थनी रक्षामां अग्रगण्य भाग ले छे. शेठ मणिभाइ तथा शेठ जगाभाइथी पण धर्मनां कृत्यो सारी रीते कराओ एम इच्छाय छे. शेठाणीनुं नाम प्रसिद्ध अमर राखवा माटे त्रण पुत्रोए मळी त्रीस हजार रुपैया काढी एक झवेरी वाडाना नाके श्राविकाशाला बांधवानुं नक्की कर्यु छे. तेनो लाभ श्राविकाओने आपवानी सगवडता करवामां हाल प्रयत्न शरु छे श्री रविसागरजी महाराजने गंगा बेन शेठाणी इष्टगुरु स्वीकारे छे. रविमागरजीनी पासे उपधाननी क्रिया प्रथम तेमणे करी हती. नेमसागरजी महाराजनां वाडीवाळां श्राविका शेठाणी रुखमणी तथा मोतिकुंवर थइ गयां ते प्रमाणे गंगा वेन शेठाणीनो श्री रविसागरजी महाराज
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उपर भक्ति राग छे. रविसागरजी महाराजना संघाडामा अग्रगण्य श्राविका हाल ते वर्ते छे. शेठाणीए अनेक तीर्थनी घणीवार यात्राओ करी छे. जंगम तीर्थ साधुओनी पण अनेक यात्राओ करी धर्म देशना सांभळी छे. शेठाणी साधु साध्वीओने पूर्ण भक्तिथी घहोरावीने खाय छे. तपश्चर्या करवामां उत्साही छे. देव गुरुर्नु याराधन यथामति शक्तिथी सारी रीते करे छे. आवी उत्तम शेठाणीना आग्रहथी अमदावादमां सं. १९६५ नुं चोमासु करी भव्य जीवाना हित माटे भजनसंग्रह चोथो भाग तैयार कर्यो छे. आध्यात्मिक भजनो अंतरनी स्फुरणा सहेजे उद्भववाथी बन्यां छे. अने नीति आदि पदो तेवी औपदेशिक स्फुरणालावी बनाव्यां छे.
निष्काम भावनाथी आ प्रवृत्ति थई छे अन्य दर्शनवालाओ पण आ भजनने वांची सन्मार्गमा प्रवर्ते छे. निश्चयनयनी प्राधान्य ताए केटलाक आत्माना आध्यात्मिक उद्गार नीकळ्या छे. केट. लाक व्यवहार नयना प्राधान्यताए उद्गार नीकळ्या छे. ज्यां त्यां नयो बडे सापेक्षबोध समजवो. राग वा कोई विषय न बेसे तो पंडितो पासेथी खुलासो मेळवी निःशंक थकुं. भजनसंग्रहचतुर्थभागमां श्री यशोविजयउपाध्यायकृतसीमंधरजिनस्तवन, तथा बे तेमनां स्तवन तथा परमेष्टीगीता, तथा समुद्रवहाणसंवाद तथा ब्रह्मगीता, सिद्धाचल स्तवन तथा संवत.१३२७ नी सालनो सात क्षत्रनो रास यथामति शुद्ध करी तथा फुटनोट करी छपाव्यो छे. खंभातना भंडारमाथी सात क्षेत्रनो रास शोधतां नीकळ्यो छे. आगळ उपर आ छपायलो रास तथा ते जूनो एम बे बराबर तपासी पूर्ण शुद्ध करी रास छपाववा विचार थशे. गुर्जर भाषाना अभ्यासकोने आ रास असंत उपयोगी थशे. विशेष कंइ भूल. चूक रही होय तो पंडित पुरुषो सुधारशो.
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१८
भव्य जीवाना हित माटे आ पुस्तक अमदावादना शा. मोहनलाल हीमचंदना पुत्रोए पोतानी माता जासुदना स्मरण माटे लक्ष्मीनो व्यय करी छपायुं छे तेथी तेमने तथा वांचकोने सदाकाल लाभ थशे. ज्ञान मार्गमां आवी तेमनी प्रवृत्ति देखी अन्य पण ज्ञानमां लक्ष्मीनो व्यय करशे. आवा पुस्तको छपाववा माटे तेमने धन्यवाद घटे छे. झवेरी चमनभाई मोहनलालना आग्रहथी ग्रंथ छपाव्यो छे. अध्यात्मज्ञानप्रसारक मंडलना सद्ग्रहस्थो तन मन धनथी आवा उत्तम ग्रंथो छपावी प्रसिद्ध करी परोपकार करे छे तेथी ते मंडलना गृहस्थाने धन्यवाद घटे छे. लेखक मुनिबुद्धिसागर - अमदावाद.
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बे बोल. मंडळे शरु करेल ग्रन्थमाळा पैकीनो आ सातमो ग्रन्थ छे. जे ग्रन्थमा मुनिवर्य श्रीमद् बुद्धिसागरजी महाराज रचित स्तवनो पदो उपरांत श्रीमद् यशोविजयजीनी कृतिनां पदो पण छे. हालमां पुस्तको घणी प्रकारनां घणी संस्थाओ तरफथी प्रगट याय छे पण आ शैलीवाळा ग्रन्थो छेल्ला केटलाक सैकाओमा कोइक ज तरफथी लखाया हशे. आवा प्रकारना ग्रन्थनो आ चोयो भाग प्रगट श्रयो छे अने तेज उपस्थी जोइ शकाशे के जनसमा. जमी ते तरफ रुचि वृद्धि पामती जाय छे; केमके विविध विषयोथी भरपूर साथे बोधक, अने रसिक छे. जेम जेम आवा ग्रन्थोनुं वांचन, मनन, वधतुं जशे तेम तेम तत्त्व स्वरूपनो प्रकाश वृद्धि पामशे.
आवा ग्रन्थो प्रगट करवाने समाज तरफथी मंडळने जुदा जुदा ग्रहस्थो तरफथी मदद मळे छे अने तेथी मंडळ पोताना कार्यमा आगळ. वधे छे. मंडळ इच्छे के आ ग्रन्थमाळाना १०८ मणका अनेक ग्रहस्थोनी सहायताथी सत्वर प्रगट थाओ. ____ आ ग्रन्थ अमदावादवाळा शा. मोहनलाल हेमचंद सुपुत्रो तरफनी संपूर्ण मदद करी प्रगट करवामां आव्यो छे जे माटे मंडळ तेओने तेओना द्रव्यनो आ रीते करेला सद्उपयोग माटे धन्यवाद आपे छे.
अध्यात्मज्ञानप्रसारक मंडळ.
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भजनपदसंग्रह चोथा भागनी अनुक्रमणिका.
पत्र.
११-१२
. विषय. ऋषभदेव स्तवनम् अजितनाथ स्तवन संभवनाथ स्तवन अभिनंदन स्तवन सुमतिनाथ स्तवन पद्मप्रभु स्तवन सुपार्श्वनाथ स्तवन चंद्रप्रभु स्तवन सुविधिनाथ स्तवन शीतलनाथ स्तवन श्रेयांसनाथ स्तवन वासुपूज्य स्तवन विमलनाथ स्तवन अनन्तनाथ स्तवन धर्मनाथ स्तवन शान्तिनाथ स्तवन कुंथुनाथ स्तवन अरमभु स्तवन मल्लिनाथ स्तवन मुनिसुव्रत स्तवन नमिनाथ स्तवन नेमिजिन स्तवन
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विषय. पार्श्वनाथ स्तवन महावीर स्तवन कलश सीमंधर स्तवन आत्मभावरमणता सहजस्वरूप वन्दन शुद्ध दृष्टि डभोइ लोढण पार्श्वनाथ स्तवन पुद्गल छत्रीशी यशोविजय उपाध्याय स्तवन । यशोविजयजी गुंहळी उपाध्याय गुंहळी यशोविजय पादुका दर्शन वंदन यशोविजयजी आवाहन मंत्र उपाध्याय स्तवन शुद्ध ब्रह्मज्ञान उपाध्यायजी स्तवन उपाध्याय स्तवन अध्यात्मववचनामृतग्रन्थ ब्रह्मरन्ध्रमा सुरता प्रवेश अजितात्मस्वरूपखुमारी अनुभवामृतखुमारी अधिकारी समजी शके आश्चर्यज्ञान
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विषय. शुद्ध भक्ति स्वानुभव निश्चय सर्वनी उन्नति थाओ
समभाव
सत्य शोधी कीधुं नात जात विसारी
इष्टदेव निमंत्रण
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२२
परना सारामां सारु
करवुं तो न डरबुं
कर्यां कर्म भोगवai
खरी वखत आवी
चेतन हुशियारी धर झटपट चेत
बाह्य धर्म क्रियाडंबर धामधूममां धर्म
...
800
...
...
यशोविजय उपाध्याय आमंत्रण
परोपकार
: :
000
परब्रह्मनिराकरण
उपदेश रत्न देहस्थ आत्मानी परमात्मावस्थानुं स्मरण
...
...
400
...
...
098
...
...
शुद्ध परमात्म स्वरूप स्मरण ... चित्तशक्ति सामर्थ्य
परमज्योति पद आश्चर्य पद
07.
...
444
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⠀⠀⠀⠀⠀
605
...
...
DOP
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पत्र.
५७
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2
V
.
विषय. जाग्रति सदुपदेश सोऽहं उच्चभाव जुभो तपासी मैत्रीभावना धारो निन्दा त्याग एक स्वप्न परिग्रहममता शा माटे वाद करवो कपट क्रियामां पाप हे आत्मा तुं वस्तुतः सिद्ध छे... गाडरीया प्रवाहनी अंधाधुंधी... आप बडाइ शा माट चिंता करवी कलेश, साज्य छे ज्ञानी कहेणी रहेणी विधा हांसी दया वेश्या संग परनारी संग समाधिलय सदाचार
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पत्र.
१०७
१०९
१०९
११०
१११
११२
विषय. नगरशेठ पुत्रो आत्मशक्ति स्त्रीलववी दुःख समयमा समता सुखनी शाध परापकार धीर प्रशंसा सत् पुत्र प्रशंसा पितृ लक्षण जननी लक्षण पुत्री प्रशंसा मित्र प्रशंसा हितवचन धर्म भेद दयाभाव भलं करनार उत्तम जाति गुरु निन्दा कलंक पाप सहुंनुं सारु इच्छो कलेश न करवो बाळलग्न खंडनमंडनमा सार नथी. ... हानिकारक रीवाजोनो त्याग करवो.. समाधि
११४ ११५ ११७ ११८ १२० १२१ ૨૨
१२३
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पत्र.
१३६ १३७ १३८
१४१ १४२
१४२
विषय. सुरता ब्रह्मरन्ध्र ध्यान सर्व स्वात्मवशं सुखं आत्मशक्ति चिदानन्द स्वरूप खटपट खोटी माया ममता संतो चेत्या प्रभु प्रीति गुरु स्तुति समज साधु निश्चय रहस्य प्रभु स्तुति आत्म साधन आत्मविवेक परमप्रभुता चित्तने शिक्षा सत्य जाणे शुं दुनिया दिवानी पत्र संदेशो संसारनी आनसता जगत्नुं भलु इच्छवू सिद्धांत बोध संसारमा सुधरो
१४४ १४५
१४५
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पत्र. १५८
९५९
...
१६० १६१ १६२ १६३
१६४
१६५ १६६ १६७
१७२
विषय. शुद्ध स्वरूप प्राप्तव्य छे मातः स्मरणीय हितशिक्षा ... हितशिक्षारत्न उच्चबोध अन्तरमा सुरता प्रवेशना उद्गार योगी चतन हंसीनो चेतन हंसने उपालंभ जोया बाद सार नथी क्षमापना निश्चय व्यवहार गर्भित सीमंधर स्तवन आनंदघनजी कृत योगपद ... यशोविजय कृत पंचपरमेष्ठी गीता यशोविजय कृत पार्श्वनाथ भावस्तवन यशोविजय कृत ऋषभ स्तवन यशोविजय कृत शीतलनाथ स्तवन यशोविजय कृत समुद्रवहाण संवाद श्री ज्ञानसार भाव षड्विंशिका गुंहळी मूर्ति पूजन महिमा गुर्जर भाषामां षष्टक श्री सात क्षेत्रनो रास
सं. १३२७ नी सालनो श्री यशोविजय वाचककृत ब्रह्मगीता .. श्री यशोविजयकृत आदिजिन संस्कृत स्तवन
१७३
do
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२४१
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५
विषय. मनोभ्रमर श्री सद्गुरुसत्तरी सांवत्सारकक्षमापना वाणी अवळीवाणी अन्त्यमंगलम्
पत्र. २६७ २६८ २७१ २७२
२७३
२७४
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अथ श्री
योगनिष्ठ मुनिवर्य बुद्धिसागरमहाराज कृत स्तवनपद (भजन) संग्रह. चतुर्थ भाग आरभ्यते.
ऋषभदेव स्तवनम्.
प्रथम जिनेश्वर प्रणमीए-ए राग.
ऋषभ जिनेश्वर वंदना, होशो वारंवार;
पुरुषोत्तम भगवान निराकार संत छो, गुणपर्याय आधार. ए टेक. उत्पत्ति व्यय धौव्यता, एक समयमां हि जोय; पर्यायार्थिकनयथी व्यय उत्पत्ति छे, द्रव्यथकी ध्रुव होय. ऋ. १ त्स करतां सामर्थ्यना, होय पर्याय अनन्त;
अगुरु लघुनी शक्ति ते तेहमां जाणीए, अनन्त शक्ति सतत. ऋ २ परमभाव ग्राहक प्रभु, तेम सामान्य विशेषः
ज्ञेय अनन्तनुं तोल करे प्रभु ताहरो, क्षायिक एक प्रदेश. ऋ. ३ स्थिरता क्षायिक भावथी, मुखथी कही नहि जाय;
अनन्त गुण निज कार्य करे लही शक्तिने, उत्पत्ति व्यय पाय. क्र. ४ गुण अनन्तनी धौव्यता, द्रव्यपणे छे अनादिः
गुणनी शुद्धि अपेक्षी पर्याये करी, भंगनी स्थिति छे सादि. ऋ. ५ सादि अनंति मुक्तिमां सुख विलसो छो अनंत;
सुख ज्ञेयादिक ज्ञानमां ज्ञाता जगगुरु, ज्ञान अनंत वर्हत. ऋ. ६ रागद्वेष युगल हणी, थइया जग महादेव;
बुद्धिसागर अवसर पामी भक्तिथी, पामे अमृतमेव.
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ऋ.
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अजितनाथ स्तवनम. श्री संभवजिन ताहरुरे, अलख अगोचर रूप-ए संग. अजित जिनेश्वर सेवनारे. करतां पाप पलाय; जिनपरेसची सेको सेवोरे भविकजन सेवो, प्रभु शिव मुख दायक मेवो. प्रभु सेवे सिद्धि मुहाय.-जिनवर.-एटेक. मिथ्या मोह निवारीनेरे. क्षायिक रत्न ग्रहाय जिनवर. चारित्र मोह हठावतारे, स्थिरता क्षायिक थाय; जिनवर. १ क्षपक श्रेणि आरोहीनेरे, शुकल ध्यान प्रयोग. जिनवर. ज्ञानावरणीयादिक हणीरे, क्षायिक नव गुण भीग, जिनेवर. १ अष्टकमना नाशथीरे, गुण अष्टक प्रगटायः जिनवर. एक समय सम श्रेणिएरे, मुक्तिस्थान मुहाय. जिनवर. ३ नात्यंताभाव मुक्तिनोरे, जडिममयी नहिं खास. जिनवर. व्योमपरे नहि व्यापिनीरे, नहि व्यावृत्ति विलास; जिनवर. ४ सादि अनंति स्थितिथीरे, सिद्धबुद्ध भगवंत जिनवर. झळहळ ज्योति ज्यां जगममेरे, शेयतणो नहि अंत जिनवर. ५ परज्ञेय ध्रुवता त्रिकालमारे, उत्पत्ति व्यय साथ; जिनवर. निजज्ञेय ध्रुवता अनन्तनोरे, पर्यायसह शिवनाथ. जिनवर. ६ परजाणे परमां न परिणमेरे, अशुद्धभाव व्यतीत? जिनवर. बुद्धिसागर ध्यानथीरे, थावे ध्यानी अजित. जिनवर.७
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श्री संभवनाथ स्तवनम्.
देखो गति दैवनीरे-ए राग. संभवजिन तारशोरे, तारशो त्रिभुवननाथ संभव जिन तारशोरे.
निमित्त पुष्टालबनेरे, साध्यनी सिद्धि करायः उपादाननी शुद्धतारे, निमित्त विना नहि थाय. संभष. १ द्रव्य क्षेत्र काल भावथीरे, निमित्तना बहु भेद; ज्ञान दर्शन चारित्रनारे, निमित्त टाळे खेद. संभव. २ शुद्धदेव गुरु हेतुछेरे, उपादान करें शुद्धिः उपादान अभिनछेरे, कार्यथी जाणो बुद्ध. संभव. ३ कार्य द्रव्यपी भिन्नछरे, निमित्त हेतु व्यवहार; शुद्धादिक षड भेदछेरे, व्यवहार नयना धार. संभव. ४ भित्र निमित्त पण कार्यमारे, उपादान करे पुष्टि; निमित्त वण उपादानथीरे, थाय न साध्यनी सृष्टि.संभव. ५ पुष्टालंबन जिनविभुरे, आदर्यो मन धरी भाव, उपादाननी शुद्धिमारे, बनशे शुद्ध बनाव. संभव. ६ त्रिकरण योगथी आदर्यो रे, मन धरी साध्यनी दृष्टि बुद्धिसागर सुख लहरे, पामी अनुभव सृष्टि. संभव. ७
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अभिनंदन स्तवनम्.
पद्म प्रभु तुम मुज आंतरु-ए राम. अभिनन्दन जिनरूपने, ध्यानमा स्मरणथी लावु रे। ध्यानमां लीनता योगथी, सुख अनन्त घट पाचुरे.. अभि. ? मन वच कायना योगनी, स्थिरता जेहं प्रमाणरे; तदनुगत वीर्यता उल्लसे, भाव भयोपशम मुख खाणरे. अभि. २ असंख्यप्रदेशमयी व्यक्तिमां, ध्यानथी ऐकयता थायरे) पंडित वीर्य त्यां संपजे, उज्ज्वल अध्यवसायरे. अभि. ३ क्षण क्षण उज्ज्वल ध्यानमां, प्रगटतो सहज आनन्दरे बाह्य जड विषयना सुखनो, वेगथी नासतो फन्दरे. अभि. ४ अन्तरशुद्धपरिणति थकी, भावी होय निज मुक्तिरे; शुद्ध नय स्थापना सहजथी,प्रगटती ए तत्त्वनी युक्तिरे० अभि. ५ क्षयोपशम ज्ञान वीर्यथी, क्षायिक धर्म ग्रहायरे निर्विकल्प उपयोगमां, श्रुतज्ञान एक स्थिर थायरे. अभि ६ भावश्रुतज्ञान आलंबने, जीव ते जिनरूप थायरे, बुद्धिसागर शिव संपदा, मंगलश्रेणि पमायरे अभिनंदन. ७
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सुमतिनाथ स्तवनम्. विरति ए सुमति धरो आदरो, ए राग. मुमति जिनेश्वर शुद्धता, बुद्धता परम स्वभावरे अस्तिता नास्तिता एकता, ज्ञातृता नहि परभावरे. सुमति. १ भिन्न अभिन्नता नित्यता, तेम अनिस पर्यायरे एकसमयमाहि संपजे, पर्याय उपजे विलायरे. सुमात. २ अगुरु लघु पर्यायनी, शक्ति अनन्ति सदायरे परिणमे असंख्य प्रदेशमा, कारक पद् उपजायरे. मुमति. ३ आदि अनादि षद्कारको, व्यक्तिपणे एकेक प्रदेशरे। अनादि अनन्त स्थिति शक्तिथी, कारक पद् लहो बेशरे.सुमाति.४. एक अनेकता वस्तुमां, निस अनित्यता धाररे; समय सापेक्ष विचारता, होय अनेकान्त विस्ताररे. सुमति. ५ सदसत् कथ्य अकथ्य छे, जिनवर धर्म अनन्तरे; ज्ञानमा आयनी भासना, जाणे एक समय भदन्तरे. सुमति. ६ सम्पम् ज्ञान प्रमावथी, मभु तुज रूप जणायरे; चारममाणने भंगीथी, धर्म अनेक परखायरे. सुमति. ७ मन वच काय अतीत तुं, आदर्यो योगथी साररे; तुजमुज ऐक्यता संपजे, बुद्धिसागर निर्धाररे.
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पद्मप्रभु स्तवन. विरति ए सुमति घरी आदरो, ए राग. पन प्रभु अलख निरञ्जन, सिद्धना आठ गुणधारीरे साकार उपयोग चेतना, निराकार जयकारीरे. प्रम. १ अजर अमर अयोचर विभु, नाम न रूप न जातिरः जमगुरू जय श्री चिंतामणि, प्रण भुवनमाहि ख्यातिरे. पन. २ उपमातीत परमातमा, अनुभव विण न जणायरे दिशी देखाडी आगम रहे, अनुभवे प्रभु परखापरे. पन. ३ सद्गुरु तीर्थ उपासना, स्यादाद सूत्रनो बोधरे। परंपर गुरुगम जोडतक, करे भत्री जिनवर शोधारे. पत्र. ४ ज्ञानना मानमा ध्यान छे, ध्यावधी होय समाधिरे परम प्रभु एक तानमां, भेटतां जाय उपाधिरे. पा.५ अनुभव अमृत स्वादता, चित्त अन्यत्र न जायरे चकोर ज़ेम चंद्र तेम रावतुं, परम प्रभुरूप मांबरे. पा. ६ सुख अनंतनी रात्रिमा, जीवनमुक्तपद प्रायो। बाहनां सुख रूचे नहि, निश्चय सुख निज मांखरे. पा. ७ परपरिणति रंग परिहरी, शुद्ध परिणतिमाहि रंगरे बुद्धिसागर जिनदर्शन, देखवा मेम अभंगरे.
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सुपार्श्वनाथ स्तवनम् .
नदी यमुनाके तीर ए-रागः सुपार्थ प्रभु जिनराज केपाल तारशी, वीनतडी मुज प्रेम धरीने स्वीकारशो; राग द्वेष अन्याय नृपति जीर टाळशी, शुद्धरमणता सन्मुख दृष्टि पाळशो. विषय वासना पासथी प्रभुजी छोडावजी, परम दयालु देव दया दील हावी; अनुभव अन्तरदृष्टिनी सृष्टि जगावजी, परमानन्दतुं पात्र चतन मुज थावजो. केवलज्ञाननी ज्योतिमी ज्ञेय अभिन्न छ, परद्रव्यादिक ज्ञेय थकी पळी भिन्न छ ज्ञेयाकारे ज्ञान परिणमे जाणजो, भिन्नाभिन्न स्वरूप अनेकांत आणजो. ज्ञेयापेक्षे ज्ञान अनन्तुं जिन कहे, ज्ञेयनी पास ज्ञान गया वण सहु लहे; दर्पण फ्याइ न जाय दर्पणमा समाय छे, ज्ञेयाकारीभावो ए दृष्टांत न्याय छे. दूरवर्ती जे ज्ञेय ज्ञानमांहि भासतो, ज्ञान अचिन्त्यस्वभाव हृदयमा आवतो;
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ज्ञेय विना सहु शाननी शून्यता जाणीए, षड् द्रव्यो पर्याय अनन्त मन आणीए. अस्ति विना न निषेष घटे कोइ द्रव्यनो, द्विवण नहि अद्वैत निषेध केम सर्वनो . द्वैतर्नु ज्ञान थया वण अद्वैत शुं कहो, भासे ज्ञानमा द्वैत ससभाव सहहो. द्रव्य अने पर्यायथी ज्ञेय अनन्तता, वस्तुधर्म स्याद्वाद त्यां एकानेकता: ध्रुवता लेयना द्रव्यपणे नित्यता खरी, उत्पत्ति व्यय क्षेय अनित्यता अनुसरी. जीवद्रव्य एक व्यक्ति अनादि अनंत छ, गुण पर्यव आधार चेतनजी सन्त छे. बुद्धिसागर जिनवर वाणी सद्दहे, समकित श्रद्धायोगे अपेक्षा सहु लहे.
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चंद्रप्रभु स्तवनम्। ए अब शोभा सारी हो मल्लिजिन. ए राग. चंद्र प्रभु पद राचुं हो, चिद्धन, चंद्रप्रभु पद राचु, मन मान्यु ए साधु हो चिद्घन, चंद्रप्रभु पद राचुं. शुद्ध अखंड अनन्त गुण लक्ष्मी, तेना प्रभु तमे दरिया) सत्ताए ज्ञानादिक लक्ष्मी, व्यक्तिपणे तमे धरिया हो. चि. १ अनाघनन्तने आदि अनन्त, सत्ता व्यक्ति मुहाया; अस्तिनास्तिमय धर्म अनन्ता, समय समयमा पाया हो. चि. २ क्षपक श्रेणिए उज्जवल ध्याने, घातक कर्म खपाव्यां दग्ब रज्जुवत् कर्म अघाति, तेरमे चउदमे नसान्यां हो. चि. ३ केवळ हाने ज्ञेय अनन्ता, समय समय प्रभु जाणो; अव्यावाध अनन्तु वीर्य, समय समय प्रभु माणो हो चि. ४ ऋद्वि तमारी तेवीज मारी, कदीय न मुजी न्यारी चंद्र प्रभु आदर्श निहाळी, आत्मिक रूद्धि संभारी हो. चि. ५ निज स्वजाति सिंह निहाळी, अजन्दगत हरि चेत्यो, निज स्वजातीय सिद्ध संभारी, जीव स्वपदमां वहेतो हो. चि. ६ अन्तर दृष्टि अनुभव योगे, जागी निजपद रहियों बुद्धिसागर परम महोदय, शाश्वत लक्ष्मी लहियो हो. चि. ७
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सुविधिनाथ स्तवन.
नदी यमुनाके तीर-ए गग. मुविधि जिनेश्वर देव दया दीनपर करो, करुणावंत महंत विनति ए दील धरो भवसागरनी पार उतारो कर ग्रही, शक्ति अनन्तना स्वामी कहावोछो मही. तमनो शो छ भार कहो रवि आगळे, कीडीनो शो मार के कुंजरने गळे कर्मतणो शो भार प्रभुजी तुम छते, सिंहतणो शो भार अष्टापद त्यां जते. शुं खद्योतनुं तेज रवि ज्यां झळहळे, तेंम शुं मोहर्नु जोर के उपयोग नीकळे; ससलानुं शुं जोर सिंह आगळ अहो, अनेकांत ज्या ज्योति एकांतनुं शुं कहो परम प्रभु वीतराग राग त्यां शुं करे, देखी इन्द्रनी शक्ति के सुरसहु करगरे; माणजीवन वीतराग हृदयमा मुज वश्या, ते देखी मोह योधके सहु दूरे खस्या. गुण पर्यायाधार स्मरण हारु खरु, ध्यान समाधि योगे अलख निज पद वरु; परम ब्रह्म जगदीश्वर जय जिनराजजी, शरणे आव्यो सेवक राखो लाजजी.
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वार वार शी वीनति जाणो सहु कडं, चार लगाहो न लेश दुःख में बहु सयुं; बुद्धिसागर सत्य भक्तिथी उद्धारजो, चन्दन वार हजार विनति ए स्वीकारजो.
श्री शीतलनाथ स्तवनम्.
प्रीतलडी.१
पीतलडी बंधाणीरे शीतल जिणंदरों, प्रभु विना क्षण मात्र नहि सोहायजो; प्रेमी विना नहि बीजो ते जाणी शके, रूप प्रभुनुं देखी मन हरखायजो. अन्तरना उपयोगे प्रभुजी दिल वश्या, भक्ति आधीन प्रभुनी माण सनापजो; अनुभवयोगे रंज मजीठनो लागीयो, त्रणभुवनना स्वामी आव्या हायजो. जेम प्रभुना दर्शनमा स्थिरता थती, तेम प्रभुजी आनन्द आपे बेशजो, आनन्द दाता भोक्तानी थइ ऐक्यता, चढी खुमारी यादी आपे हमेशजो. आत्माऽसंख्य प्रदेशे शीतलता खरी, अवधूत योगी प्रगटावे सुख कंदजो
पीतलडी. २
भीतलडी. ३
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१२
औदपिक भाव निवारी उपशम आदिथी; टाळे सघळा मोहतणा महाफंदजो. प्रीतलडी. ४ गुणस्थानक निःसरणि चढतो आतमा, उज्ज्वल योगे पामे शिवपुर म्हेलजो सायिक भावे सुख अनंतु भोगवे, निजपद ध्रुवता धारी करतो स्हेलजो. भीतलडी. ५ बाह्य भावनी सर्व उपाधि नासतां, प्रभु विरहनो नाश थशे निर्धारजो अनुभव योगे रंगायो जिनरूपमां, थार्थं प्रभु समा अन्ते जयकारजो. प्रीतलडी.६ निजगुण स्थिरतामा रंगावू सहजथी, षस्तु धर्म ज्ञानादिक तुं आधारजो; बुद्धिसागर अनुभव वाजां वागीयां, भेटया शीतल जिनवर जग जयकारजो. प्रीतलही. ७
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१३ श्रेयांसनाथ स्तवन.
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श्री वीर प्रभु चरम ए राग.
श्रेयांस प्रभु अन्तर्यामी, क्षायिक नवलब्धि धणी, त्राता भ्राता परोपकारी, निर्भय योगी दिनमणि. प्रभु शुद्धस्वरूप त्हारु जेवुं प्रभु शुद्ध स्वरुप म्हारु तेवुं . उज्ज्वल ध्याने खेंची लेवुं,
श्रेयांस. १
प्रभु नाम रुपथी भिन्न खरो, प्रभु अनन्त सुखनो भव्य झरो; में स्थिर उपयोग दील धर्यो,
श्रेयांस. २
उत्पत्ति व्यय ध्रुवता भोगी, योगातीतपण निर्मल योगी; कर्मातीत तुं नीरोगी,
श्रेयांस ३
ध्याने प्रभुनी पासे जावुं, साधनथी साध्यपणुं पावुं; ज्ञानादर्शे प्रभु घटलावं,
श्रेयांस ४
प्रभु दर्शन देजो शिव रशिया, प्रभु प्रेमे म्हारा दिल वसिया; स्थिर उपयोगे जिन उल्लसिया, श्रेयांस. ५
प्रभु परममहोदय पद आपो, प्रभु जिन पदमां मुजने थापो कयी कर्म अनादि सहु कापो,
श्रेयांस. ३
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प्रभु उपादान योगे आवो, भक्तिथी निज गुण विरचावो, बुद्धिसागर मळीयों रहावो.
श्रेयांस. ७
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१४
वासुपूज्य स्तवनम्. गिरुआरे गुण तुम तणा. ए राग.
वासुपूज्य त्रिभुवन धणी, परमानन्द विलासीरे;
अकळकळा निर्भय प्रभु, ध्याने नासे उदासीरे. वासुपूज्य, १ जगजीवन जगनाथ छो, परमब्रह्म महादेवारे;
वासुपूज्य. ३
व्यापक ज्ञानथी विष्णु छो, सुरपति करे पद सेवारे. वासुपूज्य २ आदि अनन्त तुं व्यक्तिथी, एवंभूतथी योगीरे; अनायनन्त सत्तापणे, गुणपर्यवनो भोगीरे. व्याप्य व्यापकता अभेदता, ज्ञाताज्ञेय अभेदीरे; भिन्नाभिन्न स्वभाव छे, वेदरहित पण वेदीरें. परम महोदय चिन्मणि, अजरामर अविनाशीरे; नित्य निरञ्जन सुरमयी, व्यक्तिशुद्ध प्रकाशीरे. वासुपूज्य. ५ निरक्षर अक्षर विभु, जग बंधव जग त्रातारे; क्षायिक नवलब्धि धणी, ज्ञेय अनन्तना ज्ञातारे. वासुपूज्य. ६
वासुपूज्य. ४
पुरुषोत्तम पुराण तुं, तुज ध्याने सुख लहीभुंरे; बुद्धिसागर शुद्धता, पामी जिनपद रहीभुंरे.
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वासुपूज्य ७
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विमलनाथ स्तवनम् .
विमल. १
विमल. २
विमल. ३
ज्यां लगे आतम तत्वन-ए राग. विमल जिन चरणनी सेवना, शुद्ध भावे कर अन्तर ज्योति झळहळे, शिव स्थानक ठरशुं पुद्गल भावना खेळथी, चित्त वृत्ति हठावू; परमानन्दनी मोजमा, निर्मल पद पावू. अन्तर रमणता आदरी, ध्रुवता निजवरशुं; मनमोहन जग नायना, उपयोगथी तरहूं. असंख्यप्रदेशी आतमा, नित्यानित्य विलासी; स्थाद्वादसत्तामयी सदा, जोता टळती उदासी. पुद्गल ममता त्यागीने, अन्तरमा रहीरों अनुभव अमृत स्वादथी, अक्षय सुख लहीशं. काया वाणी मनथकी, विमलेश्वर न्यारो शुद्ध परिणति भक्तिथी, भेटीशुं प्रभु प्यारो. स्थिर उपयोग प्रभावथी, एकधातथी मळशृं; बुद्धिसागर भक्तिथी, ज्योति ज्योतमां भळशुं.
विमल. ४
विमल. ५
विमल ६
विमल.७
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१६ अनंतनाथ स्तवन.
शांति जिन एक भुज, ए राग.
अनन्त जिनेश्वर नाथने, वन्दतां पाप पलायरे;
रवि आगळ तम शुं रहे, प्रभु भजे मोह विलायरें अनन्त. १ अनन्त गुणपर्यायपात्र : तुं, व्यक्ति एवंभूत साररे; संग्रह नय परिपूर्णता, ध्याता ते व्यक्तिथी धाररे. अनन्त. २ उपशमभाव क्षयोपशमथी, साध्यनी सिद्धि करायरे; धर्म निज वस्तु स्वभावमां, स्थिर उपयोग मुद्दायरे अनन्त ३ ज्ञानदर्शन चरणगुण विना, व्यवहार कुल आचाररे; साध्यलक्ष्ये शुद्ध चेतना, जाणवो शुद्ध व्यवहाररे. अनन्त. ४ द्रव्य क्षेत्र काल भावथी, पर्याय द्रव्य अनन्तरे;
शुद्ध आलंबन आदरी, व्यक्तिथी थाय भदंतरे. अनन्त. स्वकीय द्रव्यादिक भावथी, अनंतता अस्तिपणे साररे, पर द्रव्यादिक अस्तिनी, नास्तिता अनन्त विचाररे अन. ६ वीर्य अनन्त सामर्थ्यथी, उत्पाद व्यय प्रति द्रव्यरे; छति पर्यायथी ध्रुवता, समय समयमांहि भव्यरे. अनन्त ७ धर्म अनन्तनो स्वामी तुं, ध्यानमां ध्येय स्वरूपरे; बुद्धिसागर निज द्रव्यनी, शुद्धि ते जय जिन भूपरे अनन्त. ८
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धर्मनाथ स्तवनम्.
धर्म जिनेश्वर गाउ रंगश्यु-ए राग. धर्म जिनेश्वर वंदु भावथी, वस्तु धर्म दातार जगत्मांड वस्तु स्वभाव ते धर्म जणावता, षद् द्रव्योमांहि सार. जगत्मां. १ ज्ञेय हेय आदेय जणावता, सकल द्रव्यछेरे ज्ञेय; जगत्मा " उपादेय चेतननो धर्म छे, पुद्गल आदिरे हेय. जगत्मा. २ भावकर्म ते रागने द्वेष छे, काल अनादिथी जाण, जगत्मा. द्रव्यकर्मनुं कारण तेह छ, नोकर्म निमित्त आण, जगत्मां. ३ अशुद्धपरिणति योगे बंध छ, शुद्ध परिणतिथी छे मुक्ति, जगत्मा; अन्तरचेतनसन्मुख योगथी, शुद्ध उपयोगनी युक्ति, जगत्मा ४ कर्ता हर्ता चेतन कर्मनो, बाहिर अन्तर योग, जगत्मा आत्मस्वभावे रमणता आदरे, प्रगटे शिव सुख भोग, जगतमा ५ मुख अनन्तनी लीला ध्यानमां, चेतन अनुभव पाय, जगत्मा ध्रुवयोगतणी स्थिरता होवे, वीर्य अनन्त प्रगटाय, जगत्मा. ६ सविकल्पसमाधि शुभउपयोगमां, ध्याता ध्येयनो भेद, जगत्मा; शुद्धउपयोगे शुद्ध समाधिमां, टळतो विकल्पनो खेद, जगत्मा. ७ अन्तरमा उतरीने पारखो, निर्मल सुखनोरे नाथ, जगत्मा; बुद्धिसागर समता एकता, लीनता योगे सनाथ, जगत्मा
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शान्तिनाथ स्तवनम्.
साहिब सांभळोरे संभव. ए राग. शान्तिनाथजीरे, शान्ति साची आपो; उपाधि हरीरे, निज पदमां निज थापो.. शान्ति. १ शान्ति केम लहुरे, तेनो मार्ग बतावो; विनति माहरीरे, स्वामी दीलमां लावो. शान्ति. २ शान्ति प्रभु कहेरे, धन्य तुं जगमा प्राणी शान्ति पामवारे, मनमा उलट आणी.
शान्ति. ३. जड ते जडपणेरे, चेतन ज्ञान स्वभाव भेदज्ञानना योगयीरे, समकित श्रद्धा थावे. शान्ति. ४ सद्गुरु परंपरारे, आगमना आधारे उपशम भावधीरे, शान्ति घटमां धारे. शान्ति. ५ साधु संगतेरे, पामी ज्ञाननी शक्ति समता योगथीरे, प्रगटे शान्ति व्यक्ति. शान्ति. ६ चेतन द्रव्यनुरे, कर ध्यान ज भावे चंचलता हरे रे, साची शान्ति आवे. शान्ति. ७ सख समाधिभारे, शान्ति सिद्धि बतावे; रसीया योगियोरे, शान्ति साची पावे. शान्ति ८ सिद्ध समा थईरे, शान्ति रूप सुहावे; स्थिर उपयोगथीरे, बुद्धिसागर पावे. शान्ति. ९
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कुंथुनाथ स्तवनम्
सांभलजो मुनि-ए राग. कुंथु जिनेश्वर जगजयकारी, चोत्रीस अतिशय धारीरे; पांत्रीस वाणी गुणथी शोभे, समवसरण मुखकारीरे. कुंथु. १ वस्तुधर्म स्याद्वाद प्ररूपे, केवलज्ञानथी जाणीरे; धर्म ग्रही पाळी शिव लेवे जगमाहि बहु प्रागीरे. सप्त भंगीने सात नयोथी, षड् द्रव्योने जणावेरे; उपादेय चेतनना धर्मो, बोधी शिव परखावेरे. कुंथु. ३ शुध्धुं आत्म स्वरूप बतावी, मिथ्या भर्म हठाधेरे अस्तिनास्तिमयधर्म अनन्ता, द्रव्य द्रव्यमा भावेरे. चार निक्षेपे चार प्रमाणे, वस्तु स्वरूपने दाखेरे। द्रव्य क्षेत्रने काल भावथी, वस्तु सरूपने भाखेरे. कुंथु. ५ आनन्दकारी जगहितकारी, गुणपर्यायाधारीरे; उत्पत्ति व्यय ध्रुवतामयी प्रभु, शाश्वत पद सुखकारीरे, कुथु. ६ जिन स्वरूप थइ जिनवर सेवी, लहीए अनुभव मेवारे बुद्धिसागर ज्ञान दिवाकर, सहज योग पद सेगरे. कुंथु.७
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अरप्रभु स्तवनम्
तुम बहु मंत्रीरे साहिवा. ए राग. अरजिनवर प्रभु वन्दना, होजो वारंवार; क्षायिक रत्नत्रयी वयों, शुद्ध बुद्धावतार. अर. १ अष्टकर्मना नाशथी, अष्ट गुण धरंत; गुण एकत्रीशने ते धर्या, साध्य सिद्धि वरंत. क्षपकश्रेणि रणक्षेत्रमां, हण्यो मोह प्रचंड त्रिभुवनमा साम्राज्यनी, चलवी आण अखण्ड. अर. ३ घाति कर्म प्रकृति हरी, पाम्या केवलज्ञान; पुरुषोत्तम अरिहामभु, दीधुं देशना दान. अर. ४ योगविकार शमाविने, शेष कर्म जे चार; हणीने शिवपुर पामीया, धन्य धन्य अवतार. अर. ५ सुज पगले अमे चालशु, पामीने परमार्थ अनुभव रंगे भेटीने, प्रभु थइथं सनाथ. अर. ६ प्रेम भक्ति उत्साहमां, श्रुतज्ञाने दिल लाय; पुद्धिसागर ध्यानमां, प्रभुता घटमांहि पाय. __ अर.७
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२१ मल्लिनाथ स्तवनम्.
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स्वामी सीमंधर बीनति. ए राग.
मल्लिजिन सहज स्वरुपनुं, वर्णन कहो केम थायरे; वैखरी वर्णन शुं करे, कई परामहि परखायरे.
मल्लि. :
परमब्रह्म पुरुषोत्तम, अनंगी अनाशी सदायरे; विमल परम वीतरागता, अखय अचल महारायरे, मलि. २ निर्भय देशना वासीजे, अजर अमर गुणखाणरे; सहज स्वतंत्र आनन्दमां भोगवो शिव निर्वाणरे. मल्लि ३
चेतन असंख्य प्रदेशमां, वीर्य अनंत प्रदेशरे;
मल्लि• ५
छति शुद्धसामर्थ्य भावथी, वापरो समये निःक्लेशरे. मल्लि. ४ त्रिभुवन मुगुट शिरोमणि, परम महोदय धर्मरें; जगगुरु परमबंधु विभु, सादि अनन्त सुशर्मरे. अलख अगोचर दिनमणि, अविचल पुरुषपुराणरे सत्य एक देव तुं जगधणी, धारु हूं शिर तुज आणरे मल्लि. ६ मल्लिजिन शुद्ध आलंबने, सेवक जिनपणुं पायरे; बुद्धिसागर रस रंगमां, भेटिया चिद्घनरायरे.
मल्लि. ७
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२२ मुनिसुव्रत स्तवनम्.
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तार हो तार प्रभु मुज सेवक भणी-ए राग.
तार हो तार प्रभु शुद्ध दिनकर विभु, शरण तुं एक छे मुख स्वामी ज्ञान दर्शन धणी सुख ऋद्धि घणी, नामी पण वस्तुतः तुं अनामी तार १ भोगी पण भोगना फंदथी वेगळो, योगी पण योगथी तुं निराळो; जाणतो अपरने अपरथी भिन्न तुं, विगत मोही प्रभु शिव म्हालो तार२ द्रव्य क्षेत्र अने कालने भावथी, आत्म द्रव्ये प्रभु तुं सुहायो; स्वगुणनी अस्तिता नास्तिता परतणी, शुद्ध कारकमयी व्यक्ति पायो ३ शुद्ध परब्रह्मनी पूर्णता पामीने, विष्णु जगमां प्रभु तुं गवायो कर्म दोषो हरी हर प्रभु तुं थयो, सत्य महादेव तुं छे सवायो. तार तार४ शुद्धरूपे रमी राम तुं जग थयो, शुद्ध आनन्दतानो विलासी; रहेम करतां थयो शुद्ध रहेमान तुं, शुद्ध चैतन्यता धर्म काशी. तार.५ नामने रूपथी भिन्न तुं छे प्रभु, जाण तो तत्त्व स्याद्वाद ज्ञानी; शरण तारू ग्रह्यं चरण तारू लहुं, रही नही वात हे नाथ छानी. तार६ भक्तिना तोरना जोरमां प्रभु मळ्या, सहज आनंदना ओघ प्रगटया; जाणुंपणकही शकुं म निर्वाच्यने, सकळ विषयोतणाकंद विघठ्या. ता७ एकता लीनता भक्तिना तानमां, घेन आनंदनी दील छबाइ; बुद्धिसागर प्रभु भेटीया भावथी, मुक्तिनी घेर आवी वधाइ. तार.८
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२३ नमिनाथ स्तवनम्.
ए गुण वीर तणो न विसारु ए राग.
नमि, १
नमि. ३
नमि जिनवर प्रभु चरणमां लागुं, शुद्ध रमणता मार्गरे; बाह्य परिणति टेव निवारी, शुद्धोपयोगे जागुंरे. अन्तरदृष्टि अमृतवृष्टि, सहजानन्द स्वरुपरे तन्मयता प्रभु साथै करती, शुद्ध समाधि अनुपरे नमि. २ असंख्यमदेशी चेतनक्षेत्र, गुण अनंत आधाररे; उत्पत्ति व्यय ध्रुवता समये, द्रव्यपणुं जयकाररे. ज्ञानचरण पर्यायनी शुद्धि, मुक्ति प्रभु मुख भाखेरे; अस्तिनास्तिनी सप्त भंगीथी, षड् द्रव्पोने दाखेरे नमि. ४ शद्वादिक नयशुद्ध परिणति, उत्तर उत्तर साररे; कारणे कार्यपशुं नीपजावे, द्रव्यभावे निर्धाररे. निमित्त पुष्टालंबन सेवी, उपादान गुण शुद्धिरे; शुद्धरमणता योगे करतो, पामे क्षकि ऋद्धिरे. सुखसागर कल्लोले चढीयो, लही सामर्थ्य पर्यावरे; शुद्ध परिणति चंद्र प्रकाशे, आनन्द क्यांय न मायरे नाम, ७ शुद्ध परिणति चरण शरणमां, शुद्धोपयोगे रहीशं रे; बुद्धिसागर ज्ञान दिवाकर, स्वपरमकाशी थइशुं रे, नमि. ८
नमि. ५
नमि० ६
acocoo
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२४ नेमिजिन स्तवनम्.
तुम बहु मंत्री रे साहिबा-ए राग. नेमि जिनेश्वर वन्दना, होशो वार हजार, त्रिकरण योगेरे सेवना, प्रीति भक्ति उदार.. नेमि. १ सालंपन ध्याने प्रभु, दीलमा आवो सनाथ; उपयोगे तुज धारणा, आवागमन ते नाथ. नेमि. २ नामादिक निक्षेपथी, आलंबन जयकार; निरालंबन कारणे, तुज व्यक्ति सुखकार. नेमि. ३ सविकल्प समाधिमां, भासो हृदय मझार; अन्तर अनुभवं ज्योतमां, निर्विकल्प विचार. नेमि. ४ भेदाभेद स्वभावमां, अनन्त गुण पर्याय; छति सामर्थ्य पर्यायनी, शक्ति व्यक्ति सुहाय. नेमि. ५ झळहळज्योति ज्या जागती, भासे सर्व पदार्थ बुद्धिसागर ज्ञानमां, सिद्ध बुद्ध परमार्थे. नेमि.६
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पार्श्वनाथ स्तवनम्.
साहिब सांभरे संभव-ए राग. पूर्णानन्दमारे, पार्थ प्रभु जयकारी; ध्रुवता शुद्धतारे, शाश्वत सुख भंडारी. केवलज्ञानथीरे, लोकालोक प्रकाशो; ध्याता ध्यानमा रे, साहिब निज घर वासो. सहजानन्दनारे, समये समये भोगी; रत्नत्रयी प्रभुरे, क्षायिक गुणगण योगी.' व्यक्ति तुज समीरे, भक्ति तुज मुज करशे; तुज आलंबनेरे, चेतन शिवपुर ठरशे. . साचा भावथीरे, जिनवर सेवा करशुं; शुद्ध स्वभावमां रे, क्षायिक सद्गुण वर. झटपट त्यागीने रे, खटपट मननी काची; मळy भावथी रे, अनुभव यक्ति ए साची. हळीयो देवथुरे, ते जन शिव सुख पावे; साची भक्तिथी रे, आविर्भाव मुहावे.
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२६ महावीर स्तवन.
साहिब सांभळोरे संभव अरज हमारी. ए राग. श्री महावीर प्रभुरे, लळी लळी पाये लागुं श्री महावीरपणुरे, प्रभु तुज पासे मागुं. श्री. १ द्रव्यभाव में भेदधीरे, निक्षेपे तेम जाणो; सातनयोबडेरे, महावीर मनमा आणो. श्री. २ नवधा भक्तिथीरे, महावीर प्रभुथीं इळY: स्वजाति ध्यानधारे, आविर्भावे मळशुं. श्री. ३ श्रुत उपयोगीरे, प्रगटे वीर्य स्वभावे; ध्रुवता योगनीरे, महावीर घटमां आवे. धातोधातथीरे, हळतां मळतां शान्ति शुद्ध स्वभावमारे, रमतां लेश न भ्रान्ति.
श्री. ५ सचाए रहोरे, वीरता ध्याने प्रगटे शद्वादिकनयेरे, कर्म मलिनता विघटे. अनुभव योगमारे, महावीर नयणे देखे, मिथ्यामोहनेरे, आपस्वभावे उवेखे.
श्री. ७ शुद्ध स्वभावमारे, महावीर प्रभु घर आवे; वीर्य अनन्ततारे, बुद्धिसागर पावे.
श्री.
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२७
कलश.
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गाइ गाइरे ए जिनवर चोवीशी गाइ.
अन्तर अनुभव योगे रचना, जिनआणाथी बनाइरें. ए जिनवर, जिन भक्तिथी शक्ति प्रगटे, मगटे शुद्ध समाधि
ए जि. २
ए जि. ३
ए जि. ४
मिथ्या मोहक्षये समकित गुण, नासे चित्तनी आधिरे. ए जि. १ जिन गुणना उपयोगे निजगुण, प्रगटे अनुभव साचो; तिरोभावनो आविर्भाव छे, प्रेमघरी त्यां राचोरे. अनेकान्तनयज्ञान प्रतापे, पंचाचारनी शुद्धि; उपशम क्षयोपशमने क्षायिक, भावे प्रगटे रुद्धिरे. प्रभु गुण गावे भावना भावे, नागकेतु परे मुक्ति शुद्ध रमणता भाव पूजा छे, सालंबननी युक्तिरे. सालंबन योगी जिन ध्याने, निरालंबन थावे; कारण कार्यपणुं त्यां जाणो, ज्ञानी हृदयमां भावेरे ए जि . ५ जिन भक्ति निज शक्ति वधारे, शुभ उपयोगना दावे; शुद्धोपयोगे सहेजे आवे, स्याद्वादी मन भावेरे. गाम डभोई यशोविजय गुरु, चरणनी यात्रा कीधी; उपाध्यायनी देरीमां रचना, पूर्ण चोवीशीनी सिद्धिरे, ए जि . ७ उपाध्याय गुरु चरण पसाये, भक्ति रंग उर धारी; भावपूजा जिनवरनी करतां, जयजय मंगलकारीरे. सम्बत ओगणिश पांसठ साळे, फाल्गुन पूर्णिमा सारी; रविवार दिन चढते पहोरे, पूर्ण रची जयकारीरे. लोढण पार्श्व जिनेश्वर प्रेमे, जे भणशे नरनारी; बुद्धिसागर पग पग मंगल, पामे संघ निर्धारीरे.
ए जि. ६
ए जि. ८
ए जि. ९
ए जि. १०
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सीमंधर स्तवन. ( नदी यमुना के तीर उडे दोय पंखीया-ए राग. सीमंधर जिनराज कृपालु तारजो, जन्म जराना दुखथी प्रभुजी उगारजो; विद्यमान प्रभु वात हृदयनी जाणता, साचा स्वामी सुखकर वीनति मानता. काल अनादि मोहवशे बहु दुःख लयां, चार गतिनां दुःख विचित्र सहु सह्यां; मोहवशे धामधूममां धर्मपणुं ग्रा; शुद्धस्वरुपस्याद्वाद तत्त्व नहि सदृा. गाडरीया प्रवाहमां दृष्टिरागे रह्यो, लोकोत्तर जिनधर्म परखीने में नवी लह्यो। बाह्यक्रिया रूचि धामधूममां हूं पडयो, गुरुगमज्ञान विना हुं भवोभव लडथडयो. प्रभुतुज शासन पुण्यथी पामी में जाणीयुं, मिथ्यादर्शन जोर कुमतिनुं वामियुं परख्यु सत्य स्वरूप जिनेश्वर धर्मर्नु, रहेशे जोर हवे केम आठे कर्मन; तुज करुणा एक शरण सेवकने जाणशो, जाणी बाळक हारो करुणा आणशो. म्हारे शरणुं एक जिनेश्वर जगधणी, तारो करुणावंत महेश्वर दिनमणि; बुद्धिसागर बाळ तमारो करगरे.
३
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साचा स्वामी सेवक शिवपद सुख वरे. उपादाननी शुद्धि प्रभुता जागशे, जित नगारु अनुभव ज्ञाने वागशे
शा
..
आत्मभावरमणता.
साहिब सांभळोरे-ए राग. धन्यते क्षण घडीरे, समता भावे रहीशुं स्थिर उपयोगधीरे, शाश्वत आनन्द लहीशुं. धन्य. १ निश्चयने व्यवहारथीरे, संयम साचुं धरशु; उदासीन शेरीथीरे, मोक्ष नगर संचरशुं. धन्य. २ निस्संगी थईरे, ध्याइश चेतन देवा द्रव्यगुणपर्यायनारे, ज्ञाने निजगुण सेवा. धन्य. ३ स्वमा सारिखीरे, लागशे दुनियादारी; अन्तर्दृष्टिधीरे, स्थिरता घटमां भारी धन्य. ४ मनने स्थिर करीरे, धरशुं शक्तिज घटमां उपाधि परिहरीरे, पडशुं नहि खटपटमां. धन्य. ५ शातावेदनीरे, उदये हर्ष न धरशुं;
अशाता उपजेरे, मनमा शोक न करणं. धन्य. ६ विषयो विष समारे, अवधूत सरखा थारों संवरभावधीरे, निर्भय देशे जाशं. धन्य.७ परशुं धैर्यनेरे, कर्म कटक संहरशु;
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३० स्थिरउपयोगथीरे, जयलक्ष्मी झट वरथं.
ज्ञानी संगतेरे, अनुभव वातो करशुं प्रभुता आत्मनीरे, सहज दशामां वरशुं. ऋद्धि आत्मनीरे, तेमां क्षण क्षण राचं; चढताभावथरे, बुद्धिसागर याचं.
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धन्य. ८
धन्य.
९
धन्य. १०
सहज स्वरूपवन्दन.
१
जय सहज स्वरूपी, रूपारूपी, जगगुरु स्वामी, निर्नामी. जयजय सुखकारी जग बलिहारी, बहु उपकारी, जय स्वामी. २ हुं शरण ग्रहुंलुं पाय पहुंलुं विनति करुं, शिरनामी. अभयपद चहुंछु करगरी कहुंछु, शरणे रहुंछु, बहुनामी. मने मार्ग बतावो, करुणा लावो, दिलमां आवो, विश्रामी. ५ विनती उर धारो, सेवक तारो, शरण तमारो, हे स्वामी. आपो सुख शान्ति, टाळी भ्रान्ति, अर्षी कान्ति, गुणरामी ७ जय सद्गुरु देवा, करुछु सेवा, मीठा मेवा, शिवरामी
.
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१
२
शुद्धदृष्टि. दुहा. शुद्धदृष्टि उपयोगमां, अनुभव सुख पमाय? टळे विकल्पनी श्रेणियो, परम प्रभु परखायः शुद्धसमाधि स्वरूपमां, निर्विकल्प उपयोगा परमज्योति झळके भली, आनन्दअनुभव भोग अन्तर्दृष्टि शुद्धिथी, जीवन जग जयकार; चिदानन्द मेळो मळे, नासे दुःख विकार. चैतन्यसृष्टिव्यक्तिनी, लीला अपरंपार; . खयं देखतो जाणतो, अनुभव निश्चयधार. विवेकदृष्टिजागृति, निद्रा नहीं लगार; ज्ञानदृष्टिरविनी प्रभा, त्यां नहि तमः प्रचार. जड चेतननी भित्रता, इष्टानिष्ट न दृष्टि; निर्मलज्ञाननी ज्योतिमां, समतामेघ सुवृष्टिः प्रतिप्रदेशे प्रगटतुं, सुख अनन्त अपार; भोगवतां निज सुखने, नासे मिथ्याचार. विषयवृत्तिवेगो टळे, गुणस्थानक सोपान चढतां निर्मलता घणी, अनुक्रमे भगवान्. वैराग्ये मन निर्मल, ज्ञाने निज उपयोग; वीर्ये स्थिरता संपजे, होवे शिखसुख भोग. परम प्रभु ध्याने मळ्या, आव्यो अनुभव बेश; बुद्धिसागर भक्तिथी, सहजानंद हमेश.
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डभोइ लोढणपार्श्वनाथ स्तवन.
सुमतिनाथ गुण शुं मलीजी-ए राग. लोढण पार्थ जिनेश्वर वंदु, भाव धरी सुखकारी; धरणेन्द्र पद्मावती सेवे, पार्थ यक्ष गुणकारी. प्रभुजी म्हारा जगमां तुज बलिहारी.. मन वचन कायाथी भक्ति, करतां मंगलकारी रुद्धि सिद्धि तुष्टि पुष्टि, अनुभव सुख निर्धारी. प्रभुजी. २ हरिहर ब्रह्मा अलख निरंजन, वर्तो जग जयकारी; पुरिसादानी पुरुषोत्तम तुं, जग जन आनंदकारी. प्रभुनी. ३ तुन सेवाथी शिव सुख मेवा, चिंतामणि हितकारी; कामकुंभ श्री कल्पवृक्ष तुं, परमानंद पदधारी. प्रभुजी. ४ तुज सेवामां निशदिन रहीशुं, प्राणजीवन उर धारी; बुद्धिसागर प्रेमे गावे, लेशो आ विनति स्वीकारी. प्रभुजी. ५
अथ पुद्गल छत्रीशी ॥ दुहा ॥ निसानित्यानेक एक, भिन्नाभिन्न स्वरूप तेने प्रणमो भविजना, लोकाग्रे चिद्रूप. आत्मस्वरूप विचारणा, आत्मध्यानमां लीन; चेतन उपयोगी थइ, करे कर्मने छिन्न. धर्म धर्म जग सहु करे, करता पर उपदेश आत्मधर्म विचार वण, समजे नाह ते श.
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३३ धर्म नाम सामान्यमां, मूर्खजनो भरमाय; आपआपनी ताणमां, राग द्वेष नहि जाय. नदी प्रवाहे काष्ट जेम, सरितामांहि तणाय; मनप्रवाह मोहथी, भव्यजनो भटकाय. अनेकमत जगमां अहो, भिन्न भिन्न कहे तत्त्व; सत्यतत्त्व सापेक्ष वण, समजे नहि जग सच्च फेर फुंदडी खावतां, स्थावर फरतुं जणाय; मिथ्याज्ञाने जीवने, ए उखाणो न्याय. दुःषम पंचम काळमां, यथामति अनुसार; एकांते उपदेश दे, मतिया जन निर्धार. षट् दर्शनना चक्रमां, युक्ति वृन्द विस्तार; काल अनादि अनंतथी, सामान्ये ते धार. भेद तेहना बहु कह्या, पुण्यवंत लहे पार; शुद्ध धर्मने आदरी, तरशे आ संसार. यावत् चेतन धर्मनो मर्म न समजे लोक; तावत् कष्ट क्रिया सहु, थाशे जाणो फोक. रत्नत्रविना स्वामी जे, तीर्थकर भगवंत; समवसरणमां बेसीने, दिये देशना संत. देव मनुष्य तिर्यचने, उपदेशे जिन धर्मः जिनवर वाणी सुणतां, भागे मिथ्या भर्म. कर्मरूप पुद्गलतणो, काल अनादि योग; चतुर्गतिमां भटकतां, सुख दुःख घरे वियोग . पुद्गल संगे राचियो, नाच्यो माच्यो छेक निगोद दुःख शुं विसर्यु, भूल्यो सत्य विवेक.
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३४ बहिरात्मभावना त्यागीने, शुद्ध स्वरूप निहाळ; परपुद्गलसंयोग सहु, जाणो माया जाळ. आतम ते परमातमा, व्यापी रह्यो शरीर; आपोआप विचारतां, चेते चेतन धीर. रूपानो भ्रम सीपमां, देहे चेतन भ्रमः मोहें मुंझी आतमा, बांधे छे सहु कर्म. बाजीगर बाजी रचे, जूठी रचना जेम; म्हारु हारु जूट छे, चेतन मुझे केम. चतुर्गतिना चोकमां वेचायो बहु वार; त्हारू मान शुं त्यां रतुं, चेतन चिस विचार. एकेन्द्र तुं भम्यो, वनस्पति निर्धार;
शुन आदुमां उपन्यो, भूली भान विचार. शंख कोडा जन्म लेइ, पाम्यो दुःख अपार; जु मांकण अवतारमा, भान नहि मन धार. वृश्चिक भ्रमरा तीड थइ, भटक्यो वारंवार; आत्मतत्त्वश्रद्धा विना, थइ न शान्ति लगार. जलचर खेचर भूचरे, भमियो वार अनेक दुःख अनंतां त्यां सां, जाग जाग घरी टेक. परमाधामी वश पडयो, ज्यां नहि सुख लगार; छेदन भेदन ताडना, क्षेत्र वेदना धार.
हाय हाय त्यां तें करी, रोतो खमे महार; अधुना शुं तुं भूलियो, जैनधर्म निर्धार. नरकर्माहिथी नीकळं, करु कर्मनो अन्त; धर्म भावना क्यां गइ, चेत चेत गुणवन्त.
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३५ जैनधर्मयी संपजे, सकल शर्म निर्धार वारंवार नहि मळे, सामग्री सुखकार. जन्म्यो त्यारे लेश न, साथै लाग्यो जाण; कुटुंब लक्ष्मी कामिनी, दुःख उपाधि खाण. रत्नद्वीपमा जाइने, रत्न न लेवे जेह; मूढ तुल्य शुं तुं थयो, चेत चेत सुखगेह. चार दीवसंनी छांयडी, बाह्य रुद्धिनी होय; पामी तेनो मद करे, भूल्यो मूढ ते जोय. संगत तुजने जेहवी, तेवो तुं थइ जाय; मृत्यु शिरपर गाजतुं, आयु नष्टज थाय. लाखवातनी वात एक, संक्षेपे सुण भव्य; जैनधर्म आराधना, जगमां ए कर्तव्य. आत्मभावमां रमणता, सत्य शर्म दातार; पुद्गल ममता परिहरी, चेतो चित्त मझार. शुद्धचेतना योगथी, होशे मुख अनन्त; शुद्धचरणना योगथी, भारखे छे भगवन्त. श्वासोश्वासो जाय छे, अनंत मूल्य समान; बुद्धिसागर ध्यानथी, प्रगट थशे भगवान्. पुद्गल छत्रीशी कही, चेतनने हितकार; गाम पादरा शोभता, शान्तिनाथ जयकार asia मोहनलालना, हेते कीधी सार; आत्मभावमा जे रमे, ते पामे भवपार. ओगणित अठ्ठावननी, फाल्गुन कृष्ण रसाल. तृतिया तीथी वांचतां, थाशे मंगलमाल.
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वाचक २
श्री यशोविजय उपाध्यायगुणस्तवन. (ऍहली.)
अली साहेली. ए राग. वाजकवरजी यशोविजयजी, मुनिवर वन्दन कीजीए; धन्यधन्यखरे, उपाध्याय दर्शन करतां मन रीजीए. १ सम्वतसत्तरशत जयकारी, जिन शासनश्वेतांवरभारी; वाचक प्रगटया जग सुखकारी,
वाचक १ वैरागी, त्यागी, सौभागी, अन्तरदृष्टि घटमां जागी; जिनशासन शोभाना रागी, जंगम तीरथ ज्ञानी ध्यानी, परभावतणा नहि अभिमानी श्रुतज्ञाने वात न को छानी,
वाचक. ३ भाषा पुस्तक रचना सारी, संस्कृत भाषामां हुंशियारी; शतग्रंथ रच्या ज्ञाने भारी, जिनसूत्र हार्द अनुभव जाणे, जे मत पोतानो नहिताणे; जे वर्ते चढते गुणठाणे,
वाचक. ५ जिनशासन जेणे अजवाळ्यु, श्रुततीरथ जीर्ण यतुं वाळयु; नास्तिक पन्थोनुं बी बाळ्यु,
वाचक. ६ अनुभवअमृतरसना भोगी, जे सहजपणे अन्तरयोगी; मिथ्यात्वभावथी नहि रोगी, महाधर्म प्रभावक जे शूरा, शाद्विकतार्किक पंडित पूरा; चीज्ञाने जे भरपूरा,
वाचक.८ बहु देशोदेश विहार कर्या, उपदेशे जीव अनेक तर्या : गुर्जर देशे जे बहु विचर्या
वाचक. ९ स्वर्गमन गाम डभोई थयुं, अविचल जेनुं जग नाम रघु जीवंतां शिव सुख दील लघु,
वाचक.१०
वाचक. ४
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फागण एकादशी अजवाळी, ओगणीस पांसठनी लटकाळी; गाम डभोई आव्या गुणभाळी, वाचक. ११ श्रीवाचकपद वंदन कीधुं, अनुभव अमृत प्रेमे पीg; बुद्धिसागर कारज सिध्ध्यु,
वाचक. १२
श्री यशोविजयजी उपाध्याय गुंहली.
बेनी रविसागर गुरु वंदीए-ए राग. प्रेमे यशोविजय गुरु वंदीए, जे पंचमहाव्रतधारीरे साल सत्तरशतमा जे थया, उपाध्याय पदवी जयकारीरे. प्रेमे. १ बारवर्ष काशीमा जे भण्या, वैयाकरण नैयायिक मोटारे; तार्किक शिरोमणि पद लघु, काढी नाखे मिथ्यात्वना गोटारे. २ देशोदेश विहार कर्या घणा, गुर्जर मालव हिंदुस्थानरे; मरुधरमांहि विचाँ घणा, टाळे परवादि अभिमानरे. प्रेमे. ३ विजयप्रभसूरीश्वर राज्यमां, जिनशासन उन्नति कीधीरे अष्टोत्तरशत शुभ ग्रंथने, रची कीधी धर्म प्रसिद्धिरे. प्रेमे. ४ आनन्दघन मुनिवरने मळ्या, अष्टपदी त्यारे बनाइरे तेम आनन्दघनजीए रची, जुओ ज्ञानतणी अधिकाइरे. प्रेमे. ५ अध्यात्मस्वरूपमां झीलता, निश्चय व्यवहारमा पूरारे वैरागी त्यागीशिरोमणि, ज्ञान ध्यान समाधिमां शूरारे. प्रेमे.६ सत्तरशतीपस्तालीशमा, मौन एकादशी सुखकारीरे स्वर्गगमन डभोइमां कयु, एवा गुरुनी जाउ बलिहारीरे. प्रेमे.७
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ओगणीस पांसठनी सालमां, एकादशी फागण अजुवाळीरे; भेटी यशोविजय गुरु पादुका, मारा मनतो आज दीवाळीरें. प्रेमे. एवा सद्गुरुना गुण गावतां, थाउ अनुभव अमृत भोगीरे बुद्धिसागर संयम श्रेणिपर, चढे समता समाधिए योगीरे. प्रेमें.
2000000000
उपाध्याय गुंहळी. सजनी मोरी पास जिनेश्वर-ए राग. गुरु म्हारा यशोविजय जयकारीरे, गुरु म्हारा दर्शननी बलिहारीरे; गुरु म्हारा प्रतिबोध्यां नर नारीरे, गुरु म्हारा जगमांहि उपकारीरे. गुरु म्हारा उपाध्याय पद धारीरे, गुरु म्हारा जगमा महा अवतारीरे; गुरु म्हारा अनुभव अमृत क्यारीरे, गुरु म्हारा वाणी जग हितकारीरे. गुरु म्हारा ग्रंथ रच्या सुखकारीरे, गुरु म्हारा धर्मनी देशना सारीरे; गुरु म्हारा ध्यान समाधि प्यारीरे, गुरु म्हारा मिथ्यातम हरे भारीरे. गुरु म्हारा वाणी दुःख हरनारीरे, गुरु म्हारा शिवपद ध्रुवतामारीरे;
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३९ गुरु म्हारा सागी दुनियादारीरे, गुरु म्हारा परिणति त्यागी नठारीरे.
गुरु म्हारा दर्शन यो निरधारीरे, गुरु म्हारा सहाय करो अणधारीरे: गुरु म्हारा तुज आणा शिव बारीरे, गुरु म्हारा मळजो भक्ति विचारीरे. गुरु म्हारा उत्कृष्टा अनगारीरे, गुरु म्हारा बर्ते पाद बिहारीरे; गुरु म्हारा अरजी लेजो स्वीकारीरे, गुरु म्हारा भक्ति एक तमारीरे. गुरु म्हारा आव्या डभोई चित्तधारीरे, गुरु म्हारा मळीया मंगलकारीरे; गुरु म्हारा बुद्धिसागर अनगारीरे, गुरु म्हारा वंदन बार हजारीरे.
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५
श्री यशोविजय पादुका - दर्शन वंदन. लावणी.
धन्य धन्य दीवसने धन्य बडी छे आजे, भेटया यशोविजयजी भवजल तरवा काजे; गुरु भेंटीने हरखित थयुं मन मारु अपार, जिनशासन बर्ते सदाय जयजयकार.
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गुरु अष्टोत्तर शत ग्रंथ रच्या जयकारी, तार्किक शिरोमणि पदवी जगमां धारी; गुरु उपाध्याय पदवीना धारक प्यारा, श्वेतांबर संघे प्रगटया जयजयकारा. संवत सत्तर पिस्तालीश मागशिर मास, उज्जवल अगियारस गुरुनो स्वर्गे वास; दर्भावती नगरी गुरुजी जग हितकारी, बुद्धिसागर वन्दे छे वार हजारी. गुरु मळीया प्रेमे वीनति उर स्वीकारी, दीठा चक्षुथी करुणाना भंडारी गुरु भक्ति वशमां अनुभव द्यो निर्धारी, क्षणक्षणमा वंदन होशो वार हजारी. जय मंगलकारी मूर्ति तव मनोहारी, देशो दर्शनने पुनः पुनः उपकारी; जे प्रेम धरी आ गाशे नरने नारी, बुद्धिसागर सुख पामे मंगलकारी.
श्री यशोविजयजी आवाहन मंत्र स्तवनम् . द्वारकांना वासीरे अवसरीए व्हेला आवजोजी-ए राग. मन मंदिरना वासीरे, सद्गुरुजी वहेला आवशोजी; आवो आवो भक्तिवशे भगवान् .
मन. वाचक पदना अधिकारीरे, यशोविजयनी आवशोरे नहि आवो तो थाशे सेवकना बेहाल.
मन. १
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४१
कामने हठावीरे, स्थिरता शुद्ध आपजोनी; टाळ टाळो मन चंचलताना वेग.
लोभने हठावोरे, संतोष गुण आपीनेजी, आपो आपो सुख समाधि अपार. शान्ति तुष्टि दातारे, वृद्धि करो बुद्धिनीजी; टाळो टाळो विषय वासनाना दोष.
भक्तिना मेर्यारे, व्हेला प्रभु आवशोजी; करो लीला ल्हेर गुरुजी अपार. साची भक्ति जाणीरे, वार न लगाडशोनी; देशो दर्शन कृपा करी साक्षात् बुद्धिसागर प्रेमेरे, दीठा गुरु देवताजी; फळी फळी मननी सघळीरे आश.
उपाध्याय स्तवनम्.
धनघटा भुवन रंग छाया-ए राग.
नमुं यशोविजय गुरुराया, जिनशासन जय वर्ताया; सत्तर पिस्तालीश आया, मौन एकादशी सुखदाया.
तमे स्वर्ग गमन सिधाव्या.
वाचकनी पदवी पाया, संवेगी मुख्य कहाया; शुभ तार्किक ग्रंथ रचाया.
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मन.
२
मन. ३
मन. ४
मन. ५
मन. ६
मन. ७
नमुं - जिन. १
नमुं - जिन. २
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४२
श्वेतांबर संघ सुहाया, दर्भावती नगरी आया;
धन्य धन्य गुरु महाराया,
कीर्तिथी त्रिभुवन छाया, करो सहाय गुरु मन भाव्या; बुद्धिसागर गुण गाया.
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অসব
नमुं - जिन. ३
शुद्ध ब्रह्मज्ञान.
मन मोह्या जंगल केरी हरणीने - ए राग.
शुद्ध. १
शुद्ध चिद्घनरूपने ध्यावुरे, शुद्ध चिद्धन रंगने ध्याबुंरे; शुद्ध. कामने मारी मोहने हठावी, ब्रह्मरूप होइ जाउरे. अलखनी अवधूत दशामां, क्यांइ न जावुं आर्बुरे; अनहद तुर बजावी ध्याने, मोहनुं जोर हठाबुंरे. अन्तरनो अलबेलो भेटी, परमानंदमय थावुरे; श्वासोश्वासे अजपाजापे, चिदानंदघन गावंरे.
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नमुं - जिन. ४
सुरता लागी कबु न छूटे, प्रभु मळे हरखाबुंरे; इंडा पिंगला सुषुम्णा साधी, ब्रह्मरन्धम जाबुंरे. ध्यान समाधि शुद्ध जगावी, परमब्रह्म थइ जावुरे. बुद्धिसागर अलख निरंजन, शक्ति अनंत जगाबुंरे.
शुद्ध.
शुद्ध. २
शुद्ध.
शुद्ध ३
शुद्ध.
शुद्ध. ४
शुद्ध.
शुद्ध. ५
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उपाध्यायजी स्तवनम् .
ए गुण वीरतणो न विसारूं-ए राग. वंदु सद्गुरुना पदपंकज, यशोविजय जयकारीरे; उपाध्यायजी ज्ञानी ध्यानी, भावदया उपकारीरे, वंदु. १ अष्टोत्तर शत ग्रंथ अधिक शुभ, संस्कृत रचना सारीरे, जिन शासननी उन्नति कीधी, संविग्न पक्ष वधारीरे. वंदु. २ दर्शन ज्ञानचरणमां लीना, पंच महाव्रत धारीरे। द्रव्य क्षेत्र काल भाव प्रमाणे, परम प्रभावनाकारीरे. वंदु. ३ निश्चयने व्यवहारमा पूरा, साधन साध्य विचारी। ज्ञान क्रियाना साधक शूरा, प्रगटया महा अवतारीरे. बंदु ४ तुज वाणी अमृत गुण खाणी, अनेकान्त नयधारीरेः तुज ग्रंथोना अभ्यासक जन, अनुभव ले निर्धारीरे. वंदु. ५ जिनशासनना धोरी कलियुग, गीतारथ अनगारीरेदीर्घदृष्टि जिनशासन रक्षक, ध्याने घट उजियारीरे. वंदु ६ प्राणजीवन मुज हृदयना स्वामी, जंगम तीर्थ सुधारीरे तुज विरहे मुज चेन पडे नहि, दर्शन द्यो सुखकारीरे. बंदु. ७ अनेकान्तनयज्ञान बतावी, सेवक श्रद्धा वधारीरे; ए उपकार तमारो न भूलं, भवोभव तुं हितकारीरे. वंदु. ८ अष्ट सिद्धि रूद्धि शुभदायक, सेवाग्रही एक तारीरे; बुद्धिसागर सहाय करो गुरु, वन्दु वार हजारीरे. वंदु ९
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उपाध्याय स्तवन. सुमतिनाथ गुण\ मलीजी. ए राग. ज्ञान दाता दाता गुरुजी, वाचकवर जयकार; यशोविजयजी भेटीयाजी, गाम डभोइ मजार. मनमोहन स्वामी, धन्य धन्य तुम अवतार. चार अनुयोगे करीजी, देशना अमृतधार; अन्तर अनुभव दाखवोजी, श्रुतवाणीनुं सार. मन० २ चउ निक्षेप प्रमाणथीजी, सातनयोथी विचार: षड्द्रव्यो दर्शावताजी, गुणपर्यायाधार मन० ३ उपादेय चेतन खरोजी, पुद्गल वस्तुथी भिन्न असंख्यप्रदेशी आतमाजी, ज्ञान आनन्द छ चिन्ह. मन. ४ भूत चतुष्के ते नहिजी, ज्ञान आनन्द स्वभाव ज्ञानानन्द स्वभावथीनी, चेतन निजगुणदाव. मन. ५ अन्तरदृष्टि शोधतांनी, स्थिरतायोगे जणाय; . परम प्रभुता परखतांनी, आनन्द चित्त न माय. मन. ६ अन्तर दुःखने बाहिर दुःखडा, योगारंभे जणाय; बाहिर दुःखने अन्तर सुखडा, स्थिरता योगे सुहाय.मन.७ अन्तर सुखनी श्रद्धा वण तो, बाहिर सुख न त्यजाय; यदि सजे पण ज्ञान विना जीव, पाछो तिहां भटकाय.मन.८ अनुभव रंग मजीठ समो ज्यां, लाग्यो त्यां बहु मुख; अन्तरमा रंगातां ज्ञाने, नासे अनादिनां दुःख. मन. ९ शुद्ध चेतना ध्यानथीजी, अनुभव अमृत स्वाद, बुद्धिसागर योगथीजी, प्रगटे अनहद नाद. मन. १०
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अध्यात्म वचनामृत ग्रन्थ.
ऐन्द्रन्दनतवीर जिन, नमतां आत्मप्रकाश; अध्यात्म सुखमां ममता, शाश्वत शिवपुरवास. आत्माने उद्देशीने, पंचाचार प्रधान, शाद्ध अर्थ योगे सदा, लहीए आतमज्ञान. मैत्रादि वासित चित्त, निर्मल बाह्याचार; अध्यात्म तत्व निर्मल कह्यु, रुढयर्थी जयकार एवंभूतनये भलो, प्रथम अर्थ सुख कार; यथायोग्य बीजो कह्यो; अर्थ ऋजु व्यवहार विगतनय भ्रांति जना, स्वरूप सन्मुख चित्त; स्याद्वाद दृष्टि दृश्य तत्त्व, आत्मपात्र गुणवित्त युक्ति धेनुने अनुसरे, मनोवत्स धरी प्रेम. तुच्छाग्रह मन वांदरूं, खेंचे पुच्छने तेम. अनर्थ माटे युक्तियो, हठ कदाग्रह जोरः बुद्धि अवळी परिणमे, हस्ति हणे मत तोर. पामी हणे नहीं पामीने, करे विकल्पो मूढः हस्ती हणे ए न्यायमां, समजो साचुं गूढ. हेतुवादथी जाणीए, अतीन्द्रिय सहु ज्ञेय; काले निश्चय तत्त्वमा, हेय ज्ञेय आदेय. आगमवादे आप्तनी, करो परीक्षा सत्य; परोक्ष वस्तु सदहो, चेतन आदि मुकृत्य. छमस्थ केवलज्ञान वण, चक्षु रहित कहेवाय; हस्तस्पर्श सम शास्त्र ज्ञान, युक्ति मनधर न्याय, ११
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शास्त्राज्ञा निरपेक्षने, शुद्ध नाह हितकार; जेम भौतहण नारने, नहि पदस्पर्श विचार. वचन अहो वीतरागना, वर्ते छे जयकार; कयु प्रयोजन ज्ञानिने, वदे जूठ दुःखकार. रागद्वेषाभावथी, भाख केवली सत्य; सत्य वचन श्रद्धा थतां, प्रगटे उत्तम कृत्य. जिनवाणी आगळ करे, को अग्र जिनराज; श्री जिनवर आगळ करे, सर्व सिद्धि साम्राज्य १५ चर्म चक्षुधारी सहु, अवधि चक्षु छे देव; सर्व चक्षु सिद्धो कह्या, शास्त्र चक्षु मुनि सेव. १६ कप छेदने तापथी, यथा स्वर्ण परखायः सूत्र तथा परखाय छे, पंडित समजो न्याय. विधि अने प्रतिषेधनी, कष शुद्धि कहेवाय; अधिकार ज्यां वर्णव्या, शास्त्र सदा सुखदाय ध्यानाध्ययन विधि वज, हिंसादिकना त्याग; निषेध मार्गों जाणीए, प्रगंटे सद्गुण राग. अर्थ काम विमिश्रने, क्लृप्त कथा भरपूर; आनुषंगिक मोक्षमा, कष शुद्धि दुःख दूर. विधि मार्ग निषेधनी, क्रिया क्षेमकर योग वर्णन यत्र ते शास्त्र छे, छेद शुद्धिमत् भोग. सर्वनय सापेक्षथी, पामे जन परमार्थः ताप शुद्धि ते जाणीए, लगे न दोषनो सार्थ. नयसापेक्ष विचारणा, करतां दोष विलाय; सम्यग्दृष्टि जीवने, परमबोध घट थाय. ...
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आत्मतत्त्व उद्देशीने, करे क्रियाओ सर्व पण हुं तुं नहि बाह्यमां, टाळे सघळा गर्व. हुँ तुं वृत्ति बाह्यमां, वर्ते तो अज्ञान; आत्मतत्त्वना ज्ञानथी, नासे मिथ्या भान. चक्षु थकी देखाय जे, पौद्गलिक पर्याय जडता तेमा व्यापी छे, समजुने समजाय. जड वस्तु चेतन नहि, जडथी चेतन भिन्न आत्मरुपने ध्यावतां, शुद्ध समाधि लीन. जडमां सुख न होय छे, सुख नहि जडनो धर्म; जडना मोहे प्राणिया, बांधे निशदिन कर्म. क्षणिक जड वस्तु अहो, ते पर शानो राग ज्ञानदृष्टिथी देखता, प्रगटे छे वैराग्य भेदज्ञान प्रगटया थकी, प्रगटे अन्तरदृष्टि; गुणपर्याय विचारणा, प्रगटे निजगुण सृष्टि. अन्तरदृष्टि धारणा, अन्तरदृष्टि ध्यान; अन्तरदृष्टि समाधिमां, प्रगटे छे भगवान्. अन्तरदृष्टि योगथी, प्रगटे वीर्य अनंत; चिदानन्दनी पूर्णता, परमब्रह्म भगवंत. शोधकदृष्टि जो जगे; तो तुं अन्तरशोध; स्थिरोपयोगो शोधता, प्रगटे साचो बोध. हुं तुंनो अध्याम जे, जडमां ते सहु फोक; जड धर्मो नहि आत्मना, भूले दुनिया फोकदेहादिकनां कृत्यने, माने आत्मिक कृत्य; आत्म धर्म नहि जाणतो, शुं पामे ते सत्य.
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છૂટ
घामधूम पुद्गलतणी, तेमां माने धर्मः बाह्यदृष्टिजन भूलता, बांधे उलटा कर्म. कर्मयोगथी भोगवे, पुद्गलना पर्यायः अन्तरथी न्यारो रहे, ज्ञानी नहि लेपाय. ज्ञानी अने अज्ञानिनां, बाहिर कृत्य समान; भोजन आदि जाणीए, अन्तरथी असमान. खावे पीवे ज्ञानी पण, रहे अन्तरथी भिन्न; पण अज्ञानी मोहथी, बाह्य भाव लयलीन. दयाक्षमा आचारथी, ज्ञानीजन व्यवहार; जगमां साचो जाणीए, परोपकृति करनार. विवेकदृष्टि रत्नवण, अन्तर बाह्याचार; अज्ञानिना फोकं छे, सापेक्षाएं धार.
अहंभाव जडमां जगे, अन्तरमां अंधेर; अहंभाव जडनो टळे, चिदानंदनी ल्हेर. पुद्गलना पर्यायने, चुंध्याथी भुं सुख; सुखबुद्धि भ्रांति थकी, अन्ते दुःखनुं दुःख. करो उपायो कोटिपण, जडमां सुखन लेश; अहंभाव जडमां थतां, मोहादिकनो क्लेश. अहंभाव जडमां जगे, राग दोषतुं जोर; अहंभावां मग्नता, त्यां अंधारुं घोर. जे जे अंशे नासतो, अहंभाव त्यां धर्म; समजु सत्य विचारीने, टाळे सघळां कर्म. जड वस्तुमांहि वस्यो, जड वस्तुनो भोग; अन्तरथी न्यारो रहे, घरी शुद्ध उपयोग.
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रागदोष परिणाम वण, कर्मनो होय न बंध विवेक दृष्टि देखता, लागे पुद्गल धंध. अन्तरदृष्टि योगथी, रागद्वेष नहि होय; हुँ छ शुद्ध स्वभावमां, नडे न कोने कोय. शुद्धरुपमा हुं सदा, परमां नहि तलभार; अहंभाव जडमां ग्रही, भूल्यो हुं संसार. पण पुद्गल ते हुँ नहि, जाण्यु निश्चय सर्व कर्ता भोक्ता भावनो, टळ्यो अनादि गर्व. ९ कर्ता भोक्ता खरो, शुद्ध गुणपर्याय: परमां म्हारु कंइ नहि, निश्चय ए मुखदाय. अन्तरदृष्टि योगथी, चिदानंदनी मोज, भोगवता ते जन अहो, जेणे कीधी खोज. खंडन मंडन शुं करूं, चिद्घन नहि खंडाय; बाकी जे खंडाय ते, पुद्गलना पर्याय. भात्मधर्म जिन धर्म छे, बाकी जडना धर्म, आत्मघम समज्या विना, होय न शाश्वत शर्म.. ५५ आत्मधर्ममा जिनपणुं, बाकी जड जंजाळ; जडमां धर्म नहि कदा, करशे ज्ञानी ख्याल. ५६ जर लक्ष्मीनी लालचे, मूर्खजनो ललचाय; मायाना कीडा बनी, चतुर्गति भटकाय. चिदानन्द चेतन प्रभु, निर्भय नित्य महान् परमज्योति मुखमय सदा, इष्टदेव भगवान्. ५८ सत्ताए अरिहंत तुं, वसियो पिंडमझार; सिद्धसूरि वाचक मुनि, परमेष्ठि निर्धार. अतीन्द्रिय अक्षर तुं हि, निरक्षर गुणवान्,
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बचनागोचर तुं प्रभु, धरु ९ मनमा ध्यान. ध्याता ध्येयाभिन्नतुं कथंचित् तुं भित्र शुदस्वरुपाधारमा, अन्तरयोगे लीन. म्हारु रहारु सहु मटयु, टळ्या विषयना खेद; स्थिरोपयोगे आत्ममां, निज धर्मोथी अभेद. शुद्ध रमणता आत्ममां, चिदानन्द भंडार; बाह्य रमणता त्यां टळे, निश्चय मनमा धार. निश्चयनय निज रूपमा, जन्मजरानो नाश; अनुभव अन्तर धारीए, छोडी भवनी आश. अनुभवामृत स्वाद तां, धन्य सफल अवतार; परम प्रभुता संपजे, निश्चय धर्म विचार. अनन्त धर्म छे आत्ममा, जडमां न रहे लेश; धामधूममा धर्म नहि, वाह्य विषयमा क्लेश. बाह्य विषयनी मोजमा, माने धर्म गमार; उपादान निजधर्म छ, चेतनमां जयकार. उपादाननी शुद्धिनी, परिपूर्णता सिद्ध स्याद्वादी मन जाणो, प्रगट अक्षय ऋद्धि. जडनी ताणाताणमां, वादविवादे कर्म समजु समजे ज्ञानथी, साधे शाश्वत धर्म. स्याद्वाददृष्टि थकी, नासे वादविवाद: अनुभवीने ध्यानमां, प्रगटे अनहदनाद. बहुल जनो व्यवहारमां, राने माचे नित्य; अल्पजनो साचं वरे, अनेकांतनयरीत. अनेकान्तनय पारखे, ते पामे परमार्थ द्रव्यानुयोगे करी, पामे शिवपुर सार्य.
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आत्मद्रव्य आदेयछे, शुद्ध समय पण तेह; अनन्तगुण पर्यायमय, आत्मद्रव्य सुखगेह. आत्म द्रव्यमां हीनता, सहजयोग निर्धार; परमपन्थ जिनवर कह्यो, अन्तरंग सुखकार. अनन्त ज्योति झळहळे, भासे लोकालोकः आत्मद्रव्य जाण्या विना, पामे जगजन शोक. आत्मद्रव्यना ज्ञानथी, आनन्द हर्ष अपार; आत्म धर्म अन्तर रह्यो, जंगमां जयजयकार. यम नियम आसन अने, प्राणायाम विचार; प्रत्याहारने धारणा, ध्यान समाधि सार. योगाष्टकनी साधना, निर्मल आत्म प्रकाश; जैनागम गुरुगम थकी, परम प्रभुता वास. षड्द्रव्योमां आत्मद्रव्य, स्वपर प्रकाशक जाण; प्रति शरीरे भिन्न भिन्न, अनंत चेतन आण. केवलज्ञान प्रत्यक्षथी, लोकालोक जणाय; देखे ते जिन कहे, श्रद्धा मोक्षोपाय. जडनी शक्ति अनन्त पण, जडमां रही समाय; चेतनशक्ति अनन्त पण, जडमां कदी न जाय. अनाद्यनन्ति भंगीथी, षड्द्रव्यो वर्ताय; आत्मद्रव्य चित्शक्तिथी, प्रगटपणे परखाय. दर्शन ज्ञानानन्दगुण, चेतन तेनुं पात्र; सर्वतीर्थ शिरोमणि, चेतन द्रव्य सुयात्र. नवधा भक्ति आत्मनी, पट्कारकनी शुद्धिः सम्यग् ज्ञान चारित्रथी, प्रगटे क्षायिक शुद्धि. क्षायिक शुद्ध स्वभावमां, परमेश्वर कहेवाय;
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व्यापे ज्ञाने विष्णु ते, सापेक्षे सुखदाय. रागद्वेष मणाशयी, महादेव जयकार अनंत केवलज्ञानथी, ब्रह्मा जग मनोहार. क्षायिक भावे खेचतो, अनंत गुण तेहेत; कृष्णरूप पण आतमा, अभिधेय संकेत. कर्म हण्याथी जीवते, शिवरूप सोहाय; आतम ते परमात्मा, व्यक्ति अनंत ग्रहाय. नाम रूपथी भिन्नछे, निश्चयथी निर्धारः अहं ममत्व विनाशथी, सिद्ध बुद्ध जयकार. अन्तरदृष्टि देखतां प्रगटे वीर्य अनंत; क्षायिक शुद्ध स्वभावमा, सुख विलसे भगवंत. अनेकान्तनयदृष्टिथी, सम्यक् जीव जणाय; जिनदर्शनमां आत्मना, भेदो सर्व समाय. सप्तनयोना ज्ञानथी, सापेक्षा समजाय; सापेक्षाए सर्व धर्म, जिनदर्शनमां माय. अनेकान्तनयमां अहो, भेद न किंचित्मात्र; अनेकान्तनय आत्मज्ञान, समजे सज्जन पात्र. नित्य अनित्य विभेदयी, वेद बौद्धनो वादः जिन दर्शनमां वे मळे, अनेकान्तनयवाद. कर्तृत्वेतरवाद पण, अनेकान्तनय मान्य; सर्वधर्म ग्राहक अहो, जिनदर्शन प्राधान्य. मतना खेद टळे सहु, जो समजे नयवाद; सापेक्षा सर्व धर्म, माने नय स्याद्वाद. स्याद्वादनयदृष्टिथी, समता प्रगटे वेश; समकित चरित्र योगयी, आनन्द होय हमेश.
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क्षायिक केवलज्ञानमा, भासे सर्व पदार्थ केवलज्ञानाधार जीव, परम प्रभु परमार्थ. ___९८ चिदानन्द चेतन प्रभु, मळ्ता सुरता प्रेम, मुरता अन्तर लावीए, प्रगटे मंगल क्षेम. ध्यान धारणातानमां, देखो चेतन देव शुद्ध समाधियोगमां, अनुभवामृतमेव उपयोगी चेतन तरे, भवोदधिने खास चिद्घनअसंख्यप्रदेशनो, रोम रोम विश्वास. १०१ परमशुद्ध परमार्थ छे, आत्मतत्त्व आदेय; सर्व द्रव्यतो ज्ञेय छे, पुद्गलकर्म छे हेय. आत्मरमणता धर्म छे, बाह्यरमणता कम आविर्भावे आत्ममां, प्रगटे शाश्वत शर्म. अन्तरथी न्यारा रही, को बाह्यनां कर्म; ज्ञानी सहजदशा थकी, पामे शाश्वत शर्म. जे जे अंशे जाय छे, कर्म उपाधि दूर; ते ते अंशे जाणशो, चिदान्द भरपूर. शब्रह्मथी भिन्न छ, परमब्रह्म जयकार; परमब्रह्म अन्तर रघु, अन्तरदृष्टि धार. निश्चयने व्यवहारथी, ध्यावो अन्तर्देव अनन्त सुखनुं पात्र छे, क्षण क्षण कीजे सेव. १०७ स्वासोश्वासे ध्याइए, रही ध्याने गुलतान; पूर्णानन्दी प्रगटशे, सहजशुद्ध भगवान्. १०८ अष्टोत्तरात दोहरा, परिपूर्ण आ ग्रन्थ; वांचे ध्यावे जे जनो, पामे निश्चय पन्थ. संवत ओगणिस पांसठे, प्रतिपदा दिन वास;
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चैत्र मासमा ए रच्यो, वडोदरामा खास. मंगलमाला आत्ममां, सकल सुख भरपूर बुद्धिसागर ध्यानमा वाजे मंगल तूर.
ब्रह्मरन्ध्रमा सुरता प्रवेश.
श्री राग. सुरता जापे गगनगढ जाउरे, मेरुदंड मूल पाउरे सुरता. सिद्धासनवाळी गुरुगमथी, प्राणायाम चित्त लाउरे मुरता. मुद्राबीजथी, भेदी चक्रो, त्रिवेणी चढी जाउरे. सुरता. १ उलटबाटथी ब्रह्मरन्ध्रमां, ज्योतिमा ज्योति मिलावुरे. सुरता. असंख्यपदेशीआत्मसुखनी, लीला अपार सां पारे. मुरता. २ जिनागम गुरुगमना ज्ञाने, साचुं न भूली हुँ जाउरे. सुरता. आपस्वरुपे आप प्रकाशे, पोते पोताने हुं ध्याउरे; मुरता. ३ एकान्तमांहि प्रभु प्रगटता, भेटीने हरखीत थाउरे; सुरता. षट्कारकनी शुद्धि थाती, अनुभवथी एहि जणावुरे. सुरता. ४ आव्यो अनुभव रहे न छानो, भिन्नपणे परखाउरे, सुरता. बुद्धिसागर साहिब मळीया, ज्ञाने तेना गुण गाउरे. सुरता. ५
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अजितात्म स्वरूप खुमारी.
श्री राग. चिदानन्दस्वरुप छ म्हारुरे, क्षण एक कदी न विसारुरे, चि. अनेक नाम पण नामथी न्यारो, तारे अने पोते छे तारुरे. चि. १ उत्पत्ति व्यय ध्रुवता धारी, शुद्ररूप न मुजपी न्यारुरे; चि. ब्रह्मा विष्णु खुदा स्वयंभु, नाम रूपया भिन्न विचारुरे. चि. २ हरिहर बुद्धने कृष्ण स्वरूपी, शुद्ध अर्थथी चित्तमां धारुरे; चि. काल अनादि कर्मनो भोक्ता, ज्ञान ध्याने हुं कर्म संहारुरे. चि. ३ नात जात नहि अलख स्वरूपी, भेद ज्ञानथी समकित सारुरे;चि. जड प्रकाशे जडथी न्यारो, मारु शुद्ध स्वरुप छे प्यारुरे चि. ४ ज्ञानगुणमां सुख अनंतुं, जाणे अळपायु म्हारु हारुरे; चि. बुद्धिसागर भेटयो साहिब, तत्व शोधी लीधुं बहु सारुरे चि. ५
अनुभवामृत खुमारी.
श्री राग. शुद्ध सहज स्वरूप सुहायोरे, में तो अनुभवानन्द पायोरे शुद्ध. जावू न आq लेवू न देवू, शुद्धब्रह्मस्वरूप समायोरे. शुद्ध. १ मंगल मूर्ति आनन्दकारी, अनुभव मनमां आयोरे; शुद्ध. सुखसागरमा झोलुं ध्याने, इंतो परम महोदय पायोरे. शुद्ध. २ स्याद्वाददृष्टि जयकारी, जाणतां समता लायोरे; शुद्ध. कर्ता हर्ता पाहिर अन्तर, अशुद्ध शुद्धनय थायोरे.
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सम्यग् ज्ञाने खेद टळ्या सहु, शुद्ध चेतन रत्न ग्रहायोरे. शुद्ध. जिनागम गोपयने पीतां, हुतो अजरामर दर्शायोरे. शुद्ध.४ हूं तुंनो बहु खेद टळ्यो झट, क्षयोपशमशानथी गायोरे. शुद्ध. बुद्धिसागर उपशमभावे, रोम रोम आनन्दथी छायोरे. शुद्ध. ५
अधिकारी समजी शके.
श्री राग. म्हारु गायुं जाणे अधिकारीरे, नहितो होय ताणताण भारीरे;म्हारु. सातनयोना सम्यग् ज्ञाने, जाणे तत्त्व विचारीरे. म्हारु. १ सापेक्षाए वस्तु विचारे, तेनी छे बलिहारीरे; मतियाओए वाडा बांध्या, एकांत पक्ष वधारीरे. म्हारु.२ वाडामांहि बकरा रहेशे, सिंह न रहे क्षणवारीरे; म्हारु. स्याद्वादनय जाणे त्यारे, हठ न रहे तलभारीरे. म्हारु.३ अलख खलकमांहि शांतिकारक, स्यावाद जयकारीरे; म्हारु. आतम ते परमातम साचो, शोधो अन्तरदृष्टि उतारीरे. म्हारु. ४ मनमोहन ईश्वर अविनाशी, जीव ते शिव सुखकारीरे. म्हारु. बुद्धिसागर नित्य निरंजन, अजरामर पद भारीरे. म्हारु. ५
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आश्चर्यज्ञान.
श्री राग. एक अचरिज मनमा आयुरे, सिंह पाछळ ससलं धायुरे; एक. साधुजन वेश्याथी रमतो, गावे राजा प्रजानुं गायुरे. एक. १ उलटी नदीमां योगी झीले, अंधाथी रतन परखायुरेः एक. . वहाणमांहि समुद्र समायो, सूर्य चोमेर वादळ छायुरे. एक. २ गर्भमांहि तो बहु बहु बोले, जन्म्या पछी ते मौन रहेवायुरे एक. अंधकजन अंधकने दोरे, धूळ ढगलामा रत्न ढंकायुरे. एक. ३ गुरु करे चेलानी सेवा, इन्द्रजाळे जगत् भरमायुरे; एकः ज्या त्यां वानर पूजा थाती, एक बाइथी नगर आ वसायुरे. ४ उपजे विणसे ध्रुव कहावे, ज्या त्या जोवु त्यां एह छवायुरे एक. बुद्धिसागर सन्तो राया, जेणे राज्य त्रिभुवननुं पायुरे. एक. ५
शुद्धभक्ति.
श्री राग. शुद्धभक्तिना रंगमा रमीथुरे, प्रभु भक्तिनां भोजन जमीथुरे शुद्ध. भक्तिथी अन्तर नहि प्रभुनु, आडं अवलं जनोनुं खमीथुरे. शुद्ध. १ जिनवरनी आज्ञा भक्तिथी, लक्ष चोराशीमा न भमीथुरे. शुद्ध. अनुभवरंगे रंगाइने, इन्द्रि पंचने शिघ्र दमीशुरे. शुद्ध. २ भक्ति मशालो ज्ञानाग्निथी, भावमन पाराने धमीथुरे. शुद्ध. बुद्धिसागर तन्मय थइने, प्रभु देखीने प्रेमे नमीथुरे. शुद. ३
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स्वानुभव निश्चयः
श्री राग. ज्ञान ध्यानमा जीवन गाळुरे, शुद्ध होवे अन्तर अजवालंरे; ज्ञान. उपाधि संयोगो आवे, शमभावथी नहि कंटाळरे. ज्ञान. १ पुद्गलधनथी कदी न शान्ति, शुद्धऋद्धि अन्तरमा भालुरे; ज्ञान. स्थिर उपयोगे रेहेवु निशदिन, रागद्वेष उदयने टाळरे. ज्ञान. २ मनमोहन अलबेलो भेटुं. योग प्रमत्तने नित्य खालंरेः ज्ञान. उपशम, आदि भावमां राचुं, परभावतणुं बीज बालुरे. ज्ञान. ३ निन्दाविकथा इा स्यागी, द्रव्यभाव दयाने पाळरे; ज्ञान. समता सरोवरमांहि झीली, सत्य अनुभव सुखमा म्हालंरे. ज्ञान. ४ असंख्यप्रदेशी चिद्घन व्यक्ति, जडपुद्गल जाणुं निराळुरे; ज्ञान. बुद्धिसागर परम महोदय, शुद्ध लक्ष्मी अनंत संभालुरे. ज्ञान. ५
सर्वनी उन्नति थाओ॥
श्री राग. सर्व जीवोनी उन्नति थाशोरे, शुद्ध ब्रह्मस्वरूप कमाशोरे; सर्व. आत्मवत् जीवोमां दृष्टि, मैत्रीभावना सर्व प्रकाशोरे सर्व. पोताना सम अन्य जीवोना, प्राणो सहु प्रिय जणाशोरे. सर्व. मातृदृष्टिथी सर्व जीवोनुं, भलं माराथी कराशोरे. सर्व. २ सर्व जीवोना सद्गुण देखी, प्रमोद मन प्रगटाशोरे सर्व. उच्यभावना सर्व जीवोपर, भाव माध्यस्थ सर्व पमाशोरे. सर्व. ३ दु:खिजीवपर करुणा दृष्टि, चार भावना नित्य भवाशोरे. सर्व.
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मनना दोष टळो सहु मेला, दयादृष्टिथी नित्य चलाशोरे. सर्व ४ वेगे माया फंदो स्लशो, प्यारा प्रभु हृदय परखाशोरे; सर्व.. बुद्धिसागर आनंद मंगल, जय जय जगत वर्ताशोरे. सर्व. ५
समभाव.
श्री राग. समभावे रहेQ सुखकारीरे, उपाधि भिन्न विचारीरे; समभावे. नहि कोइ व्हालुं नहि कोइ वैरी,अहो ममता दुःखनीक्शरीरे.सम.१ कोइक निन्दो कोइक वन्दो, अरति रति बहु दुःखकारीरे. सम. जे जे थावे ते सहु थावो, दृष्टि तटस्थ में निर्धारीरे. सम. २ मन कल्प्यु इष्टानिष्टत्व, ते सहु दूर निवारीरे। सम. अन्तरमा रमशुं मन प्रेमे, बाह्य परिणति दूर निवारीरे. सम. ३ राग द्वेष बेथी छे बंधन, मुक्ति छे ध्यानथी सारीरे. सम. परम प्रेम धारीशुं निजमा, शाश्वत सुख घट धारीरे सम. ४ मुक्तिनां सुख मुक्तिमा छ, समता सुख अहीं महा भारीरे सम. बुद्धिसागर समता प्रगटी, आनंद मंगलकारीरे. सम. ५
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सत्य शोधी लीधुं,
श्री राग. में शोध्युं जगत्मांहि सारुरे, मने लाग्युं अन्तरमा प्यारुरे. में. पुद्गल शोध्यु सुख न भास्यु, में चेतनमा मुख धार्युरे. में. १
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में.
स्वरूप शोधी लीधुं मारु, म्हारु ल्हारू में मनथी वारे में. जडमां रहुं पण जडथी न्यारो, हवे इन्द्रिय सुख विसायेंरे में. रागद्वेषवृत्तिथी न्यारो, शुद्ध चेतन हुं ए विचार्यैरे. रमुं हवे हुं चिदानन्दमां, श्रद्धा भक्तिमां मन ठारे. मोजमझामां मन नहि लागे, मन मर्कट तो हवे हायैरे. प्रेमना प्याला पीधा प्रेमे, सुख शाश्वत दिल उतारयुं रे. तेजतणुं पण तेज लधुं में, मने रत्न जडयुं अणधार्युरे. बुद्धिसागर मंगल लीला, शोध्युं ब्रह्म स्वरूप मुज सारुरे.
में.
में.
में. ४
में.
में. ५
नात जात विसारी,
श्री राग.
में. १
में नात जाति सहु त्यागीरे, हुं तो थइयो अन्तर गुणरागीरे में. सद्गुरुए सय बताव्युं, मने अन्तरमां लयळागीरे. नर के नारी नहि नपुंसक, बन्यो ज्ञानगर्भित बैरागीरे. बाह्य भोगनी इच्छा विरमी, थाउ सद्गुणयी सौभागीरे; वस्तुस्वभाव ते धर्म ग्रह्मो घट, शुद्ध अन्तर सुरता जागीरे; बुद्धिसागर अन्तर सुखडां, स्वादे राग न जग पण रागीरे में. ३
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में.
में. २
में.
इष्टदेव निमंत्रण ||
श्री राग.
इष्टदेव व्हेला रहाये आवोरे, दया दृष्ठि हृदयमांहि लावोरे; इष्ट नाम मंत्र तुज निशदिन स्मरू, हुं बाबुं तमारो वधावारे इष्ट १
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मनमोहन अन्तर अलबेला, इष्ट सिद्धि कृपालु बतावोरे; इष्ट जाप जपुं हुं निशदिन तारो, तुज ध्याने हुं जगमां चावोरे. इष्ट २ मंत्र कल्प सिद्धि सहु थावे, मळ्यो मळेछे इष्टनो ल्हाचोरे; इष्ट वचन सिद्धि रुद्धि सहु होवे, एम निश्चयथी करु दावोरे. इष्ट ३ शासन सानिध्यकारी देवा, ज्यां त्यां मंगळ माळा रचावोरे इष्ट नाम न बोलु हृदये स्थापुं. चिदानंद प्रभुता मिलावोरे. इष्ट ४ अनंत मुखनी हेरो प्रगटे, प्राणजीवन दीलमांहि मावोरे; इष्ट बुद्धिसागर अनुभव मुखनी, लीला हृदयमा ठावोरे. इष्ट ५
श्री यशोविजय उपाध्याय आमंत्रण ॥
. श्री राग. यशोविनय उपाध्याय आवोरे, आवो सद्गुरु व्हेला आवोरे य० इष्ट गुरु तुं सानिध्यकारी, मने सत्य समाधि बतावोरे. य० १ शुद्धोपयोगे साह्य करे तुं. क्षणमात्र न वार लगावोरे; य० । परम महोदय लक्ष्मी दाता, अनेकान्तस्वरूप जणावोरे. य० २ मन मंदिरमां दीपक सम तुं, शुद्ध अनुभव हृदयमा ठावोरें;य० चोल मजीठनो रंग लगावो, गुरु ज्या त्यां जय वर्तावोरे, य० ३ दर्शन देइ आनंद आप्यो, मने मळ्यो चिदानंद ल्हावारे; य० रोम रोम आनंद बहु प्रगट्यो, हुं तो गावं गुरुनो वधावारे. य० ४ देवता थइने दर्शन देता, मन मंदिरमा मुरु च्हावोरे; य० । बुद्धिसागर जय गुरु देवा, शुद्ध दर्शन घट प्रगटावोरे. य०५
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परोपकार परोपकारे रीजीए. परोपकारे धर्म परोपकाराभ्यासथी, नासे सपळो कर्म. द्रव्य भाव बे भेदथी, परोपकार कहाय; निश्चयने व्यवहारथी, तेना भेद ग्रहाय. परोपकारे ज्ञातृता, परोपकारे मुक्ति परोपकारे सत्य धर्म, तत्त्व वातनी युक्ति. परोपकारे उच्च भाव, जगमां कीर्ति गवाय; परोपकार सद्गुण विना, नीचा सर्व गणाय. ४ उपकारे जे रक्त छे, धर्मी सत्य विचार; परस्पर उपकार छे, तत्त्वार्थ सूत्र मझार. उपकारी अरिहन्त छे, परमेष्ठीमां मुख्य; परोपकार कर्या विना, कोइ न होय प्रमुख. उपकृति दुर्लभ अहो शुभोन्नति करनार; धन्य धन्य ते प्राणिया, तरे अने तरनार. सम्यक्त्वज्ञान प्रदानथी, परोपकार महान् उत्तम जन सां राचता, भाखे छे भगवान् ज्ञान दान उपकार छे, देवो पर उपदेश, मोटो परोपकार छे, ठळता सघळा कलेश. करे एकेन्द्रिय उपकृति, निज शक्ति अनुसार मनुष्य थई जे नहि करे, तेनो धिक अवतार. १० तन मन धनने ज्ञानथी, करवो परोपकार, बुद्धिसागर सुख लहे, चिदानन्द जयकार. ११
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परमब्रह्म निराकरण ॥
छप्पय छंदः प्रणमुं श्री परमेश जगत्मा केवल ज्ञानी, पूजे चोसठ इन्द्र चरण पण नहि जे मानी; महिमा अपरंपार जगत्मां शक्ति अनन्ति, घातक कर्म व्यतीत प्रभुनी निर्मळ व्यक्ति द्रव्य क्षेत्रने कालभावे स्थिति अनादि अनन्त छे, एक व्यक्ति अपेक्षताथी स्थितिहि सादि सांत छे. अरिहंत ते बुद्ध तत्त्वनुं ज्ञान लह्याथी, अरिहंत ते विष्णु ज्ञानमां सर्व ग्रह्याथी; भासे ज्ञेय अनंत ज्ञानमां ब्रह्मा माटे, राग द्वेषनो नाश महेश्वर जिनवर माटे; आत्मोन्नतिनी प्राप्ति करवा मागे तेनो अनुसरो, माध्यस्थ दृष्टि राखी भव्यो सिद्धि शाश्वत मुखवरो. २ पद्रव्योनुं ज्ञान कर्याथी विवेक दृष्टि, सम्यग्दृष्टि प्रगटे भासे गुणगण सृष्टि. नव तत्त्वो पण षट् द्रव्योमा समाय जाणो, अष्ट पक्षनुं ज्ञान करी साचं मन आणो; सप्त नयने सप्त भंगीथी द्रव्य षट्ने धारीए, बुद्धिसागर अनेकान्तथी तत्त्व सत्य विचारीए. स्यात् अव्यय छे अनेकान्त नयद्योतक सारो, सापेक्षाए वस्तु धर्म छे चित्त उतारो' सापेक्षाए षड्दर्शन जिन दर्शन अंगो, सापेक्षाए वस्तु ज्ञानना सत्य तरंगो,
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द्वैत अने अद्वैत मत पण निरपेक्षाए भिन्न छे, स्याद्वादनी सापेक्षताथी अनेकांत अभिन्न छे. जड चेतन बे तत्त्व विचारे द्वैत कहावे, त्रण कालमा जड चेतन बे भिन्न सुहावे; चेतनथी नहि जगदुत्पत्ति न्याय विचारे, ब्रह्मथकी प्रगटे नहि जडता ज्ञानी धारे; जीव अजीव बे भिन्न तत्व छे धर्म बेना भिन्न छे, भिन्न धर्मी भिन्न रहेवे सत्य ए आकीन छे. काळ अनादि कर्म जीव संयोगे विचारों, अशुद्ध परिणति योगे कर्त्ता कर्मनो धारो, कर्मभेद छे आठ पुद्गल द्रव्य कहावे; कर्म प्रयोगे चेतन चतुर्गतिमां जावे; जन्म जराने मरण हेतु कर्म भेदो धारीए, एक चेतन कर्म वे एम द्वैततातो विचारीए. कर्मयोगथी द्वैतभाव भवमोहि निरखो, कर्मटळे अद्वैत भाव शुद्धतम परखो; प्रथम द्वैत पश्चात् अहो अद्वैतपणुं छे, सापेक्षाए आम ज्ञानिए सत्य भण्युं छे माया असती कही अरे जे अद्वैतपणाने थापता, सम्यक्त्व ज्ञान विना अहो ते सत्यतत्त्व उध्यापता ७ ब्रह्म एकने तेमांथी सहु प्रगटयुं थापे, एकोsहं बहुस्याम् श्रुति आधारज आपे जनुं उपादान कहो केम ब्रह्म ज थावे, विरुद्ध धर्मनुं उपादान नाही ब्रह्म सुहावे; ब्रह्म विकारी जो कहो तो बहुपणं तेनुं घटे,
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पण नित्य ब्रह्मने कहो विकारी दोष एतो नहि मटे. ८ ब्रह्म विकारी कारण तेनु कहेवू पडशे, नहि कारण वण कार्य दोष ए मोटो नडशे, ब्रह्म विकारी स्वयं मानशो तो बहु दोषो; कदा टळे न विकार फोक निजमतने पोषो, परथी ब्रह्म विकार हेतु त्यां कर्म खरे अरे मानशो मानो मत स्याद्वाद त्यारे शुद्ध श्रद्धा आणशो. नित्य एक जो ब्रह्म बहु ते शाथी थावे; मानो भ्रांति दोष श्रुति तब व्यर्थ कहावे भ्रांति कारण ब्रह्म कहो तो ब्रह्मज भ्रांति, भ्रांति कारण कर्म कहो तो कर्मनी कांति; कर्म ब्रह्म बे वस्तुमाने अद्वैत ब्रह्म ते क्या रहा, ब्रह्म शाथी अनेक थावे ज्ञानिए कहो शुं कहयुं. १० ब्रह्म कहो सक्रिय यदि तो पक्षनी हानी, ब्रह्म कहो अक्रिय तदा बहुता केम मानी; इच्छाविशिष्ठ ब्रह्म कहो तो भ्रमणा आवे, इच्छा ब्रह्मनो गुण एम तो कोइ न गावे; एक वस्तु थावे बहु त्यां कर्म कारण जो कहो, कर्म ब्रह्मी भित्र माने द्वैतता मनमा लहो. कर्म ते ब्रह्म स्वरूप मानतां सत्य टळे छ, ज्ञान ध्यानने सदाचार सहु धर्म गळे छे; ब्रह्म एकनुं बहुपणुं जो काल अनादि, एकपणुं नहि थावे माने सम्यग्वादी. ब्रह्म एकनुं बहुपणुं ते काल भेदे जो कहो, हेतु विना नहि कार्य भव्यो वाद ए मिथ्या लहो. ११
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ब्रह्म नित्य तो अनेक धर्मी कदी न थावे, भिन्न धर्म न रहे एकमां व्यासज गावे नैकस्मिन् ए सूत्रदोष निज मतमा आवे, सापेक्षा ए यदि कहो स्याद्वाद सुहावे, . स्वयं एक अनेक थावे वृथा प्रयासो धर्मना, एक आतम बहुपणुं त्यां हेतु भेदो कर्मना १२ बहुत्व प्रति जो एकपणाने कारण मानो, पाप पुण्यमय ब्रह्म दोष ए महापिछानो; ब्रह्म एकने बहुपणुं तेनुं जो थावे, ब्रह्म कहुं एकांत नित्य ए मिथ्या भावे; ब्रह्म विकारी अनित्यता त्यां कथंचित् मानशोयदा, स्याद्वादने अवलंबवाथी पक्ष रह्यो नहि तुम तदा. १३ इच्छा रहित जो ब्रह्म कहो तो बहु केम थावे, इच्छा विशिष्ठ ब्रह्म कहो तो दोषज आवे; इच्छा हेतु ब्रह्म कहो तो कदी न शान्ति, इच्छाथी यदि ब्रह्म भिन्न तो करो न भ्रांति; ब्रह्मने समज्या विना तो भ्रांतिमां जीव झूलतो, एक एवाह ब्रह्म मानी भ्रांतिथी बहु फूलतो एकोऽहं बहु स्याम् श्रुतिनी इच्छा कोने, इच्छा कहो जो ब्रह्मने त्यारे दोषज जोने; ब्रह्म एकने अनेक रुपा इच्छा शाथी, व्यापक कहो जो ब्रहा तदा वे प्रगटी क्याथी; सर्वत्रथी जो प्रगट थांती हेतु तेनो शुं अहो, ब्रह्ममाहि ब्रह्म हेतु दोष ब्रह्मनो तो कहो. उपादानने निमित्त कारण भिन्न कहावे,
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समजे तेने सम्यग् न्यायज मनमा भावे उपादान ते निमित्त नहि छे न्याय विचारे, ब्रह्म स्वरुपने समज्या वण तो दोष वधारे; शक्तिने तेम व्यक्ति भावे ब्रह्म भेदो अनुसरो, बुद्धिसागर ब्रह्म सम्यक् समजवाथी मुखवरो. कर्माच्छादित ब्रह्म अने तेम कर्मथी भिन्न, स्यात् जीवो ते ब्रह्म ब्रह्मथी जीवो अभिन्न मुक्ति अने संसारी विविध जीवो जाणो, करे कर्मनो नाश मुक्तिना जीव वखाणो; अष्ट कर्मावरण जेने जीवो तेहि अशुद्ध छे, संग्रहनय सत्ता ग्रहाथी परम इश्वर बुद्ध छे. प्रति शरीरे भिन्न भिन्न छ जीव अनंता, जीव ते शिव स्वरूप ज्ञानियो एम वदंता; कर्म प्रयोगे जीव ब्रह्म ते अशुद्ध होवे, कर्म नाशथी जीवं ब्रह्म ते शुद्धज जोवे; कर्म कारण अशुद्ध परिणति काल अनादि जाणीए, बुद्धिसागर शुद्ध परिणति कर्म नाशं वखाणीए अशुद्ध गुण पर्याय कर्मना योगे थाता, लक्ष चोराशी जीव योनिमां देह ग्रहातां; एक जीव पण अनेक कायारुपे थावे, कारण तेनुं कर्म ज्ञानियो सम्यग गावे; द्रव्यरुपे जीव एकज पर्यायरूपे अनेक छे, स्याद्वाद सापेक्षताथी श्रुति सत्य विवेक छे. २० अनेक जीवनी सापेक्षाए जीव अनंता, भिन्न भिन्न कहे व्यक्ति जीवनी देव भदंता;
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सापेक्षाए जिनवर गायुं घटतुं सवळु, वक्र जीवोने परिणमे छे मनमा अवछं; ज्ञान एकन द्रव्यरूपे अनंत ज्ञेयो भासता, एक ज्ञान अनंतरूपे एक समय प्रकाशता. केवल ज्ञाने शुद्ध ब्रह्ममां श्रुति सुहाती, एक समय पर्यायरूप अनंत पमाती; जीव द्रव्य ते एक बहु ते एणीपेरे थावे, शुद्धपणे परिणमतां पदकारक जिन गावे, शुद्धमांहि शुद्ध हेतु, अशुद्ध पुद्गल योगथी, बुद्धिसागर अनेकांतनय समनशो श्रुत भोगयी. षड्गुण हानि वृद्धि समय समये थावे, एकोऽहं बहुस्याम् श्रुति त्यां लेखे आवे; ज्ञानगुण छे एक अनेक पर्याय सुहावे, उत्पत्तिव्यय ध्रुवतासंगी श्रुति सुभाव; आत्मशुद्धि थया पछी तो अशुद्धत्ता थावे नहीं, शुद्धचेतन शुद्धरुपे परिणमे गुणनिज ग्रही. ब्रह्मसत्ने असत् जगत् एम बहु जन बोले, सापेक्षा समज्या वण वाक्यने कोई न तोले; आकाशकुसुमवत् जगत् असत् जो मनमा धारो, अनेक दोषो प्रगटे त्यारे चित्त उतारो असत्भाव न दृष्टि देखो ज्ञानी गावे ज्ञानथी, नभोकुसुमवत् असत् मानो जाण्यु ए बेभानथी. एकांते नहि असत् जगत् एम जिनवर कहेवे, सापेक्षाए समजे ते शिवसुखने लेवे; सापेक्षावण श्रुतिवाक्यमा दोष अनेक
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६९ सापेक्षा समज्याथी प्रगटये सत्य विवेक; आत्मद्रव्य सापेक्षताथी असत् वस्तु कही सहु, आत्मरुपे न थाय बाकी शेष द्रव्यो मन लडु. ब्रह्ममांहि जे भासे ते सहू भिन्नाभिन्न, सद्सत् समजी अनेकांतनय थावो लीनः ब्रह्मरुप नविहोय भासतीज वस्तु सर्व, सापेक्षाए असत् तेहथी वस्तु अगर्व; भूतपष्यत् पर्यवो पण असत् अपेक्षाथी कला, बुद्धिसागर गहनशैली समजतानर सुख लह्या. आत्मस्वरूपे असत् पदार्थों जडता भावे, जडताभावे अजीव भात्रो समज्या जावे; ब्रह्मज्ञानपर्याय हंस वा समजी लेशो, ज्ञाने भासे सर्व भाव पण भिन्नज कहेशो; ज्ञानज्ञेय स्वरूप जाणे सर्व संशय जाय छे, ब्रह्म माया भिन्न समजे तव धर्म पमाय छे. परभावरुप जे जगत् इश तेनो छे कर्ता, परभावरूप जे जगत् इश तेनो छे हर्ता; देह जगत्नो सृष्टा आतम इश्वर जाणो, रागद्वेषप्रयोग कर्मनो कर्त्ता आणोः रागद्वेषविनाशथी जीव देह जगत् हर्ता कह्यो, कर्म हर्ता जीव इश्वर सिद्ध बुद्ध शाश्वत लह्यो. कृत्स्न कर्मनो नाश थयाथी सद्यज मुक्ति, जीव परमेश्वररूप पछी नाहि कर्मनी युक्ति; देहरूप जे जगत् पछी नहि तेनो कर्ता, आत्मिक शुद्ध स्वभाव थकी छे तेनो हर्ता;
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सापेक्षता देह सृष्टिकर्ता हर्ता मानीए,
व्यवहार निश्चयनयथकी अहो जीव इश्वर जाणीए. २९ सापेक्षा वण कर्त्ता हर्ता इश्वरमाने,
लहे न आत्मस्वरूप सस ते शुं मन जाणे; निराकार साकार हंस इश्वर छे जाणो, व्यवहारे साकार इतर निश्चयनय आणो; साकार कर्म संबंधथी छे चतुर्गति जीव जाणजोः कृत्स्न कर्मातीतयोगे निराकार शिव आणजो. लडालडी नहि सापेक्षाए तत्व विचारे, विना विचारे धर्म भेदनां युद्ध वधारे; धर्म भेदनो खेद टळे सहु नयना ज्ञाने, आत्मधर्म स्याद्वाद लहे छे सत्यपिछाने; लडालडी नहि धर्ममां कंइ सापेक्षवातो सहु अहो, समजीने अरे आत्मतत्वे साम्यभावे सुख लहो. माया कहो के कर्म कहो किस्मत पण ते छे, सांख्य प्रकृति कोइ कहे पण वस्तु ए छे. मारब्धादिक भेद कर्मना समजी लेवा. करवो कर्म विनाश ध्यानथी धरीने सेवा; चिदानन्द स्वरूप परखी शुद्धरूप विचारीए; ब्रह्म माया भेद समजी माया कर्म निवारीए, नय सापेक्षे धर्म एक छे गुरुगम लेशो, खंडन मंडन करो केम अरे समता वहेशो; समजावो सापेक्षवाद तो भेद न एके, करी कदाग्रह त्याग समजल्यो सत्य विवेके अनेकान्तनय सत्य बोधे सर्व साधुं परिणमे,
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७१ स्थूलदृष्टि जे जना तेने अहो आ नहि गमे. षड्दर्शन जिन अंग कह्यां छे वातज साची, अनेकान्त नय सहज लह्याथी वात न काची गंभीरनय उदार धर्ममां सर्व समावं, समज्यो ते छे स्थिर काई नहि आतुं जातुं रागदोष जीते यमे ते जैनधर्षी जाणीए, नात जातनो भेद नहि अरे सत्यधर्म पिछाणीए. ३४ नातजातनो भेद पडे त्यां धर्मनी पडती, नातजातनो भेद नहि त्यां धर्मनी चडती; लिंग वेषमा धर्म नहि निश्चय नय जोशो, जड वस्तुमा अहंभावथी धर्मज खोशो. ज्ञानयोगे धर्म चडती सर्व लोको आदरे, नीच जन पण उच्चभावे धर्म योगे जग खरे. धर्म खरेखर आत्म विषेछे सत्य विचारे, वाडा बांधी रह्या जीवो ते सत्य न धारे; सापेक्ष दृष्टि प्रगट थतां तो सत्यज लेशो, आत्मोन्नतिमां भव्य अरे बहु राची रहेशो। आत्मोन्नतिमा अनेकान्तनय धर्म साचो अनुसरो, सर्व धर्म समाय तेमां मूढ दृष्टि परिहरो. धन्य धन्य वीतराग वचन रस जेणे चाख्यो, धन्य जीव छ तेह कदाग्रह काढी नांख्यो सत्य खरेखर धर्म हृदयमा जेणे धार्यो, धरी ध्यान वैराग्य मोहने जेणे मार्यो; आत्म धर्मे नित्य सुखने साधता सिद्धज थया, बुद्धिसागर विजयी मुनिवर सिद्ध शाश्वत सुख लया. ३७
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७२ वीर जिनेश्वर वचन विचारी धर्म विचारो; समजी मन स्याद्वाद तस्वने कार्य सुधारो। प्रगटावो सामर्थ्य आत्मनुं ध्यान करीने, धरो शक्ति विश्वास चिदानंद शर्म वरीने सहज शुद्ध स्वभाव पामो बाह्य ममता परिहरी, नित्य विष्णु जीव पोते सत्य श्रद्धा मन धरी. अनेक नामथी वाच्य खरेखर छे निर्नामी. रह्यो रूपमा अरूप भिन्न तुं सुख गुणरामी; क्या शोधे तुं बाह्य बाह्यमां जडता भासे, अन्तरमा यदि शोध करे तो तत्त्व प्रकाशे; शक्ति अनंतिनाथ आतम परम प्रभुता गेहरे, विश्व व्यापक व्याप्य पण तुं अन्यने शुं करगरे. चिदानन्द चेतन तुं ज्यारे निजघर आवे, सहजानंद स्वभाव खरेखर घटमां थावे; नासे देहाध्यास वासना मूळ बळे छे, परम प्रभु विश्वास कर्मनुं जोर टळे छे; आत्म शक्ति प्रगट करवा ध्यान अंतर धारीए, बुद्धिसागर शिव सनातन शुद्ध धर्म विचारीए. घरो आत्मनी टेक बाह्य सहु भूली जाशो, धरी सत्यपर मेंम ब्रह्म मुख हृदय विकासो; ध्यान दृष्टिथी तन्मय थाओ स्वयं प्रभु छो, ज्ञान शक्तिथी सर्व प्रकाशो स्वयं विभु छो; जीव इश्वर भेद हेतु कर्म टाळो ज्ञानथी, अलिप्तभावे बाह्य वर्तन राखशो शुभ ध्यानयी. आत्मगुणनी शुद्ध प्रवृत्ति ध्याने करीए,
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शुद्धगुणउत्पाद दोष ते अंशे हरीए; आत्मगुणोमा प्रेम दया गुण बहु वधारो, सत्यधर्मने ग्रहण करीने आतम तारो। आत्मरमणतापरम भक्ति योगी निश्चय घट वरे, बुद्धिसागर गुरू कृपाथी परम सुख शिष्योवरे। स्वमसमी दुनियादारी सहु दूर निवारी, परम प्रेमधी रटन करो आतम जयकारी; पुरूषोत्तमने परमब्रह्म आतम छे पोते, भूली निजनुं भान अरे केम बाहिर गोते; आत्म शक्ति आत्ममा छे ध्यानीं झट जागती, मोह निद्रा दुःखमय खरे ध्यान योगे लागती. परमब्रह्म जगदीश जीव तुं मंगलकारी, क्या शोधे तुं बाह्य हृदयमा देख विचारी; निराकार भगवान् कहु जे जे ते तुं छे, घर निश्चय विश्वास चिदानन्द ईश्वर तुं छ; विज्ञानघन तुं हंस निश्चय देह देवळमा रह्यो, सत्यभानु परम महोदय कदी न जावे तु कह्यो. सामर्थ्य प्रगटाव खरेखर मळीयु टाणुं, सामर्थ्य प्रगटाव मळ्यु नृभवतुं नाणुं; सामर्थ्य प्रगटाव मोहनी खटपट वारी, सामर्थ्य प्रगटाव ध्याननी दृष्टि धारी; सामर्थ्यने प्रगटावरे जीव हार हिम्मत नहि जरा, आत्मशक्ति प्रगट करी ते जगत्मा जन्म्या खरा. अद्भूत महा सामर्थ्य आत्मनुं योगाभ्यासे, ब्रह्मरन्ध्रमा आसन पूरो झळहळ भासे;
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७४ शक्ति अपरंपार आत्मनी प्रगट करो झट, पाणी अगोचर नाथ तेहनुं ध्यान धरो घट, आत्मशक्ति प्रगट करवा योगविद्या आदरो, जैनशैली गहन जाणी गुरुपदेशे मन परो. कुंटुंबसम दुनिया जीव भासे भेद टळे छे, पैर और ने क्लेश बुद्धि सहु दर टळे छे; आनंद अपरंपार अनुभव निश्चय आये, अशुद्ध भावनो नाश शुद्धता सहज सुहावे; आत्मशक्ति प्राप्त करवी आत्म श्रद्धापर रही, बुदिसागर आत्मशक्ति दीलमां व्यापी रही. स्वस्ति श्री खंभात नगरमा प्रेमे आवी, भेटया स्तंभन पार्श्वजिनेश्वर ध्यान जगावी; अचळ महोदय देव प्रेमथी दीठा भावे; परम प्रभु विख्यात जिनेश्वर हृदय मुहावे; परम प्रभुनु ध्यान धरीने ग्रंथ रचना आ करी, परमब्रह्म नामथी शुभ जगत्मा कीर्ति वरी. भणे गणे ते परम प्रभुता निश्चय पामे, अजरामर थइ बेश ठरे ते निर्भय ठामे; नासे मिथ्या रोग धर्मना ध्यान प्रभावे, अष्टसिद्धि साम्राज्य हृदयमां वेगे आवे; ओगणीस पासठ चैत्र पुनम ज्ञानी जय सुख पामशे, बुद्धिसागर गुरु कृपाथी सत्य सुखडा जामशे.
४८
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उपदेश रत्न
झूलणा छंद. वित्त आप्यु नहि दुःखिपाने अरे, नाम प्रभुनु अरे केम तारे; दोषिना दोष टाळ्या नहि रहेमथी, जन्मीने ते अरे जन्म हारे. वि.१ सुजननी संगति सर्व मानव करे, मुजनने मान सर्वेज आपे; सद्गुणीनी प्रशंसा जगज्ज न करे, सन्तनुं वेण को न उथापे. वि.२ सुजनना बेली सहु कोण एर्नु थशे, रहेम दृष्टिथकी ते विचारो दोषीना दोपहत् सत्य धर्मी खरो, पापीनु पाप प्रेमे निवारो. वि.३ दोषीना दोष धोवा दयागंगथी, सन्त साचा करे कार्य एबुं चंड कौशिक अरे समज सद्ज्ञानथी, वीरनुं वाक्य ए चित्त लेवू.वि.. सर्वना श्रेयमां श्रेय म्हारू रघु, दोषीपर प्रेमनी दृष्टि वरसो; भलं करे मानवी सत्य साधु खरो, दुःख मोहाधिने शिघ्रतरशो.वि.५ उच्चने नीचनो भेद सहु टाळीने, ऐक्यता कीजीए सर्व साथे; उच्च ने भेद भासे नहि सर्वमां, एम भाख्यु अहो विश्वनाथे. वि. वचन काया अने ज्ञान सत्ता थकी, प्राणियोने पडयां दुःख बारी सर्वनी उन्नति कीजीए प्रेमथी, कार्य उपकारनां धर्म धारो. वि.७ उच्च जीवन करो पुण्य करणी करो, कार्य उपकारना साथ आये; बुद्धिसागर खरी धर्म करणी करो, सुजनना चित्तमा सत्य भावे.वि
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देहस्थ आत्मानी परमात्मावस्थानुं स्मरण,
झूलणा छंद. समजी ले भव्य तुं समजी ले भन्यतुं खीलबजे आत्मशक्ति प्रभुनी; आत्म सामर्थ्यथी सर्व कर्मों टळे,शक्ति हृदये धरो चिद्विभुनी स.१ आत्ममा रमणता ध्यान दृष्टि थकी, दुःखना कारणो सर्व नाशे. शरीर व्यापी रह्यो देह भिन्नन लह्यो,ज्ञान सामर्थ्यथी सहु प्रकाशे स.२ स्वाश्रयी थइ रहो सत्यशांति लहो, करणी जेवी तथा कार्य यावे . चितना दोषवारो महाशक्तिथी, परम आनंद पद भव्य पावे. स. ३ गुद निर्भप प्रभु कृष्ण रहेमान् तुं, सूर्यने विष्णु तुं प्रभु सवायो। तेजनो पार नहि वाणी गोचर नहि,ध्यानिनाध्यानमा तुन आयो. अलहळे ज्योति आत्ममभुनी सदा, दुःखनी भ्रांतियो दूर नासे; वीर विश्वेश तुं पिंड वसतां छता, योगियोना हृदयने प्रकाशे. स. ५ तेजनुं तेज तुं देवनो देवतुं, ज्ञानसागर प्रभु तुं मजानो; दृश्य दृष्टा हुँहि वचन सापेक्षथी, परम ध्याने रहे प्रभु न छानो.स.६ अलख निर्भय प्रभु विष्णुने बुद्ध तुं, शुद्धज्ञाने प्रभु था प्रकाशी देव वीतराग तुं शुद्ध सत्ता आहे, व्यक्तिथी था प्रभो धर्मवासी स ७ सारमा सार तुं पूज्यमा पूज्य तुं, जागतो देव तुं देह दीठो; बुद्धिसागर नमुं ज्ञान दातारने, रोम रोमे अहो नित्य मीठो. स. ८
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परना सारामां सारू.
सनमा..
समजो, २
थाळ राग. परना सारामा सारुरे, समजो नरनारी; पण बुरामा अंधारुरे, समनो नरनारी. परना सारामां मीठं, ज्यां त्यां जगमां दीर्छ परनुं बुरु अनीटुरे. परने आळ देतो, हिंसक जन छ तेतो; दुर्गतिमा दुःखडां सहेतोरे. निंदाछे बुरो दारु, तेथी न थाय सारु, आ वचन मानी ले मारुरे. दया धर्म जयकारी, अन्तरमा ल्यो उतारी; हिंसकभाव निवारीरे. शत्रु मित्र समभावे, चतुर्गतिमा नावे; चिदानन्दपद पावरे. दुखिजन उगारो, नीति धर्म विचारो; आवे भवदुःख आरोरे. भलं सर्वन कीजे, साचुं ते मानी लीजे; बुद्धिसागर घट रीझेरे.
समजो ३
समजो. ४
समजो ५
समजो.६
समजो. ७
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समजो. १
कर तो न डर.
थाळ राग. कर तो नहीं डरचुरे, समजो नरनारी; डर तो नहि करचुरे, समजो नरनारी; आगळ विजय विचारी, कृत्य करो नरनारी; जाओ न हिंमतहारीरें. चितिशक्ति खीलवत्री, बाह्यवृत्ति सहु दमवी; शुद्धमवृत्ति भजवीरे.
समजों. २ दुनिया अरे दीवानी, वात करे दुःख खाणी; डरो नहि गुण जाणीरे. दुःखो सामे लडवू, पाछा कदी न पडवू; जरा नहि लडथडवुरे.
समजो. ४ हिंमत कदी नहि हारो, धार्यु पार उतारो; चेतन शक्ति वधारोरे.
समजो. ५ धैर्य धरी सहु करीए, पाछा पगला नहि भरीए; बुद्धिसागर सुखवीररे.
समजो. ६
समजो. ३
R
कर्यां कर्म भोगवां.
थाळ राग. कयाँ कर्म भोगवारे, समता घट धारो; उदास भावे सहारे, समता घट धारो. कायर न थाg व्हाका, वागे जो तन भाला; थाशे मंगलमालारे,
समता.१
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कर्म कदी नहि मूके, दलीकना रस फुके पण ज्ञानी शूर न चूकेरे.
समता, २ कोइ दिन कानी पानी, ने कोइ दिन रानी राजी; एक वेळा नहि छाजीरे. . समता. ३ कर्मे आळ जे आवे, बहु फटफट जगमां थावे; कोइ दिन कीर्ति भावरे.
समता. ४ कोई दिन नृप भिखारी, कोइ दिन मित्रनी यारी; क्षुधा उदरमा भारीरे.
समता. ५ दुनिया पाये लागे, कांटा तो पगमा वागे; कोइ दिन भिक्षा मागेरे.
समता. ६ बांध्यां कर्म नचावे, ज्ञानी तो समता लावे; बुद्धिसागर एम गावरे.
समता. ७
खरी वखत आवी.
थाळ राम. खरी वखत आ आवीरे, ज्ञानी मन भावी देशो कर्म हठावीरे.
ज्ञानी मन भावी. मळीयुं उत्तम टाणुं, परखी ल्यो धर्मनुं नाणुं; यो गुरूजीने नजराणुंरे.
ज्ञानी. १ अवळी नदी उतरवी, पार पेले जावू; दया गंगमां न्हावुरे.
ज्ञानी. २ प्रभु प्रभु स्मरी जे, शरण प्रभुन कीजे दया दान बहु कीजेरे.
ज्ञानी ३
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ज्ञानी. ४
ज्ञानी.५
परमा चित्त न देवं, चिदानन्द पद ले; पाप वचन नहि कहेचुरे. जीवो मित्रज म्हारा, आतम सम सर्वे प्यारा; अन्तरमा अवधार्यारे. वैरी न कोइ मारू, सर्व जगत् छे प्यारू; मुजथी सर्वे न्यारुरे. क्यां आq के जावू, शुं त्याग्युं के लाईं; चेतनता घटमां भावुरे. प्रभु भजननी हेवा, ज्योतिमा भळवू सेवा; बुदिसागर शुभ मेवारे.
ज्ञानी. ६
ज्ञानी. ७
ज्ञानी.
चेतन हुंशियारी धर.
थाळ राग. चेतनजी घर हुंशियारीरे, हिंमत बहु धारी; शिक्षा धरजे सारीरे, मंगल पदकारी. जीवो सर्व खमावो, समताना घरमा आवो; लेजो धर्मनो ल्हावोरे.
हिंमत. १ चार शरणां कीजे, ज्ञानामृत रस पीजे; भवमा नहि भमीजेरे,
हिंमत. २ माया ममता त्यागो, अनुभवथी घटमां जागो; चिदानन्द पद मागोरे,
हिंमत. ३ अजर अमर सुखकारी, चेतन ता जो जे हारी; धर्मे मुख तैयारीरे,
हिंमत..
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८१ कर्म विपाको सहेजे, तुं आप स्वरूपे रहेजे; कोईने काई न कहेजेरे, शक्ति अनंति स्वामी, राख हवे नहि खामी; बुद्धिसागर सुख रामीरे,
हिंमत. ५
हिंमत, ६
झटपट चेत.
घटमां. १
घटमां. २
थाळ राग. चेतनजी झटपट चेतोरे, घटमां झट जागी; अरे काळ झपाटा देतोरे, थाशो वैरागी. दुःख सघनां सहीए, समभावमांहि रहीए; परमानंदपद लहीररे, चेतन अमर कहेवायो, चिदानन्द गुण छायो; घटमा छे दरमायोरे, मोह खटपट मेली, वखत सुधारो छेल्ली; करो न चिंता हेलीरे, छेवट वखत सुधारो, टाणुं मळयुं न हारोः ब्रह्मस्वरूप अवधारोरे. क्षणमा थाशे सारु, पुद्गल नहीं छे त्हारू; मान नहि मन म्हारूरे. क्षणमा पाप जाशे, परम प्रभु परखायो समभावे मुखडां था रे. हिंमत हैयडे धारो, मळयो वखत सुधारो बुद्धि सागर सारोरेः
घटमां. ३
घटमां. ४
घटमां. ५
घटमां. ६
घटमां. ७
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बाब. १
बाह्यधर्मक्रियाडंबर.
पैसा पैसा पैसा हारी. पास क्रियाडबरमां भूल्या, भोळा नरने नारीरे उपर उपरनी धर्मनी बुदि, भटके जग बहु भारीरे. साध्य साधननुं ज्ञान न होवे, मूढमीतथी चाले रे सत्य वातने निश्चयनय कहे, मन आवे खां महालेरे. सम्यग् आत्मस्वरूप न जाणे, बाह्य क्रियामां फूलरे; साध्य शून्य अरे करे क्रिया मो, धामधूममां भूलेरे. मन मुर्यावण शिर मुंडावे, वेष प्रभुनो लजावरे एक एकनां छिद्र ज शोधे, मूढनी आगळ फावरे; व्रत लीधा वण व्रत आलोवे, ज्ञान दशावण घहेलारे; बुद्धिसागर ध्यान क्रिया शुभ, समजो समजु वहेलारे
बाह्य. २
बाध.३
बाह्य. ४
बाह्य. ५
धामधूममां धर्म
राग उपरनो. धामधूममा धर्म मनायो, भूल्यां नरने नारीरे; चिदानन्द नहि शोध्यो घटमां, खाइ मति हुशियारीरे. धामधूममां.१ धर्म धूतारा केइ फरे छ, बग शांति बहु धरतारे; भोळा जनने भरमावीने, उदर पोषण अरे करतारे. धामधूमपां. २ पोप लीला चलवे छे भारी, राखी बहु हुशियारीरे; लोभी वसे त्यां धूर्ती फावे, जोशो चित्त विचारीरे. धामधूममां. ३ क्रियाकांडमां साध्य शून्य थई, मूर्ख जनो भटकायारे
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सम्यग् ज्ञानक्रियाथी मुक्ति, कोईक वीरला पायारे धामधूममा.४ अलख खलकमां साचो समजो, देह पिंडमां वसियोरे; बुद्धिसागर ध्यान क्रिया शुभ, अन्तर अनुभव रसियोरे.धामधूममां.५
शुद्धपरमात्मस्वरुपस्मरण.
पैसा पैसा ए राग. परमबुद्ध परमेश्वर स्वामी, रुपारुप प्रकाशीरे, चिदानन्द चेतन निर्दोषी, शाश्वत सिद्धि विलासीर
परम. १ सात नयोथी आत्मधर्मनी, स्थिति शुद्ध विचारोरें; द्रव्यार्थिकनय नित्यपणेछे, एकरुप ध्रुव प्यारोरे. परम. २ पर्यायार्थिकनय अनित्य, पर्याय शुद्धि मजानीरे सोऽहं सोऽहं प्रभु गुण गावो, सिद्धि रहे नहि छानीरे. परम. ३ रत्नत्रयीनी स्थिरता छाजे, आनन्द अनहद राजेरे; परम महोदय लीला प्रगटे, त्रण भुवन शिर गाजेरे. परम. ४ तत्वमसि निश्चयनय निर्मल, घटमां गंगा काशीर; बुद्धिसागर घटमां शोधो, आनन्दघन अविनाशीरे.
चितिशक्ति सामर्थ्य.
राग उपरनो. चितिशक्ति अनंत खीलववी, योगाभ्यास वधारीरे; बाह्य भाव सहु दूर हरीने, सेवो धर्म सुधारीरे.
चिति. १
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८४ परिपूर्ण हुँ पुरुषोत्तम छु, वीर्य अनन्तनो स्वामीरे; ने धारु ते करी शकुं हुं, मिश्रक्षायिक गुणरामीरे. चिति. २ कोइक निन्दो कोइक वन्दो, मन आवे ते धारोरे; पण तेथी मुज कांइ न जातुं, शुद्ध स्वभावे प्यारोरे. चिति. ३ दुनिया खोटी तो शुं मारे, सारी तो शुं मारेरे; समभावे आनन्दमां झील, निश्चय शुद्ध विचारेरे. चिति ४ निश्चयनय आनंद स्वभावी, शोधो घट नरनारीरे; बुद्धिसागर वीर्यात्साहे, परमब्रह्म पद भारीरे. चिति. ५
परमज्योति पद.
राग उपरनी. परमज्योति परमेश्वर स्वामी, चिदानंद जयकारीरे; आतम ते परमातम साचो, व्यकितपणे बलिहारीरे. परम. १ नित्यनिरंजन निर्भय निश्चय, व्यकित जीव अनंतारे कर्म खप्याथी जीव ते शिवरुप, भाखे छे भगवंतारे. परम. २ उत्पत्ति व्यय ध्रुवता संगी, समये सपये वखाणोरे, सापेक्षाए धर्म अनंता, समनी शिव सुख आणोरे. परम. ३ नहि हुं कर्ता नहि हुं हती, नहि हुं नर के नारीरे; वृद्ध युवा के नहि नपुंसक, ज्ञात भात नहि मारीरे. परम. ४ स्याद्वाद सत्तामय पूर्ण, परमानंद पद भोगीरे; बुद्धिसागर सुरता साधी, थावे निश्चय योगीरे. परम. ५
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आश्चर्य पद.
राग उपरनो. अचरिज मोटुं दीठं संतों, साधु सरोवर झीलेरे; अनहदनादे मुनिवर नाचे, दाणा घंटीने पीलेरे. अचरिज. १ वाहाण मांहि समुद्र समायो, राजा करे रंक सेवारे; खरा बपोरे लेश न मुझे, पूजे पूजारीने देवारे. अचरिज. २ लक्ष्मीदारो भीक्षा मागे, भिक्षुक शेठ कहावेरे; उलटो चोर कोटवाळने दंडे, जूडं जनने भावरे. अचरिज. ३ नपुंसकना वशमा सहु दुनिया, दुःखने सहु पंपाळेरे; पोताने दुनियामां शोधे, छती आंखे नव भाळेरे. अपरिज. ४ धामधूममा धर्म मनायो, भोगी जन संन्यासीरे; जूठा बोला जग पूजाता, देखी आवे बहु हांसीरे, अचरिज ५ पति सतीनी जोडज वीरली, अंधा अंधने दोरेरे; बुद्धिसागर घटमां शोधो, आंबो शोभे मोरेरे. अचरिन. ६
Taster
जाग्रति सदुपदेश पद.
राग उपरनो. जागीने तमे जुओ सन्यासी, जोगी, जति, विश्वासीरे; खाखी, फकीर, वैरागी, त्यागी, साधु संत उदासीरे. जागीने १ समजी साचुं अंतर धारो, खटपट मनथी वारोरे; साचुं ते पोतार्नु मानी, आतमने झट तारोरे. जागीने. २ जड चेतन बे तत्त्व अनादि, कर्म ते जीव ग्रहेछेरे
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मिथ्यात्वादिक हेतुयोगे, चार गतिमां वहेछेरे. जागीने. ३ कर्म जतां आतम परमातम, ज्योति ज्योत मिलावरे सादि अनंतिस्थिति सिद्धि, संसार फरी नावरे. जागीने. ४ जीव ते इश्वर कर्मनो कर्ता, हर्ता पण ते थावेरे; शरीर जगत्ने रचतो हरतो, ध्याने शिवपुर जावेरे, जागीने. ५ संग्रहनयथी ब्रह्म अनादि, सर्व जीवोमा सारुरे; सत्ताव्यक्तिथी एक अनेक, अनेकांतनय प्यारुरे. जागीने. ६ देह जगत् अज्ञाने रचतो, इश्वर आतम पोतेरें; असंख्य प्रदेशी देहे व्याप्यो, बीने शीदने गोतेरे. जागीने. ७ भेद अभेद स्वरुप सुहायो, सूक्ष्म बुद्धिथी ध्यायोरे, बुद्धिसागर करुणानो घर, परमप्रभु परखायोरे. जागीने. ८
सोऽहं.
राग उपरनो. सोहं सोऽहं सोऽहं सोऽहं, सोऽहं रटना धारीरे; रेचक पूरक कुंभक साधी, केवल कुंभक भारीरे. सोऽहं. १ ईडा पिंगला सुषुम्णा नाडी, पवनाभ्यास संचारीरे। द्रव्यभावथी ध्यान पिंडस्थ, धर्यु हृदय जयकारीरे. सोऽहं. २ पद् चक्रोनो भेद करीने, वंकनाल अवतारीरे; जई गगनगढ आसन कीg, अन्तरदृष्टि उतारीरे. सोऽहं. ३ स्थिरोपयोगे आनंद देरी, प्रगटी महागुणकारीरे; अनुभवामृत पीई प्रेमे, अलख दशा अवधारीरे. सोऽहं. ४ चढवं उतर, क्षयोपशमथी, करवी क्षायिक सिद्धिरे । बुद्धिसागर सोहं सोह, स्मरण करे सुखरुद्धिरे. सोऽहं. ५
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उच्चभाव.
राग उपरनो. उच्च भावना उच्च करे छे, दोषो सर्व हरेछेरे। आतम ते परमातम थावे, समजु चित्त घरेछेरे. उच्च. १ सद्गुणदृष्टिथी गुण लेवा, निन्दा दोष निवारीरे; पिस्तालीश आगमने समजी, लेशो आतम तारीरे. उच्च. २ सम्मग्दृष्टि गुण ग्रहे छे, सद्गुण चित्त वहेछेरे; दोषीना पण दोष न बोले, गुणिनो गुण लहेछरे उच्च. ३ अवगुण उपर गुण करे छे, उच्च भावनाभ्यासीरे। द्रव्य क्षेत्रने काल भावथी, धर्म तत्त्व मन वासीरे. उच्च. ४ आतम ते परमातम ध्यावो, उच्च भावना सारीरे; बुद्धिसागर उच्च भावना, चित्त घरो नर नारीरे. उच्च ५
Occore-----
जुओ.?
जुओ तपासी.
राग उपरनो. जुओ तपासी जुओ तपासी, अन्तरमा सुख साचुरे; अनुभवामृतसागर भातम, बाकी सघळु काचुरे. क्षणिक दुनियाना सहु रंगो, चेन पडे नहि चारुरे; ९ मारु ए मुजथी न्यारू, समज्या वण अंधारुरे. झळहळ ज्योति जागी रदी छे, लोकालोक प्रकाशीरे; शाता, ज्ञेयने ज्ञानविलासी, जोता टळती उदासीरे. द्रव्य गुणपर्यायमयी जीव, निश्चय निज गुण भोगीरे;
जुओ. २
जुओ. ३
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८८
जुओ. ४
परमब्रह्म पुरुषोत्तम स्वामी, योगीना पण योगीरे. शक्ति अनंति समय समयमां षद्गुण हानिवृद्धिरे, बुद्धिसागर चेतन चिन्हे, थावे जिनपद शुद्धिरे.
जुओ. ५
मैत्रीभावना धारो.
राग उपरनो. ज्या त्या मैत्रीभावना धारो, इा दोष निवारोरे; दुश्मन कोइ न जीवों मारा, साचुं तत्व विचारोरे. ज्यां त्यां. १ स्वार्थ धरी कोइ जीव न मारो, मरता जीव उगारोरे; दया धर्ममा मूल खरु छे, मैत्री भावमा धारोरे. ज्यां त्यां. २ सर्व जीवो जो मारा मित्रो, तो केम अन्यने मारुरे. मैत्रीभाव त्यां कदी न हिंसा, सत्यतत्त्व अवधारुरे. ज्यां त्यां. ३ द्रव्यभावथी मैत्रीभावना, शाश्वत सुख करनारीरे; मोह दोषनो नाश करेछे, परमधर्म धरनारीरे. ज्यां त्यां. ४ चंडकोशिया सर्पनी उपर, मैत्री भावना सारीरे वीरजिनेश्वरना मनजाणो, बुद्धिसागर प्यारीरे. ज्यां त्यां. ५
निन्दा त्याग. उठो चेतन आळस छंडी-ए राग अथवा प्रभात राग. कर्माधीन छे संसारी जीव, निन्दा कोईनी न करशोरे; निन्दा करता नीचपणुं छे, शिक्षा दिलमा धरशोरे कर्मा. १
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तरतमयोगे दोषी दुनिया, करशो तेवू भरशोरे; निन्दक जन चंडाल समो छे, निन्दाने परिहरशोरे. कर्मा. २ पोतानामा दोष घणा छ, तेने कोई न पेखेरे; परना चांदा खोळे पापी, सद्गुण दृष्टि उवेखेरे. __ कर्मा. ३ निन्दकनी दृष्टि छे अवळी, परने आळ चढावरे; पोते सारो परने खोटो, कहेवामां ते फावेरे. त्रियोगे निन्दक जन पापी, परतुं भुंडं धारेरे; बुद्धिसागर सद्गुण दृष्टि, धारी दोष निवारेरे. कर्मा.५
कर्मा..
एक स्वप्न.
राग-प्रभात. खम समी आ दुनियादारी, समजो नरने नारीरे; बाजीगर बाजी सम दुनिया, सुख नहि तलभारीरे. स्वम. ? जन्म्या तेने जावु अन्ते, माया सर्व विसारीरे; चेत चेत चेतनजी मनमां, मायामां दुःख भारीरे, स्वम. २ हाजी हा सहु स्वार्थतणी छे, मोहे मारामारीरे; स्वारथनुं सगपण जगमांहि, निश्चय देख विचारीरे. स्वम ३ इन्द्र चन्द्र नागेन्द्र चवेछे, राणा रंक विहारीरे; अमर रहे नहि कोई आ जगमा, फुले शुं संसारीरे. स्वप्न. ४ ज्ञान ध्यानयी अन्तर शोधो, आतम सुखनी क्यारीरे; बुद्धिसागर धर्मि जननी, हुं जाउ बलिहारीरे. स्वप्न. ५
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परिग्रहममता.
राग उपरनो. परिग्रहनी मूर्छा छे भारी, मोह्यां नरने नारीरे परिग्रह ग्रहछे अभिनव जगमां, आपे दुःखडां भारीरे. परिग्रह. ? सर्व उपाधि मूळ परिग्रह, नरकगतिनी क्यारीरे; परिग्रह मोघे धर्म न मुझे, जोशो दिल विचारीरे. परिग्रह. २ परिग्रह सन्निपात समो छे, चिंता दुःख संचारीरे; बाह्य भावमां मनडुं भटके, जावे नरभव हारीरे परिग्रह. ३ अन्तर्धनमां विघ्न परिग्रह, जोशो मनमा धारीरे; ज्ञान ध्याननो भंग करे छे, चेतन शक्ति खुवारीरे. परिग्रह. ४ परिग्रहमां मोटाइ धारे, भूल्या ते जन भारीरे । बुद्धिसागर अन्तर्धनथी, चिदानंद तैयारीरे. परिग्रह. ५
शामाटे वाद करवो,
उठो चेतन आळस छंडी-ए राग शा माटे अरे वाद करो छो, वादे सत्य न सुझरे; धर्मवाद वण ताणताणा; आतम तत्त्व न बुझेरे. शा माटे. १ सातनयोनुं ज्ञान थया वण, सापेक्षा नहि आवेरे; सापेक्षा समज्या वण चेतन, स्थिरताभाव न पावेरे. शा माटे. २ स्याद्वाद सम्यक् जे समजे, ज्ञानी तेह कहावरे सद्गुण दृष्टि मनमा धारी, परमानंदपद पावरे. सा माटे. ३ इष्टानिष्टपणुं नहि परमां, समता सहज कहावरे,
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त्याग ग्रहण नहि पुद्गल वस्तु, योगी सत्य मुहावरे, शा माटे. ४ चिदानन्दमां लीन थइने, कर्म कलंक हठावरे; बुद्धिसागर निर्मल चेतनं, परम महोदय पावरे, शा माटे. ५
कपटक्रियामां पाप.
राग-उपरनो. कपट क्रियामां पाप घणुं छे, मुख मधुर मन कातीरे। बक शान्ति कपटी मन धारे, कपट कळायुत घातीरे. कपट. १ कपटे तप जप किरिया निष्फल, मौनपणुं पण खोटुरे; गगन उपर चित्रामनी पेठे, कपटीहूँ सहु छोटुंरे, कपट. २ काष्ठ परे सुकाइ जावे, तो पण कपटी बूरोरे; कपटीनुं छे काळु मनई, पर निन्दामां शूरोरे. कपट. ३ फल किंपाकना सरखो कपटी, अहि सम संग निवारोरे; बाहिर जुदु अन्तर जुदु, तेनो संग निवारोरे. कपट. ४ आप स्वार्थमां निशदिन रातो, धर्मि डोळ जणावेरे; बुद्धिसागर आत्मज्ञानथी, समजी साचुं पावरे. कपट.५
हे आत्मा तुं वस्तुतः सिद्ध छे.
राग उपरनो. शुद्ध बुद्ध हुँ सिद्ध सनातन, जिनवर शिवमय काशीरे, सत्ताथी छु त्रिभुवन स्वामी, चिदानन्द पद वासीरे.
शुद्ध ?
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९२
शिव इश्वर पुराण महोदय, पुद्गलद्रव्यथी न्यारोरे; रत्नत्रयी विश्रामी नामी ; गुण पर्यायाधारौरे.
अविनाशी अकलंक स्वरूपी, परम मंगल पद धारीरे. नित्य निरंजन निर्भय देशी, अक्रियने अणाहारीरे, परपुद्गल कर्त्ता हर्ता नहि, सहजस्वरूप सुखकारीरे; आनन्दघननी मोजमज्ञामां, रमण करु जयकारीरें. निश्रयनय एम मनमां द्वारी, व्यवहारे व्यवहारीरे. बुद्धिसागर परम ज्योतिमां, मंगल पद घट धारीरे.
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Byg
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शुद्ध २
शुद्ध. ३
गाडरीया प्रवाहनी अंधाधुधी.
राग उपरनो.
गाडरीया प्रवाहमां दुनीया, अंधाधुषी चालेरे;
गाडरीया. २
सत्य वातनो शोध करे नहि, मन माने त्यां म्हालेरे. गाडरीया. १ सूक्ष्म बुद्धिवण गहन वातने, समजे नहि अज्ञानीरे; आपमति त्यां युक्ति खेंचे, समजे शुं तें प्राणीरे. सर्वज्ञ वाणीने गुरुगम, समज्या वण दुःख खाणीरे; परम बोध प्रगटे नहि मनमां, समजे कोइ जिन वाणीरे गाडरीया. ३ ज्ञान विना नहि भान लहे निज, अज्ञानी बहु भटकेरे;
सद्गुरु वाणी न मनमां धारे, लक्षचोराशी अटकेरे गाडरीया. ४ अज्ञानी पशुसम अवतारी, ज्ञाने ते सुधरेछेरे; बुद्धिसागर शुद्ध दशा लही, परमानंद बरेछेरे.
गाडरीया. ५
शुद्ध. ४
शुद्ध. ५
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९३
आपबडाइ.
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राग उपरनों.
आप बडाइ जे जन बोले, तेह टकाने तोलेरे;
आप. १
आप बडाइ जे जन मारे, पुस्तक जलमां बोळेरे. आप बडाइ गुण नवि संचे, अभिमान मन आवेरे; निजगुण निजमुखी नव बोले, ज्ञानी जन एम गावेरे. आप. २ आप बडाइ त्यां हलकाइ, समजो नरने नारीरे; डुं त्यांथी सद्गुण छे आघा, उच्चदशा नहि धारीरे. उत्तम जननी नीति उंची, करे न आप बडाइरे; उगे सूर्य सहु हर्ष धरे छे, बोल्या वण सुखदाइरे. मोटाइथी जलधर गाजे, त्यारे जल नहि बरसेरे; बुद्धिसागर रहे न छानो, सूर्य उग्यों झळहळशेरे.
शा माटे चिंता करवी. राग उपरनो.
शा माटे अरे चिंता करवी, चिंता दुःख वधारेरे, चिंताथी चतुराई टळे छे, जीवंतां अहो मारेरे. चिंता चितासम दुःखदाई, धैर्य त्यजावे भारीरे; चिंतातुरने सत्य न मुझे, जोशो चित्त विचारीरे. चिंता कर्म वधारे पुष्कल, चिंता दुःखनी क्यारीरे; चिंतासागरमा जे पडिया, नीच गति अवतारीरे. चिंता कारण मोह खरो छे, चिंताथी नहि शांतिरे;
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आप. ३
आप. ४
आप. ५
शा माटे. १
शा माटे. २
शा माटे. ३
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९४
चिंता अग्नि मन घर बाळे, प्रगटे दुःखकर भ्रान्तिरे. शा माटे. ४ ज्ञान धैर्यथी चिंता नासे, प्रगटे छे हुंशियारीरे; बुद्धिसागर अवसर आवे, धैर्य धरो नरनारीरे.
शा माटे. ५
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क्लेश त्याज्य छे.
राग उपरनो वा. प्रभात.
क्लेश. १
क्लेश. २
क्लेश तजो अरे कळेश तओ अरे, क्लेशे लक्ष्मी टळेछेरे; क्लेशे पर पोतानुं भूंडुं, दुःखना वृन्द मळे छेरे. क्लेशे बैर विरोध वधे बहु, सुख दहाडा परवारेरे; क्लेशी जन संसारे कडवो, आप मरे पर मारेरे. क्लेशे कुटुंबमां नहि शान्ति, नातजातमां जोशोरे; बळता अग्नि सम छे क्लेशज, पडतां निज मुख खोशोरे. क्लेश. ३ क्लेशे देश राज्य अवक्रान्ति, धर्म राज्य अवक्रांतिरे;
क्लेशे काळु ज्यां त्यां दीतुं, क्लेशे बहु विष भ्रान्तिरे. क्लेश. ४ क्लेशी जन पर दुःखनां वादळ, क्षणमां मारा मारीरे; बुद्धिसागर शिक्षा पामी, क्लेश तजो नरनारीरे.
क्लेश. ५
20299%
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ज्ञानी.
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छप्पय छंद. सत्य ज्ञानी छे तेह खरेखर समता राखे, उलट आंखथी ध्यान धरी मुख रसने चाखे, करे उपाधि दूर खरेखर मननी सघळी, परिहरे छे दुःखकर सघळी चिंता सगडी; द्रव्य क्षेत्रने काळ भावेज वस्तु धर्मने जाणतो, दुर्गुणो सहु दूर करीने सद्गुणो मन आणतो. विस्तृतदृष्टि राखी जननुं भव्य विचारे, सदाचार धरी आप तरेने परने तारे कपट क्रियामां रंगातो नहिं मोह धरीने, धामधूममा रंगातो नहि मान करीने स्थिरोपयोगे नित्य रहेवे पर रमणता परिहरे, बुद्धिसागर ज्ञानी जनने धन्य छे मुखडां वरे. भणे भणावे ज्ञान ज्ञानिनी छे बलिहारी, ज्ञानिनी शुभ संग ज्ञानी छे महावतारी; ज्ञानी निर्मल वाण सुणीने सहु जन बुझे, ज्ञाने सत्य विवेक ज्ञानथी सत्यज मुझे;' ज्ञानी सेवा जे करे ते चिदानंद पदवी वरे बुद्धिसागर ज्ञानि जनने दुनिया वंदन करे. करो ज्ञानिनुं मान ज्ञानिथी शासन चाले, करो ज्ञानिनी सेव ज्ञानीजन शिवमा म्हाळे;
आत्मज्ञानिनी आण धरंतां मुखडां पासे, करे कुमातिनो नाश उपाधि सर्व विनाशे;
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४
कामकुंभ सुर द्रुमथी अहो ज्ञानी उपकारी बहु, सम्यक्त्व दर्शन जीव पामे ज्ञानी शोभा शी कहुं ज्ञानि जनने सहाय करे ते प्रभुता पामे, ज्ञानिनी बहु भक्ति करे ते ठरतो ठामे; परखे ज्ञानी कोइ जेहने ज्ञान प्रकाश्युं, परखे ज्ञानी कोइ चित्त समताए वास्यु चंद्र सूर्यने मेघथी अहो ज्ञानि महिमा बहु कयो, बुद्धिसागर ज्ञानि संगे आतमा निजपद लह्यो. पंच महाव्रत धरे हृदयमां समता धारे, ज्ञानतणुं फल विरति निश्चय एम विचारे निश्चयदृष्टि चित्त धरे व्यवहारे चाले, स्थिरोपयोगे अनुभव सुखमां निश्चय म्हाले; अनुभवीए अनुभव्युं छे ज्ञानफळ शिव धर्म छे, बुद्धिसागरं सत्य ज्ञानी परम शिवपुर शर्म छे.
कहेणी रहेणी.
___ छप्पय छंद. कहेणी सम रहेणी राखे ते वक्ता साचो, कहेणी सम रहेणी नहि जेनी ते जग काचो; कथनी कथनारा वर्ते छे जगमां लाखो, मासाहस पंखी सम कहेणी काढी नाखो; कहेणी सम रहेणी खरेखर कोइ ज विरला धारता, बोली बणगां कुंकता ते चेतनने नहि तारता.
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नीति सद्गुण खरा जगत्मा सहु जन कहे छ, कहेणी सम रहेणीनी वाटे बिरला वहेछे धर्म मार्गने जाणीने वर्तनमा मूके, विरतिनी रहेणीने विरला कदी न चूके धर्म तत्त्वज जाणीने जे उच्च वर्तनमा रहें, बुद्धिसागर तेह साचा सिद्ध शाश्वत सुख लहे. थोडी कहेंणी रहेणी बहु ते सज्जन डाह्या, धन्य धन्य ते वीर जगत्मां जननी जाया पाडानी पेठे पोकारें दया न पाळे, गद्धानी पेठे भूके पण दोष न टाळे शुद्ध आत्मस्वभावमा जे रमणता करता खरे; बुद्धिसागर तेज वक्तां सत्य सुखडां झट वरे. उपर उपरथी फोनोग्राफनी पेठे बोले, बोले पण पाळे नहि ते जन रासभ तोले; ज्यां त्यां भाषण भवाइ उठी कर्वा न पाळे, परोपदेशे पंडित जग शुं ते अजुवाळे; सदाचार जेमां नहिने स्वार्थथी ज्यां त्यां फरे, उच्च सद्गुण प्राप्ति वण ते उच्च आतम शुं करे. जैन मुनिवर जोशो जगमा व्रतने पाळे, कहेणी सम रहेणी राखीने ।ळ अजवाळे कहेणी समजे रहेणी राखे जग जयकारी, सहश्रमांहि एक जगतमा महोपकारी3; बुद्धिसागर कहेणी समजे रहेणी राखे ते खरा, धन्य धन्य ते नर जगत्मां जननी कूखे अवतर्या.
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९८ विद्या.
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छप्पय छंद.
विद्या सुखनुं मूळ सज्जनो जाणी लेशो, विद्याभ्यासी सज्जन सत्वर साचुं कहेशो; सर्व देशमां सर्व कालमां विद्या सारी, विद्याथी छे सत्य सुधारो जग जयकारी; सर्व सुखनुं मूळ जगत्मां विद्या वृद्धि ज जाणीए, विद्वान् जन छे सर्व पूज्य ज सत्य मनमां आणीए. सर्वोन्नतिनुं मूळ जगत्मां विद्या साची, चक्षु विना जेम काया उम्मर तद्वत् काची; मूढपणुं अळपातुं विद्या तेजे जगमां, विद्यानो शुभराग ज्ञानीने छे रगरगमां; सर्वभाषा जाणवाथी ज बुद्धि विकसे छे खरी, उन्नतिने शोधवामां सत्य विद्या जयकरी. विद्याथी सर्वत्र पूज्यछे नरने नारी, विद्यार्थी नीतिनी वृद्धि छे सुखकारी; आत्मतत्त्वनुं ज्ञान करावे विद्या साची, टळे अविद्या विद्यायोगे रहेशो राची; ज्ञातिधर्म देशोन्नतिमां भव्यविद्या मूळ छे, जन्मी विद्या ग्रही नहि तो सर्व उमर धूळ छे. चढती पडती सर्व पिछाणे विद्यायोगे, तन धन सत्तानी प्राप्ति छे विद्याभोगे। विद्यावण जन पशु समाना आर्यो होवे, विद्या पायें म्लेच्छोदय पण अधुना जोवे;
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१
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९९
नीच जन पण उच्च थावे प्रामीने विद्या खरे, उच्च कूळ पण नीच थावे समजशो सज्जन अरे. विद्यार्थी अवसरने जाणे माणी प्रेमे, विद्यार्थी सुकृत्य करे छे निश्चय नेमे; विद्वज्जननी संगति थातां पाप टळे छे, महामुनिवर ज्ञानी संगे धर्म मळे छे; वात साची खरेखरी आ सज्जनो मन धारशो, बुद्धिसागर जिनागमे सहु वस्तु तत्त्व विचारशो.
हासी.
छप्पय छंद.
हांसीथी खांसी प्रगटे छे जगमां भारी, हांसी जननी घात करावे दुःख करनारी; परनी हांसी करनारो जन मूर्ख कहावे, उत्तम जननी शोभा तेथी लेश न थावे; हास्यथी छे युद्ध भारी वैर वृद्धिं छे घणी, मृढ जनने हास्य प्रगटे होय जे अवगुण घणी. हांसी करतां पाप घणुं छे ज्ञानी गावे, सत्य धर्मनो लोप हांसीथी शिघ्रज थावे; हांसी परने क्रोध करावे समजी लेशो, हांसी दुःखनुं मूळ जाणीने दूरे रहेशो; हांसी करतां जगत् जन सहु द्वेषनुं पोषण करे, यत्र तत्र अपमान पामे दुःख कारण मन धरे.
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कुंटुंबमां कंकास हासीथी राज्य विनाशे, आवे दुर्मति पास रहे नहि सुमति पासे सदाचरणनो नाश हांसीथी छोकरवादी, पामे नहि सन्मान कहे जन छे उन्मादी; हास्य करतां जगत्मां अहो दोष श्रेणि जन लहे, हास्यमा अहो सार शुं छे उच्च तेने शुं वहे. ठठा हांसी दुर्गुण हेतु परखी लेशो, परनी हांसी करवामां जन लक्ष न देशो परनी हांसी करवामां छे निजनी हांसी, विद्वज्जन अरे पाद उपर केम मारे वांसी; उच्च सद्गुण धारीने अहो सत्य वाणी दिल धरो, बुद्धिसागर सत्य शिक्षा पामी प्राणी सुख वरो.
दया
छप्पय छंद. दया सर्वथी श्रेष्ठ दयामां धर्म समाया, दया धर्मनुं मूळ दयाथी सुरनरराया; दया धर्मथी सुख दयाथी पाप टळे छे, दया धर्मथी मोक्ष दयाथी पुण्य मळे छे द्रव्य भाव बे भेदथी अहो दया जगत्मा सार छ, उच्चमां ते उच्च भव्यो धन्य तस अवतार छे. प्रिय स्वकीय प्राण अन्यनो तेम खरे छे, पोताने जेम दुःख अन्यने तेम अरे छ।
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१०१
प्रिय पोताने सुख अन्यने तेमज व्हालं, परने नावे दुःख अहो हुं तेमज चालु आत्मवृत्ति दयामयी तो मुक्ति करमां जाणशो, समजीने अहो भव्य लोको दया धर्म मन आणशो. पोताना सम अन्य जीवोने निश्चय धारे, प्राण पडे पण अन्य जीवोने कदी न मारे; गृहस्थ धर्मने योग्य दयानी रहेणी राखे, साधु निज पर हेतु दयाथी शिव सुख चाखे दया धर्मनी माहात्म्यथी अहो देवता पाणी भरे, बुद्धिसागर दया वहाणी जगत्मां सहु जन तरे. दया धर्मनी कहेणी समजे रहेणी राखे, दया धर्मना सुख खरेखर ते जन चाखे। दया धर्मनी परोपकारि वृत्ति मोटी, दया धर्मवण धर्मनी कहेणी लागे खोटी दया धर्मवण जगत्मा अहो सुख नहि तलभार छे, बुद्धिसागर दया धर्मथी जगत्मां जयकार छे. जेवुं बावो तेनुं लणशो दया कर्याथी, दया धर्मथी उच्च भावना सत्य वर्षाथीः दया धर्मथी परम प्रभुता घटमां जागे, इंद्र चंद्र नागेन्द्र खरेखर पाये लागे दयाना बहु भेद भाख्या एक पण जे आदरे, बुद्धिसागर सिद्ध पदवी प्राणी ते प्रेमे बरे. दया धर्ममा उच्च खरेखर जूठ न बोले, दया धर्ममां उच्च खरेखर कूट न तोले; ब्रह्मचर्यना भेद दयामां सर्व भळे छे,
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धन मूर्छानो साग दयामां सर्व मळे छ। स्वकीय परना शर्म माटे दया जगत्मा वेश छे, बुद्धिसागर दया धर्मथी परम शर्म हमेश छे.
- coccoon
वेश्या संग.
छप्पय छंद. वेश्या संगे पाप जगत्मा मोटुं भाख्यु. वेश्या संग कर्याथी मूर्खाए दुःख चाख्यु; वेश्या संगी वित्त विनाशे भलु न जोवे, निज पत्नीनो प्रेम हणीने मूढज होवे; कुंटुंब घर निज देशनी अहो अवनतिनुं घर अहो, जगत्मा ते मूर्ख मोटो हृदयमां समजी रहो. वेश्याना नाचे मोह्या ते लहे खुवारी, कूतर सम तेनी वृत्ति जोशो नरनारी; वेश्याना घरमा जावाने हृदय निवारे. पण समजे नहि मूर्ख सत्यने नहीं विचारे; वीर्यकीर्तिनो नाश थावे मोहथी ते करगरे, धिक तस अवतारने अहो समजीने नहि आचरे. करे आयुनो नाश लोकमां मान न पामे, वेश्या संगी अहो जगत्मां ठरे न ठामे वेश्यानो शो प्यार विचारी जोशो पाणी, करे देशनो नाश वात नहि कोई अजाणी जीवननी साफल्यताने टेकथी करशो अहो,
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ब्रह्मचर्यनी वृत्ति धारी जगत्मा मुखकर रहो. अॅठ समो वेश्यानो संग करे ते खोटो, वेश्या संगे निश्चय आवे छे बहु तोटो। वेश्या संगे शरीर कांति घटशे नक्की, वेश्या संगे अल्प आयुनी समजो वकी। संग वेश्यानो जे करे ते कार्य सारं शुं करे, देश दोलत धर्म खोवे दुःखना दहाडा वरे. वेश्या संगी अज्ञाने दुःखमां सपडातो, अल्प मुखने हेत मीन ज्यु गोळी खातो; वेश्या संगे अनेक जीवो संपत् हार्या, वेश्याए लक्ष्मीना लोभे जन बहु मार्या; त्याग वेश्यानो करीने शीयलमा जे मन धरे, बुद्धिसागर धन्य ते नर सिद्ध शाश्वत सुख बरे.
Treen
परनारी संग.
छप्पय छंद. परनारीनो संग करे ते कर्म वधारे, परनारीनो संग करे ते बळने हारे; परनारीनो संग करे ते ठरे न ठामे, परनारीनो संग करे ते दुःखडां पामे परनारी संगे जे रम्या ते दुःख रौरव भोगवे, परनारी संगी जे जनो ते चित्त आव्यु ते लवे. परनारीना मे रावण राजज हार्यो,
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वस्त्राकर्षक कीचकने तो भीमे मार्यो परनारी संगे जन दुःखी ज्यां त्यां होशे, परनारीना फंद फसीने अंते रोशे वित्त वीर्यने प्राणनो अहो नाश थावे छे खरो, किंपाक फळने भक्षतां तो प्राणिया अंते मरो. लंपट लुच्यो परनारीना संगे यावे, कीर्तिनो धृमाडो करीने काइ न पावे; लागे कूळ कलंक लोक जन म्हेणां मारे, आयुः प्राणनो नाश पामीने नरभव हारे परनारी संगे घात थावे केदमा पडतो अरे, क्षणिक भ्रांति मुख माटे सत्य धर्मने परिहरे. परनारीनी संगे रोगो केइक थावे, चित्त न ठरतुं ठाम भटकतुं ज्यां त्यां जावे . चिंता रोग विकार दोष सहु व्हेला प्रगटे, कायानुं बहुं जोर खरेखर व्हेलुं विघटे; लक्ष्मीसत्ता तोरमां जे विषय संगे म्हालता, पर मिंयानो संग करीने दुःख पंथे चालता; परनारीनी संगत बूरी शास्त्र कहे छे, परनारीथी हसतां मानव आळ लहे छे परनारीनी संगे कूळमां लागे बहो, करो मोहने दूर धर्मनो दुश्मन कट्टो; पर प्रियाना पारामांहि पशु परे जे जन रह्या, हाय हाय करता अरे ते दुःखना दहाडा लह्या. परनारीनी संगे चेतन शक्ति हणाती, परनारीनी संगे मनमा कुमतिकाती
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परनारीनी संगे जगमां कोण उगरीया, परनारीनी संगे मुखडा कोइ न वरिया) परनारी त्यागे धन्य ते नर द्रव्यभावे बेश छ। बुद्धिसागर वचन सिद्धि परम सुख हमेश छे.
-
समाधिलय.
धीराना पदनो राग. समाधिलय लागीरे, आनंदघन परखायो। झळहळ ज्योति जागीरे, चिदानंद घर पायो; धरी धारणा ध्यान धर्यु निज, तन्मयता थइ आज; ब्रह्मरन्ध्रमा आसन पू{, पाम्यो भुवननुं राज; सुखसागरनी ल्हेरोरे, देखी बहु हरखायो. समाधि. १ हरवू फरवु खावू पीवु, करूं सर्व व्यवहार; अन्तर सुरता अन्तर रहेती, लय लागी निधार; उलटी आंखे देख्युरे, कदी न जायो हुँ आयो. समाधि. २ जन्म मरण नहि मुजने जाण्युं, निश्चयनयथी बेश; कर्मलगी व्यवहारदशा छ, आनंद ध्याने हमेशा सिद्ध बुद स्वामीरे, दया गंग घट न्हायो. समाधि. ३ त्रिपुटी काशीनी अंदर, निर्मल आतम ज्योती आतम शंकर महादेवजी, देखतां उद्योतः मनना मेळा मळीयारे, आनंद रोम रोम छायो. समाधि.. जाण्यु अनुभव्यु मन निश्चय, छं आनंद स्वरूप; समभावे अन्तरमा खेलं, नावे भवभय धूपः क्षयोपशमना ध्यानरे, बुद्धिसागर घर आयो. समाधि.५
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सदाचार
छप्पय छंद. सदाचारथी उच्च खरेखर सर्वे थावे, सदाचार वण उच्च जाति पण नीच कहावे; सदाचारथी नीच जनो पण उच्च विचारो, सदाचार वण धर्म खरेखर ढोंग ज धारो सदाचार त्यां धर्म साचो समजशो समजु जनो, अशुभ आचारो तजी झट सदाचारी झट बनो. सदाचार वण सन्त न शोभे ज्ञानी ध्यानी, सदाचार वण प्रभुपूजा पण कर्मनिशानी; सदाचार वण ज्ञातिवंश ने कूळ न शोभे, सदाचार वण दुष्ट विचारो कदी न थोभे; सदाचारथी जाणशो अहो जगत्मा कीर्ति खरी, सदाचारथी योग्य पुरुषे शर्मलीला घट वरी. सदाचार वण पोपट सम अहो विद्या परखो, सदाचारिजन देखी भव्यो मनमा हरखो; सदाचारिनुं ज्ञान खरेखर समजो साधु, सदाचार वण ज्ञान खरेखर समजो काचुं; धामधूम पण सदाचार वण शोभती नहीं छे जरा, सदाचारने पाळता जन धन्य जगमा अवतर्या सदाचार वण धर्म क्रियाथी ढोंग जणातो, सदाचार वण ढोंगी अरे दुर्गतिमां जातो; सदाचार वण शेठ न शोभे वेठ बरोबर, सदाचार वण सन्त न शोभे जगमां दुःखहर;
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१०७ सदाचार वण पोपलीला जगत्मा प्रसरी रही, धामधूमे मूर्ख राच्या सदाचार वण सुख नहीं. सदाचार वण नगर शेठिया नीच कहाया, सदाचार वण धामधूममा ढोंग कहाया; सदाचार वण भक्ति नकामी शुष्क विचारो, टीलांटपका करो हजारो पण नहि आरो, सदाचारथी उच्च थाता जगत्मां सहु जन अहो, बुद्धिसागर सदाचारमा भव्य जन राची रहो.
नगरशेठ पुत्रो.
छप्पय छंद. नगरशेठना पुत्र थइ केइ धर्म न पाळे, नाम मोटुं पण दर्शन मुंडं शुं अजुवाळे; नगरशेठना पुत्र अहो केइ कूतर पाळे, कूतर संगी जन्मी खरेखर सत्य न भाळे; ढोंगी जनथी प्रेम करता छेल छबीला थइ फरे, श्वान सरखी हिंमत नहि मन बायला केइ अवतरे. धर्म क्रियाने व्हेम कहीने कांड न करता, नहि देशनी दाझ लाजवण ज्यां त्यां फरता; साधु गुरुनी पासे जातां बहु शरमाता, परनारी वेश्याना संगे मन मकलाता;
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१०८ जनक जननी नमन करे नहीं ठाठमाठमां रत रहे, धर्म कर्मनी समज नहि अरे धर्म करणी \ लहे. दारुमा बेभान रहे मन आव्यु बोले, नहि प्रभुपर प्रेम खरेखर टक्का तोले; लोक लाजी धर्म करे छे सत्य न धारे, नीं धर्मनी दाश धरणीने भारे मारे; धामधूममा ढळी पडे छे सदाचारने परिहरे, प्रभु उपर नहि प्रेम किंचित् जन्मीने ते शुं करे. नगरशेठना पुत्र अहो केइ धर्म करे छे, नगरशेठना पुत्र अहो केइ मुख वरे छ; नगरशेठना पुत्र अहो केइ धर्म मुणे छ, नगरशेठना पुत्र अहो केइ ज्ञान भणे छे मगरशेठना पुत्र सारा कीर्ति तेनी सहु करे, सदाचारमा मग्न रहेवे धर्मनी सिद्धि वरे. साधु गुरुने वंदन करता भावं धरीने, धर्म अनून घरे देश हृदयमा सत्य वरीने करे धर्मिजन रहाय संग सारानो राखे, धर्म टेके धरी वेश अनुभव अमृत चाखे। धन्य धन्य अहो ते जगत्मा श्रेष्ठ पुत्रो जाणीए, बुद्धिसागर योग्य न्यायी धर्मी भव्य वखाणीए.
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१०९ आत्मशक्ति खीलववी.
व्हाला वीर जिनेश्वर-ए राग. खरेखर शक्ति अनंति चेतननी वखणायछेरे,
ध्यानथी शक्ति अनंति अंश अंश प्रगटायछेरे; आत्मज्ञानथी ध्यान धरो घट, अनुभव अमृत स्वाद लहो झट; आत्मनुं सुख अनंतु ध्यान विना न जणायछेरे, खरेखर. १ बाबदृष्टिथी बाह्य धसो छ, आत्मदृष्टिथी मांद्य वसोछो; दृष्टि जेवी तेवा मानव थायछेरे,
खरेखर. २ रत्नत्रयीनो धर्म खरो छे, अनुभवीए मनमाहि वर्षो छ रत्नत्रयी वण कूलाचार गणायछेरे, खरेखर. ३ बाह्य क्रियाथी केईक राच्या, साध्य शून्य थई केईक माच्या; आत्मज्ञानवण सत्य अरे न ग्रहायछरे, खरेखर. ४ आत्मज्ञानथी शक्ति प्रकाशे, आनन्दमय जीवन झट भासे; जिनपद निजपदनो त्सां क्यभाव वर्तायछेरे, खरेखर. ५ जे जाणे तेने छ प्रीति, आत्मज्ञानथी जाय अनीति, प्रेमे बुद्धिसागर शाश्वत मुख मकलायछरे. खरेखर. ६
दुःख समयमा समता.
व्हाला वीर जिनेश्वर-ए राग. अरे जीव दुःख समयमा समता मनमा धारजेरे, दुःखy कारण जाणी मूळथी तेह निवारजेरे;
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११० यश अपयशमा चित्त न देशो, सम्यग्दृष्टि निज घर रहेश; परम धन अन्तरनुं छे तेने सस विचारजेरे. अरे जीव. १ संकट समये सत्य न चूको, हिंमत धारी धर्म न मूको; आत्म धर्ममां मनडुं प्रेमे ठारजेरे,
अरे जीव. २ कोइक निंदे देवे गाळो, करीश नहि निन्दानो चाळो; अन्तर चेतन शक्ति पामीने नहि हारजेरे. . अरे जीव. ३ दुःख समय पण उत्सव सरखो, खरी कसोटीए मन परखो; दुनिया दीवानीनुं बोल्युं नव संभारजेरे. अरे जीव. ४ आत्मधर्मनी खरी कमाणी, आत्मधर्मनी सत्यज ल्हाणी चेतन धामधूमथी मनडुं पार्छ वाळ जेरे. अरे जीव. ५ स्थिरोपयोगे अन्तर समजे, पुद्गलमांहि कदी न रमजे. प्रेमे शुद्ध समाधि बुद्धिसागर धारजेरे. अरे जीव. ६
सुखनी शोध.
व्हाला वीर जिनेश्वर-ए राग. मुखना माटे दुनिया ज्या त्यां बहु भटकायछेरे,
खरेखर आत्मधर्म वण स्थिरता लेश न पायछेरे; वर्ण गंधमय पुद्गल शोध्यु, नित्य सुख पण त्यां नहि बोध्यु; खरेखर निद्रावस्थामांहि जन भटकायछेरे. सुखना. १ धामधूमना बहु तमासा, क्षणिक सुखना त्यां छ वासा; दुःखनी पाछळ दुःखो एक पछी एक आयछेरे, मुखना. २
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धीरवीर धारे नहि ममता, सम विषममा धारे समता; चेतन चेतनभावे जडमां जडत्व ग्रहायछेरे, सुखना. ३ समनिस्सरणिथी शिव महेले, चढतां अनहद आनंद रले शुद्ध समाधि चेतन घर परखायछेरे,
सुखना. ४ पुद्गलमा छे दुःखना दरिया, अनंत सुख चैतनमा भरिया; प्रेमे बुद्धिसागर परमानन्द हृदयमां ग्रहायछेरे, सुखना. ५
परोपकार.
छप्पय छंद. प्राण लक्ष्मीने सत्ताथी उपकार भलेरो, धन्य धन्य उपकारीनो जगमाहि चेरो, सूर्य चंद्र धन पृथ्वी सरखों उपकारी जन, दुःख पडे पण उपकृतिने धरशो सज्जनं; तृणथकी पण तुच्छ मानुं अनुपकारी जन अरे, तृण रक्षण करे पशुनुं भीरु जननुं जग खरे. आत्मार्थ तो सर्व जनो जगमांहि जीवे छे, आत्मार्थं तो सर्व जीवो शीत नीर पीवे छे; परोपकारे जीन्यो ते जगमांहि वखा', अनुपकारी पामर जीवन बेश न जाणुं; उपकृतिथी शून्य जीवन जीवन निष्फल जाणवू, समजीने अरे भव्य जीवो साचुं मनमा आणq..
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११२ चर्म वडे उपकार करे ते पशुओ सारा, करे नहि उपकार जगत्मां तेह नठारा, मनः वचनने काया शोभे परोपकारे, स्वार्थ विषे जे लीन तरे शुं परने तारे; परोपकारे जीवन जातुं उच्च तेने मानीए, स्वार्थ लंपट मूड जननो जन्म फोकट जाणीए. वित्त छतां पण दान न आपे ते जन पापी, शक्ति छतां पण स्हाय न आवे व्यर्थ विलापी; खाय नहि ने खावा नहि आपे ते खोटो, उपकृति वण जाणो परभव नक्की तोटो; नदी वृक्षने सजनोनो धन्य धन्य अवतार छ, धन्य धन्य उपकारी जगमां जीवन जयजयकार छे. ४ परोपकारी आप तरे ने परने तारे, परोपकारीनो यश जगमा वर्ते भारे परोपकारी निर्धन पण जगमा छे डाह्यो, परोपकारी सन्त खरेखर विश्व गणायो उपकृति कृत सन्त शूरा दान शूरा जयकरा, बुद्धिसागर परोपकारी सन्त साचा अवतर्या.
धीर प्रशंसा.
छप्पय छंद. धन्य धन्य नर तेह विपद्मा धीरता धारे, रही तरस्थस्वभाव शोकने हर्ष निवारे;
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११३
चळे सूर्यने मेरु गिरि पण धीर न चळता, संकट पडे हजार कदी नहि पाछो वळतो; धैर्य धारी धीर पुरुषो कार्य सिद्धिज झट करे, साहसगुणने खीलवता मन कदी नहि पाछा फरे. निंदे निंदक लोक शत्रुओ पूंठ न मूके, तोपण तजें न टेक धीरता धीर न चूके; विघ्न थाय कई लाख राख तेनी ते करतो, धरे सिंहनी वृत्ति अन्यने नहि करगरतो; लक्ष्मी जाओ के रहो पण धीर धैर्यथी नहि चळे, धन्य धन्य ते धीर जगमां परोपकारे पग भरे. धन्य धन्य ते धीर जगत्मां परोपकारी, लजवी जननी कूख धीरता लेश न धारी; धर्म कृत्यां धीर खरेखर ते अवतारी, समजी धीरता गुण धरो मन नरने नारी; धन्य धन्य ते धीर जनने मोक्ष नगरी संचरे, सदाचरणने घरी जगत्मां कीर्ति कमळा कर वरे. धैर्य धरे ते शिव नगरी जावानो पहेलो, धैर्य सद्गुण सत्य खीलववो ते नहि स्टेलो; सत्ता लक्ष्मी धीर वरे छे जगमां जोशों, धीर जनोनुं धैर्य सुणीने सद्गुण लेशो; धैर्य सद्गुण खीलवीने धर्म कृत्यो बहु करो, धर्म अर्थ काम लक्ष्मी चार वर्गों सुख वरो. अधोमुख यदि वन्दि करो पण शिखा ज उंची, धैर्यति कदी दुःख पडे पण थाय न नीची;
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धैर्य वृत्तिने खीलववाथी धैर्य सवाया, धीर जगत्मां धन्य खरेखर कृत्यथी डाह्या; धैर्यतार्नु अतुल वर्णन अनुभवीए अनुभव्यु, बुद्धिसागर धन्य साचुं धैर्य फळ मनमा लघु.
सत्पुत्रप्रशंसा
छप्पय छंद. सत्य पुत्र ते धन्य जगत्मां सद्गुण धारी, मात पिताने नमन करे छे प्रेम वधारी; भाइ बेननी साथ प्रेमी संपी चाले, केळवणीनी रीति लहीने मुखमां म्हाले; उचित विनयने साचवीने जगत्मा उन्नत रहे, पर प्रियाने बेन जाणे वाणीथी साचुं कहे. लडे नहि कोइ साथ विचारी वाणी बोले, सत्य असत्य जे वात न्यायथी तेने तोले; ब्रह्मचर्यने धरी वपुने पुष्ट करे छे, धरी पूर्ण उत्साह कार्यनी सिद्धि वरे छ । सगां संबंधी स्नेह धारे लडे नहि समता धरे, मातं पितांनी भक्ति करीने उच्च शाश्वत पद वरे. न्याय नीतिथी करे कमाणी पाप निवारी, धर्मसूत्र अभ्यास करे छे न्याय विचारी. मोटा जननो विनय करीने संप वधारे,
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११५ धरी भावना चार कर्मना फन्द निवारे; द्रव्य क्षेत्रने काल भावे गृहिधर्मने आदरे, अचळ श्रद्धा अचळ भक्ति धर्मनी लही मुखबरे.... धरे प्रभु पर प्रेम गुरुनी भक्ति करे छे, सदाचारथी पाछो अरे ते नहि फरे छे सय सुधारा करे कुधारा दूर करीने, प्रभु आज्ञानो लोप करे नहि प्रेम धरीने; सत्य प्रभुनो धर्म पाळे सत् क्रियाओ सहु करे, कलेश कजीया परिहरीने धर्म रीति दिल धरे. करी शक्तिनो तोल बलाबल कार्य करे छे, आत्मिकशुद्धस्वभाव दृष्टिथी शर्म वहे छ। वदे गुरुना पाय गुरुनी आज्ञा पाळे करी धर्म अभ्यास दोषना वृन्दने बाळे धन्य धन्य ते पुत्र सारा जननी कुखे अवतर्या, बुद्धिसागर अनेकान्तनयज्ञानपाथोधि भर्या.
पितृलक्षण.
छप्पय छंद. करे कुटुंब प्रतिपाल न्यायथी वित्त वधारे, करे सुधारा बेश कुधारा दूर निवारे दया सत्य धरी चित्त शक्तिनो तोल करे छ, उच्चभाव धरी बेश अनीति दोष हरे छ।
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११६
धरे धर्मपर प्रीतिरीतिने दुःखिजननां दुःख हरे, धन्य धन्य ते जनक जगमां कीर्ति कमळा कर वरे.
पुत्र पुत्रीपर प्रेम धरीने शिक्षा आपे, केळवणी दे सत्यपुत्रनां दुःखडां कापे; धार्मिक विद्या सत्य अपावे गुरुनी पासे, आपी विद्यादान प्राणिनां हृदय विकासे; सां संबंधी साचवेने देश अभ्युदय करे, गरीब जनने सहाय आपी दुःख मळथी उद्धरे. परमियाने वेश्यासंगधी दर रहेछे, लक्ष्मी जाय ने दुःख पडे पण सत्य कहेछे; लाभालाभ विचारी सर्वे कार्य करेछे, समभावे सहु कर्म भोगवी शर्म वरेछे; धर्म अर्थ काम मोक्षज वर्ग चारे आदरे, धर्म श्रद्धा अचळ धारी उच्चचेतन झट करे. खर्च नकाम करे नहि धन नाश करीने, धामधूम धर्म न धारे सत्य वरीने; रत्नत्रयीमां धर्म खरेखर चित्त विचारे, गुरुवचनविश्वास भक्तिथी धर्म वधारे; सत्य धर्मनो तोल करीने बोल पाळे टेकथी, द्रव्य क्षेत्रने काल भावे वर्ततोज विवेकथी. योग्यकाळे जे योग्य जाणे ते आदरतो नित्य, योग्य नीतिथी ग्रहण करेलुं जाणे शुभवित्त; करे पुण्यनां कृत्य पापनां परिहरे छे, विवेक दृष्ट्या सत्यग्रहीने धर्म घरे छे;
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११७ पिताना जे योग्य धर्मो साचवे संपद्वरें, बुद्धिसागर जनक साचा सत्य करणी जग करे.
जननी प्रशंसा.
छप्पय छंद. माता ते कहेवाय मजा पालन करती, पुत्र पुत्री पर प्यार धर्म निज सहु अनुसरती; करे न कजीया क्लेश द्वेष नहि धारे मनर्मा, पतिव्रता व्रत धरे सदा गुणकारी तनमां; आवक देशने काल जाणी खर्च करती विवेकथी, भणे भणावे पुत्र पुत्रीओ वर्तती शुभ टेकथी. पति आज्ञा धेरै शिर विचारी वाणी बोले, हिताहित जे कार्य विचारी सत्यज तोले; क्षण क्षण करे न क्रोध बोध बाळकने आप, दुखी जनने सहाय करी दुःखडाने कापे; धर्म उपर सत्य श्रद्धा गुरुदेव भक्ति करे, कुंटुंबनो निर्वाह करती अशुभ स्थाने नहि फरे. करे पतिने सहाय सुधारा शास्त्राधारे, मोठा बोले बोल कदि नहि जीवने मारे; संकटमां घरे धैर्य आळ पण आव्युं सहती, कर्म करे ते थाय विचारी समता वहती,
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धर्म अर्थने काम मोक्षनी चीवट राखे चोगणी, सत् कथाओ करे सदा ते जननी छे सोहापणी. सगां संबंधी साथ संपथी निशदिन चाले, अवसरनी बहु जाण शुभाशुभ कार्य निहाळे नवरी रहे न बेश वेष धारे गुणकारी, गंभीरता धरे दिल वहे जे शुभ हुंशियारी; धर्म करतां धाड आवे तोपण धर्म न त्यागती, देवगुरुने नमन करती रात्री वहेली जागती. द्विधा केळवणी बेश बाळकने प्रेमे आपे, सदाचार घरे बेश प्रजानुं संकट कापे) करे दया उपकार संपीली सहुनी साथे, सस प्रभु विश्वास धरे आज्ञा निज माथे; धन्य धन्य ते जननी जगमा स्वपर हित करती रहे, बुद्धिसागर जननी शिक्षा पामी सर्वे सुख लहे.
पुत्री प्रशंसा.
छप्पय छंद. पुत्री ते कहेवाय धर्मनी श्रद्धा धारे, जननी शिख धरे चित्त नीतिपर प्रेम वधारे देशकाळ निज धर्म विचारी वेष धरे छे, अपकीर्ति नहि थाय योग्य ते स्थान फरे छ; बहुविध केळवणी लहीने उन्नति करे आपनी, उपकृतिने चित्त आणी भक्ति करे माबापनी.
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११९
भगणे देव चित्त रहे नाह कलेश करीने, संपी रहे सहु साथ हृदयमां सत्य धरीने; सर्व साहेली साथ प्रेमधी वर्ते निशदिन, सदाचारमय अंग सुजनता जेना छे मन; सर्व जीवनुं भव्य इच्छे दया हृदयमां धारती, तनाथ सहकार्य करती त्रसजीवो नहि मारती. धार्मिक विद्या धरे हृदयमां श्रद्धा राखे, मातपिता गुरु देव विनयथी शिवसुख चाखे; विकथानो की साग कलेशमां कहीं न पडती, करे दान बहु रीत करे निज धर्मनी चडती; शियल धारे धैर्यधारी सर्व विद्या जाणती, सर्व दोषो परिहरीने धर्म उत्साह आणती. कुंटुंब जातिने देशतणुं जे भव्य विचारे, दीपावे कुळवंश सर्वनुं दुःख निवारे; नीतिथी सहु उच्चसूत्र ते साचुं धारे, दुःखिजन उद्धार करे छे निजने तारे; धर्म सेवा साचवेने जननी आज्ञा पाळती, अशुभ विचारो मगटे तेने धैर्यथी झट खाळती. घरनां करती कार्य धर्मनां तत्र विचारे, यथाशक्ति अनुसार सन्तनी सेवा सारे; लडे नहि कोई साथ हृदयमा समता राखे, सत्य तत्र स्याद्वाद भणीने अनुभव चाखे; धन्य पुत्री जगत्मा जे धर्म कृत्यो बहु करे, बुद्धिसागर शुभ विनयथी जगत्मां सुखडां वरे.
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१२० मित्रप्रशंसा
छप्पय छंद. मित्र खरेखर तेह दुःखमा साह्य करे छे, मित्र खरेखर तेह सुजनता चित्त धरे छे मित्र खरेखर तेह विषद्मा दूर न रहेतो, मित्र खरेखर तेह सदा जे साचुं कहेतो; मित्र खरेखर जाणाए ते धर्म विद्या आपतो, दोष बुद्धि टाळीने जे दुःखवल्लि कापतो. गुह्य मित्रनी वात कोइनी अग्र न कहेवे, करे मित्र गुण प्रकट वित्तने अवसर देवे; देशकाल अनुमान मित्रनुं भव्य विचारे, स्वार्थ तजीने मित्रपणामां निजमन ठारे। सूक्ष्म बुद्धि वापरीने भलं करे छे मित्रनु, हाजीहाना मित्र खोटा शुं कई रे विचित्रनुं. वात वातमा लडी पडी ते मित्र न साचा, निन्दा करता अन्यनी आगळ ते जन काचा; स्वार्थ धरी मित्राइ करे ते मित्र न होवे, खरा प्रेमथी मित्र करे ते सुखज जोवे; मित्र हक ने साचवीने उच्च कृत्यों मे करे, परोपकारे रक्त रहे मित्र एवा भवतरे. सदाचरणमा प्रेम नेम छे सारा माटे, व्हेम अनीति त्याग करे जे शिवपुर वाटे व्रत धरे छे बेश कलेशथी दूर रहे छे, सज्जम एवा मित्र उदयनुं चिन्ह लहेछ;
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१२१ मित्र सद्गुण धारतो मन उच्च जीवन गाळतो, बुद्धिसागर मित्र सज्जन सर्वनां दुःख टाळतो.
हितवचन.
छप्पय-छंद. करो क्रिया कष्ट ज्ञान वण धर्म न परखो, उपर उपरनी शून्य क्रियाथी लेश न हरखो, अन्तरना उपयोग विना नहि कर्म टळे छे, अन्तरना उपयोग विना नहि मुक्ति मळे छे; माळा मणका फेरवो पण ज्ञान विना नहि मुक्ति छ, आत्मज्ञाने सहज शांति ध्याननी त्यां युक्ति छे, पूजानां पाखंड करो पण सुख न मळशे, टोला टपकां करे अरे कई कर्म न टळशे; मननी स्थिरता थया विना सुखडां नहि पावे, बाह्य वेशने क्रिया कपटथी धर्म न थावे; अन्तरमा यदि धर्म छे तो बाह्य क्लेशे शुं थयु, अन्तरमा यदि धर्म नहि तो बाह्य क्लेशे शुं रडुं. सम्यग् नहि आत्मार्थपणुं तो मौन रहे शुं, सम्यग् यदि आत्मार्थपणुं तो वचन वदे शं; हृदय सरळ नहि यदि तदातो क्रिया करे शुं, हृदय सरळ यदि नित्य सदा तो क्रिया करे | धर्म धार्यो नहि हृदय तो ढोर हरायां सम गणो, जाण्यु तो केम भटकवू अरे तत्त्व विद्या दिल भणो. ३
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१२२ गुरु गुरु करी बहु भटक्याथी पार न आवे, गुरु मळ्या यदि आत्मज्ञानी तो अन्य न जावे जाण्यु जो यदि आत्मरूप तो तीर्थ न रहेतुं, जाण्युं यदिहि आत्मतत्त्व तो शिव मुख वहेतुं समानष्टि सर्व जीव पर आनंद उभरा घट अहो, बुद्धिसागर समजे ज्ञानी तत्त्वमा निर्भय रहो.
धर्मभेद
छप्पय छंद. धर्म भेदमां खेद घणो छे विना विचारे, धर्म भेदमां धसी पडया केइ कर्म वधारे, दया धर्मथी दूर रहीने पक्ष ज ताणे, अनेकान्तनयवस्तु विचारे सत्य ज जाणे, महारु त्हारु करी घणा जन क्लेश कजीया बहु करे, युक्तिथी निज पक्ष ताणी हठ कदाग्रह मन धरे. सत्ता तर्कनी शक्ति विशेषे पक्ष सबळ छे, सत्ता तर्कनी शक्ति अभावे पक्ष अबळ छे; उदय जेहनो ते जन फावे पक्ष वधारे, जल तरंगो पेठे कोइ न कार्य सुधारे; जन्म्या त्यारे कंइ नहिने भण्या गण्याथी मत पडया, शाननो नहि दोष तेमा मोह योगे लडथडया. जे जे पासे जइ पुछो ते कहे निज साधु, बाकीनुं सहु जूठ बतावे छे बहु काचुं;
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आप आफ्नो पक्ष वधारे मत रंगाणा, तक्के शक्ति अनुसार करे छे ताणताणा; हठ कदाग्रह पोषवाने अन्य दोषो उच्चरे, भाषानो बहु डोळ राखे कोइक साचुं अनुसरे. बाह्य क्रियाना भेद अनेको नजर पडे छे, करीने ताणताण अन्यने बहु कनडे छे; साधनयोगो बाधक रूपे करता प्राणी, आत्मधर्मनी वात हृदयमा लेश न आणी हेय वातो आदरे छे उपादेयने त्यागता, अनुभवामृत परिहरीने मोह भिक्षा मागता. एक एकनो पक्ष उथापे मनमा माचे, धामधूममा धसी पडीने मन बहु नाचे; अनेकान्तनय पक्ष विचार्यों वण सहु भूल्या, समता राख्या विना जगत्मा सहु जन झल्या. सापेक्षदृष्टि मन रहे तो पक्षपात हणाय छे, बुद्धिसागर नय अपेक्षा समजुने समजाय छ;
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दयाभाव.
छप्पय छंद. दयाभाव नहि चित्त अरे ते क्याथीज उंचो, दयाभाव नहि हृदय अरे ते निशदिन नीचो; दयाभाव नहि हृदय अरे धर्मीज शानो, दयाभाव नहि हृदय अरे ते मूढ पिछानो
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१२४ टीला टपका बहु करे ने प्राणी अंगो कापतो, धर्म ढोंगी कदी न निर्मल दुःख जीवने आपतो. प्रभु दर्शननी होंश धरे पण जूठ न मूके, नाम प्रभुनु मुखथी बोले गुणथी चूके; घंट वगाडे प्रभु भजनमां कपट न त्यागे, दुःखी उपर नहि दया तो दूरज भागे; भलुं करे नाहि अन्यनुं लव भक्त नामे शुं थयु, रासभ उपर रत्न पोठी ज्ञानवण त्यां शुं रडुं.
ओ इश्वर तुं तार प्रार्थना मुखथी बोले, पशु पक्षीनां रक्त पीवे ते राक्षस तोले। सर्व जीवनो नाश करीने हिंसक थावे,
ओ इश्वर तुं तार मुखथी जूठ जगावे प्रार्थना प्रभुनी करे बहु पाप कृत्यो बहु करे, इश तेने केम तारे नरकमा ते अवतरे. दया दया पोकार्याथी भाइ कांड न वळतुं, दया कर्या वण पाप कर्म तो लेश न टळतुं सर्व जीवनी दया करे ते धर्मी विचारो, मनयी पण कोइ जीव न मारे धर्मी सुधारो; दया भावथी जगत् सघळु कुंटुंब भासे छे अहो, बुद्धिसागर दया विचारो धर्मथी शिवसुख लहो.
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१२५ भलं करनार.
छप्पय छंद. भलु करे ते भक्त जगत्मां संपत् पामे, भलं करे ते भव्य जगत्मां ठरतो ठामे; भलं करे ते नदी चंद्र सम जगमां प्यारो, भलं करे ते सुजन अन्य सहु दुर्जन धारो; सर्व जीवन भलं करे ते धर्मी साचो जाणशो, धर्म ज्ञघडा जे करे ते भला न जगमा आणशो. भलु सर्व करनार दयाथी मन उभरातो, भलं सर्व करनार खरेखर उत्तम थातो; भलु सर्वे करनार खरेखर पूज्य गणातो, भलं सर्व करनार भक्तमा मुख्य भणातो; सर्व जीवर्नु भलं करे ते उच्च जाति विचारीए, भलं कर्यामां भाव साचो राखी चेतन तारीए. दुःखि जीवन भलं करे नहि ते केम धर्मी, सर्व जीवनी घात करे ते होय अधर्मी मुख थकी प्रभु नाम रटेने मनमां काती, स्नान करे शतवार पापमय वर्ते छाता। भलं करे अधमजीवो नास्तिको भवमा भमे, पापमा सहु जीवन जातुं रौरव दुःखडा ते खमे. भलं करे ते जीव जगत्मा जन्म्यो सारो, भलं कर्या वण जीव जगत्मां जाण नठारो; धिक् तेनो अवतार स्वात्म पर भलं न कीर्छ, धिक तेनो अवतार जन्मीने सत्य न लीधु:
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१२६ धन्य धन्य ते नर जगत्मां भलं करे शुभ टेकथी, बुद्धिसागर धन्य मानव वर्ते जेह विवेकथी.
उत्तमजाति
छप्पय छंद. उत्तम तेनी जात मधुरी वाणी बोले, उत्तम तेनी जाति अन्यनां मर्म न खोले; उत्तम तेनी जात पडया पर पाद न मारे, उत्तम तेनी जात बोलीने कदी न हारे; जाति उत्तम ते जनोनी दोषीना दोषो हरे, अभक्ष्यनुं भक्षण करे नहि स्वार्थ माया परिहरे. उत्तम तेनी जाति दीनता दिल न राखे, परनी निंदा कलंक वचनो कदी न भाखे; उत्तम तेनी जात अन्यने दुःख न आवे, उत्तम तेनी जात प्राणिनां अंग न कापे; सत् क्रियामां शूर रहेवे अशुभ वर्तन परिहरे, नीचने पण उच्च करतो दया हृदयमां बहु घरे. उत्तम तेनी जाति कोइने गाळ न देवे, उत्तम तेनी जाति गुरुनां पदकज सेवे; उत्तम तेनी जाति न्यायधी वृत्ति चलावे, उत्तम तेनी जात परस्त्री संग न जावे मांस दारु परिहरीने उच्च वर्त्तन धारतो, गरीब जनने सहाय आपी दुःखथी उद्धारतो.
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१२७ दुर्जननुं पण दया भावथी भव्य विचारे, स्वार्थ धरीने अन्य जीवोने कदी न मारे; बोले निशदिन सत्य चोरीथी दूर रहे छे, उत्तम तेनी जाति भावना उच्च लहे छे प्रभु गुरुनी भक्ति करतो चिदानंद राजी रहे, बुद्धिसागर जाति उत्तम सदाचरण ज्ञाने वहे.
४
गुरुनिन्दा.
छप्पय छंद. गुरू निन्दाथी नाश कूळनो प्रथम विचारो, गुरू निन्दाथी मूढ बन्या केइ दिलमा धारो; गुरू निन्दाथी वित्त विनाशे ज्ञान न प्रगटे, गुरुनिन्दाथी उच्चमति पण क्षणमां विघटे; सद्गुरु निंदक जनोनु चित्त ठामे नहि ठरे, नीचमां पण नीच निंदक चतुर्गतिमा अवतरे. गुरू निंदा करनार बुडे ने अन्य बुडाडे, गुरु निंदा करनार भमे ने अन्य भमाडे; गुरू निन्दा करनार पापनो पुंज ग्रहे छे, गुरू निन्दा करनार दुःखना दीन लहे छे; गुरू निन्दा करनारनु अहो पाप जीवन जाय छे, उपकार घातक जाय भवमा भटकीने दुःख पाय छे. २ गुरू निन्दा करनार खरेखर अधम कह्यो छे, गुरू निन्दा करनार खरेखर दुःख लडो छ।
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१२८ गुरू निन्दा करनार थकी इश्वर छे आघा, गुरू निन्दा करनार थकी उत्तम छे डाघा, गुरूनी निंदा पाप मोटुं गुरू भजीने वारीए, बुद्धिसागर सत्य समजी उच्च सद्गुण धारीए.
कलंक पाप.
छप्पय छद. आळ चढावे जेह अधम नर पापी पूरो, धरे साधुनो वेष तोय पण पाप सनुरो; परने देतां आळ अन्यना प्राणज लीधा, परने देतां आळ पापमय प्याला पीधा; परने आळ चढाववाथी घातकी नर घोर छे, पर पोतानुं कार्य बगडे जगत्मा महा चोर छे. परने आळ चढावे ते नर परभव दुःखी, परने आळ चढावे ते जन थाय न सुखी%B आळ चढावे जे जन तेनुं मुखडं कालं, आळ चढावे ते जन साधु द्रुम कंटाल्लं; रीस इर्ष्या लोभथी अहो कलंक जेह चढावतो, वावे तेवू लणे ते न्याये करणी परभव पावतो. कलंक चढावे पापभोगी ते खूब नठारो, आळ चढावी पामे नहि अंते भव आरो। कसाई जेवो कलंक चढावे ते नर होवे, परना माण हरे ने वळी ते निजना खोवे;
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आळ देतां जे न अटके तेह पापी जाणवो, कर्म आधीन जीव जाणी दयाभाव मन आणवो. कलंक चढावे तेमां सघळा दोष प्रवेशे, कलंक चढावे ते जन ठरीने ठान न बेसे; धिक तेनो अवतार कलंक चढावे बुरु, धिक् तेनो अवतार दोषतुं घर छे पुरु) कलंक दाता दुःख पामे जाणी दोषन परिहरो, बुद्धिसागर सत्य समजी मोहपाथोधि तरो.
सहुनुं सारं इच्छो.
छप्पय छंद. इच्छो सहुर्नु वेश द्वेष मनमाथी काढी, इच्छो सहुनुं भव्य वैरनी वल्लि वाढी; सर्व जीवो मुज मित्र चित्र तेमां शुं देखें, जे मारुं इष्ट तैयूँ हुँ सहुर्नु लेखु सारु इच्छो सर्वेनुं मन चित्त शुद्धि उपाय छे, सारु इच्छे सारु थाशे मलीन बुदि जाय छे. शुभ इच्छक जन उच्च विचारे धर्म वरे छे, शुभ इच्छक जन भव्य मोहाब्धि शिघ्र तरे छ; शुभेच्छक जन आप तरेने परने तारे, उच्च नीचनो भेदभाव सहु दूर निवारे; भलं करतां अन्य जननें कठीण कर्म हणाय छे, प्रेम भक्ति खीलवणी शुभ धर्म मर्म जणाय छे.
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सहुनुं सारु इछे ते जन सन्त मजानो, सूर्य किरणवत् कदी न रहेशे ते जग छानो; सहुनुं सारु इच्छे नहि ते शानो साधु, ढोंगी जनोए समज्या वण जग फोली खाधुं सहुनुं सारु इच्छवाथी परम प्रभुपद झट मळे, सर्वनां दुःख टाळवामा द्वेष क्लेश इर्ष्या टळे; सहुनुं सारु इच्छे तेज सारु थाशे, धर्मे जय पापे क्षय वाक्यज सत्य प्रकाशे; सर्व शुभेच्छक त्रिभुवन पूज्य प्रतिष्ठा पामे, सर्व शुभेच्छक जनने जग जन मस्तक नाम सर्व शुभेज्छक मनुष्य मोटो देवता पाये पडे, सूर्य चंद्रने दृष्टि सरखो कोइ साथे नहि लडे, सर्व शुभेच्छक थया विना नहि उच्च थवातुं, दया धर्मर्नु मूळ वाक्य पण अत्र ग्रहातुं; सर्व शुभेच्छक सत्य प्रकाशे सत्यज बोले, सर्व शुभेच्छक न्याय वधारी साचुंज तोले परप्रियाने मात लेखे चिदानंद पद झट वरे, बुद्धिसागर सारु थाशो सर्वनुं एम उच्चरे.
sex
क्लेश न करवो.
छप्पय छंद. क्लेश न करीए कुंटुंब वर्गमा शिख मजानी, क्लेश न करीए नात जातमा थईने मानी;
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१३१ क्लेश न करीए पंडित साथे विद्या नावे, क्लेश न करीए शिक्षक साथे सद्गुण जावे; क्लेश करीए नहि कदि अरे मातपितानी साथमां, जाणी शिक्षा धारशो तो सुख जीवन हाथमां. प्रिया साथे पण क्लेश न करीए लक्ष्मी टळे छे, भाइ साथे पण क्लेश न करीए प्रीति गळे छ पित्र साथे पण क्लेश न करीए टळे विसामो, सन्तनी साथे क्लेश करे पण दुःखडा पामो; क्लेश दुःखनुं मूळ जाणी परिहरो शुभ टेकथी, क्लेश जातां सहु टळ्युं अरे समजशो विवेकथी. जेना घरमां क्लेश थयो त्यां वित्त न रहेतुं, क्लेशे धर्म विनाश क्लेशथी सुख न रहेतुं; क्लेशे संप विनाश जंप पण क्याथी होवे, देश राज्यमां क्लेश प्रवेशे क्षयता जोवे धर्मना बहु पन्थमां जो क्लेश पेठो जो खरे, वित्त सत्ताज्ञान नाशज लडीलडीने जन मरे. क्लेश कर्याथी सुख टळे छे प्रगट विचारो, क्लेश कर्याथी महाजन मंडल भेदज धारो; क्लेश प्लेगथी महा हठीलो सहुने मारे, द्वेष भूतडं पेडं ते जन सत्य न धारे; क्लेश करे ते तुच्छ जगमा क्लेश टाळे दुःख टळयु, बुद्धिसागर संप धरतां पूर्ण साश्वत मुख मळ्युं.
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१३२
वाळलन.
छप्पय छंद. हानिकारक रीति तजो अरे उन्नत थावा, पडी कुटेवो परिहरो झट सत्य स्वभावा; बाळलग्नने देशवटो द्यो बळना माटे, बाळलनथी अवनति सहु अवळी वाटे बाळलमथी देशनी बहु पायमाली थइ अरे, आर्य पुत्रो त्वरित जागो आदरो सद्गुण खरे. पाळलमथी संतानो निर्बळने रोगी, पाळलग्न परिहार कर्याथी प्रजा निरोगी; बाळलग्नथी वित्त हानिने धर्मनी हानि, बाळलमथी लहे न विद्या सत्य मजानी; रोग क्षय जे दुष्ट पापी बाळलग्नथी संपजे, शरीर दुर्बळ तामसीमन समजीने सज्जन तजे. बाळलनथी कोम बायली धरे न हिंमत, बाळलग्नथी मूर्ख कोमनी थाय न किंमत; पाळलग्नथी कोम रांकडी वधे न आगळ, बाणलग्नथी देश रांकडो रहेज पाछळ, बाळलग्नथी बुद्धि हानि पवैयासम कोम छे, बाळलग्न ते जाणजो अरे मनुष्य जाति होम छे. पाळलग्नथी निर्वंशी थइ जे केइ मरिया, बाळलग्नथी भण्या न केइक चिंता भरिया; बाळलग्नथी केइक दुःखी विश्व जणाता, बाळलग्नथी दोन अनेकज प्रगट भणाता;
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बाळलग्नने कदी करो नहि सत्य शिक्षा मानशो, बुद्धिसागर धैर्य धारी सत्य मनमा आणशो.
खंडमंडनमां सार नथी.
छप्पय छंद. करो न वादंवाद धर्ममां कलेश करीने, नहि सत्यनो नाश कदापि दील धरीने; बुद्धिवाळो जय मेळवतो जगमां देखो, मिथ्या नाहक वाद कोथी सार न लेखो धर्म झघडो जे करे ते चित्त निर्मल नहि करे, बुद्धिसागर समजु समजे परमप्रभुता घट वरे. खंडनमंडनमा शुं पडवू सत्यज कहे, खंडनमंडनमा शुं पडवू सत्यज लेवु, अखंड व्यापक आत्मतत्त्वतो नहि खंडाशे, परिपूर्ण स्याद्वाद ब्रह्म तो नहि छेदाशे; अखंड आत्मस्वरूपमांहि आनंद अपरंपार छे, नाम रूपथी भिन्न समजो अनुभवे जयकार छे. खंडनमंडन करतां कदी न सारु थाशे, खंडनमंडन करतां कदी न सार ग्रहाशे; खंडनमंडुन मनना धर्मों परखी लेशो, खंडनमाहि महाविकल्पो चित्त न देशो वाद मिथ्या परिहरीने धर्म विद्या आदरो, बुद्धिसागर आत्मध्याने परमप्रभुता झट वरो.
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१
हानिकारक रीवाजोनो त्याग करवो.
छप्पय छंद. हानिकारक तजो रीवाजोने नरनारी, खर्च नकामां करो अरे तेथी दुःख भारी; नात जमणनां खर्च कोथी थाय न सारु, दारुखानुं फोडयाथी अहो थाय नठारु; कीर्ति माटे वित्त व्ययथी धूळधाणी थाय छे, विना प्रयोजन वित्त व्ययथी देश जन लुटाय छे. खर्च नकामां करे अरे ते दुःख लहे छे, जमण करी लखलंट करीने प्राण वहे छे वरघोडानी धामधूममा धर्म न मळशे, परोपकारे कोइ न खर्चे दुःखभा भळशे; रमतगमतमा वित्त व्यय बहु करे अरे ते मूढ छे, दुःखी जननी दया करे नहि मनडु मोहे गूढछे. एक छतां पण अन्य नारीने परणे प्रेमे, बे नारीनो धणी दुःखी बहु रहे न क्षेमे; करे जे वृद्धविवाह दुःखमां ललना नाखे, करे जे वृद्धविवाह दुःखनां फळ बहु चाखे, वस्त्रमा बहु वित्त व्ययथी चित्त चिंतातुर रहे, चोर जननी कोठीमा मुख घाली रुवे शुं कहे. आवक करतां खर्च करे बहु ते पस्तातो, देवं करीने जमण करे ते खत्ता खातो; कन्याविक्रय पाप करे ते ठरे न ठामे, फुलण पेठे फुली फरे ते शर्म न पामे;
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४
वित्त सत्ता ज्ञान जेर्नु परोपकारी नहि थयु, जननी भारे मारी जन्मी जीवन निष्फल सहु गयु. वेश्या नचवी करे धूमाडो धननो भारे, वेश्या संगी तरे अरे केम परने तारे पदवी पुच्छो माटे धननो नाश करे छे, परोपकारिधर्म विना नहि ठाम ठरे छे; रासभ उपर कस्तुरी घुण मूढ पासे धन अहो, बुद्धिसागर सत्य समजी परोपकारी थइ रहो.
समाधि. अजपा जापे सुरता चाली. ए राग. सहश्रकमलदलपर श्री प्रभुजी, बेठा कृष्ण जिनवर देवा; असंख्यप्रदेशे आसन पूर्यु, झळझळ ज्योतिनी सेवा. सहश्र. १ ब्रह्मरन्ध्रमा ब्रह्मानन्दी, उलटवाटथी चढी आयो; हंसराम सुरता सीतानी, साथे सुखडां बहु पायो. सहश्र. २ रत्नत्रयी लक्ष्मीनी साथे, चेतन विष्णु रमत रमे; चौद भुवनना स्वामी साचा, अनुभवामृत खूब जमे. सहश्र. १ पिंड अने ब्रह्मांड जैक्यता, आत्मभावना सर्व ठरी; अनुभवानंद सागर प्रगटयो, उलट आंख देख्यो उतरी. सहश्र. ४ स्यावाद सत्तामय चेतन, सातनये जाणे योगी; पदर्शन सागरने वलोवी, अमृत चाखे गुणभोगी. सहश्र. ५ शुद्ध समाधि योगे प्रगटे, केवलज्ञान महाज्योति; बुद्धिसागर विष्णु पोते, लोकालोक सहु विष्णोति. सहश्र.६
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१३६ सुरता पद.
अजपा जापे-ए राग. परम प्रभुनां दर्शन करवा, सुरता अन्तरमा उतरी; विवेक दृष्टिथी सहु देखी, पूर्णानन्दे स्थान ठरी. परम प्रभु. १ माया शोधी खटपट बोधी, समभावे त्यांची चाली; असंख्यमदेशीचेतन शोध्यो, ससरूप देखी म्हाली. परम प्रभु. २ आत्मप्रभुजी पूर्ण जणाया, अनंतगुण पर्याय भर्यो। पोते कहेतो पोते करतो, स्वयंशक्तिथी स्वयं तो. परम प्रभु.१ दर्शन करतां एकमेक थई, समाई सुरता भेद टळ्यो; लूण गांगडो सागरमां जई, एकमेक थई त्यांज गळ्यों.परम प्रभु.४ सुरताचिति शक्तिमय थईने, क्षायिकभावे सिद्ध ठरे; बुद्धिसागर गहनशैली छे, अनुभवी मनमां उतरे. परम प्रभु. ५
ब्रह्मरन्ध्रध्यान.
राग उपरनो. अवळी वाटे गुरु कृपाथी, हंस गगन गढ आयारे, हेजी. पद् चक्रोने भेदी नेमे, अलख देश सुख पायारे; हेजी. झळहळ झळहळ ज्योतिरे झळके, ब्रह्मरूप मन न्यारोरे. हेनी. अनुभवामृत चढी खुमारी, नेति नेति पद गायोरे; हेजी. शब्दतीर पण ज्यां नहि पहोंचे, महिमा त्रिभुवन छायोरे हेजी. २ पूर्ण प्रकाशी ज्या त्या देखु, पूर्णे पूर्ण मुहायारे हेजी. पूर्णपणुं ग्रहतां पण पूर्ण, नहि जाया नहि आयारे. हेजी. झळु. ३
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,
१३७
पूर्णस्वरूपी षट्कारकमय, पूर्णानन्द विलासीरे; हेजी. तिरोभाव पण पूर्णमयीते, आविर्भाव प्रकाशीरे. हेजी. नामरूपथी न्यारो प्यारो, स्थिरोपयोगी भासुंरे हेजी; हुं तुं व्यवहारे उच्चरतुं, लोकालोक प्रकारे. हेजो. जेवो हुं तेवा सहु आतप कोने दउ साचाशीरे; हेजी. बुद्धिसागर परम प्रभुमय, घटमां गंगा काशीरे. हेजी.
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सर्व स्वात्मवशं सुखं ॥
थाळ राग
स्वाश्रयना करनारारे, साधु सहु सुखी; पराश्रयी नरनारीरे, जगमां बहु दुःखी. स्वाश्रय सुखनी क्यारी, स्वाश्रयनी बलिहारी; स्वाश्रय धर्म विहारीरे, पराश्रयिजगजीवो, पाडे छे बहु रीत्रो; स्वाश्रयी जगमां दीवोरे,
परवश जगमां प्राणी, दुःखी छे रंकने राणी; स्वाश्रय सुखनी खाणीरे,
परवशता जेणे धारी, मायाना ते भिखारी;
स्याश्रयता जयकारीरें,
मायामां दुःखड धारी, चेतोने नरने नारी; बुद्धिसागर सुखकारीरे,
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झळ ४
झळ. ५
झळ, ६
साधु. १
साधु. २
साधु. ३
साधु, ४
साधु. ५
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आत्मशक्ति,
श्री वीरप्रभु चरम जिनेश्वर ए राग. सहु करी शके आतमशक्ति अनंतिनी तुंहि खाण छे, प्रणभुवन विषे शक्ति अनति प्रगट थयां सुलतान छे; दुनियामा ज्योति विकासी रह्यो, निजरूपनो ज्ञाता तुंहि थयो। निजपदनो अनुभव शुद्ध लह्यो.
सहु. १ तुं प्रणभुवनमा छे दीवो, अनुभव अमृत पामी जीवो परमातमपद अनुभव पीवो.
सहु २ तुं शाश्वत आनंदनो दरीयो, तुं ज्ञानादिक गुणथी भरियो। भातमज्ञाने निजपद वरियो। तुं सहजस्वरूपी विश्रामी, रुपी नहि निश्चय निर्नामी; बुद्धिसागर शिवसुखरामी.
सहु. ४
चिदानन्दस्वरूप.
लग्या कलेजे छेद गुरोकारे-ए राग. चिदानंदघनरूप हमारुरे, बाकी पुद्गल माया काची अनुभवथी में निश्चय कीधो, तत्त्वमसिपर राची. चिदानंद. १ चिदानंदसागरनी ल्हेरो, घटमां उछळे भारी; अन्तरनो अलबेलो भेटयो, परम प्रभुता धारी. चिदानंद. २ मन मक्कामा खुदा प्रभुनी, झळहळ झगमग भासे, अणभुवनमा शोधी लीधा, पण आ प्रभुजी पासे. चिदानंद. ३
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शक्ति अनंति खीलq निशदिन, अन्तर स्थिरता वासी; देहदेवळमां झळहळ दीवों, शक्ति अनंत विलासी. चिदानंद. ४ अलख जगावी अलख देशनी, अलख धूनमा रहीशं; बुद्धिसागर आत्म उजागर, निश्चय ध्रुवपद लहीशु, चिदानंद. ५
खटपट. १
खटपट खोटी.
लगा कलेजे छेद गुरोकारे-ए राग. खटपट सर्वे खोटीरे, तेमा हारु कांइ न वळशे; मान मूखे मन जूठी माया, जन्म मरण दुःख टळशे सर्व कार्यमा म्हारु रहारु, ममता दूर निवारी; अन्तरथी तुं अळगो रहेजे, समजण सत्य विचारी. सर्प दाढनु विष जतां तो, सर्प थकी शुं थाशे; राग द्वेष अभावे जगमा, आतम नहि बंधाशे. वस्त्र चीकणाने रज लागे, निर्मल नहि लेपातुं अन्तरथी न्यारा रहेतां तो, कांइ न थातुं जातुं, खटपट लटपट झटपट त्यागी, अन्तर मांहि जागी बुद्धिसागर अनुभव अमृत, स्वादतां सौभागी..
खटपट, २
खटपट.३
खटपट, ४
खटपट. ५
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१४० माया.
चेतावं चेती लेजेरे. ए राग. माया महा मस्तानीरे, सहुने काजामा ते लेती जोगीने पण ते डोलावे, करती शिघ्र फनेती. माया. १ मायानुं अंधारु मोटुं, भलाभला पण भूल्पा नरपति सुरपतिने नहि छोडे, डहापणीया केइ डूल्या. माया. २ मायानी पूनारी दुनियां, माया वशथी घहेली; चौदभुवनमा बहु रखडावे, पाप कार्यमा पहेली.. माया.३ माया मीठी पापी जनने, सस वात नहि सुझे मायाथी गांडा छे जगजन, समजाव्या नहि बुझे. माया. ४ मायाना उंडा छे कूवा, तेमां शी हुशियारी; बुद्धिसागर शिक्षा सारी, समनी ल्यो नरनारी. माया. ५
ममता.
लगा कलेने छेद गुरोकारे-ए राग. ममता मनथी वारीरे, चेतन अवसर पामी चेतो; ममता योगे दुःख घणां छे, काळ झपाटा देतो. ममता. १ मननी ममता तनुनी ममता, धननी ममता खोटी; अवसर आवे जावं खाली, साथ न आवे लोटी. ममता. २ ममताथी युद्धो छे भारी, समजी ल्यो नरनारी; ममता त्यागे त्याग मजानो, परमानन्द पदकारी. ममता.३ कोना चेला कोना पुत्रो, मूकी सर्वे जावू
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ममता.४
१४१ हाय हाय शा माटे करवी, केम अरे मकलाई. ममता मोटी दुःखनी क्यारी, दुःख बहु देनारी; ममतानुं बंधन नासे तो, मुक्ति शिघ्र थनारी; घर जंगलमा भेद न कांइ, ममता त्यागे परखो बुद्धिसागर आत्म उजागर, दशा लहीने हरखो.
ममता.५
ममता.६
संतो चेत्या. कोई संत वीरले जाणीयुरे भाई-ए राग. कोई संत वीरला चेतीयारे, कोई संत विरलो चेतीयारे, दुनियामां दुःखडा जाणशोजी,
कोई. जूठी गाडी लाडी माया, एवं मनमा आणशोरे. भाई. दुनिया. १ म्हारु हारु मिथ्या समजी, खोटो पक्ष न ताणशोरे; भाई दुनि. दुनियामा स्वारथनां सगपण, जूठां तन धन मानशोरे.भाई दुनि. २ स्वार्थतणी छे मारामारी, वैराग्ये मनडुं वाळशोरे; भाई दुनि. मरतां साथे कोई न आवे, पाप कर्म सहु टाळशोरे. भाई दुनि. ३ घणी ठणी शुं फुलो फोगट, व्रत नियमने पाळशेोरे. भाई दुनिया. बुद्धिसागर धर्म खरोछे, धर्मे शिवपुर म्हालशारे. भाई दुनिया ४
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प्रभु. ?
१४२
प्रभुप्रीति. लगा कलेजे छेद गुरोकारे. ए राग प्रभुनी प्रीति मजानीरे, जीवलडा सय धर्मथी करीए; जड वस्तुथी प्रीति हरीने, प्रभु उपर सहु धरीए. प्रभु परम प्रेममां तन्मय थइने, आनंद मंगळ वरीए. ज्यां त्यां प्रभुनुं ध्यान धरीने, तन्मय थइने खेलो; दुनियादारी दुःखनी क्यारी, जाणी पडती मेलो. प्रभुनी प्रीति विना शुं खावं, नाहक ज्यां त्यां जाएँ; परम प्रभुमा प्रेम मजानो, परमब्रह्म झट पावं. प्रभु प्रेमना प्याला पीने, चिदानन्द पद ध्या एकमेकता प्रभुनी साथे, अन्तरदृष्टि जगावं. अलख अरुपी असंख्यप्रदेशी, प्रभु साथे रंगायो; बुद्धिसागर सोऽहं सोऽहं, परम प्रभुता पायो.
प्रभु. २
प्रभु. ३
प्रभु. ४
प्रभु. ५
गुरु स्तुतिः
दुहा.
यतिततिपतिसुखकरगुरु, जयजयजन मननाथ; सरसवचन रस अर्पोने, निशदिन करो सनाथ. ॥१॥
चतुर्भगी छंद. जय तत्व विचारी, दीक्षा धारी; संयम सारी, जयकारी. बहु पाप निवारी, समतागारी; समिति धारी, गुणभारी.
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सम्यक्त्व वधारी, वृत्तिनिहारी; देश विहारी, सुखकारी. गुण व्यकित प्रचारी, कर्म विदारी; जगदुपकारी, बलिहारी. १ तें मोह निवार्यो, जाय ते हार्यो; आतम तार्यो, उर धार्यो. ते शिष्य सुधार्यों, पार उतार्यो; गुणमा ठार्यो, भव तार्यो. जग धर्म वधार्यों, प्रेम प्रसार्यो; राग विसार्यों, शिवकारी. गुण व्यक्ति प्रचारी, कर्म विदारी; जगदुपकारी, बलिहारी तुं सद्गुण गामी, जयनिष्कामी; अन्तर्यामी, स्वर्गामी. तुं छे निष्कापी, ब्रह्म अनामी, निनपद पामी, बहु नामी. जगजय गुणकामी, मन विश्रामी, वाणी स्वामी, कामारि. गुणव्यक्ति प्रचारी, कर्म विदारी; जगदुपकारी, बलिहारी. तुं छे पूर्णाशी, गंगाकाशी; त्यजी उदासी, विश्वासी. कापी तें फांसी, लेश न हांसीः पूर्ण प्रकाशी, गुणवासी. शिवपुर निवासी, धर्म विलासी; कीर्तिदासी, छे तारी. गुणव्यक्ति प्रचारी, कर्म विदारी; जगदुपकारी, बलिहारी. ४ तुं मनमा प्यारो, निश्चय सारो; प्राण हमारो, निधार्यो. हुँ शिष्य तमारो, उर उतारो शिघ्र सुधारो, जन्मारो. उर प्रेम वधारो, करो न न्यारो; पाप निवारो, ल्यो तारी. गुणव्यक्ति प्रचारी, कर्म विदारी, जगदुपकारी, बलिहारी. ५ कोइ वात न छानी, नहि अभिमानी, आतम ज्ञानी, गुण गानी; समतामृतपानी, अन्तर्यानी, आतम ध्यानी, मस्तानी गुणगणनी खानि, लेश न हानि, सद्गुणदानी, कामारी; गुणव्यक्ति प्रचारी, कर्म विदारी, जगदुपकारी बलिहारी. ६ लळीलळी करगरथु, विनति करशुं, सत्य उच्चरशुं, सुखवरशुं; मुख निर्मल धरशुं, भ्रांति हरशुं, कदी न डरशुं, संचरडूं.
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१४४ अन्तर उतरणं, ठामज ठर, गुरु अनुसरश्यु, मनधारी; गुणव्यक्ति प्रचारी कर्म विदारी, जगदुपकारी बलिहारी.
७
दुहा. गुरु कृपालु गुणस्त, पूर्णानन्द अखंड तारो सेवक आपनो, कर्मारि देइ दंड, श्रद्धा भक्ति साचवी, क्षण क्षण गावु गान; कृपा करीने तारजो, अर्षी अनुभव ज्ञान. असंख्यप्रदेशी सद्गुरु, ध्याq थइ लयलीन; आतम ते परमातमा, निजपदमा छे जिन. गुरुगम ज्ञाने रीजीए, गुरुगमथी छे मुक्ति गुरु देव आराधना, धर्म मार्गनी युक्ति. बुद्धिसागर सद्गुरु, नमीए वार हजार; द्रव्य भाव मंगलमयी, गुरु मूर्ति जयकार.
Mar"
समज साचुं.
भजन करले. ए राग. समज साचुं समज साचुं, अथिर आ संसाररे; स्वारथनां सगपण अरे सहु, नक्की मनमां धाररे. मननी बाजी त्या | राजी, नाटक सम सहु खेलरे; जोइ जोइने जोइ लीधुं, माया ममता मेलरे. शिष्य कोना पुत्र कोना, कोना गुरुने बापरे। धर्म मनना जाणीने सहु, दूर कर भवतापरे.
समन. १
समज. २
समज ३
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१४५
खराखरीनो खेल आतम, भूल न वारंवाररे; मनमी वृत्ति ज्यां मळे त्यां, सुख गणे नरनाररे. सत्य दीलथी सत्य नेमे, आतमनी घर टेकरे; अलख अरूपी तत्त्वमसि तूं, धरजे सत्य विवेकरे. आवळु जगत् बोले, तोपण धर्म न छोडरे; धर्म करतां धाड आवे, तोपण अंग न मोडरे. नास्तिकोना संगथी जीव, सत्य टेक न हाररे; बुद्धिसागर घर्मयोगे सफळ छे अवताररे.
प्रभुस्तुति.
प्लवंगम छन्द.
नमुं नाथ त्रिभुवन पूज्य प्रभु जयकार छो, जय दिनमणि दीनदयाळ विभु सुखकार छो
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समज.
३
समज. ४
समज. ५
समन:
निश्चयरहस्य.
श्रीराग.
हवे जाणुं जगत् सहु काचुरे, मने लाग्युं आतमरूप साचुंरे; हवे. कोइ न जगनां मारु निश्चय, मारु मारु जाणी भुं माचुरे. हवे, चेका चेली कोइ न मारु, शा माटे अहो शुं याचुरे, हवे. अन्तरनो अलबेलो मळीयो, सत्य बुद्धिसागर गुण राचुरे हवे. २
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जय जिनवर श्री जगदीश निरञ्जन जग धणी, नमुं जिनवर पदकज प्रेम कर्म हखा भणी. निरक्षर अक्ष अनंत भदंत विराजता, . प्रगटावी केवलज्ञान जगत्मां छाजता; जय अशरण शरण अखंड महेश विलासी छो, जय गुणपर्यायाधार अज अविनाशी छो. .. जय अजरामर अरिहंत स्मरण शिव पन्थ छो, जय श्री वीतराग महेश ति श्री ग्रन्थ छो; मारे क्षण क्षण प्रभु आधार अन्य शुं जाणवू, बुद्धिसागर सहजानन्द परमपद आणq.
आत्मसाधन.
| दुहा ॥ अजरामर निर्मल प्रभु, चिदानन्द भगवान् ; घट घटमां व्यापी रह्यो, देखे सो मस्तान. बाह्य वस्तुमा शोधयु, अन्ते कशुं न हाथ; आत्मरमणता आदरे, लहिये त्रिभुवन नाथ. आत्मरमणता साधीए, पुष्टालंबन सार, अन्तरना उपयोगथी, लहिये भवजरूपार. अनन्त सुखनी ल्हेरियो, अन्तरमा प्रगटाय; परमप्रभुता पद मळे, जन्म मरण विघटाय, बाह्यत्तिमां शर्म शुं, शोधो अन्तर शर्म; अन्तर मांहि शोधता, प्रगटे शुद्ध सुधर्म.
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१४७ बाह्य प्रवृत्ति परिहरो, ध्यान धरो निशदीन; सहजानन्द स्वरूपमा, रहिए निशदिन लीन. सार सार सहु ग्रन्थहैं, साध्यतत्त्वनी सिद्धि आत्मवीर्यथी साधतां, ज्ञानादिक गुण रूद्धि, शुद्ध समयने साधतां, जन्म सफलता थाय; बुद्धिसागर धमेथी, चेतन निजपद पाय.
आत्मविवेक.
दुहा.
अनन्त रत्नत्रयी प्रभु सहजानन्द स्वरूप; पुरुषोत्तम करुणानिधि, स्मरतां नासे धूप. एकरूप हुँ आतमा, द्रव्यार्थिक नयवाद। अनेक हुँ पर्यायथी, बोधे टळे प्रमाद. श्रुतज्ञानालंबीपणे, परम प्रभुतुं ध्यान; करतां शिवसुख संपजे, व्यक्तिपणे भगवान्. आत्मज्ञाननी सेवना, आत्म रमणता सार आत्मारामी मुनिवरा, जगमा छे जयकार. बाह्यदशा व्यवहारमा, काइन आवे हाथ, पुद्गलमा निज शोधतां, भूल्यो त्रिभुवननाथ. त्रिगुप्तिगुप्ता जना, ध्यावे आत्मस्वरूप अनन्त आनन्द स्वादीने, थावे छे जगभूप. बाह्य दशामा तुं नहि, निश्चय निर्मलधार. परम महोदय स्वामी तुं, अन्तरमा अवधार.
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१४८ लेख लख्याथी शुं ययु, बहु बोले शुं थाय) अन्तरमा निश्चय रहो, परमप्रभु परखाय. सार सार सहु ग्रन्थनु, समजो आतमदेव बुद्धिसागर आत्मनी, भावे कीजे सेव.
परमप्रभुता.
अलख देशमें वास हमारा-ए राग. परम प्रभुता घटमां भारी, चिदानन्दमय परखाणी; लागी लगनी अलख देशमां, सप्त धातुओ रंगाणी. पारीरनी परवाह नथी कंइ महारु में शोधी लीधुं; पोतानुं पोते में जाप्यु, भाव दान निजने दीधुं. उच्चभाव अन्तरथी प्रगटयो, आत्मभाव ज्यां त्यां प्रसर्यो भूलाणी सहु दुनियादारी, मोहभाव मनथी विसर्यो. जे जे अंशे निरुपाधित्व, ते ते अंशे धर्म धर्यो, जे जे अंशे सुरता लागी, ते ते अंशे धर्म चर्यो. जे जे अंशे शुद्ध समाधि, ते ते अंशे छे मुक्ति जे जे अंशे शुद्ध रमणता, आनन्दनी अंशे भुकि. आत्मराग छे जे जे अंशे, पर प्रीति अंशे उत्तरी ज्ञानी ज्ञाने सर्व समातुं, सुरता निजपद ठाम उरी. हेय ज्ञेयने उपादेयथी, मोझीलो हुँ मलकायो साहु रुद्धि घट अन्तर भासी, समताभावे हुं आयो. अलख देशनी अलख फकीरी, पामी परमानंद पर्यो बुद्धिसागर चिदानन्दमय, निश्चय निमपद अमर्यो.
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१४९ चित्तने शिक्षा.
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गझल.
भटकता चित्त वश थातुं, अरे तुं बाह्य नहि जातुं; प्रभुना ध्यानमा रहेजे, विचारी तन्त्रने कहे जे. खरेखर उद्यमी सारु, जपे नहि ठाम तुं प्यारु, खरेखर वित्त तुं मोडं, गणुं नहि तुजने छोडं. मथुने मेळवी आपे, अनंतां दुःख तुं कापे; केळवणी चित्तनी सारी, विचारो भव्य निर्धारी. प्रभुना ध्यानमा राखुं, अनंतां सुखने चाखुं; हरु सहु बाह्यनी पीडा, उपाधि दुःखना कीडा खुमारी आत्मनी लहीभुं, प्रभुना रूपमां रहीभुं । मुनिना ध्यानमां आव्युं, सुनिए प्रेमथी गाव्यं. अखंडानंद परखायो, खरेखर ध्यानमां पायो; बुद्ध्यब्धि सन्तनो संगी, प्रभुना प्रेममां रंगी.
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२
३
५
सत्य जाणे शुं दुनिया दिवानी.
राग - मारु जंगलो .
सत्य. १
सत्य जाणे थं दुनिया दीवानीरे, जे मायामां मस्तानीरे; सत्य. जन्मी ज्यांथी तेमां राचे, खरेखर अरे तोफानीरे. खरु तत्व न खोळे खांते, म्हारु रहारु करे अभिमानीरे. रात्री जंघे दीवस उंधे, अरे वात नदि कोई छानीरे. सत्य जूठनो भेद न समने, निशदिन यांचीनी पाणीरे. सत्य.
सत्य.
सत्य. २
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अंधाधुधीमां बहु राजी, करे निजगुणनी झट हाणीरे, सत्य. ३ सत्यकृत्यनुं नाम न जाणे, मची रही स्वारथमां खालीरे.सत्य. बुद्धिसागर सत्य धर्ममा, लयलीन थया अहो ज्ञानीरे. सत्य. ४
पत्र संदेशो.
हरिगीत छंद चाल. जा शिष्य पासे पत्र प्रेमे सत्य वात जणावजे, उंडी असर करी चितमा वळी स्वात्म सन्मुख आवजे; नहि अज्ञनो तो प्रेम साचो प्रेम शुं पर द्रव्यमां, छे आत्म साक्षी प्रभूपयोगे प्रेम छ निज द्रव्यमां. शा हेतथी राची रहे छे प्रेम घेलो थई अरे, संयोग त्यां वियोग अंते न्याय साचो मन खरे; उच्च चेतन धर्म करवा उच्चता दिल वारीए, परमात्म साथे प्रेम जोडी विषय सर्व विसारीए. सहु जगत् जीवने उच्च गणवा नीच गणवा नहि कदी, उच्च ध्याने उच्च थाशो उदधिमां जेवी नदी; सहु जीव साथे मित्रताने राखवी ज्यां त्यां अरे, माध्यस्थता राखो हृदयमा दोष सघळा दुर हरे. दोषीना पण दोष टाळो निन्द्यदृष्टि टाळीने, आनंद पामो सन्त देखी चित्त अन्तर वाळीने कारुण्यता गंगा नदीमा स्नान निशदीन कीजीए, ने स्वात्मदृष्टिकाशी पामी हृदयथी खूब रीजीए.
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१५१ शुद्धचित्तमक्काक्षेत्र पामी खुदा प्रभुने पामीए,
ए अलख निर्भय आत्म धारी दोष सघळा वामी ए; छे चौद भुवने वस्तु जे जे शरीरमां ते ते अहो, कदि बाह्य भावे भटकशो नहि आत्मभावे झट रहो. सागर हृदयने स्वात्मविष्णु चेतना लक्ष्मी खरी, योगियोए आत्मध्याने साची विद्या झट वरी;
आत्मज्ञान विना नहि शिव बाह्य दवमां शुं दहो. क्रिया कपटनी मुक्ति नहि दे सार समजी मन वहो. ६ ओ मित्र म्हारा अलखरुपी अलख देशे म्हालजे, जूठ समजी बाह्य दुनिया, सत्य शिवपुर चालने; रंगाईने तुं आत्मभावे शुद्ध स्थिरता लावने, बुद्ध्यन्धिसंगी मित्र मारा आत्मदेशे आवजे.
संसारनी अनित्यता.
हरिगीत छंद चाल.
संसारमां संयोग त्यां वियोग तो व्यापी रह्यो, संसारना संबंधांशुं जीव ललचाई रह्यो; राजा अने वळी रंक सर्वे मृत्यु वाटे चालता, विक्राळ काम कराळ थई कई अन्य गति संभाळता. जेनी हाके धरणी धुजे शत्रु सेना थरहरे, पलकमांही चालीया अरे की कर्मने अनुसरे, अभिमानना बहु तोरमां जे मरडी मूछो मही फरे,
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१५२ आयु खूटे पळ पळ विषे ते जोत जोतामां मेरे.. व्यापारमाः मश्गुल व्यापारीज अंते चालीया, महीनाथ मोटा जगत चावा दाटीया के बाळीया जे युद्ध वीसे अस्त्र शस्त्रे दाट दुश्मन वाळता, अमर रहा नहि जगतमां ते जेओ तनुः पंपाळताः ३ कई मित्र चाल्या पुत्र चाल्या कैक वली. हजी चालशे, अध्यात्मव्यक्ति साची समजी ज्ञानी धर्म निहाळो; तुं चेत प्राणी चेत पाणी समय सारो आमळ्यो, जूठा जगत्मा म्हालवाथी जन्म फेरो नहि टळ्यो. ४ शुभ समयः पामी समय पामी चेत चेतन ज्ञानथी, आनंदमय तुंः अलख योगी शोधी ले झट ध्यानथी; तुं भस्म करजे ज्ञानथी सहु कमने झट वारमा, झट साध्य सिद्धि साधी ले जीव मनुजना अवतारमां. ५ व्यामोह वशमां म्हालवु शुं, अंतमांतो दुःख रघु खसर्नु खणवू दुःख माटे, ज्ञानीयोए बहु का. छे स्वप्न भोजन तृप्ति खोटी, बाह्यसुख तेवु अहो बधि बाह्य सुखनी आश तजीने, आत्ममुख राची रहो. ६ अध्यात्म ऋद्धिसिद्धि साची, अवर सहु जंजाळ छ
को हृदयथी मोहभ्रांति, तेज बुद्ध विशाळछे, निज आत्मरूपमा म्हालवु छ, शुद्ध ध्याने सहजमां; आ आत्मा परमातमा छ, सस धारो मगजमां. तुं अलख देशे चाल योगी, बाह्य ममता परिहरो, छे धाम तुं सत्सुःखनुं शुभ, जैनवाणी मनधरो अध्यात्मशांति प्राप्त करवी सत्यश्रद्धा मन धरो, समजी सदा सुख बुद्धिसागर परमप्रभुता पद बरो. ८
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जगत्तुं भलं इच्छq.
हरिगीत छंद चाल. आ जगत् सघळु मित्र मान्युं कुंटुंब मारु खरेखरु, करुं न हिंसा कोईनी हुं भावना ए चित्त धरु; क्षण रागीने क्षण द्वेषी एवी वृत्तिने झट परिहरु, माध्यस्थदृष्टि हृदय धारी सर्वनुं सारु करु. आ म्हारु ने आ हारु एवी मोह वृत्ति परिहरी, आत्मभावे धर्म जाणी सत्यता दिलमां धरी; जगत जननुं भप करई सस धर्म बतावीने, जगत जननुं भव्य करवू चित्त करुणा लावीने. सहु आत्म सरखा जगत जीवो कीडीथी कुंजर लगी, कोईने संतापुं नहि ए भव्य रटना दिल लगी; देशी के विदेशीनो नहि भेद मनमा आवतो, सर्व जीवनुं भव्य करवू प्रेम सत्य बतावतो. ज्ञाति जाति भेद नहि मन जीव सघळा उच्च छ, जीवने जे उच्च जाणे कदी नहि ते नीच छे; जगत जनने धर्मी करु हुँ भावना दिल मां वसी, द्वेषवृत्ति दूर नाठी धर्म वृत्ति धसमसी. धर्मनां हुं कृत्य करतो दुःख कोणज आपशे, पापना हु कृत्य करु तो स्वर्गमां कोण थापशे; धर्म करतां सुख थाशे न्याय मारो हुँ करु, पाप करतां दुःख थाशे अन्यने शीद करगरु. आत्मबळ विश्वास लावी धर्म पन्थे संवरु,
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सस म्हारु पिय गणीने मोहजलधि झट तरु; जागजो नरनारीओ झट मोक्ष पन्थे चालशो, बुद्धिसागर सहजयोगे अखंडानंद म्हालशो.
सिद्धांतबोध.
हरिगीत छंद चाल. जाग चेतन जाग चेतन मोह निद्रा परिहरी, कोण तुं छे क्याथी आव्यो ज्ञान तेनुं कर जरी; आ जगत शुं छे कर्म शुं छे रूप त्हारु शुं खरे, आदेयने शुं हेय जगमां अमर शुं ने शुं मरे. क्यारनुं आ जगत छ ने तत्व तेमां शां रह्यां, तत्त्व लक्षण सत्य शुं छे जगत्मा कोने कह्यां;
आतमा ने कर्मनो संबंध केवो जाणीए, पहेलं कर्म के जीव तेमां तर्क एवो आणीए. सृष्टि कर्ता छे के नहि ते युक्तिथीज विचारीए, सर्व जीवनो आतमा एक छे नहीं ते धारीए; सर्वव्यापी आत्मा के देशव्यापी छे खरो, आतमा चिन्ह केवु तर्क तेनो मन करो. कर्म सारु खाटुं तेनो न्याय कोणन आपतुं, धर्म करतां कोटी भवतुं कर्म कोणज कापतुं; उगर के मरवू मारे स्वथकी के पर थकी, मरतां अंते साथ शुं छे ज्ञान कर आगम थकी.
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करवो कोनो सत्समागम सन्त कोने जाणवा, सन्तनी करणी अहो शुं भेद तेना आणवा; आतमाने सिद्ध तेमां भेद शो छे धारीए, आगम अने अनुमानथी ए सर्व प्रश्न विचारीए. आतमा हूं द्रव्यथी नित्य अन्यगतिथी आवीयो, पूर्व भवमा कर्या कर्म जे ते ज साथे लावीयो द्रव्य षट्थी जगत पूर्यु काल अनादि जाणीए, उत्पत्ति व्यय ध्रुवता ए द्रव्य लक्षण आणीए. कर्म पुद्गल द्रव्य जाणो बंध छे परभावधी, कर्मथी भिन्न आतमा छे मुक्त शुद्ध स्वभावथी; ज्ञेय सघळां द्रव्य ज्ञाने हेय पर वस्तु कही, आदेय जगमा आतमा एक सत्य श्रद्धा सहही. जीव जड बे तत्व भाख्यां तत्त्व नव पण जाणीए, काल अनादि तत्व बे छे ने अनंत पिछाणीए; आतमाने कर्मनो संबंध काल अनादिथी, पहेलं कर्म के आतमा नहि जाणीए ते ज्ञानथी. देहरूप जे सृष्टि तेनो आतमा कर्ता कह्यो, पर स्वभावे कर्म कर्ता बोध ए मन सद्दह्यो आत्मभावे रमणताथी कर्म सृष्टि परिहरे, अवर कर्ता कह्यो नहि ईश सत्य युक्ति ए खरे. सर्व जीवनो आतमा नहि एक एवं धारीए, प्रतिशरीरे भिन्न चेतन युक्ति नयथी विचारीए; सर्वव्यापी आतमा ने देश व्यापी छे खरो, व्यक्तिथी छे देश व्यापी ज्ञानथी व्यापक धरो. १०
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१५६
ज्ञान दर्शन चरण लक्षण आत्मानुं छे खरु, अकेन्द्रिथी सिद्ध पर्यंत जीवव्यापी अनुसरु; शुभाशुभ जे कर्म तेनो न्याय कर्मज आपतुं, अपेक्षाए जीव ईश्वर न्याय मनमां लाव तुं. धर्म करतां कोटी भवनुं पाप आतम टाळतो, ध्यान अग्नि योगथी जीव कर्म ईन्धन बाळतो; आत्म शक्ति प्रगटवाथी कर्म मर्म हणाय छे, निज स्वभावे रमण करतां आतमा शिव पाय छे. आत्मभावे रमण करतां उगरकुं छे आपधी, कर्ममांहि रमण करतां उगर शुं बापथी; आत्मना सामर्थ्यथी तो सर्व शक्ति प्रगटती, आत्मना विश्वास योगे मूर्खता दूरे थती. मृत्यु पाछळ साथ आवे कर्म मनमां जाणशो, कर्मने वळी धर्म साथै सत्य मनमां आणशो; दुःखकारक कर्म जाणी धर्मवृत्ति आदरो, धर्म सागी मोहमां अरे केम भूली जन फरो. ज्ञानगुरुनो संग करीने ज्ञान चेतननुं करो, जे शुद्ध आत्मस्वभाव ते तो धर्म साचो अनुसरो; खरे शुद्ध आत्मस्वभावमांहि रमणथी सुख थाय छे, धर्मना व्यवहार भेदो हेतु रूप गणाय छे. सन्त करणी धर्मनी छे भक्ति मुक्ति हेतु छे, दोष अष्टादश रहित जिन ईश ए संकेत छे; आतमाने सिद्ध तेमां भेद कर्मना जाणवो, कर्म जातां आतमा ते सिद्धरूप पिछाणवो.
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कर्मयोगे आतमानी सिद्धता तिरो रही, अंश अंशे कर्म टळतां सिद्धता आविर् कही. सिद्धव्यक्ति प्रगट करवा धर्म उद्यम आदरो, बुद्धिसागर तत्वज्ञाने परम महोदय पद वरो.
१७
संसारमा सुधरो.
हरिगीत छंद चाल. संसारमा सुधरो अरे जन धर्मकरणी साचवी, धर्मवण नहि उन्नति जग शिख साची मानवी मावापनी भक्ति करो बहु दारु ताडी परिहरो, केफी वस्तु परिहरो झट उन्नति वेगे करो. छेलछबीला वणीठणीने वित्त व्यय नाहक करो, खर्च खोटां शुं वधारो सत्य नीति अनुसरो सहेलाइमांहि छाकी जड़ने अवनति पायो रचो, धर्मनी जो दाझ होय तो धर्म उद्यममा मचो. भाषा भणीने फुलता शुं दीर्घटष्टि वापरो, परोपकारी शिघ्र थाओ सत्य रस्तो ए खरो देशनी जो दाझ होय तो देशीओने पाळा, दोषनी जो दाझ होय तो दुर्गुणोने खाळवा. न्यायथी धन मेळवीने न्यायथी चालो खरे, कहेणी जेवी रहेणी राखो सुजनता वधशे अरे;
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१५८ आ जगत्माहि जन्मी जेणे जीवन एळे गाळीयु, जननी भारे मारी फोगट दुःख न लेशन टाळीयु. जनक जननी मित्र बंधु बेन शत्रु समा गणो. उच्च जीवन नित्य करवा शास्त्र साचां जन भणो; धर्मना रीवाज जूना मर्म तेनुं ज जाणवू, गहन ग्रन्थो पूर्व मुनिना, ज्ञान पामो अभिनवु. माध्यस्थदृष्टि धारी भव्यो दोष सपला वारीए, पुनर्जन्मना हेतु समजी सत्य श्रद्धा धारीए; धर्म साचो कदी न काचो धर्ममां राची रहो, बुद्धिसागर धर्म करतां चिदानंद पदने लहो.
शुद्धस्वरूपप्राप्तव्य छे.
. हरिगीत छंद चाल. आत्मशक्तिप्राप्त करवा धर्म उद्यम आदरु, आत्मना सामर्थ्यथी आनंदनी लीला करु; आतमा परमातमारुप थाय ते निश्चय धरु, दुःख आवे धैर्य धरवू सत्य शाश्वत सुखवरु, शुद्ध रूपी आतमा हुं ब्रह्मा राची रहुं, शुभाशुभ संयोगमा नहि हर्ष के शोकज लहुँ निंदवा के वंदवाथी जतुं न मुज काई आवतुं, ज्ञान दर्शन धर्म मारो अन्यमा नहि फावतुं. दृश्य वस्तु तेन हुँ छ दृश्यथी न्यारो रहुँ,
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१५९
अलख अरूपी हंस हुँछु अनुभवे वाणी कहुँ । सुख के नहि दुःखकारी मित्र शत्रु अनुभवु, शाने माटे करु हुं ममता वाणी शीद खोटी लं. जगत सारु तेथी शुं मुज खोढुं तेथी शुं गयुं, अध्यात्मभावे रमण करतां नित्य निर्मल सुख लहुँ; सत्य वाणी जिन प्रभुनी अनुभवाने अनुभवी, सापेक्ष वस्तु जाणवाथी धर्म पामे जन भवी. अनंतभवमां भ्रमण करतां चित्त ठाम न आवीयुं, आत्मज्ञाने गुरु कृपाथी चित्त शिव पद भाविर्यु; रमण करवुं रमण करवुं ध्यानथी निश्चय कहुं, बुद्धिसागर सत्य निश्चय लावी मंगलपद लहुँ.
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प्रातः स्मरणीय हितशिक्षा.
हरिगीत छंद चाल.
विश्वासघाती उग्र पापी नरकमांहि अवतरे, परनी निंदा जे करे ते पापनी पोठी भरे; आळ परने जे चढावे आळ पामे ते खरे, परनुं भूंडुं ताकतो जन पामतो दुःखनो घरो. परनुं सारु देखीने जे दीलमां दाशी बळे, दोषी एवा दुःख पामे दुःखी थइने सळवळे) स्वार्थ साधक जे बनीने कपटमा राची रहे, कपदी काळा नाग
जेवो
दुःख
अंते बहु लहे.
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जे जूठ बोले स्वार्थमाटे प्राणी हिंसा बहु करे, मृत्यु अंते प्राणिया ते नरकमांहि अवतरे; सद्गुरुने निंदवाथी नाश कूळनो थाय छे, मावापनी निंदा करे ते नीच गतिमां जाय छे. क्रोध अतिशय जे करे ते सर्प काळो थइ फरे, लोभ अतिशय जे करे ते सर्व पापो आदरे; काम अतिशय जेहने ते देखतो पण अंध छे, सप्त व्यसनो सेववाथी द्वार स्वनां बंध छे. उचित अवसर जे न जाणे मूढ जगमां जाणवो, धर्मने धिक्कारतो ते मूर्खजन जग मानवो; मित्र पण जे दुष्ट मनमां शत्रुथी मूंडो अरे, शत्रुनो विश्वास राखे मनुष्य ते अंत मरे. धूर्त आगळ मननी वातो जे करे ते मूढ छे, कपटीनो आचार भारी चिन्ह एबुं गूढ छे; विना विचारे बोलवाथी शोक बहु करवो पडे, बुद्धिसागर समजु समजो सत्य समजुने जडे.
हितशिक्षारत्न.
हरिगीत छंद चाल. ज्ञानियोनी संग करतां ज्ञान दिलमा प्रगटतुं, सन्तजननी संग करतां पाप सहु दूरे जतुं; योगियोनी संग करतां योगना पन्थे वहीं, वृद्धजननी संग करतां सत्य शिक्षा मन लहो.
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१६१ धर्म ग्रन्थो वाचवाथी धर्म श्रद्धा उपजे, गुरुनी भक्ति जे करे ते उच्च जगमां नीपजे; सर्वेनुं सारु करे ते श्रेष्ट जगमां थाय छे; सत्य पन्थे चालवायी देवतानी हाय छे. कोईनो सद्गुण कह्याची झेर कदीय न थाय छे, सर्व जन सारु बोले मित्र सत्य गणाय छे; कोईने पीडे नहि ते धर्म मूर्ति जग खरे, माध्यस्थदृष्टि जे धरे ते ससयुक्ति अनुसरे. विनय वैरी वश करे छे विनय उत्तम आदरो, आत्मश्रद्धा हृदय धारी दोष सघळा परिहरो उच्च थाशो नक्की जगमा उच्च जन सेवा करे, गुरु वचनने लोपशो नहि सत्य शिक्षा छे खरे. शुद्ध चेतन रूप समजी धर्म करणी कीजीए, आत्मध्याने अनुभवामृत प्रेम प्याला पीजीए। जागशो नरनारीओ झट पाप वृत्ति परिहरी. बुद्धिसागर हृदय शुद्धि आत्मश्रद्धा सुखकरी.
उच्चबोध.
हरिंगीतछंदचाल. उच्चवृत्तिप्रेम माटे उच्चजनमन आथडे, नीचत्तिप्रेम माटे नीच जनमन लडथडे; विवेकदृष्टिसत्यरविकर भरतिमिर मिथ्या हरे,
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१६२ मिथ्या जनित मन तिमिर भ्रान्ति क्षणिक स्थिरता शुं करे.१ आत्मजीवनदीप्तिवृद्धिशर्मस्वादितयतिपति. अध्यात्मयोगिकमार्ग पोधे ज्ञानयोगे जिनपति; कर्णसंपुट गिर सुधारस हृदय पंकज उतरे, स्याद्वादशासन पापनाशन भव्यजनमनमां घरे. लक्ष्यवृत्ति लक्ष्यमा तो बाह्यथी भिन्नज अहो, अशुभवृत्ति क्लेश टाळी शुद्धमा राजी रहो सर्वतः निस्संग थइने संग चिद्घन साधीए, परमात्मव्यक्तिदिव्यमाप्ति योगयी झट वाधीए. सध चेतन द्रव्य लक्षण सप्त नयथी धारीए, शुद्ध निर्मल स्फटिकवत् छे नित्य चेतन धारीए; परमज्योति परमशांति तत्त्वमसि निश्चय कर्यो, बुद्धिसागर परम मंगल लाभ निश्चय मन धर्यो.
अन्तरमा सुरताप्रवेशना उद्गार.
मन मोडं जंगल केरी हरणीने-ए राग. मारी सुरता अन्तरमांहि लागीरे, हुं तो थइयो अन्तरगुण रागीरे मारी. दुनियादारी दूर निवारी, हुँतो बनीयो अन्तर वैरागीरे. मारी. १ नर के नारी नहि नपुंसक, भान भूल्यो रागी के हुं त्यागीरे.मारी.२ दुनिया डहापण दूर निवायु, मोह बेटी कुमति दूर भागीरे.मारी. ३ अलख अरुपी अजरामर हूं, शुद्ध चेतना घटमां जागीरे मारी. ४
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१६३
चिद्यन चेतन परम महोदय, हुं तो आनंदमय वडभागीरे मारी. ५ ध्यान दशामां हुं हुं नाएं, ब्रह्म झळहळ ज्योति त्यां जागीरे. मारी. ६ बाह्य दु:ख अन्तरमां सुखड, एवी स्फुरणा मोरली झट वागीरे, मारी. ७ बुद्धिसागर आनंदघन प्रभु, एकरुपे मळोने सुहागीरे. मारी. ८
योगी. श्रीराग.
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मन मोह्या जंगल केरी हरणीने-ए राग.
जोगी. ३
जोगी. ४
जोगी थइने अलख हुं जगाबुंरे, सोऽहंसोऽहं परममभु ध्यार्बुरे. जोगी. उदासीनता कंथा पहेरुं, वैराग्यनी भभूति चोळा बुरे. दयाभावनी चाखडीओ धरू, शीलवतनो लंगोट लगाउंरे. सर्वत्यागरूप शिर्ष मुंडा, प्रभु धारणा खप्पर धराउंरे. ध्यान दंडने प्रेमे धारुं, पवन पावडी उपयोग लाउरे. अन्तर आत्मप्रदेशे विचरु, दया गंगमां स्नाने सुहाउंरे. जोगी. ५ अस्ति नास्तिमय परमब्रह्ममां ब्रह्मांड आखुं हुं समाउंरे. जोगी. ६ अनुभव अमृत भिक्षा मागुं हुं तो धूणी संयमनी जगाउं रे. जोगी. ७ अन्तर आतम परमातमनी, अक्य भावना भांग घुंटाबुंरे. जोगी. ८ मन प्यालामा भरीने पीतां, देखें उलटी आंखे सुख पावुरे. जोगी. ९ बुद्धिसागर योग महोदय, पामी निश्चय निर्भय थाउँरे. जोगी. १०
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जोगी. १
जोगी. २
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१६४ चेतन हंसीनो चेतन हंसने उपालंभ.
हरिगीत छंद चाल, ओ हंस मान सरोवरे तुं, हंसली साथे रमे, मोति चारो तुं चरे छे, अन्यत्र भक्ष्यज नहि गमे शुभ श्वेतवर्णे श्वेतचरणे, शोभतो जगमां अरे, त्यॉगी कूळघट टेक त्हारी, काक संगति शुं करे. तुं स्वच्छ दिलथी दूध जेवो, योगियोना मन गमे, त्यागी कूळवट मोहथी अरे, काग संगे क्यां भमे; दुग्ध जल संयोगनो वियोग चंचुथी करे, चतुराइ चावी जगतमां बहु, लाज मूकी शुं फरे. पद्मिनीनी गतिने जीती, नाम चावं बहुं कयु,
ओ हंस कूळवट मूकवामां चित्त शाथी तब फर्यु। तुं हंसी साथे हेत हरदम मान सरवर झीलतो, सूक्ष्म कमली तंतुओने पाद गतिथी पीलतो. उच्च कूळ प्रख्यात प्यारा विनति आ उरमां धरो, स्नेह तंतु बांधीया शुभ केम शाथी विचरो; जीव राजा चेतनास्त्री उपालंभ ए आपीयो, बुद्धिसागर आत्मभावे समजतां सुख व्यापियो.
२
४
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१६५ जोया बाद सार नथी.
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हरिगीत छंद चाल.
नव लग्न लीलामां भर्यु शुं कामी जन राची रहे सुख जीवननी दोरी कल्पी स्मरण करी मन ते लहे, डुंगरा रलीयामणीया तो दूरथकी लाग्या मही, परणीने जोयुं पछी तो सार तेमां कंइ नहीं. मरु महीमां हरिण दोडे तरस लागी बहु अरे, झांझवानां जळ निहाळी दोडी दोडी बहु फरे जाय पासे तो मळे नहीं दूर जल जाये वही, परणीने जोयु पछी तो सार तेमां केइ नहीं. स्वम लाडु जपण जमतां भूख भागी नहि जरी, जगत्नी जंजाळ मोटी खोटी जोतां ते ठरी, पुष्प आ गुलाबनुं करमाइ जातुं ते सहि, परणीने जोर्यु पछी तो सार तेमां कंह नहीं. मीन भोकुं भक्ष्य माटे मोहथी विधाय छे. कमळनी सुवास माटे भ्रमर दुःख लपटाय छे. सारु लाग्यं उपरथी अरे सुंदरता मनमां लही, परणीने जोयुं पछी तो सार तेमां कइ नहीं. अनुभवी ए अनुभव्युं ए सर्व विषयो संग्रही, सुख पाछळ दुःख ते तो सुख जगमां छे नहीं, बुद्धिसागर प्रभूपदेशे धर्म साधो गहगही, परणीने जोयुं पछी तो सार तेमां कइ नहीं.
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१६६ क्षमापना.
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हरिगीत छंद चाल.
खभुं खमावुं सर्वने हुं, वैर सघळां परिहरी; जगत जीवो मित्र म्हारा, भावना मनमां धरी; अज्ञानने वळी द्वेषथी कोइ जीवने मार्या अरे, खमुं खमायुं जीव राशि साम्य भावे जग खरे. क्रोधना आवेशमांहि निंद्य वचनो जे कां क्रोधना आवेशमांहि चित्त परनां जे दह्यां; क्रोधना आवेशमांहि जे कर्यु ते नाह खरूं, खमुं खमावुं जीवराशि साम्यता मनमां धरुं. चतुरशिति लक्षयोनि जीव म्हारा मित्र छे, सिद्धसम सत्ता थकी ते ज्ञानभाव विचित्र छे; द्वेषी नहि कोइ जगत्मां मम द्वेषात नहि खरी, खसुं खमावुं जीवराशि मित्रता मनमां घरी. सुख दुःख जे सांपडे ते पुण्य पापे अनुभव्युं, जगत जीवो निमित्त मात्र अनुभवीने अनुभव्युं; अशुभ कर्त्ता को नहि मुज बैरी नाह कोइ जाणीयुं, खमुं खमावुं जीवराशि ज्ञान निर्मल आणीयुं. त्रियोगथी अपराध कीधा जगत् जीवोना प्रति, माफ मानुं तेनी आजे चित्त लावी शुभमतिः लेख लखीने छापीयाने जीव बहु में दुहव्या, खमं खमानुं सर्वने हुं मित्र जीवो अनुभव्या. सकळ संघने बहु खमावु, वैरभाव विसारजो,
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भव्य आराधक खमे ते तत्त्व मनमां धारजोः महावीर प्रभुनीवचनशैलीपियुष दिलमां धारशो, क्षमापनाशुभबुद्धिसागर वांची धर्म वधारशो.
श्वी यशोविजय वाचककृत. अथ श्री सीमंधरजिन निश्चय व्यवहारगर्भित
विनतिरुप स्तवन. श्री सीमंधर साहिब आगे वीनतीरे, मन धरी निर्मळ भाव; कीजेरे (२) लीजे ल्हाको भवतणो रे बहु मुख खाणी तुज वाणी परीणमे रे, जेह एक नय पक्ष; भूल्यारे (२) ते प्राणी भव रडवडे रे. में मति मोहें एकज निश्चय नय आदर्यो रे, के एक जे व्यवहार; भेळारे (२) तुज करुणाऐं ओळख्यारे. शिविका वाहक पुरुष तणीपेरे ते कह्यारे, निश्चयने व्यवहार; मिळियारे (२) उपकारी नवि जुजुआरे. बहुला पण रत्न कहां जे एकलां रे, ते माला न कहाय; माळारे (२) एक सूत्र जे सांकल्यां रे
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तिम एकाकी नय सघन मिथ्या मतिरे, मिळियां समकित रुप, कहीयेरे (२) लहीए संमति सम्मतिरे. दोय पंख विण पंखी जिम नवि चली शकेरे, जिम रथविण दोय चक्री न चलेरे (२) तिम शासन नय बिहु विनारे. शुद्ध अशुद्ध पणुं सरखं छे बेहुनेरे, निज निज विषे शुद्ध जाणोरे (२) पर विषे अविशुद्धतारे. निश्चय नय परिणाम प्रणामे छे वडोरे, तेवो नहीं व्यवहार; भाखरे (२) कोइक इंम ते नवि घटेरे.
कारण निश्चय नय कारण अछेरे, कारण छे व्यवहार; साचोरे (२) कारज साचो ते सहीरे. निश्चय नय मति गुरु शिष्यादिक को नहीरे, करे न भुजे कोय; तेथीरे (२) उन्मारग ते उपदिशेरे. नय व्यवहारे गुरु शिष्यादिक संभवरे, तिणे साचो उपदेश: भाष्योरे (२) भाव्य सूत्र व्यवहारमारे.
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ढाळ बीजी. कोइक विधि जोतां थकारे, छांडे सवि व्यवहाररे; मन वशीया न लहे तुज वचने कयुरे, द्रव्यादिक अनुसाररे; गुण रसीया. १ पाठ गीत नृत्यनी कळारे, जिम होय प्रथम अशुद्धरे मन पण अभ्यासे ते खरीरे, तेम क्रिया अविरुद्धरे. गुण० २ मणी शोधक शत खारनारे, जिम पुट सकल प्रमाणरे, मन सर्व क्रिया तिम योगरे, पंचवस्तु अहिनाणरे. गुण. ३ प्रीति भक्ति योगे करीरे, इच्छादिक व्यवहाररे मन हीणो पण शिव हेतु छरे, जेहने गुरु आधाररे. गुण' ४ विष गरल अनुष्शन छेरे, हेतु अमृत जिम पंचरे; मन० किरिया तिहां विष गर कहीरे, इह परलोक पंपचरे. गुण० ५ अनुष्ठान हृदय विनारे, समूच्छिम परे होयरे; हेतु क्रिया विधि रागथीरे, गुण विनयीने जोयरे. गुण. ६ अमृत क्रियामां जाणीयेरे, दोष नहीं लवलेशरे, मन०. त्रिक त्यजवां दोय सेववारे, योगबिंदु उपदेशरे. गुण०, ७ किरिया भक्तिए छेदीयेरे, अविधि दोष अनुबंधरे; मन० तिणे शिवकारण ते कह्योरे, धर्मसंग्रहणी प्रबंधरे. गुण ८ निश्चयफल केवल लगेरे, नवि त्यजीये व्यवहाररे; मन चक्री भोग पाम्या विनारे, जिम निज भोजन साररे. गुण०. ९ पुन्य अशि पातिक दहेरे, ज्ञान सहजे ओल्हायरे
मन०. पुन्य हेतु व्यवहार छेरे, तिणे निरवाण उपायरे. . गुण०.१० भव्य एक आवर्तमारे, क्रियावादि मुसिद्धरे, होवे तिम बीजो नहीरे, दशाचूर्णी सुप्रसिद्धरे.... गुण ११
मन०
मन
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इम जाणीने मन धरेरे, तुनः शासननो रागरे । निश्चय परिणती मुनि रहेरे, व्यवहारे वह लागरे.
मन० गुण०१२
ढाळ ३ जी सयाकत पक्षज कोइक आदरे, किरिया मंद अणजाण; श्रेणिक प्रमुख चरित्र आगळ करे, नवि माने गुरु आण.
___ अंतरजामीरे तुं जाणे सवे. १ ते कहे श्रेणीक नवि नाणी हुओ, नवि चारित्र प्रधान: समकीत गुणधीरे जिनपद पामशे, तेहिज सिद्धि निदान.अं० २ ते नवि जागेरे किरिया खप विना, समकित गुण पण तास नरकतणी गति नवि छेदी शके, एह आवश्यके भाष्य. अं० ३ उज्वळ ताणेरे पाणे मेलडे, सोहे पट न विशाल तिम नविं सोहेरे समकित अविरते, बोले उपदेश माळ. अं. ४ विरति विधन पण समकित गुण भयों, छेदे पलिय पुहुत्ता । आणंदादिक व्रत धरता कहो. समकित साधेरे सूत्र. अं० ५ श्रेणिक सरिखारे अविरति थोडला, जेह निकाचित कर्म वाणी आणेरे समकित विरतिने, ए जिन शासन मर्म. अं. ६ ब्रम प्रतिज्ञारे विण लव सप्तमा, ब्रह्मवती नहीं आप; अण कीयां पण लागे अविरतें, सहजे सघळारे पाप. अं० ७ ए जाणारे व्रत आदर करे, यतने समाकितवंत; पंडीत मीछेरे थोडे जीम भणे, नावे बोले अनंत. अं० ८ अंधा आगेरे दरपण दाखवो, बहिरा आगेरे गीत
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१७१
मूरख आगेरे परमारथ कथा, त्रध्ये एकज रीत.
एवं जाणीरे हूं तुज वीनवुं, किरिया समकित जोडि; दीजे कीजेरे करुणा अति घणी, मोह सुभट मद मोड. अं० १०
ढाळ ४ थी.
ईणि पेरे में प्रभु वीवो, सीमंधर भगवंतोरे; जाणुं हुं ध्याने, प्रगट हुं तो, केवळ कमळा कंतोरे।
जयो जयो जगगुरु जगधणी. १
तुं मभु हुँ तुज सेवको, ए व्यवहार विवेकोरे; निश्चय नय नहीं अंतरु, शुद्ध निरंजन एकोरे. 'जिम जल सकलनदीतणो, जलनिधि जल होय भेळोरे; ब्रह्म अखंड सखंडनों, तिम ध्याने एक मेळोरे. तुज आराधन जिणे कर्यु, तसु साधन कुण लेखेरे; दूर देशान्तर कोण भमे, जे घर सुरमणि देखेरे.
जयो० २
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जयो० ३
जयो० ४
अगम अगोचर कथा, पार कुंणे न लहीएरे; तिणें तुज शासन इम कहे, बहु श्रुत वयणडे रहीएरें. जयो० ५
तुं मुंज एक हृदय वश्यो, तुंहींज पर उपकारीरे,
भरत भविक हित अवसरे, प्रभु मत मुंको विसारीरे. जयो० ६
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१७२
॥कळा
॥
इय विमल केवल ज्ञान दिणयर, सफर गुण रयणायर; अकलंक अमल निरीह निरमम, वीनव्यो सिमंधरु. श्री विजयप्रभ सूरी राजे, विकट संकट भय हरो; श्री नय विजय बुध चरण सेवक, जश विजय बुध जय करो. ?
अथ श्री आनंदघनजी महाराजनी कृत योग पद ता योगे चित लाउं, बाला ता योगे चित लाउं (ए टेक) समकित दोरी शलि लंगोटी, गुण गणि गांठ लगाउं; तत्त्व गुफामें दीपक जोवू, चेतनगय जगाउं. पाला. १ अष्ट कर्म कंदेकी धूनी, ध्यानसे अंग जलाउं; उपशम भश्म भस्म छाणके, मिल मिल अंग लगाउं. बाला. २ आद्य गुरुका चेला होय के, मोहसे कान फरा; धर्म शुकल दोय मुद्रा सोहिए, करुणा नाद बजाउं. बाला. ३ अयेंसे योग सिंहासन बेसी, मुक्तिपुरिमां जाउं; आनंदघन अविनाशि आतम, फेर कलिमें न आउं. बाला. ४
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१७३ श्री यशोविजय वाचककृत. ॥श्री पञ्चपरमेष्ठि गीता॥
प्रणमीई प्रेमस्युं विश्वत्राता, समरीइं सारदा मुकविमाता; पंच परमेष्ठि गुण थुणण कीजे, पुण्य भंडार मुपरि भरीजे. ॥१॥
चालि. अरिहंत पुण्यना आगर गुण सागर विख्यात, मुरघरथी चवि उपजे चउद सुपन लहे मात; ज्ञान त्रणें जू अलंकरिया सूरय किरणे जेम, जनमे तब जनपद हुई सकल सुभिख बहु प्रेम. ॥२॥
दश दिशा तव होई प्रगट ज्योति, नरकमांहि पणि होई खिण उद्योति. पाय वाई सुरभि शीत मंद, भूमि पणि मानु पामे आनंद. ॥३॥
चालि. दिशि कुमरी करे ओच्छव आसन कंपे ईद, रण कईरे घंट विमाननी आवे मिलि सुरवंद; पंचरुप करि हरि सुरगिरि शिखरें लेई जाई. न्हवरावई प्रभु भगतिं क्षीर समुद्र जल ल्याई.॥४॥
दुहा. स्नात्र करतां जगत् गुरु शरीरे, सकल देवै विमल कलसनीरे आपणा कर्ममल दरि कीधा, तेण ते विबुध ग्रन्थई प्रसिद्धा.॥५॥
चालि. न्हवरावी प्रभु मेहलेरे, जननी पासे देव; अमृत ठहरे अंगुठडे, बाल पियै एह टेव.
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१७४ हंस क्रोंच सारस थई, कानई करई तस नादः बालक थई भेला रमे, पूरे बाल्य सवाद. ॥ ६ ॥
दहा.
वालता अतिक्रमें तरुणभावै, उचितथिति भोग संपत्ति पावै दृष्टि कांताई जो शुद्ध जो३, भोग पण निर्जरा हेतु होवे. ॥७॥
चालि. परणी तरुणी मन हरणी घरणीने सोभाग, शोभा गर्व अभावै घर रहेतां वयराग; भोग साधन जब छंडे मंडे व्रतस्यु प्रीति, तव व्यवहार विराजे वयरागी प्रभुनीति. ॥८॥
दुहा. देव लोकांतिका समय आवई, लेई व्रत स्वामी तीरथ प्रभावई। उग्र तप जप करी कर्म गाले, केवली होइ निज गुण संभाले.॥९॥
चालि. चउत्रीस अतिशय राजता गाजता गुण पांत्रीस, वाणी गुण मणी खांणी प्रातिहारय अडईस; मूलातिशय जे च्यार ते सार भुवन उपगार, कारण दुःख गण वारण भव तारण अवतार. ॥१०॥
दुहा. देह अद्भूत रुचिर रूप गंध, रोगमल स्वेदनो नहीं संबंध (१) पास अति सुरभि(२) गोक्षीर धवल, रुधिरने मांस अणवित्र अ.
मल (३) ॥१॥
चालि. करईरे भवयिति प्रभूतणी, लोकोत्तर चमत्कार,
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१७५ चर्म चक्षु गोचर नहीं जे आहार नीहार; (४) अतिशय एहज सहजना च्यार धरे जिनराय, हवे कहई इग्यार जे होइ गए घनघाय. ॥ १२ ॥
दुहा. क्षेत्र एक योजनमें उच्छाहिं, देवनर तिरिय बहु कोडि माही; १ योजन गामिणी वाणी भास्ये, नर तिरिय सुर मुणे नित्य उल्ला
सं. २॥१३॥
चालि. योजन शत एकांहि निहां जिनवर विहरंत, इति मारि दुरभिक्ष विरोध विराधि नहुँत; स्वपरमक अतिवृष्टि अवृष्टि भयादिक जेह, ते सवि दूरि पलाये जिम दव वरसत मेह ॥ १४ ॥
तरणि मंडल परे तेज ताजे, पूंठिं भामंडल विपुल राजे (११) सुरकृत अतिशय जे? लहिए, एक उंणा हवे वीस कहीए ॥१५॥
चालि. धर्मचक्र शुचिचामर वत्रय विस्तार, छत्रत्रय सिंहासन दुंदुभि नाद उदार; रत्नत्रय ध्वज उंचो चैत्र द्रुम सोहंत कनक कमल पगला ठवे चउ मुह धर्म कहत ॥ १६ ॥
वायु अनुकूल मुखमल वाये, कंटका उंध मुख सकल थाए; स्वामी जबथी व्रत योग साधे, केश नख रोम तबथी न वाधे.
(१३) ॥१७॥
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१७६ चालि.
कोडि गमे सुर सेवे, पंखि प्रदक्षण दंति ( १५ ) ऋतु अनुकूल कुसुमभर गंधोदक वरसंति; विषय सर्व शब्दादिक नवि होवे प्रतिकूल (१८) तरु पण सवि शिरनामे जिनवरने अनुकूल (१९) ॥१८॥
दुहा. हवे कहुं जे पण तीस वाणी, गुण सकल गुण तणी जेह खाणी; प्रथम गुण जेह संस्कारवंत (१ ) उदात्त गुण अपर (२) सविसुणे
संत, ॥१९॥ चालि. शब्द गंभिरपणुं जिहां (३) वली उपचारोपेत (४) अनुनादिव (५) सरलता (६) उपनीत राग समेत (७) शब्दातिशय ए साते, अर्थाविशय हवे जोय, महार्थता (८) अव्याहता, शिष्टपणुं गुण होय ॥२०॥
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दूहा.
गुण असंदिग्ध विगत्तोत्तरत्व जनहृदय गामि गुण मधुरवत्त्व, पूर्व अपराध साकांक्ष भाव नित्य प्रस्ताव उचित स्वभाव ॥२१॥
चालि. तत्त्वनिष्ट अप्रकीर्ण प्रसृत निज श्लाघा अन्य निंद रहित, अभिजात मधुर अने स्निग्ध, ते धन्य मर्म न वेधर, उदार त्रिवर्ग विषय प्रतिबध्ध, कारकादिक अविपर्यय विभ्रम रहित मुबद्ध (२६) ॥२२॥
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१७७
२७
१८
चित्रकर अद्भतता रति अनति अविलंब (२९) जाति मु विचित्र (३०) सु विशेष बिंब (३१) सत्त्व पर (३२) वर्ण पद वाक्य शुद्ध (२३) नहिय विच्छंद (३४) खेदे न रुद्ध (३५) ॥ २३ ॥
चालि. इम पांत्रिस गुणे करी वाणी वदे अरिहंत, सर्व आयु जो कोइ मुणे तो नहीं भूख न भ्रंत; रोग शोग न जागे लागे मधुर अत्यंत, इहां आवश्यक भाष्ये किवि दासी दृष्टांत ॥ २४ ॥
दुहा. देव दुंदुभि कुसुम वृष्टि छत्र, दिव्य ध्वनि चामर आसन पवित्र भव्य भामंडल द्रुम अशोक प्राति हारय हरे आठ शोक ॥ २६॥
चालि. रागादिक जे अपाय ते विलय गया सविदोष (१) उग्यो ज्ञान दिवाकर (२) जय जय हुओ जगिघोष; वाणी कुमति कृपाणी (३) त्रिभुवन जन उपचार (४) पामे जन जे व्यापक मूलातिशय ए च्यार. ॥२७॥
. दुहा. महा माइण महा गोपनाह, महा निर्यामक महा सार्यवाही विसद महा कथित तणुंजे धरंत, तेहना गुण गणे कुण अनंत.॥२७॥
चालि. पुण्य महातरु फलदल, किसलय गुण ते अन्य, अन्य ते क्षायिक संपति, उपकारे करी धन्य
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१७८ क्षीर नीर सुविवेकए, अनुभव हंस करेइ, अनुभववृत्तिरे राचे, अरिहंत ध्याने धरेई. ॥ २८ ॥ दुहा.
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७
बुद्ध अरिहंत भगवंत भ्राता, विश्वा विभु शंभु शंकर विधाता;
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१०
११
૧૨ 43
૧૪
१ यू ૧૬
परम परमेष्टि जगदीश नेता, जिन जगन्नाथ घनमोह जेता . ॥ २९ ॥
चालि.
१७
૧૯
૨૦
मृत्युंजय विषजारण जग तारण ईशान,
૧
૨
૨૩
૧૪
महादेव महाव्रतधर महा ईश्वर महा ज्ञान;
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૨૫
૨૬
२७
विश्वबीज ध्रुवधारक पालक पुरुष पुराण,
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३१
३२
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ब्रह्म प्रजापति शुभमति चतुरानन जगभाण ॥ ३० ॥
३४
૩૫
३९
३७
दुहा. भद्र भव अंतकर शत आनंद, कमन कवि सात्विक प्रीतिकंद;
३८
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४०
૪૧
૪૧
४३
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૪૫
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जगपिता महानंदवापी, स्थविर पद्माश्रय प्रभु अमायी.
चालि.
४७
४८
૫૦
૫૧
૫૨
विश्व जिनु हरि अच्युत पुरुषोत्तम श्रीकंत,
५३
૫૪
૫૫
विश्वभर धरणीधर नरकतणो करे अंत;
પ
५७
૫૯
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ऋषी केशव बलसूदन गोवर्धन धरधीर,
१
९२
૬ ૩
विश्वरूप वनमाली जलशय पुण्य शरीर ॥ ३२ ॥
दुहा. आर्य शास्ता सुगत वीतराग, अभयदाता तथागत अनागत:
૬૫
१९
८
१७
૬.
७०
नाम इत्यादि अवदात जास, तेह प्रभु प्रणमतां दिओ उल्लास || १३||
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१७९ चालि.
नमस्कार अरिहंतने, वासित जेहनुं चित्त, धन्य ते कृत पुण्यने, जीवित तास पवित्तः आर्तध्यान तस नवि हुए, नवि हुए दुरगति वास, भव क्षय करतारे समरतां, लहिए सुकृति अभ्यास. ||३४|| दुहा.
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आत्मगुण सकल संपद समृद्ध, कर्मक्षय करि हुआ जेह सिद्ध; तेनुं शरण कीजई उदार, पामीई जेम संसार पार. ॥ ३५ ॥ चालि.
१
समकित आतम स्वच्छता केवल ज्ञान अनंत,
४
केवल दर्शन वीर्य ते शक्ति अनाहत तंत;
૫
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सूक्ष्म अरूप अनंतनी अवगाहन जळयां काठ,
अगुरु लघु अव्याबाधए प्रगव्या शुचि गुण आठ ॥ ३६ ॥ दुहा, सर्व शत्रुक्षये सर्व रोग, विगमधी होत सर्वार्थ योग; सर्व इच्छा लहे होई जेह, तेहथी सुख अनंतो अछेह ॥ ३७ ॥ चालि.
सर्व काल संपंडित सिद्ध तथा सुखराशि, अनंत वर्ग भागे माए न सर्व आकाश; व्यावाधा क्षय संगत सुख लव कल्पे राशि, हनो एहन समुदय एहनो एक प्रकाश ॥ ३८ ॥
दुहा. सर्व काला कलणणंत वग्ग, भयण आकाश अणुमाण सग्ग; शुद्ध मुहणं तणं तथ्य देशी, राशि त्रिणे अणते विशेष. ॥३९॥
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१८० चालि.
काल भेद नहि भेदक शिव सुख एक विशाल, जिम धन कोडिनी सत्ता अनुभवतां त्रिहु काल; कोडिं वरनारे आजना सिद्धमां नहीं दोइ भांति जाणे पण न कहे जिनजिम पुरगुण भिल्ल जाति. ॥४०॥
दुहा.
जाणतो पण नगर गुण अनेक, भीलनी पालमांहि भील एक; नवि कहे विगर उपमान जेम, केवली सिद्ध सुख इत्थ तेम ||४१|| चालि.
अश्व वाहने कांt चाल्योरे नरपति सुरपति रूप, एक विवेक विराजे ए बीजे ए साज अनूप; अश्वे अपहृत सैन्य ते छोडी दोडी जाय, पालिने परिसर मेल्ही ते बेठो एक तरु ठाय ॥ ४२ ॥
दुहा. एक ते भील अविनीत तुरगई कष्ट उपनीत छुह तरस लगई; म्लान मुख देखीओ भील एके तेह पण चमकीओ तास टेके ॥४३॥ चालि.
एक एकने देखेरे न विशेषे नीज रूप, एक सुवर्ण अलंकृत एक ते काजल कूप;
टग मग जोहरे पशु परिभाषा नवि समझाय,
अनुमानें जल आणिओ भील लेड नृपते पाय ॥४४॥
दुहा.
मधूर फूल आणी नृपने चखावे, चित्तने प्रेम परि परि सिखावें, बंधु पितृ मातृथी अधिक जाण्यो, भील ते भूपति चित्त आयो४५
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१८१
चालि.
एतले आवीरे सेना पनि पनि जोती मग्ग, गर्जित गज हेषीत हयरथ पादातिक वग्ग; वाजांरे वागां जितिनां छांटणां केसर घोल,
ओछवरंग वधामणां नव नव हुआ रंग रोल. ॥ ४६ ॥ बंदिजन छंदस्यूं बिरुल बोले, कोइ नहीं ताहरे देव तोले; थेइ थेइ करत नाचे ते नटुआ, गीत संगीत सधान पटुआ ॥ ४७ ॥ चालि.
आगे धरिआरे मोदक मोदकरण सुप्रबंध,
दिव्य उदकवळि आण्यां शीतल सरस सुगंध;
नृप कहे भील आरोगे, ते मुज आवे भोग, वेचातो हूं लीधो, इण अवसरिं संयोगे ॥ ४८ ॥
दुहा. वस्त्र अलंकार तेहने पहिराव्यां मूळगां तूच्छ अंबर छोडाव्यां दिव्य तांबूल भृत मुख ते सोहे, विजय गजराज साथै आरोहे ४१ चालि
कोइ आरोह्यारे वारण ढमक्यां ढोल निसाण, नादें अंबर गाजे साजे सबल मंडाण;
नगर प्रवेश महोच्छन अचरिज पामे रे भीळ,
जाणे हुं सरगमां आविओ राखी तेहज डील. ॥ ५० ॥ दुहा.
देखी प्राकार आकार हरख्यो, नगरनो लोक सुरलोक परख्यो; आपण श्रेणि बेठा महेभ्य, मानिआ सुगण गणराज सभ्य. ॥४१॥ चालि. पहरीरे पीत पटोली ओळी केश पुनीत,
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भंभर भोली टोली मिलि मिलि गावत गीत; दामिनी परि चमकतीरे कामिनी देखे सनूर, भाल तिलक मिसि विभ्रम जीवित मदन अंकुर ॥ ५२ ॥ दुहा. देखीया राय राणा सतेजह, ऋद्धिनो पार नहिं हुआ तेह भूप निज सदन पुहतो उल्लास, भीलने दिद्ध सनमुख अवास ॥५३॥ चालि.
भोजन शयन आच्छादन गंध विलेपन अंग, खबर लीए नृप तेहनी नव नव केलवे रंग; आधे बोले ते सवी करे, मनि घरे तेहजे काज, कचमिस अपयश ते गणे, जे नवि दीधुं राज. ॥ ५४ ॥ दुहा. दीवस सुख मानतां तासवीता, केतला रंग रमतां विचिताः एकदा आवीओ जलद काल, पंथिजन हृदयमां देतफाल. ॥५५॥ चालि.
कृत मुनिशम परिहारा हारावली दिस भाग, प्रकटित मोर किंगारा विरचित दारा राग;
विरहणि मन अंगारा धाराधर जलधार, वरषत निरखित उपनो तस मनमांहि विकार ॥५६॥
दुहा. सांभर्या दिवसगिरि भूमि फिरतां, देखतां ठाम नीझरण झरतां; सांभली मोर किंगार करतां, सुख लह्यां नीपस्युं सीस धरतां ॥ ५७ ॥ चालि. जन्म भूमि ते सांभरी रोयो करी पोकार, धाइ आव्यो नृप कहे ते, तुजने कवण प्रकार;
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ते कहे जे तुम्हें सुखदीआ. मुज होए दुःख परिणाम. बंधु विरह जोटालो. फिरि आवुं तुम ठाम.
दुहा.
बोले लेइ मोकले तेह राजा, बंधु मिलिया हुया सुख दिवाजाः एकदा नगर वृत्तान्त पूछे, कहोंने ते केहबुं तहां किस्युं छे. ॥५९॥ चालि.
हांथ तिहां ऋद्धि बिमणी, त्रिगुणी चोगुणी मित्त; ते कहे इंदुने बिंदुने वर्ण सगाइ मित्त,
उपमा विण न कही शके, जिम ते पुरनो भाव;
तिम जिन पण न देखावे, इहां शिव सुख अनुभाव ॥६०॥ दुहा.
तोहि पण अतिं निराबाध सठ सुख अधिक व्यंतरादिक ते हेठी, जाव सत्य (सर्वार्थ) शिव सुखथी जाणुं, वीतरागे कर्तुं ते प्रमाणु ६१ चालि.
संपूरण सूरनर सुख काल त्रय संबद्ध,
अनंत गुण शिव सुख अंश अनंत वरग नविलद्ध, सिद्ध सरसु सुख सरिआ विस्तार निज गुणतासार; शीतल भाव अतुल वर्षा ज्ञान भर्या भंडार ॥ ६२ ॥
दुहा.
॥ ५८ ॥
४
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७
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सिद्ध प्रभु बुध्ध पारंग पुरोग, अमल अकलंक अन्य अरोग;
१०
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१३
૧૪ ૧૫
१६
१७
अजर अज अमर अक्षय अमाइ, अनघ अक्रिय असाधन अपाइ६३
चालि.
१८
૨૦
૧
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૨૩
अनवलंब अनुपाधि अनादि असंग अभंग,
૨૪
૨૫
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૧૭
૨૮
अवश अगोचर अकरण अचळ अगेह अनंग;
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3.
४०
૧૮૪ अश्रित अजित अजेय अमेय अभार अपार,
अपरंपर अजरंजर अरह अलेख अचार ॥ ६४ अभय अविशेष अविभाग अमित अकल असमान अविकल्प अकृत अदर अविधेय अनवर अखंड अगुरुलघु अच्युताशय अदंड ॥३५॥
परमपुरुष परमेश्वर परमप्रभाव प्रमाण; परमज्योति परमातम, परमशक्ति परमाण; परमबंधु परमोज्वल ,परमवीर्य परमेश परमोदय परमागम, परम अव्यक्त अदेश. ॥ ६६ ॥
चालि
પ
६२
७.
.
.
૭૨
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जगमुगुट जगतगुरु जगततात, जगतिलघु जगतमाणि जगतभ्रातः
७८
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जगतशरण जगकरण जगतनेता, जगभरण शुभवरण जगतजेता..६७।
चालि. शांत सदाशिव नित, मुक्त महोदय धीरः केवल अमृत कलानिधि, कर्मरहित भवतीर; प्रणवबीज प्रणवोत्तर, प्रणवशक्ति शृंगार.
प्रणवगर्भ प्रणवांकित, यक्षपुरुषआधार. ॥ ६८ ॥ दर्शनातीत दर्शन प्रवर्ती, नित्यदर्शन अदर्शन निवर्ती; बहुनमन नम्य जगतनत-अनाम, सिद्धना इंति इत्यादि नाम.॥६९॥
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चालि. नमस्कार ते सिद्धने, वासित जेहनुं चित्त, धन्य ते कृत पुण्य ते जीवित तास पवित्त आर्तध्यान तस नवी हुई, नवि हुई दुरगतिवास, भवक्षय करतारे समरतां लहिई सुकृत उल्लास. ॥७०॥
दुहा. पद तृतीये ते आचार्य नमीए, पूर्व संचित सकलपाप गमिए; शासनाधार शासन उल्लासी, श्रुतबले तेह सकल प्रकाशी. ॥७१॥
चालि. कहिई मुगति पधार्यारे, जिनवर दाखी पंथ, धरेइरे आचार्य आर्यनीति प्रवचन निग्रंथ; मूरख शिष्यने शिखवी, पंडित करेरे प्रधान, ए अचरिज पाषाणे, पल्लव उदय समान. । ७२॥
दूहा. भाव आचार्य गुण अति प्रभूत, चक्षू आलंबन मेढि भूत; ते कहिओ सूत्रे जिनराय सरिखो, तेहनी आणमत कोई धरखो।७३
चालि. मुबहुश्रुत कृतकर्मा धर्माधार शरीर, निज पर सम व्यवहारी, गुण धारी व्रतधीर; कुत्तिया वण सम हवा आचारय गुणवंद्य, ते आराध्ये आराध्या जिन वलि अनिंद्यः ॥७४ ॥
दुहा. चउद पडिरूव पमुहा उदार, खंति पमुहा विशद दस प्रकार; वार गुण भावनाना अनेरा, पद छत्रिस गुण सूरि केरा. ॥७॥
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चालि प्रतिरूप तेजे सुरूपी, तेजस्वी बहु तेज, युग प्रधान ततकालई, वर्तना सूत्रस्यूं हेज। मधुर वाक्य मधुभाषी, तुच्छ नहीं गंभीर, धृतिमंत ते संतोषी, उपदेशक श्रुत धीर. ॥ ७६ ॥
दुहा. नवि झरे मम ते अपरिश्रावी, सौम्य संग्रह करे युक्ति भावी अकल अविकत्थने अचलशांत,चौद गुण ए धरे सूरि दांत ७७॥
चालि. धर्म भावना विश्रुत इम छत्रीसी छत्रीस, गुण धारे आचारय तेह नमुं निसदीस; आचारय आणा विण न फले विद्यामंत, आचारय उपदेसई सिद्धि लही जई तंत. ॥ ७८ ।।
दुहा. द्रह हुए पूर्ण जो विमल नीरे, तो रहे मच्छ तिहां सुख शरीरे; एम आचार्य गणमांहि साध, भाव आचार अंगि अगाध ॥७९॥
चालि. आणा कुणनीरे पालीई, विण आचारय टेक, कारणि त्रिक पणि जिहां हुई तिहां आचारय एक श्रुत पडिवत्तीमा पणि आचारय समरथ, जिन पणि आचारय हुई तव दाखे श्रुत अत्थ.
दुहा. सूरि गणधर गणी गच्छधारी, सुगरु गणिपिटक उद्योतकारी; अत्यधर सत्यधर सदनुयोगी, शुद्ध अनुयोगकर ज्ञान भोगी ॥८१॥
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चालि.
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૧૪
अनुन्वान प्रवचनधर आणा इसर देव,
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૧
भट्टारक भगवान महामुनि मुनिकृत सेव
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१८
२०
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गच्छ भारघर सद्गुरु गुरुगंण युक्त अधीश,
૨૩
૨૪
૧૫
૧૬
गणि विद्याधर श्रुतधर शुभ आश्रय जगीश. ॥ ८२ ॥
दुहा. नाम इत्यादि जस दिव्य छाजे, देशना देत घन गुहिर गाजे; जेथी पामी अचल धाम, तेह आचार्यने करूं प्रणाम ॥ ८३ ॥ चालि. आचारय नमुक्कारे वासित जेहनुं चित्त, धन्य ते कृत पुण्य ते जीवित तास पवित्त, अतिध्यान तस नवि हुई, नवि हुई दुरगति वास, भव क्षय करतारे समरतां, लहिइं सुकृत उल्लास ॥८४॥ दुहा.
पद चउत्थे ते उवजझाय नमिए, पूर्व संचित सकल पाप गमिए; जेह आचार्य पद योग्य धीर, सुगुरु गुण गाजता अति गंभीर ॥८५॥ चालि.
अंग ईग्यार ऊदार अरथ सुचि गंग तरंग, वार्त्तिक वृत्ति अध्ययन अध्यापत वार उपांग; गुण पंचवीस अलंकृत सुकृत परम रमणीक, श्री उवज्झाय नमी जे सूत्र भणावे ठीक. ॥ ८६ ॥
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दुहा.
सूत्रं भणीई सखर जेह पासे, ते उपाध्याय जे अर्थ भासे; तेह आचार्य ए भेद लहीए, दोईमां अधिक अंतर न कहीए.।। ८७ ।।
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१८८
चालि.
संग्रह करत उपग्रह निज विषये शिव जाय, भव त्रीने उत्कर्षथी आचारय उवझाय; एक वचन इहां भाषओ भगवई वृत्ति लेई, एकज धर्मी निश्चय व्यवहारे दोई भेई ॥ ८८ ॥
दुहा.
सूरी उवज्झाय मुनि भावि अप्पा, गुण थकिं भिन्न नहीं जेमहत्या; निश्चय ईम वदे सिद्धसेन, थापना तेह व्यवहार दैन ॥ ८९ ॥
चालि. वृत्ति सुत्त उवओगेई करण नई अत्थिं सद्द, झायति झाणई पूरई आतम नाणनी हद्द) पणि निरुतिं उवज्झाय प्राकृत वाणि प्रसिद्ध, आवश्यक निर्युक्त भाष्यो अर्थ समृद्ध ॥ ९० ॥ दुहा.
भाव अध्ययन अज्जयण एणें, भाव उवज्झाय तिम तव वयणें; जेम श्रुत केवल सयल नाणें, व्यवहृतिं निश्वई अप्पझ्झा ॥ ९१ ॥ चालि
संपूरण श्रुत जाणे श्रुत केवलि व्यवहार, गुणद्वारा आत्मद्रव्यनो ज्ञान प्रकार, श्रुतथी आतमा जाणे केवल निश्चय सार,
श्रुत केवली परकाशे तिहां नहीं भेदवयार ।। ९२ ॥ दुहा. जोडीए जबही ते ते उपाधे, तबही चिन्मात्र केवल समाधे; तेह उवज्ञाय पदने विचारे, तेहइ एक टीप छे जगमझारे ॥९३॥
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चालि.
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उपाध्याय वरवाचक पाठक साधक सिद्ध,
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करग झरग अध्यापक कृतकर्मा श्रुतंवृद्ध;
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शिक्षक दिक्षक थविर चिरंतन रत्न विशाल,
૧૬
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१८
मोहजया पारिच्छक जित परिश्रम वृतमाल ॥ ९४ ॥
दुहा.
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૧
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૧૩
साम्यधारी विदित पद विभाग, कुत्तियावण विगत द्वेष रागः अममादी सदा निर्विषादी, अध्ययानंद आतम प्रमादी. ॥९५॥ चालि.
नाम अनेक विवेक विशारद पारद पुन्य, परमेश्वर आज्ञायुत गुण सुविसुद्ध अगण्य; नमीए शासन भासन पति पावन उवज्झाय, नाम जपतां जेहनुं नव निधि मंगळ थाय, दुहा.
॥९६॥
नित्य उवज्झायनुं ध्यान धरता, पामीए सुख निज चित्त गमता; हृदय दुर्ध्यान व्यंतर न बाधे, कोइ विरुओ न वयरी विराधे | ९७ ॥ चालि. नमस्कार उवज्झायने वासित जेहनुं चित्त, धन्य ते कृत्य पुन्य ते, जीवत्त तास पवित्त; आर्त ध्यान तस नवि हुए, नविं हुए दुरगंतिं वास, भवक्षय करतां समरतां, लहिए सुकृत उल्लास.
1196 11
दुहा.
शिव पदा लंब समरथ बाहु, जेह छे लोकमां सव्व साहू; प्रेमथी तेनुं शरण कीजे, भेद नवि चित्र रीते गणी जे ॥ ९९ ॥
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१९०
चालि. कर्म भूमि पन्नर वर भरतैरवत विदेह, क्षेत्रमा पंकज नेत्र जे साधु अमाय निरेह; एक पूने सवि पूजी निंदिआ निदि एक, सम गुण ठाणारे नाणी ए पद सर्व विवेकः ॥ १० ॥
लोक सन्ना मी धर्म धारे, मुनि अलौकिक सदा दस प्रकारे; लाभ अणलाभ मानापमान, लेखवे लोष्टुं कांचन समान, ॥ १०१॥
चालि. खंती अजव मदव मुत्ती पण तस मर्म, ते उवयार वयार विवाग वचन वळी धर्म; लौकिक त्रिण्य लोकोतर छई छई ते तस होई, छहु गुण ठाणु भव अटवी लंघण जाई. ॥ १०२ ॥
तप नियाणे रहित तस अखेद, शुद्ध संयम धरे सतर भेद, पंच आश्रब करण चउ कषाय,दंड त्रिक वर्जने शिव उपाय.॥१०॥
चालि. गुरु सूत्रानुज्ञाए हितमीत भाषण सत्य, पापच्छित जले मलगालन शोच विचित्त पंखी उपमार धर्मोपकरण जे धरंत, तेह अकिंचन भाव छे तेने मुनिराय महंत ॥ १०४ ॥
दुहा. बंभमण वित्तितणु फरिसरूप, सद्दमण त्यज तप वियारकूव; बंभमण वित्ति बंभेजे भाखी, ते क्षयोपशम गति सूत्र दाखी॥१०॥
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१९१
चालि. ब्रह्मचारीए ब्रह्म कह्यो सघळो आचार, तिहां मनवृत्ति प्रतिज्ञा क्षय उपशम विस्तार; ते विण बंभ अणुत्तर सुरने नवि हुए तंत, मन विरोध पण शुद्ध ते बंभ कहे भगवंत ॥१०७॥
एम दस धर्म पाळे विचित्र, मूळ उत्तरे गुणे मुनि पवित्र; भ्रमर परिं गोचरी करीय पूंजे, शुद्ध सज्झाय अहर्निशं प्रजूंजे॥१०७॥
चालि. क्लेष नासिनी देशना देत गणे न प्रयास, असंदीन जिम द्वीप तथा भविजन आश्वास, तरण तारण करुणापर जंगम तीरथ सार, धन धन साधु मुहंकर गुण महिमा भंडार. ॥ १०८ ॥
सम अनाबाध सुखना गवेषी, धर्ममाहि थिर हृदय हित उल्लेखी; एहवा मुनिनुं उपमान नाहि, दैत्य नर सुर सहित लोकमाहि॥१०९॥
चालि. षट व्रत काय छ रक्षक निग्रहे इंद्रि न लोभ, खंती भाव विसोही पडि लेहण थिर शोभ अशुभ रोध शुभ योग करण तप शुद्धि जगीश; सीतादिक मरणांतिक सहे गुण सत्तावीश. ॥ ११०॥
दुहा. मुनि महानंद अर्थी सन्यासी, भिक्षु निग्रंथ आतम उपासी, मुक्त माहण महात्मा महेशी, दान्त अवधूत निति शुद्ध लेशी. १११
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१९२
चालि. शान्त वहक वर अशरण शरण महाव्रत धार, पाखंडी अर्थ खंडी दंड विरत अणगार। लूह अभव तीरथी, पूर्ण महोदय काम, अबुद्ध जागरिका जागर शुद्ध अध्यातम धाम ॥ ११२ ॥
दुहा.
जेष्ट सुत जिन तणो उर्ध्व रेता, उन्मती भाव भावक मवेता; अनुभवी तारक ज्ञानवंत, ज्ञान योगी महाशय भदंत ॥ ११३ ।।
चालि. तत्त्वज्ञानी वाचंयम गुप्तेंद्रिय मन गुप्त, मोहजयी रूषि शिक्षित दीक्षित काम अलुप्तः गोप्ता गोपति गोप अगोप्य अकिंचन धीर, सर्व सह समता मय निःपति कर्म शरीर ॥ ११४ ॥
दुहा. श्रमण कृति द्रव्य पंडित पुरोग, अगर अविषाननुष्ठान रोग; अमृत तद्धेतु किरिया विलासी, वचन धर्म क्षमा शुभ अभ्यासी.११५
चालि. शुकल शुकल अभिजात्य अनुत्तर उत्तर शर्म, मग्न अतंत्र अतंद्रिय मुद्रित करण अकर्म; दीर्ण मात संतीर्ण समान ते संख्य प्रधान, प्रति संख्यान विचक्षण प्रत्याख्यान विधान ।। ११६ ॥
दुहा.
नाम इसादि महिमा समुद्र, साधु अकलंकना छे अमुद्रा सर्व लोके जिके ब्रहचारी तेहने प्रणमीए गुण संभारी. ॥११७॥
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१९३
चालि. श्री नवकार समो जगि मंत्र न यंत्र न अन्य, विद्या नविऔषध नवि एह जपे ते धन्य; कष्ट टल्यां बहु एहने जापे तुरत किद्ध, एहना बीजनी विद्या नमि विनमीने सिद्ध ॥ १२० ॥
दुहा. सिद्ध धर्मास्तिकायादि द्रव्य, तिमज नवकार ए भणे भव्य; सर्वश्रुतमां वहोए प्रमाण्यो, महानिसीथे भली परिवखाण्यो॥१२१॥
चालि. गिरिमाही जेम सुरगिरि तरुमांहि जिम सुरसाल, सार सुगंधमां चंदन नंदन वनमां विशाल मृगमा मृगपति खगपति खगमा तारा चंद्र, गंगनदीमां अनंग सुरुपमा देवमां इंद्र. ॥ १२२ ॥
दुहा. जिम स्वयंभूरमरण उदधिमाहि, श्री रमण जिम सकल सुभटमांहि। जिम अधिक नागमांहि नागराज, शरमा जलद गंभीरगाज॥१२३॥
चालि. रसमांहि जिम इखुरस कुलमां जिम अरविंद, औषधांहि सुधा वसुधा धवमा रघुनंद; सत्यवादीमा युधिष्ठिर धीरमा ध्रुव अविकंप, मंगलमांहि जिम धर्म परिच्छद सुखमां संप ॥ १२४ ॥
धर्ममाहि दया धर्म मोटो, ब्रह्मवतमाहि वज्जर कछोटो; दानमांहि अभयदान रुडं, तपमाहि जे कहेवू न कुडुं. ॥ १२५॥
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चालि. रतनमांहि सारो हीरो नीरोगी नरमाहि, शीतळमाहिं उसीरो, धीरो व्रत धरमाहि; तिम सर्व मंत्रमा भाष्यो श्री नवकार, कह्या न जायेरे एहना, जे छे बहु उपकार ॥१२६ ॥
दुहा. तजे ए सार नवकार मंत्र, जे अवर मंत्र सेवे स्वतंत्र; कर्म प्रतिकूल बहुल सेवे, तेह सुरतरु त्यजी आप टेवे. ॥१२७॥
चालि. एहने बीजेरे वासित होई, उपासित मंत, बीजो पणि फळदायक, नायक छे ए तंत; अमृत उदधि फु सारासारा हरत विकार, विषना ते गुण अमृतनो, पवननो नहींरे लगार. ।। १२८॥
दुहा. जेह निर्षीज ते मंत्र जूठा, फळे नहीं साहमुंहुइ अपुठा; जेह महामंत्र नवकार साधे, तेह दोए लोक अलवे आराधे.॥१२॥
चालि. रतनतणी जिम पेटी भार अल्प बहु मूल, चौद पूरवनुं सार छे मंत्र ए तेहने तूल्ल; सकल समय अभ्यंतर ए पद पंच प्रमाण, महमुअखंध ते जाणो, चूला सहित सुजाण. ॥१३० ॥ .
दुहा. पंच परमेष्ठि गुण गण प्रतीता, जिन चिदानंद मोजे उदीता; श्री यशोविजयवाचक प्रणीता, तेह ए सार परमेष्ठी गीता.
इति श्री पंचपरमेष्ठि गुणवर्णन गीता समाप्ता.
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१९५
श्री यशोविजय वाचककृत. पार्श्वनाथ भाव पूजा स्तवनम् .
पूजाविधिमांहे भावीएजी, अंतरंग जे भाव. ते सवि तुज आगळ कहुजी, साहेब सरल स्वभाव मुहंकर अवधारो प्रभुपास-ए टेक. ॥ १॥ दातण करता भावीएजी, प्रभु गुण जल मुख शुद्ध: उल उतारी प्रमत्तताजी, हो मुज निर्मल बुद्ध. सुहं ॥२॥ यतनाए स्नान करीजीएजी, काढो मयल मिथ्यात; अंगुछो अंग शोषवीजी, जाणुं हुं अवदात. सुहं ॥३॥ खीरोदकना धोतीआंनी, चिंतवो चित्त संतोष अष्ट कर्म संवर भलोजी, आठ पडो मुख कोष.. सुई ॥४॥ ओरसीयो एकाग्रताजी, केशर भक्ति कल्लोल; भद्धा चंदन चिंतवोजी, ध्यान धोळ रंगरोळ. सुहं ॥५॥ भाल (बहु) प्रभु आणा भलीजी, तिलकतणो ते भाव जे आभरण उतारीएजी, ते उतार्या परभाव. सुहं ॥६॥ जे निरमाल्य उतारीएजी, तेतो चित्त उपाध; पखाल करतां चिंतवोजी, निर्मल चित्त समाधि. मुहं ॥७॥ अगलूहां वे धरमनांजी, आत्मस्वभाव जे अंग; जे आभरण पहेरावीएजी, ते स्वभाव निज संग. मुह मे नववाड विशुद्धताजी, ते पूजा नव अंग; पंचाचार विशुद्धताजी, तेह फूल पंचरंग. मुहं ॥९॥ दीवो करतां चिंतवोजी, ज्ञानदीप सुप्रकाश;
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१९६ नयादि घृत पूरीयोजी, तत्त्व पात्र सुविशाल. मुहं ॥१०॥ धूपरूप अतिकार्यताजी, कृष्णागरु जोग शुद्ध वासना मद महमहेजी, तेतो अनुभव योग. सुई।११॥ मद स्थानक अड छोडवाजी, तेह अष्ट मंगलीक जे नैवेद्य निवेदीए, ते मन निश्चल ठीक. सुहं ॥१२॥ लवण उतारी भावीएजी, कृत्रिम धर्मनो त्याग; मंगल दीवो अति भलोजी, शुद्ध धरम परभाग. मुहं ॥१३॥ गीत नृत्य वादीत्रनोजी, नाद अनहद सार; समरति रमणी जे करीजी, ते साचो थेइकार. सुहं ॥१४॥ भावपूजा एम भावीएजी, सत्य बनावोरे घंट; त्रिभुवन माहे ते विस्तरेजी, टाळे करमनी फाट, सुई ॥१५॥ इणिपरे भावना भावतांजी, साहेब जस सुप्रसन्न जनम सफल जग तेहनोजी, तेह पुरुष धन्य धन्य. सुहं ॥१६॥ परम पुरुष प्रभु सांमळाजी, मानो ए मुज सेवा दूर करो भव आमनजी, वाचक जश कहे देव. सुहं ॥१७॥
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रुषभजिन स्तवनम्
ढाल कडखानी. ऋषभ जिनराज मुन आन दिन अति भलो, गुणनिलो जेण तुं नयन दीठो; दुःख टळ्यां सुख मिल्यां देव तुज निरखता, मुक्त संचे हुवो पाप नीठो. ऋषभः ॥१॥ कल्प साखे फल्यो कामघट मुन मिल्यो,
आंगणे अमियना मेह वुठा; मोह महिराण महिमाण तुज दरसणे, क्षय गया कुमति अंधार जूठा. ऋषभ. ॥२॥ कवण नर कनक मणि छोडि तृण संग्रहे, कवण कुंजर तजी करह लेवे। कवण बेसे तजी कल्पतरु बावले, तुज तजी. अवर सुर कोण सेवे. ऋषभ. ॥३॥ एक मुज टेक सुविवेक साहिब सदा, तुज विना देव दूजो नही हुं तुज वचन राग सुखसागरे झीलता, कर्मभर घमेथी हुं न बीहुं.
ऋषभ. ॥४॥ कोडि छे दास प्रभु ताहरे भलभला, माहरे देव तुं एक प्यारो पतित पावन समो जगतनो धारि कर, मेहर करि मोहि भवजलधि तारो. ऋषभ. ॥५॥ मुक्तिथी आधिक तुज भक्ति मुज मन वशी,
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ऋषम ॥६॥
ऋषभ ॥७॥
१९८ जेहसो सबल प्रतिबंध लागो चमक पाषाण जिम लोहने खेंचश्ये, मुक्तिने सहज तुम्ह भक्ति रागो.. गुण अनंते सदा तुझ खजानो भर्यो, एक गुण देत मुझ श्युं विमासो; रयण एक देत शी हाण रयणायरे, लोकनी आपदा जेण नासो. धन्य जे काय जिण पाये तुझ प्रणमीए, तुझ थुणे जेह धन्य धन्य जीहा धन्य हृदय जिणे तुझ सदा समरीए, धन्य जे दातजे ? धन्य दीहा. गंग सम रंग तुझ कीर्ति किलोलने, रवियकी अधिक तप तेज ताजो; नय विबुद्ध सेवक हुँ आपरो जस कहे, अब मोहिं बहु निवाजो.
ऋषभ ॥८॥
ऋषभ ॥९॥
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१९९ श्री शीतल स्तवनम्.
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राग अडाणो.
शीतल जिन मोहे प्यारा, शीतल जिन मोहे प्यारा
शीतल. ॥२॥
भुवन विरोचन पंकज लोचन, जिउ के जिउ हमारा. शीतल. १ जोत शुं जोत मिलित जब ध्यावे, होवत नहीं तब न्यारा; बांधी मूठी खुले भव माया, मीठे महा भ्रमभारा तुमं न्यारे तब सबहि न्यारा, अंतर अमारा उदारा; तुमही नजीक नजीक हे सबही, ऋद्धि अनंत अपारा. शीतल. ||३|| विषय लगनकी अग्निं बुझावन, तुम गुण अनुभव धारा; भइ मगनता तुम गुण रसकी, कुन कंचन कुन दारा. शीतल. ॥४॥ शीतलता गुण हो (ओ) र करत तुम, चंदन काह बिचारा; नामही तुमचा ताप हरत है, वाकु घसत घसारा. शीतल. ||५|| करहो कष्ट जत बहोत हमारे, नाम तिहारो आधारा; जस कहे जन्म मरण भय भागो, तुम नामे भवपारा. शीतल. ॥६॥
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श्री यशोविजयजी उपाध्यायजी कृत
समुद्र वहाण संवाद.
दुहा. श्री नवखंड अखंड गुण, नमी पास भगवन्त; करशुं कौतुक कारणे, वाहण समुद्र वृत्तांत ॥१॥ एहमा वाहण समुद्रना, वाद वचन विस्तार; सांभलतां मन उल्लसे, जिम वसंत सहकार. ॥२॥ मोटा नाना सांभलो, मत करो गुमान; गर्व करयो रयणायरे, टाळ्यो वाहणे निदान. ॥३॥ वाद हुओ किम एहने, मांहोमांहे अपार; सावधान थइ सांभलो, ते सवि कहुं विचार. ॥४॥
ढाल. (थाहरा मोहलां उपर मेहझरोखें कोयलीरेके कोयली ए देशी.॥
श्रीनवखंड जिनेश्वर केसर कुसुमस्युरे, के कुसुमस्युं । मंगळ कारण पूजी प्रणमी प्रेमस्युरे, के प्रणमी प्रेमस्युं । प्रभू पाय लागी मागी शकुन वधामणारे के० विवहारि श्री पासना लेता भांमणारे के ले० ॥१॥ श्रीफल प्रमुखें वधावी रयणायर घणारे के र० वाहण हकारीने चालिया ते सवी आपणारे के ते० पणनीदीई आसीस कहे वहिला आवजोरे के वेला० हीरचीर पटकुल क्रयाणां लाव गोरे के क्रि० १ व्यवहारि. २ प्रणमी दीए.
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पवन वेग हवे चाल्यां वहाण समुद्रमारे के वहा० सढ ताण्या श्रीकेरा डेरा तेगमारे केडे. तूरहि वाजे गाजे मणिरुचि विजलीरे के गाजे० मानु के अंबर डंबर मेघ घटा मलिरे के मे० ॥३॥ के पर्वतपस्थालाके पुरवालतारे के पु० उदधि कुमार विमान केइ जलमांहि मालतारे के ज. केई ग्रह मंडल उतरयो थोक मीलि सहरे के यौ० इम ते देखी के अंबर सुर बहुरे के अं० ॥४॥ चाई जल अवगाहतां चाल्यां ते जलेरे के चा० साथ दिए जिम सज्जन तिम बेंहु मिलिरे के तिम० करतरंग विस्तारी साय ते मलिरेके सा० जाल प्रवाल छले हुओ रोमांचित वलीरे के रो० ॥५॥ भरमध्यहं ते आव्या जिहां जल उच्छलेरे के जिहां० सायरमांहि गर्व न माई तिणे बलेरे के ति. गाजई भाजई नाचतो अंग तरंगस्युरे के अं. मत चालो करें चालो निज मन रंगस्युरे के चा०॥६॥ गर्वे जाणे मुझ सम जगमां को नहिरे के मु० गर्वे चडावें पर्वत जनने करग्रहीरे के ज. गर्वे निजगुण बोले न सुणे परकटोरे के न मु० रस नवी दाई ते नारी कुचजिम निजग्रयोरे के कु०॥ ७॥ ए असमंजस देषी दृष्टिं आकरुरे के दृष्टिं० एक वाहण न रही सक्युं बोल्युं ते खरुरे के बोल्युं०
१ चाढ़ए. २ दिये. ३ मध्ये.
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२०३
मुख नवि राखें भाखें साधुं बागीआरे के सा० राजकाज निर्वाहे ते नवि हाजियारे के ते० दरिया तुमेछो भरिया नवि तरिया कुणेरे के न० तुमे कोईथी नवी डरिया परिवरिया गुणेरे के परि० तो पिण गुण मद करवो तुमनें नवी घटेरे के तु० ठानि वात कस्ये बटाऊ जे अटेरे के जे०
11 2 11
॥९॥
जे निज गुण स्तुत सांभाल सिर नीचुं घरेरे के सि० तस गुण जाई उंचा सुरवरने घरेरे के सु० जे निज गुण मुखि बोले उंची करी कंधरारे के उंची ० तस गुण नींचा पेसिं बेसे तले घरारें के बेसे तले० ॥ १०॥ दुहा. एह वचन सायर सुणीं, बोले हल्लुआ बोल; सी तुजने चिंता पडी, जा तुं नि ण निटोल. आपकाज विण जे करई, मुखरी परनी तात पर अवगुण व्यसने हुई, वे दुखिया दिनरात. वाहण कहे सायर सुणो, जे जग चतुर सुजाति; ते दाखें हीतसखिडी, तेमत जाणे तात जो पणि परनी द्राख खर, चरतां दाणि न कोय. असमंजस देखी करी, तो पिण मन दुख होय 118 11
॥ ३ ॥
ढाल.
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॥ १ ॥
॥ २ ॥
( विजय करी घरी आविया, बंदि करे जयकार ए देशी ॥ सिंधु कहे हवे सिंधुर बंधुर नादविनोद, घटतो रे गर्व करूं छं पामुं हुं चित्त प्रमोद;
१ सागर.
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२०४ मोटा इच्छेरे माहरी सारें जगत प्रसिद्ध, सिद्ध अमर विद्याधर सुज गुण गाजे समृद्धि रजत सुवर्णना आगर मुज छे अंतर द्वीप, दीप जिहां बहु औषधि जिम रजनी मुख दीप; जिहां देखी नरनारी सारी विविध प्रकार, जाणी जग सवी जोइओ कौतुकनो नहि पार. ॥ २ ॥ 'ताजीरे मुज वनराजि जिहां छे ताल तमाल, जाति फल दल कोमल ललित लविंग रसाल; पूगी श्रीफल एला मेला नाग पुंनाग, मेवा जेहवा जोई ते हुवा मुज मध्य भाग. चंपक केतकी मालति आलति परिमलवृंद, बकुल मुकुल वलि अलिकुल मुखर सखर मचकुंद दमणो मरुओ मोगरो पाडलनें अरविंद, कुंद जाति मुज उपवने दी जनने आनंद मुज एक सरणे राता राती विद्रुम बेलि, दाखी राखी तेहमां में साची मोहणवेली; जप माला जपकारणें तस फल मुनिवर लिंत, वनिता अधरनी उपमा ते पुण्ये कामंत.
1
.
नवग्रह जेणेरे बलि बांध्या खाटनई पाय, लोकपाल जस किंकर, जेणे जित्यो सुरराय; किओरे त्रिलोकी कंटक रावण लंका राज,
3
मुज पसाई तेणे कंचन गढमढ मंदिर साज.
१ बले. २ खाटने. ३ पसाये.
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॥ १ ॥
॥ ३ ॥
॥ ४ ॥
॥५॥
॥ ६॥
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२०५
1
पक्ष लक्ष जब तक्षतो पर्वत उपरिधाई, कोपाटोप घरी घणो वज्र लेई सुरराय तडफडी पडीयारे ते सवी एक ग्रहे मुज पक्ष, तब मेनाक रहीओ ते सुखीओ अक्षतपक्ष जग जसचराचर जस तनुं माया पीलई चीर, ते लक्ष्मीनारायण गोवर्द्धन धरधीर; मुजमा पोढ्या हेजे सेज करी अहिराज; होड करे कुंण माहरी हुं तिहूअण सिरताज. वाहण पाहण पणि तुजथी भारें तुं कहेवाय, हलुओ पवन कोलें डालें गडथलां खाय; तो हलुया बोलडा हलुओ छे तुज पेट, मुज मोटाई न जाणें ताणें निज मति नेट. गिरुयाना गुण जाणे जे हुई गिरुआ लोक, हलुआनें मति तेहना गुण सवी लागे फोक; वांझ न जाणेरे वेदना जेहुई प्रसवतां पुत्र, मूढ न जाणें परिश्रम जे हुइ भणतां सूत्र. दुहा. सायर जब इम कही रह्यो, वाहण वदे तब वाच; मा आगल मोसालं, ए सबी वर्णन साच. वाणीने जिम ग्रंथ गति, सुरतिथि हरिने जेम कोई अजाणि मुज नही, तुम मोटाई तेम विस्तारुं छु गुण अमें, ढांकुं लुं तुम दोष; तो एवडुं स्युं फुलवु, सो करवा कंठ सोष १ त्रिभुवन.
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॥७॥
116 11
॥९॥
॥ १० ॥
॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
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२०६ मेलो पिण मृग चंदलो, जिम कि सुप्रकाश तिम अवगुणना गुणकर, सज्जननो सहवास गुण करतां अवगुण करे, तेतो दुर्जन क्रूर; नालिकेरजल मरण दीई, जो मेलिई कपूर ॥५॥ हित करता जाणे अहित, ते छांडी जे दूर; जिम रवि उग्यो तम हरे, धूक नयन तम पूर ॥६॥
ढाल.
देशी सरकलडानि. हलुआ पिण तुमें तारुजी सायर सांभलो, बहु जनने पार उतारूजी;
सायर० स्युं कीजई तुम मोटाईजी,
सायर० जे बोले लोकने लाइजी.
सा०॥१॥ तुमे नाम धरावो छो मोटाजी
सा० पणि कामनी वेलाई खोटाजी;
सा० . तुमे केवल जाण्यु वाध्याजी,
सा० न बीजा हित साध्याजी.
सा० ॥२॥ तुमे मोटाइ मत राचोजी,
सा० हीरो नानो पणि होइ जाचोजी;
सा० वाधे उकरडो घणु मोटोजी,
सा० तिहां जइए लेइ लोटोनी.
सा० ॥३॥ अंधारु मोटुं नासेजी,
सा० जो नान्हो दीप प्रकाशेजी
सा० १ दिये.
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सा० सा० ॥४॥
२०७ आकाश मोटो पिण कालोजी, नाहो चंद्र करे अजुआलोजी. आपे मोटाई अंधनी कीजीजी, तिहां तेजवंत ते नानी कीकीजी; नानी चित्रावेल बीराजेजी, मोटो एरंडो नवी छाजेजी. नान्हो पंचजन्य हरि पूजेजी, तस नादे त्रिभुवन ध्रुजेजीः नानो सिंह महागज मारेजी, नानों वज्र ते शैल निदारेजी. नान्ही औषधि जो होइ पासजी, तो भूत प्रेत सवि नासेजी नान्हे अक्षर ग्रंथ लखायेजी, तेहनो अर्थ ते मोटो थाएजी. तुमे रावणर्नु सोचहिरोजी, इहां सार असारनो वहिरोजी तुमे मोटाई नांखी ढोलीजी, निज मुखे निज गुण रस घोलीजी. तुमे रावणर्नु बल पोख्युंजी, पिण नीति शास्त्र नवि पोख्युंजी; चोर संगी तुम्हने जाणिजी, रामचंदे बांध्या ताणीजी. वन द्वीपादिकनी सोहाजी, ए झुमिना गुण संदोहाजी
सा. सा० सा० सा०॥५॥ सा० सा० सा० सा०॥६॥ सा० सा० सा० सा०॥७॥ सा० सा०
सा०
सा०॥८॥ सा. सा० सा० सा०॥९॥ सा० सा०
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ते देखी मद मत वहजोजी,
सा. मद छांडिने छाना रहजोजी.
सा० ॥१०॥
दुहा. एह वचन श्रवणें सुणी, पाम्यो सायर खेद; कहे तुन स्युं बोलतां, पामु छ निर्वेद. ॥१॥ जेहयी लक्ष्मी उपनी, परणी देव मोरार; शिरसिंधु तेजिहूओ, ते अम कुल निरधार. ॥२॥ ताहरूं तो कुल काठहैं, जे पोलां घणुं खाय; तुज मुझ विच जे अंतरो, ते मुख कयों न जायः ॥३॥ वाहण कहे कुल गवंश्यो, माहरु पणि (पण) कुल सास सुरतरुं जेहमां उपनो, वंच्छित फल दातार. ॥४॥ पशु पंखी मृग पथिकने, जे छाया सुख देत; ते तरुअर अमकुल तिला, पर उपगार फलंत.. ॥५॥ हुँ लछि दिउं (दिउ) पुरुषने, ए गुण मुजमा सर्व मुज तुजमां विवाद छई, तिहां कुलनो स्यो गर्व. ॥६॥
. ढाल. कुल गर्व न किजे सर्वथा, हूओ रुडे कुल अवतार गुणहिणो जो नर देखीए, तो कहिइ कुल अंगाररेः कुल १ जो निज गुण जग उज्वल कों, तो कुलमदर्नु स्युं किजेरे। जो दोषे निज काया भरी, तो कुलमदथी कुल लाजेरे; कुल० २ कचराथी पंकज उपर्नु, हुओ कमला, कूलगेहरे कहो कुल मोटुं के गुणवडा, ए भांजो मन संदेहरे. कुल० ३
१ तरुवर. २ लक्ष्मी .
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२०९ मुरखने हह छे मन तणो, पंडितने गुणनो रंगरे। फणिमणि लेई राणा राजवि, शिर धारे जिम अंगरें. कुल० ४ खोटो कुलमद मूरख करे, पिण गुण विण निसवादरे खोटोसिंह वन गयो,कुतरोपिण कुरस्ये करशे सिंह नादरे कुल० ५ नाम ठाम कुल नवी पूछीई, जे जगमाहे मुगुण गरिठरे; रवि चंद पयोधर प्रमुखनां, कुल कुंणे जाण्यां कुंण दिग्रे. कुल० ६ स्यो निजकुल स्यो पारको, त्यजि अवगुण करि गुण मूलरे; छांडिजे मल तनु उपनो, सीर धारइ वननु फूलरे. कुल० ७ इम जाणिने कुल मद छांडिए, कीजइ गुणना अभ्यासरे; . गुणथी जस कीर्ति पामीई, लहीई जग लील विलासरे. कुल.८
दुहा. वचन सुणी एह वाहणना, भाखे जलनिधि बोल; हुँ रयणायर जगतमां, वाजे मुझ गुणा ढोल. जग जननां दालिद्र हरे, रयणतणी मुज राशि होड करे शी माहरी, ए गुण नहिं तुज पास. ॥३॥
ढाल. वाहण कहे सायर मुणोरे, तुझे रयण धरो छो साचारे। पण एक हाथिआपरे, बेसे मुझ डाचारे. तुझे० ॥१॥ तुमने दमिरे आऋमिरे, रयण दिओ अह्मे लोकनेरे; गज भाजे शुंडि करीरे, तब तरुअर फलवरस्येरे. तिम दिइ कृपणपरें दम्यारे, पिण देतो नवि हरसेरे. तुझे ॥२॥ तुम्हने रसदीई पीलि सेलडीरे, अगर दहिओदिइवासोरे . कालाने गाठि भरियारे, कृपण दमाया तिम पासारे. तुमे ॥३॥
१ पण. २ रत्नाकर.
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जेह रयण आणुं अमेरे, ते जगि आवे लेखेरे; जे तुजमांहि पडियां रहेरे, तेहD फल कुंण देखरे. तुझे० ॥ ४ ॥ सार संग्रही हुंज छरे, इम जांणी मत हरखेरे सार न जाणे संग्रहीरे, निज मनमा तुं परखेरे. तुझे ॥५॥ लाकड तृण उपर धरेरे, रयण तले तुं घाडेरे ए अज्ञानपणुं घणुरे, कहो कुणने नवी सालेरे. तुझे० ॥६॥ तुज कचरामा जे पडयारे, निज गुण रयण गमावेरे; ते तुजथी अलगा थयारे, मुलसु ठामें पावरे, तुझे ॥ ७॥ काकर भेला मणि धरेरे, ए ताहरि छे खामीरे तुम कीरती ठांमी रहीरे, तुमथी रयणे पामीरे. तुझे ॥८॥
दुहा.
सायर कहे मुं मद करें, पोत विचारी जोय; जे जगने आजिविका, ते सवी मुजथी होय. ॥१॥ मुज वेला उपर तुझे, खेलो खेलो जेम; जो मुज नीर असूट छे, तो सहु जनने क्षेम. ॥२॥
ढाल. वाहण हवे वाणी वदेरे लो, स्युं तुन नावे लाजरे; कठिन मन जल धन तुज खुट नहिरे लो, ते आइ कुंण काजरे. ? कठिन मन धननो गर्व न कीजीयेरे लो,जे जाचिकने धन छेतरे लो। नवीदीई कृपण लगाररे, कठिन मन भारणी तेहथी भूमिकारे लो. नवी तरुअर गिरि भाररे.
क० ॥२॥ खारा पाणि निरमलारे लो, विष फल जिम तुज भूररे.क०
१ रतन. २ रत्ने. ३ सागर. ४ आवे. ५ याचक.
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२११ पणि तरस्या पशु पंखीयारे लो, तेहथी नासे दूररे. क० ॥३॥ मछादि तुजमा रह्यारे लो, ज्युं विषमा विषकीडरे क० पिण हंसादिक तुज जलेरे लो, पांमे बहुली पीढरे. क०॥४॥ मारग जे तुजमां थइरे लो, चालई पुण्य प्रभावरे; क. तिहां एक कुखें अह्मारडीरे लो, मरु मंडलीनी वावरे. क० ॥५॥ जो खुटे जल माहरुरे लो, तो पाडइ जन सोसरे. क० बहुले पणि जल तुज छतिरे लो, रति न लहें चिहुंओररे.क०॥ ६ ॥ जे पर आशा पूरवेरे लो, छति सारु दीई दानरे; क. थोडं पिण धन तेह-रे लो, जगमां पुण्य निदानेर. क० ॥ ७ ॥ खंड भलो चंदन तणोरेलो, स्यो लाकडमें भाररे, क० सज्जन संग घडी भलिरेलो, स्यो मूरख अवताररे. क० ॥ ८॥ साद हुओ तुम घोघरोलो, घोख्यो एक नाकाररे, क. जो जाणो जस पामीएरेलो, तो सिखो दान विचाररे. क० ॥९॥
दुहा. सिंधु कले सुणि वाहण तुं, हुं जगतीरथ सार; गंगादिक मुजमा मले, तीरथ नदी हजार. तीरथ जाणी अति वर्दू, मुजने पूजे लोक; गंगा सागर संगमे, मले ते जनना थोक. ॥२॥ वाहण कहे तीरथपणु, तुज मुख कह्यो न जाय, गंगादिक तुजमां भले, तास मधुर रस जाय. ॥३॥ गंगादिक आवि मले, तुजने रंग रसाल; जाइ नाम पिण तेहy, तुज खारे ततकाल. ॥४॥
१ जाय.
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२१२ दुर्जननी संगत थकी, सज्जन नाम पलाय; कस्तुरी कचरे भरी. कचरारूप कहाय. टाले दाह तृषा टले, मलगालेजे सोय; बिहु अर्थे तीरथ कह्यु, ते तुजमां नहिं कोय. तारे ते तीरथ इस्यो, अर्थ घटे मुज मांहे। जंगम तीरथ साधु पिण, तरे ग्रही मुज बांह. ॥७॥ दीजें जन जे तुज प्रति, ते नवि तीरथ हेत, गरजे कहीइं खर पिता, ए जाणो संकेत. ॥८॥
ढाल.
दशरण नरवर राजीओ ए देशी. सिंधु कहे सुणी वाहणतुं, हुं जेम जन हितकाररे, मुज जल लेई घन घटा, वरसे छे जलधाररे जलधार वरसे तेणी सघली, हुइ नव पल्लव मही; सरकूप वाविभराई, चिहुं दिशि नीझरण चालें वही; मद मुंदित लोकामलित, शोका केकि केकारवकरे जलधान संपत्ति होई, बहुलि काज जगजननां सरे. ॥१॥ मुझ जळ जिवित घन अले, तुझ उत्पति तिम जाणीरे; ए संबंधे तुज मति तारुंछु, हित आणी रे,
आणिइं हीत अविनीत तुझने, तारीए छीए ए हीत विधी संबंध थोडो पिण न भूले, जेह गिरुया गुणनिधी, तुझ बाल चापल सहुं हुंछु, जे वयण कडुया भणे; छोरु कछोरं होई तो पिण, तात अवगुण नवि गणे. ॥२॥
१ वचन.
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वाहण कहे मुणी सायरु, तुझ जललीइ बलवंतोरे हरि निर्देसें छहि करी, जोरे घन गर्जेतोरे; गर्जेत बलीया जलहरे, तुझ तेह मनमा नवि डरे; में मेहने जल दान दीg, इस्यु तुझ स्युं उच्चरे; जिम कृपणतुं धन हरत, नरपति तेह मनमें चिंतवे; में पुण्य भवमोहे कीy, तिम अघटतुं तुं लवे. जो छे ताहरेरे साचली, जल धरस्युं बहु भीतरे; तो ते उन्नत देखतो, स्यु पामे तुं भीतरे; तुं भीत पामे यदा गाजे, मेह चमके वीजली; अंबराडंबर करे वादल, मले चिहुं पख आफली; तुं सदा कंपे विची खंपे, नासिइं जाणे हवे; रखे ए जल सर्व माहरु, ले इस्युं मन चिंतवे. तुझ जल जे घन संग्रहे, ते हुई अमीअ समानरे; ते सघलो गुण तेहनो, तिहां तुझ किस्यो गुमानरे; तिहां मान स्यो तुझ ठामनो, गुण बहु परिजगि देखीए, तृण गाय भक्षे दुध आउँ, न ते तृण गुण लेखीए; स्वाति जल हुई पडिओ फणी, मुखें गरलं मोती सिपमां, इम क्षार तुझ जल करी, मीठो मेह वरसे द्वीपमा. जीवन ते जल जांणीइं, जे वरसे जलधाररे; ताहरूं तो जलजिहां पडे, तिहां होइ अखर खाररे; तिहां होइ खारो जिहां, तुझ जलविगाडेरेली मही। दाधे दवे ते पल्लवेई नवि पल्लवे तुझ दही;
१ सागर. २ होय अमृत. ३ अगर.
॥४॥
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२१४ तुं धान तृणनां मूल छेदे, लूण सघले पाथरे; तुझ जाति विण कुण जीव पामें, मुख तेणे साथरे. एरंडो नहि सुरतरू तरुअर, कहिइ दोयरें; चिंतामणि ने कांकरो, ए बे पथर होयरेः ए दोय पथरपणि विलख्यणपणुं, निज निज गुणतणुं चलि अक मुरही दुध, एक ज वरण पणि अंतरघj; इमनीर जीवन तेह, धन तुं ताहरुं विषरूप; ए तुं एक शब्दे रखे, भूले जूओ आप स्वरूप. हुँ घनजलथकी उपनो, वाध्योछं तस दृष्टिरे; जनम लगे तस गुण ग्रहुं, नवि दीठो तुं दृष्टेरे; दृष्टि नधि दीठो तुं अने, उपकार स्यो तिहां तुझतणो; निज जाति धनने तुमे जाणो, एह अम्ह अचरीज घणो; जो नीरगुणो गुणवंतं, दीखी कहे ए अम्ह जातिई। तो जगतमा जे जन भलेरा, तेह सवितुझ तातए. ॥८॥ जलमांहि निज गुण थकी, तरिई छई अमे नितरे; हुँ तारुं छं एहने, इम तुं धरे चित्तरे; इम चित्त म धरे शकट हिंठि,श्वान जिम मनमां घरे तो गर्व करवो तुझ घटें, जो पाहण तुझ जलमां तरे संबंध गुणनो एक साचो, काज ते विण नवि सरे; गुण धरे जेम मद मृषा न करे, सुजस तेहनो विस्तरे. ॥९॥
सिंधु कहें मुझ गुण घणा, स्युं तुं जाणे पोत; मुझ नंदन जग चंदलो, सघळे करे उद्योत.
॥१॥
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सुरपति नरपति जेहनो, नवि पामे दीदार; ते पशु पति शिर उपरे, मुझ मुत छे अलंकार. ॥२॥ जेहने देखी उगतो, प्रणमें राणा राय; ते सुतनि रिधि देखतां, मुझ मन हरख न माय. ॥३॥ मुझ नंदन वरस्ये यदा, किरण अमी रसपूरः तव दाधो पिण पालवे, मन मथ तरु अंकुर, ॥४॥ कुंकमवरणी दृतिका, मुझ सुत निरखंत; मन शृंगार जगावती, माननी मान हरंत. ॥५॥ मानु मनमथ रायनो, कलस राय अभिषेक; लंछन तीलकमले करीत, सोहे मुझ सुत एक. ॥६॥ मुझ मुत मंडल साथ], सरवर रति आनेद; जिहां मथमअ न करइ, उडइताराबींद. ॥७॥
ढाल. हवे वाहण विलासि कहें, वदन विकासीरे मुत रुद्धिथी हासी सायर तुज तीरे. तुझ सुत उचग संगीरे तुं पातक रंगीरे; निज गोत्रजा चंगी तुं अंगीकरेरे.
॥२॥ नवि लोकथी लाजेरे, अभिमाने भाजेरे। वली पाप करीने गाजेरे, पापीओरे। इम हृदय विमासीरे, मुत तुझथी नासिरे हुओ अंबर वासी, मुरनर वंदीओरे.
॥४॥ द्विजराजते कहीएरे, अति निर्मल लहियेरे; गुण उजल महिये, लोके चंदलोरे. १. पण.
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२१६ मलमूत्र समेटेरे, अपवित्र तुं भेटे रे; तेणि कारणें बेटे, दूरे परिहयोंरे. विरहानल सलगेरे, सुतरहे अलगेरे; तुं चंदने लगे, किरणे उच्छलिरे. ते पअंधारे, करवत्त विदारेरे; इम धारे ते द्विजपति निज पावनपरे. शशिस्युं तुझ रंगोरे, इम छे एकांगोरे; नवि सोहें अभंगो, सज्जननी परेरे. तुझमां नवी खूतोरे, तो सविं गुण जूतोरे तुझ पूतो विगुतो नवी कोई अविगुणेरे. तो पिण तुझवालिरे, कुल रेषा कालिरे; निज गुण जलगाली, टालि नाव सकेरे. खळ संग जांणीरे, सज्जन गुण हांणीरे होय मलीन घन पांणी, यमुनामां भल्युरे. कुल अवगुण दोषोरे, निज काया सोखीरे, तुझ नंदन चोखी, तपस्या आदरीरे,
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॥ ६॥
॥७॥
॥ ८ ॥
॥ ९॥
11 20 11
॥ ११ ॥
॥ १२ ॥
॥ १३ ॥
दुहा.
इम तुझथी विपरीत जे, तुझथी लाजे जेह, ते सुत ऋद्धिथी मद किस्युं, तेहस्युं किस्यो सनेह ॥ १ ॥ सगा सणाजाजातीनो, गुण नावे पर काज;
एक सगो भूखे मरे, एकतणि घरि राज. अत्रि नयनसी उपनो, तुझथी जे पणि चंद; ते विवायने छेटडे, तुझने किस्यों आनंद.
१ पण.
॥२॥
॥ ३ ॥
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२१७
निज गुण होय तो गाजीए, पर गुण सविअकयथ्य जिम विद्या पुस्तक रही, जिम वली धन पर हथ्थ ॥ ४ ॥ बीजु तुझ नंदन कला, निति निति घटति जाय. राते केवल तगत, दिवसे अगोचर थाय. मोटी जसकीर्ति कला, पर उपगार विसेस; अखय अखंडित सर्वदा, मुझविलसे सवी देस.
ढाल.
इडर आंबा आंबलिरे ए देशी.
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सायर कहे वाहण सुणोरे न कहे मुझ गुण सार: का पूरा दुधमांरे, कहेतो दोष विचार.
सबल एम न मान्यानि वात,
॥५॥
11.11
तुन करे मुझ गुण ख्यात, मुझ मोटाइ छे अवदात सब० ॥१॥ जे दिन कूप सरोवरुरे, सुंके नदी अने निवाण; भर उनालें ते दिनेरे, वाधे मुझ उधान. प्रबल प्रताप रवितणेरे, नवि सुके मुझ निर; मेरु अगनथी नावे गलेरे, जो पिण हेम सरिर. सब० ॥ ३ ॥ हुं संतोष करी रहुरे, अविचल ने थिरथोभ;
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सब० ॥ २ ॥
ठान रहित भमतां रहोरे, वाहण तुं स्यो अति लोभ. स० ॥ ४ ॥ खिमावंत गंभीर छुरे, नवि लोपुं मर्याद;
तुं मुझ गुण जाणे नहीरे, स्युं तुझ स्युं मुझ वाद सब०॥ ५ ॥ वाहण कहे सुण सायरुरे, नवि सके तुं ठांम; उनाले जल अति धेरे, पिण नवी आवे कांम सब० ॥ ६ ॥ सोष न पांमु कोयथीरे, एम मद धरे एक;
? अक्रतार्थ. २ निस नित्य.
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1
!
२१८ चूलुप करयो घट सुत मुनिरे, तिहां न रही तुझ टेक.ब० ॥७॥ एक एकथी अतिघणारे, जगमा छे बलवंत; मुम सम जगमा को नहिरे, इम कोय म धरो तंत. सब०॥ ८॥ सहस नदी धन कोडधीरे तुझ नवी पेट भराय; तु नित्य भूख्यो रहेरे, किम संतोषी थाय. सब० ॥९॥ शसि सूरज धनपरि अमेरे, भमे पर उपकार भागें अंगें तुं रहीओरे, हसबुं कई गमार. स० ॥१०॥ परहित हेते उघमारी, सरज्या सज्जन सार; दुर्जन दुखीया लसुरे, फोकट फूलणहार. स० ॥११॥ निकारण निति उच्छलेरे, वलगे वाउल जेम; हृदयमांहि घणु परजलेरे, खीमावंत तुं केम. स० ॥१२॥ साचुं हुं गंभीर छ रे, नावि लोपे मर्यादा पिणा तिहां कारण छे जुओरे, स्यूं फूले निसवाद.स०॥१॥ विकट चपेटों चिहु दिसेरे, वेल घर होई तुझ मर्यादा लो नहीरे, तेहथी ए तुझ गुज. स० ॥१४॥ पर अवगुण निज गुण कथारे, छांडो विकथा रूप; जामु छ सघलु अमेरे, सायर तुझ सरूप. स०॥१५॥
दुहा. कहे मकराकर म करि तु, प्रवहण मुझस्युं होड; में तुज सरणें राखीओ, तो पामी धन कोड. ॥१॥ आसंगो नवि किजीए, जेहनी कीजे आस; नरपति मान्यो पिण रहें, आप मुलाजइ दास. ॥२॥ सरणे राख्यो चंदने, जिम मृग हूओ कलंक; तिम हुँ मुझने पिण हूओ, कहतो दोष नि:संक. ॥३॥ हुंदर जाणी संग्रहीओ, हुआ ते निगुण निभूक उथा नज आसरो, ए तुज मोटी चूक ॥४॥
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२१९
ढाल. वाहण कहे सरण जगि धर्म विण को नही, तुं सरण सिंधु मुझ केणी भाति; शरण आव्या तणी सरम ते नवि रहें, जेह जाया हुई सुजस राति
घा०॥१॥ काल विकराल करवाल उलालतो, फूक के प्रबल व्याल सीरखि; जूठ अति दूठ जन सूख सरडो हतो, यम महिष सांभरई जेह निरखी. वा० ॥२॥ चोर करि सोर मलबारिया घारिया, भारिया क्रोध आव्ये हकार्या; भूत अभूधुत यमदूत यम भयकरा, अंजना पुत नूतन वकायों.
वा० ॥३॥ हाथि हथिआर सिर टोप आरोपिया, अंगि सभाह भुज वीर वलयां झळके तई नूर दलपूर, बिंदु तब मल्यां, वीररस जलधि उधाण बलियां. वा०॥४॥ नीलसितपित अतिस्याम पाटल धजा, पसन भूषण तरुण किरण छाजे मातु पहुं रूप रण लछि हृदय स्थलें, कंघूआ पंच वरणी विराजे.
वा० ॥५॥ भूर रणतूर पूरे गयण गडगडे, भायखें कटकनी सुभट कोडी; मावस्युं नावरण भाव भर मेलवी, केलवी घाउ दीई मुझ मोडी.
वा०॥६॥
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वा०॥७॥
वा०॥८॥
वा०॥९॥
२२० निशितशर धीर जलधार वरस्य घj, संचरे गगन बक धवल नेजा। गाज साजे सघल ढोल ताजे सबल, वीज जिम कुत चमके सतजा. क्रूर रसस्तर गज कुंम सिंदुर सम, रुधिरनां पूर अविदूर चालें स्वर भूरई समर भूमि सुरण परिसीस, कायर धरा हेठ घाले. भंड ब्रमंड शत खंड जे करी शके, उच्छले तेहवा नाल गोला; वरसता अगन रण मगरोसे भर्या, मार्नु ए यमतणा नयण डोला. चोर भूके महा क्रोध कइ वलि, वाहण उपर भरी अगन होका; कोकबाणे वढे सुभट रण रस चढे, बिरुद गाई तिहां बंदिलोका. उसरी चोर जाल सोर बहु पाथरइ, अगन तिहां सबल लागे; बालतो गालतो टालतो दर्प तुझ, तेह तुं देख तो किम न जागे. शेष पिण सलसले मेदिनी चलचले, खलभलई शैल ते समर रंगे। लडथडे भीक इक एक आगइ पडे, सुभट सत्राह माहन अंडे. घोर रण जोर चिहु ओर भट फेरवे,
वा० ॥१०॥
वा०॥ ११ ॥
वा०.॥ १२ ॥
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२२१
देव पिण देखता जेह चमके;
॥ १ ॥
बाण बहु धूमथी तिमिर पसरे सबल, कौतुकी अमरना डमरू डमके. एहवे रण शरण तुं किस्युं मुझ करई, खलपार दुष्ट देखइ तमासा, एक तिहां धर्म छे शरण माहरे वर्ड, सुजस दिइ ते करें सफल आस्या. दुहा. सायर कहे तुं भोगवे, घणा पापनो भोग; एह मुझ निंदा करी, स्यो अधिको फल भोग. विंध्यो खीले लोहने, तु निज कूख मझारि; बांध्यो छे दृढ दोरस्युं, निज बस नहीं लगार. दुम्भर भरीई तुझ उदर, घालि धूलि पाषाण; वाय भरयो भभके घणुं, तुं जगि खरो अजाण. वाहण कहे सायर तुमो, वडा जडा जग जग्ग; देखो छो गिरि प्रजलतो, नावे निज पगवेिच अग्गि ॥ ४ ॥ मेरु मधाळे तुं मध्यो, राम सरे वलीदद्ध; उच्छाली पाताल घट, पवने कीधो अद्ध. पाडे मूर्छा ते दुखे, मुखे मुंके छई फिण. संनिपातिओ घुरघुरे, छोटे कचरे लीण. भोगवतो इस पाप फल, नवि जाणे निज हांणि. दोष हे तुं पर तणा, ते नवि आवे माणि
॥ ३ ॥
॥ ६॥
ढाल.
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वा० ॥ १३ ॥
वा० ॥ १४ ॥
॥ २ ॥
॥५॥
11 19 11
सायर कहई तु बहु अपराधि, वाहण जिभ तुं अधिकी वाघी; खोले मर्म अनेक अमारां, ढांक्यां छिद्र अमे तुमारां
॥ १ ॥
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२२२
जो हवs न रहिस्ये निंदा करतो, मर्म उघाडिसि माहरा फिरतो; पोत तरंग घुमरमां बोली, तो हुं नाखीस तुझनई ढोली. ॥ २ ॥ तुझ वीण मुझ नवी हास्ये हांणी, तुझ सरिखा बहु मेलीस आंणी जो अखूट छे नृप भंडार, तो चाकरनो नहीं को पार ॥ ३ ॥ उष्ण अगन तापे हुई गादु, जेह स्वभावे जल छै टाई, तिम तुझ मर्म वचनें हूं कोप्यो, खिमावंत धुरजें आरोप्यो . ॥ ४ ॥ मोटा हठ बाद नीवारयो, निति मार्ग तें तें विसारयोः मुझ को तुं रहिय न सकइ, पडे एकल हरी नई धक्केई . ॥ ५ ॥ कोड तरंग शिखर परि वाघें, जड़ शफीर इते अंबर आधे एकतरंग सबळ न भाजई, काज घणा तुं स्युं इम लाजे ॥ ६ ॥ पवनको दिr जलममरी, मानुं मद मदिरनी घुमरी तेहमां शैलशिखर पणि तूटई, हरि सय्या फणी बंध छुटाई ||७|| नक्र चक्र पाठिन अतुछ उछलता, आछोटई पुछ जई लागे. अंबर जल कंणीया छमकई, ग्रहगण गण ताता मणीया ॥ ८ ॥ हवे मुझ कोपे तुझ सर्व, गलस्यें जे मनमां छे गर्व जे बोले असमंजस भाषा, ते फलसे सघली सत शाखा
दुहा. वाहण कहें मत राखजे, सायर पार्छु जोर, चाले ते करिस्युं वृथा, फूली करे बकोर. वचन गुमान तुझ भरियां, साचनका तिहां भाष; hai काळ काढई, जिमतां दहि ने माष.
ढाल.
सायर स्युं तुं उच्छ, स्युं फूले छे फोका गरव वचन हूं नवी खयुं, देस्युं उचर रोक.
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॥ ९ ॥
॥ १ ॥
॥ २ ॥
सा० ॥ १ ॥
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२२३ वात प्रसंगे में कहिया, उत्तर तुझ सार; मर्म न भेदिया ताहरा, करि हृदय विचार, सा० ॥२॥ निज हित जाणी बोलिई, नवि शास्त्र विरुद्ध रुसोपरि वलि विष भखो, पणि कहीइं सुद्ध. सा०॥३॥ छिद्र अमारा संवरे, तुं किहारे गमार; छिद्र एक जो तनुं लडिई, तो करेरे गमार.. सा०॥४॥ शोकनी परि नीत अम्हतणा, ताकें तुं छिद्र पणि रखवालो धर्म छे, ते न करें निद्र. सा०॥५॥ बोलै शरणागत प्रति, जे नीर मझार; . कठिन वचन मुख उच्चरें, ते तुंझ आचार. सा०॥६॥ पणि मुझ रक्षक धर्ममां, नहि तुझ बल लाग; जेहथी मुझ बुडे नहीं, भंग बावनमो भाग. सा०॥७॥ मनमा स्युं मुझी रहीओ, स्युं माने निःशंक; अम्ह जातां तुझ एकलो, उगस्यै तो पंक. सा०॥८॥ तुं घर समरथ छई, करवा असमरथ। श्रम करवो गुण पात्रनो, जाणे गुरु हत्थ. सा०॥९॥ हंस विना सरवर यथा, अलिविण जिम पम: जिम रसाल कोकिल विना, दीपक विण सम. सा० ॥१०॥ मलयाचल चंदन विना, धन विण जिम द्रंग; सोहे नहिं तिम. अम विना, सा तुझ वैभव रंग. सा०॥११॥ गगन पात भयथी सुइ करि, उच्चा पय टीटोडी जिम तुझ तथा, कल्पित मद थायें. सा० ॥१२॥ उन्हो स्यु थाइ वृथा, मोटाई जेहा तेतो बेहु मली हूइ, बेहु पखसनेह. सा० ॥१॥ १ रह्यो.
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२२४
दुहा. राजा राज्य प्रजा सुखी, प्रजा राग नृप रूप; निज कर छत्र चमर धरई, तो नवी सोहे भूप. ॥१॥ मद झरते गज गाजते, सोहे विंध्य निवेस। विंध्याचल विण हाथीआ, सुख न लहे परदेश. ॥२॥ अगजेंय वन ते हुइ, सिंह करें जिहां वास; वनने कुंज छाया विना, न लहें सिंह बिलास. ॥३॥ हंस विणा सोहें नहिं, मानस सर जलपुर। मानस सरवर हंसला, सुख न लहें मह मूल. ॥४॥ इम सायर तुझ अमथीली, मोटाई बिहु परिख्या; जो तुं चूकइ मद कर्यो, तो तुझ सम मुज लख. ॥५॥ हंस सिंह करिवर करे, जिहां जाइ तिहां लील; सर्व ठामि तिम सुख लहे, जे छे साधु मुलील. ॥६॥ सायर कहे तुझ मुज विना, भरी न सकें डग्ग: मुझ प्रसाद विलसें घणो, हु दिो टुं तुझ मग्ग. ॥७॥ मुझ साहमुं बोले वली, जो तुं छांडी लाज. तो स्वामी द्रोहातणी, सीख होस्ये तुझ आज. ॥८॥ वाहण कहे सायर मुणो, स्वामि ते संसार, गिरुओ गुण जाणी करइ, जे सेवे नीसार. ॥९॥ भार वहो जन भाग्यनो, बीजो स्वामी मूढ, जिम खरवर चंदन तणो, एतुं जाणे गूढ. ॥१०॥
१ अगजेन्द्र
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भोलिडारे सारे वि० ए देशी. एहवें वयणेरें हवे कोपेइ चड्यो, सायर पाम्योरे क्षोभा पवन अकोलेरे जल भर उच्छली, लागे अंबर मोम. एहवे० १ भमरी देतारे पवन फीरी फीरीरे, वाले अंग तरंग. अंबर वेदीरे भेदी आवता, भाजे ते गिरिशृंग. एहवे. २ भूत भयंकर सायर जब हुओ, वीज हुई तव हास, गुहिरों गाजीरे गगने घन करे, डम डम डमरु विलास. एहवे० ३ जलनइ जोरइरे अंबर उच्छलई, मच्छ पुछ करी वंका वाहण लोक नइरे जो देखो हुइ, धूमकेतु शतसंक. एहवे०४ शेष अगननोरे धूम जलधि तणो, पसर्यो घोर अंधार; भयभर त्रासेरे मसक परिंतदा, वाहणना लोक हजार. ए हवे. ५ गगन चढावीरे वेग, तरंगर्ने तले घालिजेरे पोत; त्रट त्रट तुटेइरे बंधन दोरना, जन लखजो तारे जोत. ए हवे०६ नांगर जोडीरे दूरि नांखीइं फूल तणा जिमविट; गगनउलालीरे हरिइंपाजरी, मोडि मंडप मिटि. ए हवे०७ छुटे आडारे बंधन यंभनां, फूटइ बहु ध्वज पंड; सूक वाहण पणिो तापरि हुइ, कुया थंभ सत खंड. ए हवे०८ सबल शिला वचि भागा पाटीयां, उच्छलते जल गोट;
आश्रित दुखवीरे वाहण तणो हूओ, मानु हृदयनो फोट. ए इवे०९ ते उत्पत्तिरे मलय परि हुंति, लोक हुआ भयभ्रांत; कायर रोवेरे धिरते धृत धरी, परमेस्वर समरंत. ए हवे. १०
इमसायर कोपे हुओ, देखी वाहण विलख; विचिं आवि वाणी वदे, उदाध कुमरनां करक. ॥१॥
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२२६ वाहण न कीजे सर्वथा, मोटा साथे झूझ; जो किधुं तो फल लह्यो, मुझे काई अबुज. तुझमां काय न उगर्यो, वहि जाए जलवेल; हजि लगि हित चाहतो, करि समुद्र स्युं मेल. ॥३॥
ढाल. समयाँ साज करे जख्यराज ए देशी. संकट विकट लइ सबहुरे, फिर सज थई वाजई तुज; तुर सायर जो मिलई तो पुगें तुझ वंछित आस, लोक करे सविलील विलास..
सायर जो०१ तुझ नमता टलस्य तस क्रोध गिरुया ते जग सरल सबुध सा० वहिइ साहिब आण अभंगा आस करी नई नवी आ संग. सा० २ गज गाजे अंगण मंलपंत हेणई तेजी हयहरखंत. सा. साहिब मुनि जर भर भंडार तसकु निजरजन थाइ ख्वार. सा. ३ जे परमेसर मोटा कीधा, जेहनी भाग्यरती सुप्रसिद्ध. सा. ते साहिबनीं किजे सेव, होडि तणी नवी किजे टेव. सा. ४ धनमद जे दाखं दुक्कर देव, रंक करइ तेहने ततखेव. सा० करइ एकनें राजा प्राय साहिब गति नवी जांणी जाय. सा०५ जे उपजे उत्तम वंश, लोक पालना लेई अंसः । सा० ते साहिब जगि सेवा लाग, नवी कीजें तेहस्युं अणुराग. सा०६ हित करि कहूं टुं अम्हे वात, जाणे छे तुं सवीऽवदात. सा० कडं मानि मानी सिरदार, कीजे अवसर लाग वीचार. सा० ७ सायर सेवक छु अमे एह, धरिए तेहने नेह नेह; सा. हुकम दीई जो साहिब धीर, तो अमे साधु तुझ शरीर. सा०८ मेल करो अम्ह वयणे पोत, जिम तुझ हुई जगिजसउद्योत.सा. फिर न पाओ सघलो साज, बंदिर जई पामो तुमे राज. सा० ९
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२२७
सायर सेवक देवनी, साम भेदनी वाण वाहण एहवी सांभली, वदे मान मनि आण. ॥१॥ पख तुम्हे पोखो खरो, निज साहिबनो देवः । गुण अजांणनी परें हरी, पणि एहनी सेव. ॥२॥ मत जाणो ए संकटे, मान टलें अम्ह आज; जे अमे साहिब आदर्यो, ते वहस्य अम्ह लाज. ॥३॥
ढाल. नाभिरा थांके बाग चंपे मोर रह्योरि-ए देशी. श्री नवखंड जिणंद, तेहनो सरणकिओरी; घोघा मंडण पास, साहिब तेहकिओरी. जेणें निज तनुं नव खंड, मेल्या आप बलेरि; ते हजु मुझ तनुं खंड, भेलस्य भगति भलेरे. ऊमाज सदर बार, सुरनर सेव करेंरी; जे समरयो ततखेव, संकट सयल हरेंरी. अरि करि केसरी आगें, अहिजल बधु रुजारी; अडमय एह साहिब, सबल भुजारी. ते जे झाकझमाल, रवि परी जेहतरी। इन्द अमर मुनि छंद, जसनीत नाम जपेंरी. पतीत पावन प्रभु जास, रंज भगत रसेरी, तस दुख हरवा काज, देव अनेक धरी. ॥६॥ ते प्रभु सरण करेअ, अवरत आस करूरी; कुंण लीइ पथर हाथ, पांमी रयण खरूंरी. ॥ ७॥ भय जल नहीं मुझ देव, समरें नील छबीरी; स्युं करस्य अंधकार उग्ये, रयणी रवीरी. ॥८॥
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२२८ कोइ नहीं भय मुझ जो प्रभु चित्त वसोरी; जाओ तुम उदधि कुमार, सायर मेलकीसोरी. ॥९॥ जे साहिब सुप्रसन्न कादिई न रोसभजीओरी; ते अहें संख्यो दूत, सायर रित्यजोरी. ॥१०॥ आसपूरण प्रभु पास, हरस्ये विघ्न पतीरि; लहस्यु जगजसवाद, आरतिं नहीं अरतिरी. ॥११॥
दुहा. इणी आकानई धर्मने, तूठा सुर अमुमान कुसुम दृष्टि उपर करे, अंबर धरी विमान. मुखि भाषे धन धन्य तू, तुझ सम जगि नहीं कोई कुणनई एहवी धर्म मति, संकट आ होइ. ॥२॥ हरख नहीं वैभव लहे, संकटि दुख न लगार; रण संग्रामें धीरजे, ते विरला संसार. एम प्रसंसा सुरकरी, टालें सवी उतपात फिरि साज सघलो बन्यो, हुआ भला अवदात. ॥ ४ ॥ मुरवर जससानिध करें, तेहस्यु किसि रिस; इम सायर पणी उपसमी, धरइ वाहण निज सीस ।। ५॥
ढाल फागनी. हरखित व्यवहारि हुआहो, करता कोडिकल्लोल; टली वाहणथी आपदाहो चित्त हुआ अतिरंगरोल. ॥१॥ प्रभु पासजी नामथी दुख टल्यो हो. अहो मेरि ललना; सवि मल्यो मुख संजोग.
प्रभु० अ०॥१॥ किया छांटणा अति घणा हो, केसरकि झकझोल; मानु संकट रयणी गयेतें प्रगट भयो सुख भोर. प्रभु० ॥२॥ भयो हरख वरषा अति संकट गए, घामारंतु हेतु;
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२२९
तार्ते फिरत अंबर बलाका, उज्वल फरिहरधा केतु प्रभु०॥ ॥ कुआरंभ किरि सजाकीओहो, मानुं नाचको वंस, नाचें फिरती नर्त्तकी हो, श्वेत अंसुक धरी अंस. प्रभु० ॥ ४ ॥ सोहें मंडित चिहुं दिसें हो, पट मंडपचोसाल, मानुं जयलछीवणो हो, होत विवाद विशाल. बेठो सोहें पांजरीहो, कूआथंभ अग्र भाग मानुं के पोपट खेलतोहो, अंबर तरुभर लागि. नव निधान लछि लही हो, नवग्रह हुआ प्रसन्न; व सढ ताण्यांते भणी हो, मोहीं तिहांजन मन प्रभु० ॥ ७ ॥ राचे माचे नाचे बहुजन, सब ही बनावत साज
प्रभु० ॥ ५ ॥
प्रभु० ॥ ६ ॥
बाजे वाजां हरखना हो, पाम्युं ते अभिनव राज प्रभुः ॥ ८ ॥ मेघाडंबर छत्र विराजें, पट मंडप अति चंग, बीजे बिहु पखसोहताहो, चामर जलधि तरंग. एक वेलि सायर तणी हो, दूजी जनरंग रेली, त्रिजी पवनवी प्रेरणा हो, वाहण बले निजगेकि प्रभु० ॥ १० ॥ पवनहीं दूनो वयो हो, पवन सिखायो विग.
प्रभुः ॥ ९ ॥
जन मन गुरा की एहो, वेग विद्या अति तेग. प्रभु ॥ ११ ॥ मार्से कच्छप चिहुं दिसे हो, आवत देखी जहाज; मानुं जिहांजना लोकनांहो, नासें दालिद्र घरी लाज प्रभु ॥ १२ ॥ इणिपेरे बहुआडंबरेरे, चाल्यां वाहण सुविलास,
निज इछित मंदिर लहीहो, पाम्यां ते सुजस उल्लास. प्रभु० ॥ १३ ॥ चोपाई.
मंदिर जड़ मांड्या बाजार, व्यापारी तिहां मिल्या हजार; जिम आवलिकां देव विमान, तिम तिहां हाट बन्या असमान १ रयण सेणी तहां सोहे वणी, कमलाहारवणी मुझे भश्री
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२३० सोनइया नविजाए गण्या, रूपाराल तणी नही मणा. मोड्यो मोती तिहां बहु मूल, मानुं ज्याय लतार्नु फूल पासे मांडी मरकत हारी, ते सोहे अलिकुल अनुहारि. लाल कांति पसरे तिहां सार, भूमि लहे लाली बाजार; मानु आवि कमला रंगि, तास चरण अलतानइ संग. रयण पारखि परखी पासि, करे रयणनी मोटी रासि; परखे नाणां नाणावटी, करें रेंड जिम मुरगिरि तटी. विविध देस अंबर अनुकुल, दोसि विस्तारे पटकुल; चीन मसज्जरनें जर बाफ, जीपे रवि शशिकर ओ साफ. सोवन तंतु खचित पामरी, जे पासें भीका भामरी; मांगरो हणगिरिना कति, ते जोतां पहुंचे मन खंति. जिमवसंत फूले मणीआर, मणि माला मंडइ मणीभार; तेल फूलेल मुरहि आधरइ, तस सुवास अंबरि विस्तरे. कस्तुरी आकुल तोलंत, सौरत निश्चल अलि गुजंत; नवि जाणे तिहां लीनो लोक, सोर जोर करतें जन थोक. केसर छवि अगनि तनु धरी, मानुं धीज कस्तुरी करी: टाली नीच घणा निशंक, तो आदरिइ जांगनि कलंक. अंबर चंदन अगर कपुर, गर्मित धरणी परिमलपूर; मान ते भारे नविफरे, अलि गुंजित आनंदित करें. घणां वसाणांनो विस्तार, ते कहेता नवि लाभे पार; मुरलो कंइ पणि न मिलई जेह, ते लहिं तिहां वस्तु छेह. १२ पक्षेण मे विस्तार, दरिआ समगाजइ बाजार; तिहां व्यापार कया अति घणा, मुलि लाम हुआ सो गुणा. १३ लोक थोक जिम वैलि भराय, एक एकनां हृदय दलाई; तर्या वसाणे निज निज जिहांज, कीपो घर आव्यानो साज.१४
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ढाल. ( गच्छपति राजिमा हो लाल-ए देशी.) भरियां किरियाणां घणां हो, हीरचीर पटकुल, मेल्यां निज बंदिर भणी, हवे वाहण पवन अनुकुल. हरखित जन हुआ हो लाल, पाम्या जय तांसरि सुखलील; आ० दोय पंखि जिम पंखिभा हो रय जिप दोय तुरंग. ० २ रणकई ध्वजमणीकिंकीणी हो. कनक पत्र झंकार वाहण मिसें आवे रमा, मानुं गरूड करी संचार. प्रापई जलओलंचिई हो. मानुंझरे मदपूर, वाहण चले जिम हाथिओ. सिरकेसर छवि सिंदुर. भरकसी सगर नाखी हो. बाहिर तेह न जाई एहवे वेगे चालिआं. मनि वाहण हरखइ न माइ. वाहण भाणस्युं तोली हो, घर खर गतो सार; तुला डंड थंभे करी, जोइ लेजो एह विचार कामिकरई जिम कामीनि हो. हृदय स्थल परिणाह; सायर तिम अवगाहता. हवइ वाहण चल्या उच्छाह गुण जित्यो सायर रहुओ हो सहजें सानिधकार; देख्यां बंदिर आपणां, हवे हुआ जय जयकार. बंदिर देखि वावटा हो, धरिया लाल अग्र भाग; मार्नु बहुं दिननो हुँ तो, तेह प्रगट कीओ चितराग. बंदिर देखि हरखस्युं हो, मेहलि नाली आवाज; जे आगई सुर गजतणो, वलि मेहतणो स्यो गाज. वाज्यां वाजा हरखना हो, करे लोक गीत गान; पडे छंदे गुहिरो दिई मार्नु सायरकरतान. साइमा मिलवा आवीया हो, सज्जन लेइ नाव:
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२३२
अंगो भंग मिलावडें, तो टलियां विरह भाव. आव्या वाहण सोहामण हो, घोघा वेला कुल घरघर हुया वधामणां, श्री संघ सदा अनुकुल. विवाहा व्यवहारी भेटें मुदा हो. प्रथम पास नवखंड; सुरभि द्रव्य पूजा करे, लेई केसरने श्रीखंड मोतीना कर्या साथीयाहो, आंगीरयण बनाव. ध्वजा आरोपी अतिभली, वळिक कलस सुविभाव इण परि जेहना द्रव्यना हो, आव्यो प्रभुनो भोग; सायरथी मोटुं करओ तेजिहाज मिलि सवि लोक. ए उपदेस रच्यो भलो हो, गर्वत्याग हित काज तपगच्छ भूषण सोभतां, श्री विजयप्रभसूरिराज. श्री नयविजय विबुद्ध तणो हो, सीस भणे उल्लास ए उपदेसै जै रहे, ते पामे सुजस विलास. मुनि विबुधसंवत जाणी एहो, ते हर्ष प्रमाण; कवि जसविजए ए रच्यो, उपदेस चह्यो सुप्रमाण. इति यानपत्र यादस्पत्योः परस्परं प्रशस्यसंवादालापः समाप्तः ॥ श्री घोघा बंदिरे.
इ० १९
श्री योगनिष्ठबुद्धिसागरेण शोधितम्.
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इ० १२
६० १३
इ० १४
६० १५
इ० १६
६० १७
६० १८
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२३३ श्री ज्ञानसारकृत भावषदत्रिंशिका.
दुहा. क्रिया अशुद्धता कछु नही, भाव अशुद्ध अशेष, मर सत्तम नरके गयो, तंडुल मच्छ विशेष. भाव शुद्धता जो भइ, कहा क्रिया को चार; द्रढमहार मुगवे गयो, हत्या कीनी च्यार. साधु क्रिया कबु नहि करी, रुषभ देवकी माय; भाव शुद्धथी सिद्धते, सिद्ध अनंत समाय. साठ सहस वरसे करी, किरिया अतिहि अशुद्धा भरत आरीसा भुवनमें, भावशुद्धतें सिद. नमुकारसी व्रत नही, करतो कूर आहार; भावशुद्धतें सिद्ध ते, कूरगड अनगार. भावक्रिया अविअशुद्ध ते, मेल्यो नरक समाज, भावशुदतें सिद्ध के, प्रसन्नचंद रुपिराज. केवल शी करणी करे, अभव्य लिंग संपन्न येगंठी भेदे नहीं, भावशुद्धतें शून्य. पूर्व कोडी देसोनता, क्रिया कठीन जन कीन; कुरड बकुरड नरक गतिः, अशुद्धभावते लीन. वंश खेल किरिया करी, साधु क्रिया नही लेस; इलापुत्र केवल घरे, कारण भाव विशेष. चरण क्रमण किरिया करी, गुरुकुं खंध चढाय; भाव शुद्ध केवल भजे, नव दक्षित मुनिराय. कपिल दुमक अति लोभ वश, लालचमां लयलीन शुद्ध भाव तबही भज्यो, आतम पदवी लीन.
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पन्नरस सापस प्रति, गौतम दीक्षा दीधा ते केवल कमलावरे, कोन क्रिया तीन कीध. कृतअपराध खमावती निजगुरणी के साथ. मृगावती शुद्ध भावसे, सिद्ध स्वरूप सनाथ. साधुक्रिया केसे सधे, घाणीमें पीलंत: शुद्धभावते शिवलहे, खंदक शिष्य महंत. . नाच नचन किरिया करी. साध क्रिया नहीं कीध. अषाढभूति भावशुद्ध, सिद्ध सुधारस पीध. ते हिज दीन दिक्षा ग्रही, क्रिया कौनसी होय. ये शुद्धभावे सिद्धता, गजमुकुमाले जोय. गुणसागर केवल लह्यो, सांभल प्रथवीचंद पोते केवल पद लहे, शुद्धभाव शिव संघ सिंहणी भक्षे शरीर जव, मुनि करणी किम होय. साध सुकोमल शिव लहे, कारण अन्यन कोय; खंदक खाल उतारतां, साधु क्रियाकी सिद्धा भव निवास तज भाव शुद्ध, सिद्ध बुद्ध पद लीध. उपजतो अक पहोरमें, केवल ज्ञान अनंता भाव अशुद्ध ते नव लहे, श्रीदमसार महंत. असंख्यात दृष्टांतकुं, कौलु वरणे जाय; यै जेते बुद्धिमें चढ़े, ते ते दीध बताय. भाव शुद्धता सिद्धको, कारन तिर्नु काल; क्रिया सिद्ध कारण नहीं, निश्चयनय संभाल. ज्ञान सकल नय साधीये, करणी दासी प्राय: शुद्ध भावना सिद्धको, कारण करण कहाय. ज्ञानातम समवाय हे, किरिया जड संबंध
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२५
२३५ याते किरिया आतमा, तीन काल असंबंध, धर्मि अपने धर्मकुं न, तजे तीर्नु काल आत्म ज्ञान गुण नित्यजे, जड किरियाकी चाल. प्रकृति पुरुषकीजोड हे, सदा अनादि स्वभाव भवस्थिति परिपाकते, शुद्धातम सद्भाव. शुद्धातम सद्भावता, शुद्ध भाव संयोग; भाव शुद्धकी सिद्ध ते, पाक काल परिभोग. काल पाक कारण मीले, किरिया कछु न काम; पातन किरिया बीन पडे, बाल दसन अभिराम. काळ पाककी सिद्ध ते, सहज सिद्ध के जाय; बीन वरषा फुले फळे, ज्यु वसंत वनराय' भव परिणत परिपाक बिन, भाव शुद्ध नही होय. मुनि करणी कर नरक गति, कुरड बकुरड दोय. क्रिया उथापी सर्वथा, वंछक किरिया चार; ये वंछक लक्षण रहित, सो सब शुद्धाचार. निश्चय सिद्ध जोलुं नहीं, व्यवहारे जियमेल जोलुं पिय फरसे नहीं, तब गुडीया मुखेल. निश्चे हुंति सिद्ध नहीं, विवहारे दे छोड। एक पतंग आकाशमें, फीर दोरीदे तोड. जोलुं भाव न शुद्धता, तोलुं किरिया खेल; पाणी गोलु पीलहे, तोलु नीकसे तेल. ज्ञान धरो किरिया करो, मन शुद्ध भावो भाव; तो आतममें संपजे, आतम शुद्ध स्वभाव. जोलु कारिज सिद्ध नहीं, तोलु उद्यम खेद घट कारजकी सिद्धते, उद्यम खेद निषेध.
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भाव छतीसी भविक जन, भावे भज निज भाष; निज सुभाव भवोदधि, तरन नाव शुभभाव, शररस गम शसी संवते, गौतम केवल लीन; कीसन घडे चोमास कर, संपूरन रस पीन. अति रति श्रावक आग्रहे, विरची भाव संबंध रत्नराज गणि सिस मुनि, ज्ञानसार सुचि नंद.
इति श्री भावषद् त्रिंशिका समाप्ता.
गुहळी. होरे मारे ठाम धरमना साडा पचवीस देशनो-ए देशी. हारे सखी नगरीमां आव्या छे गुरु गुणवंतजो, भाव धरीने चालो तेने वंदवारे लोल) हारे ते तो रत्नत्रयी आराधक सद्गुरु संतजो, जस मुख जोतां दीन जाए आनंदमारे लो. हारे वचनामृत जेनु पुष्य नक्षत्रनो मेहजो, साँचेरे भविजन मन रूपी भूमीकारे लो। हार करे प्रफुल्लीत विकसित कमळतणीपरे तेहजो, टाळेरे अज्ञान तिमिर रवि उगतारे लो. होरे जस नाम प्रमाणे गुणगणनो नहि पारजो, बुद्धिसागर बुद्धिना निधि हुँ कहुरे लो; हारे वळी पंचमहाव्रत पाळे शुद्धाचारजो,
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२३७ जोता मुख देदार भविक उलसे बहुरें लो. हारे सुज मनमां वसीया उत्तम तेह गुणदजो. जैन धर्मरूप नौका भव जळ तारणीरे लो, हांरे ते चलने सरळ पंथपर महा मुनिचंदजो; मुक्ति पुरी पहचाडे चौगति वारणीरे लो. हारे निर्लोभी ते मधुकरी गौचरी लेनारजो, उत्तम एहवी वृत्ति तेहनी हेमधीरे लो; हारे जे शुभ फळदायक धर्म लाभ देनारेजा, रसीक नमे तस चरणकमळ नित्य प्रेमधीरे लो. बुद्धिसागरजीनी गुंडली समाप्त.
मूर्तिपूजन महिमा. सवैया.
मूर्ति तणो महिमा छे मोटो.
समजे कोइक संस्कारी.
मूर्ति पूजनथी प्राप्त थाय छे, सुंदर शिव पदनी बारी.
ए महिमा समजाणो आजे,
सद्गुरु बुद्धिसागरथी
ए माटे एओना चरणे,
नमन करूं बे आ करथी.
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२३८ मुसलमान पण मूर्ति पूजे. मक्कामा जइ मेथी.. स्त्रीस्तिओ पण फांसी फोटा, पूजे इशुना मेमेथी
भक्तिमार्गी श्री रामचंद्र के, कृष्णनी पूजे प्रतिमाने.
कोइ सदाशिव के हनुमत्नी,
छबीना माने महिमाने.
पुत्रो पण निज मातपितानी, प्रत्यक्ष मूर्तिने सेवे. सुंदरीपण निज स्वामीकेरी, मूर्ति तनमन देवे.
आर्यसमाजी दयानंदनी,
बनुं गौरव बहु जाणे.
मूर्तिपूजक छे दुनियां सर्वे,
मूर्ख मूर्तिने नहि माने.
मूर्ति मूळ पुरुषनां उत्तम,
कार्यो संभारी दे छे.
मूर्तिवाळाना मंदिरमांही,
सुखकर स्वच्छ हवा रहे छे.
योग्यशास्त्राने जैनागम ते.
मूर्ति खास बखाणे छे.
चमत्कार मूर्तिना अदभूत्, जे जाणे ते माणे छे.
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वीर वाक्य तो सूत्रो मांहि, प्रतिमा पूज्य बतावे छे.
सिद्ध पुरुष पण मूर्ति केरां, गायन रूडां गावे छे.
मूर्ति भेद म्हने समझाणो.
सद्गुरु बुद्धिमागरथी, अजितसागर थयो कृतारथ,
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सद्गुरु पद शिर धरवाथी.
श्रीमद् बुद्धिसागरषष्टकमिदम् गुर्जर भाषायाम्. छंद - त्रिभंगी.
जय नित्य उजागर, करुणाना घर, वैरागिवर, धर्माकर, जय सुखना सागर, अनुभव आकर, ज्ञानसुधाधर, शिक्षाकर जय श्रेष्टदशाधर, दीनदयाकर, समता सागर. दीक्षावर ! जयजय योगाकर, बुद्धिसागर, पूर्णप्रभाकर, प्रेमाकर. १ प्रभुपद निवासी, छो गुणवासी, अविचळ प्यासी, विश्वासी, प्रभुपंथ प्रवासी विभु विलासी, वाणी सुधाशी. देवांशी: तद्स्थान तपासी, तजी उदाशी, उत्थ उल्हासी शांत्याकर ! जयजय योगाकर, बुद्धिसागर, पूर्ण प्रभाकर, प्रेमाकर. गुरु! म्हने तमारी, प्रेम खुमारी, लागीभारी, छे कारी, डुं जाउं विचारी, करवा न्यारी, उरमां धारी, आवारी,
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२४०
३
पण जाय न प्यारी, हृदय विहारी, अद्भूतकारी, अजरामर जय जय योगाकर, बुद्धिसागर पूर्ण प्रभाकर, प्रेमाकर, छो शुभ संस्कारी, मद मोहारि, धर्म प्रचारी, क्रोधारि, दुर्जन संगारि, दुर्गुणहारि, तत्वागारी, तृष्णारि भगवत् भजनारी, वृत्ति तमारी, सदैवसारी, भजनाकर ! जयजय योगाकर, बुद्धिसागर, पूर्ण प्रभाकर, प्रेमाकर. जेनी चिति जळमां, वसुधातळमां, प्राणिसकळां ने बळमां, वळी दावानळ, तळ वितळमां, द्रव्य सकळमां ने छळपां ज्ञानीनादळमां, रहि सह पळमां, ते विभु दिलमां, तत्वाकर ! जयजय योगाकर, बुद्धिसागर, पूर्ण प्रभाकर, मेमाकर. धीरज धरनारा, प्रभु भजनारा, तारण हारा, तरनारा, बहु कर्या सुधारा, सुख करनारा, संकट भारा, हरनारा बहु भक्ताधारा, जय करनारा, सद्गुरु सारा, स्नेहाकर ! जयजय योगाकर, बुद्धिसागर, पूर्ण प्रभाकर, प्रेमाकर
दुहा.
छुहुं आपतणो सदा, आज्ञा शिर भरनार; हे सुंदर भी सदगुरु, ऊतारो भवपार. श्री
निर्जितेन्द्रिय सकळ गण, निर्जित विषय विकार; अजित सागरनी बन्दमा, होशो वारंवार,
संवत विक्रम ओगणिश, पांसठ शाल सुहाय अधिक कृष्णनी अष्टमी, षष्टकथी सुख थाय.
९
लेखक - श्री बुद्धिसागरजीना शिष्य- अजिवसागर,
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२४१ संवत १३२७ मां रचाएलो गुर्जर भाषा साहित्यनो रास.
॥श्री सात क्षेत्रनो रास ॥
॥ॐ नमो वीतरागाय ॥ सवि अरिहंत नमेवि, सिद्ध सूरि उवजाप
पनर कर्म भूमि साहु, तीह पणमिय पाय ॥ १ ॥ जिणसासणमाहिं जो सारो, चउदह पूरवतणउ समुधारो समरिउ पंच परमेष्टि नवकारो सप्त क्षेत्रि हिब कहउ विचारो॥२॥ धुनु धुनु तेजि संसारे, जिहं जिणवरु स्वार्म गुरु मुसाहु जिणभणिउं, धम्मु सुगइ गामी ॥ ३ ॥ बारि अंगि दुलहु मणु जम्मु, अतीविशेषि (असंत विशेषे) जिंहि
१ सर्व. २ अरिहंत तीर्थकर. ३ सिद्ध अष्ट कर्मथी रहित परमात्मा. ४ सूरि आचार्य. ५ उवजाय भणावनार उपाध्याय. ६ साहु साधु, ७ हिव हवे. ८ कहउ कहु. सर्व अरिहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय अने पनर कर्मस्थित साधु ए पंच परमेष्टिना पादमां नमस्कार करीने सात क्षेत्रनो विचार कई छ. पंचपरमेष्ठिरूप नवकार छे ते जिन शासनमा सार छे. तेमन चौद पूर्वनो समुद्धार छे. ॥ २॥ ज्यां जिनेश्वर स्वामी छे ते देव तरीके छे. मुसाधु गुरुरूप छे. सुगति देनार जिनकथित धर्म ए त्रण रत्ननी जेने प्राप्ति थइ छे ते जीव जगत्मां धन्य धन्य छे. ॥ ३ ॥
९ धुणु धुणु=धन्य धन्य. १० जिहंज्यां. ११ जिणवरु-जिनवर. १२ सुसाहु-साधु. १३ जिणभणिजिनभाणत. १४ धम्मु धर्म. १५ मुग्गइ गामी= ति गामी. २६ दुलहु-दुर्लभ. १७ मणु जम्म मनुष्य जन्म. १८ जिति ज्यां. १९ धम्म धर्म.
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२R
२४२ जिणवर धम्म सम्मतरयणु विति निवसय जीह, सोहग उपरि मंजरि तीह ॥४॥ पुणे जिणसासणु दुलहउं जीव संभलि कथं तु निरुपम नाणुपहाणु पकुजि जिनवर धम्मु ॥५॥ भरहखित्ति खट्पंडह "धिनिकेवलिं नाणि" जिणवर जंपित वैताढ्य परहां त्रिखंड होइ, तहि धरमनासुनामुनवरतहोइ॥६॥ उल्या त्रिहुखंडि घित्ति (थिति;) केवलि इम आषय, (भाषा) ताहमाहि दुनि षंडने पडिया पाषइ ॥ ७ ॥ मजि पंडइ कुवइनी मडिउ, तेउ बिहुभागि पाछइ पडिउं, चउथउ भाग धरमनइ लागे. तेउ जोइ जईसय विभागे ॥८॥ ते न वाटणवइभाग साहू, मिथ्यातिहि जडिन थाकतउं कुमति कुबोधि कुगुरुग्गहि पडिउं ॥ ९ ॥ थोडा जीव केई दीसइ तेजे जिणन भणअंमनिहिकरंति हिव तिहुयणिहि सारु समिकत्तो पामिउ जीवि जिनभणि उत्ततत्तो॥१०॥ बार वरततर्फ पामिउ जे जिणवरि वुत्ता सुगइति बंधण सत्ता जीव मुकति दीयंता ॥ ११ ॥ प्राणातिपातत्तु पहिल होइ बीजउ सत्यवतु जोइ
२० सम्मत्त रयणु सम्यक्त्व रत्न. २१ पुणु-पुन: २२ जिणसासण-जिन शासन. २३ निरुपयु-निरुपम.२४ नाणुपहाणु ज्ञान प्रधान. २५ भरह खित्ति=भरत क्षेत्रे. ६ षट् खंडह=छ खंड. २७ धिनि केवली नाणी धन्य केवलज्ञानी. २८ चउथउ भाग= चतुर्थ भाग. २९ हिव हवे. ३९ तिहयणिहि सारु-त्रण भुवनमा सार. ३१ तत्तो तत्त्व. ३२ मुक्ति मोक्ष. ३३ पहिलउ-पहेलं. ३४ वीजउ सत्यवतु चीजें सत्य व्रत.
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३२.
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३४
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૩૫
त्रीजइति परधन परिहारो, चडथइ शीलतणउ सवारो ||१२|| परिग्रहतणउं प्रमाणु ऋतु पांमचइ कीजइ
fruit भवसहसमुद्धो जीव निश्चय तरीजइ ॥ १३ ॥
3 F
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३८
छतु दिसितण प्रमाणु, भोगुवभोगवत सातमइ जाणु,
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४०
अनरथ व्रतु दंड आठम होइ, नवमजं व्रत सामायकु तोइ ||१४|| देसावगासी दसमुत्रतु नथी मूह
पोषध
ऋतु अग्यारमसउ जम समतूलु ॥ १५ ॥
૪૧
व्रतुवारमउं अतिथिसंविभागुओ तोइ सुकतियरतनमागो
૪૨
४ ३
जईण मारगि चालई संसारे, धनु सक्रियार ते नरनारे ||१६||
**
समकितमूल ऋतु बारइ गहिय धरम पालेउ
૪૫
सप्त क्षेत्रि जिन भणिया तिह वित्तु वावेउ || १७ ॥
૪૬
४७
सप्तक्षेत्र जिन कहिया महामुनि वितु वावेजिउ विवहपार जिन वचसु आराधीउ अवक्रतु साधिउ लहइ पारु संसारुसारे ॥ १८ ॥ सपते क्षेत्रि जिन सासणिहि सगली कहीजई, अथिरु रिधि धनु इव्यु वीजमुतहि जिवावीजाइ तेहि क्षेत्र वावे त्रण यानकि लाभ देवलोको कणनी थाहरु मुक्तिफलो पामउ निसंदेहो || १९||
૪
पहिलंड क्षेत्र सुजिणहभुवण करावड बंगूजीछे महिमाकरइ सहु श्री चविह संघमूलगतार गूढ मंडइ पुछ कुवजकी सहिउ
३५ च=चोथे. ३६ छहुं व्रत ३७ दिशिनुं परिमाण ३८ भोगोपभोगत ३९ जाण ४० अनर्थ दंड आठमुं. ४१ अतिथि संविभाग ४२ यतिना मार्ग. ४३ धन्य, ४४ वृत्त. ४५ पावो. ४६ को ४७ वित्त ४८ पहेलुं क्षेत्र.
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४
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૫૬
आगइ कीजइ रंगमंडपु जो पुस्तक कहिउ ॥ २० ॥
तेहिं आतरइ बलामणु कीजइ आधेरउ जिमजिनभवनह नालिमाहि दीसइ, नीकेरउत्तउत्तंगतोरणु थंभ थोरु घांटु अति. नीक उकडीयइ नानाविधि रूपि सारुवारु तहि नीकालु जडिउ।२१॥
बिहु पक्ष फरती देहरी कीजइ इतिरुडीव बीजमूर्ति जिन इतणीमाहि तेवड तेवडी कणयकलस दंड घांटीई धजपूरीय कियजइ छोह पकत प्रासादु भलउ जीवनीपाइ वाजइ ॥२२॥
तहि जिनबारि कमाडभला कीजइ, अति सुविघट्ट मणहनाइ मुरुतउ अनिसुघुटुसादुदार दृढद्रागुणन आवइ संपुट तां कूची सांकली अतिनीसलकीजइ जउ आथमगह जाइ स्वरतउ ? संपट दीजइ ॥ २१॥ ___ अतिति सपउ जिणहस्यणु किरिअमरविमाणु दीसइ सुरति वीतरागमाहि तिहुयणुभाणु कठणुरूप वीतरागतणु जोइ कवणु विशेष अडतिहारिन जिणहतणइ वृक्ष होइ अशोकू॥२४॥ ___ ४९ रंगमंडप. ५० उंचु तोरण. ५१ कनक कलश. ५२ ध्वज ५३ कीजे. ५४ पंक्ति. ५५ प्रासाद ५६ भलो. ५७ वाजे ५८ त्यां जिन बारणे. ५९ आवे. ६० कीजे ६१ दीजे. ६२ जिन भुवन. ६३ अमर विमान. ६४ देखाय. ६५ त्रिभुवन भानु. ६६ विशेष ६७ अष्ट प्रातिहार्य ( अशोक वृक्ष) २ सुर पुष्पवृष्टि. ३ दिव्य ध्वनि. ४ चामर. ५ आसन.६ भामंडल.७ दुंदुभि.८ छत्र, अष्टप्रातिहार्य छे तीर्थकरने ए अष्ट मातिहार्य होय छे. ६८ अशोक
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२४५ भामंडलु, सुर कुसुमदृष्टि, सीहासणु, छत्र, भेरि, चमर देवंजु णिहिण जोइ कवणु प्रभुत्रुए थितिएसी वीतराग मेल्ही अवर न होइ मुरादिक जिनसेव करई नवि सगलई ॥ २५ ॥
तउ जिन सविजीव विशेषिहि करीयइ भागउ जिण भुवणि तेउ समुद्धरियइ लीपिउ धउलीउ भीगु देइ चीत्रामु लिषानइ इणपरि भुयणु ससारीय जन्मह फल लीजइ ॥ २६ ॥ ____ अतीउजुकाई किपिठामु जिणभुवण सीदाइ, तनिश्चिई करा. वीयए बहुफलु बोलइ आपणि सामीउ वीतरागु ईणपरि भणेइ जीर्णोद्धारहणा पुण्य अतित होइ ॥ २७ ॥
बीजं खेत्रु सुजिनहबिंबु तेइहां विचारो मणिमय रयण सुवणमए बिरूपमकारे, हिव जिनभुवणह गृह चैत्यदेवदारा छकहीमइ कीजइ कणयभिंगार कलस जे नीर भरीजइ ॥ २८॥
६९ भामंडल, ७० सिंहासन. ७१ करे. ७२ सघळे ७३ ७३ लीपेलुं. ७४ धोळेलं. ७५ चित्रामण. ७६ भवन ७७ जन्मफल लीजे. ७८ बहुफल बोले. ७९ आपणो स्वामी वीतराग.८० एवी रीते कहे. ८१ जिर्णोद्धारतणा. ८२ पुण्य अत्यंत होय. वीतराग भगवान् कहे छे के जे जिर्णोद्धार करावे छे तेने निश्चय अत्यंत फल थाय छे. वीजुं क्षेत्र जिनेश्वर भगवान्नी प्रतिमा भराववी ते जाणवू. मणिमय प्रतिमा, रत्न प्रतिमा, सुवर्णमय प्रतिमा करावीने जिन भवनमां तथा घर देरासरमां पधरावीने श्रावक जळकलश भरीने तेनी पूजा करे. ८३ बीजुं क्षेत्र. ८४ हवे. ८५ कनक श्रृंगार. ८६ भरीजे.
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तउ सीलमइ करावीयइ जिनभवन ठवीजह पारइ पीतलमइ भलांग्रिहिचैति पूजीजइ घरि देवालाई कराविय तीकाइमणों हइ जीछे तिहूयण सरण सामि पूजीजइ जिणवर ॥ २९ ॥
सुगंधि नीरि सनाथु करइजिण जीणि आणिदिहि ते संसार हकसमलह नवि छीपइ, बिदिय अंगलूहणे सूक्ष्मकरउ मुफरां बहु मूला नियसक्ति करावियइ जेवदेवंगतूला ॥ ३० ॥
कीजइ उरसुरूयडा तिरखंड प्रसेवा. कपूरवटे वाटीइ कपूर जितस्वी मुखि देवा, मुंकइ जिण भूयणिहि धाति अतिनीकी धूपीवालाकुंची जणी दुपीगाणी कूपी. ॥ ३१॥
अति सुगंधिहि सिरखंडि कपुरिहिआंगी कीजइ सामी वीत राग प्रभु वनवन वर्तगी कसरिहिं कुंकुमिहि तितउ निलाडिहिं सामी तेण वितपरिकलइ लली अति नीकइ धामी ॥ ३२॥
आभरण चडावियइ सोत्रणमय वडिया, हीरे माणिकि मोतीए बहुरयणे जडिया, अतिरूयडउं आभरणतणउ भलउं कीजई संपूरउ नीकउं सिहरउं पूठिउं हूतलि अनइ मसूरउ ॥ ३३ ।। __कानिहिकुंडल सिरिसमुकुटुकिरि अगिउ भाणू जाणे तिहूयणि सयल लोक असिनवउं विवाणू, उरमालहकठिसांकलउ मुक्तावलिहार नयणि निहालिने वीततरागु रुयडउ सुर सास ३४
बाहुजुयलि बेउ बहिरखा अतिनीका सोहई टीलूउं श्रीवत्सु ८७ त्रिभुवन शरण. ८८ स्वामी. ८९ जिनवर. ९० कस्तूरिवडे. ९१ कुंकुमवडे. ९२ सुवर्णमय, ९३ हीरा, ९४ माणिक.९५ मोति. ९६ बहु रत्न जडिया. ९७ अति रूडं. ९८ भलु. ९९ उग्यो. १०० भानु. १०१ त्रिभुवने. १०२ सकल.
૧૦૧ ૧૦૨
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२४७ सारूयार भवियण मणिमोहइ सोनाकेरी पालठी कीज जिनपते सोहइ बीजउरुउं सामी जिण हथ्थे ।। ३५ ।
इणि विवेहि न हुय विशेषि हि जिणवर पूजसलख्खणीय करउ मनरंगिहि नवनवभंगिहि श्री संघनयण मुहामणीय ॥३६॥
एतीअजीइ आभरणतणी पूजा नीपनी हिव आरंभि सुजिणह अंगि सुरहां कुसमपन्नी कीजइ कुसमेव गेरीयए पूजकारणि रूयडी वावरीइ दीहु देव काजि अन्न इच्छा जीछवडी ॥ ३७ ॥
रायचंपु, केतकी, जाइ, सेवती परिमल बलि, सिरीवालउ विअलु अनुकरणी पाडल, नीलउत्री विविध पूजामाहि सोहइ अति विगी वितिपति दीसइ रूपडे तिणि नवनवमी ॥ ३८ ॥
नीकउ कणयरु, पूजमाहि वरणकि सोहंती परिमलु पसरइ असमजाति पाच्छइ विहसंती कुंदु अनइ मचकुंदु वालु जुई परिजाते पास कुसमि कर पूजउ तुम्हि तिहुयणपत्तो ॥ ३९ ॥
सुरहउ सरूयउवावची अअइ इकल्हार, सहुयइ वीतराग सामी सुरसार, नीलउत्री नागवेलि पानमाहि जा सोहइ ईणपरिपूजइ सामि सामल नरनारी धन्न ॥४०॥
पएहरामणीयइ पूजतोइ नीकी सोहंती तउ नक्षत्र हतणी मालदी वाणूंवंगी पाखलायइ माहि तुयण सिंह केरी आणी कुसम पूजियइ तेसवि संखेवी ॥४१॥
समोसरणु जो पूजीयए जोतिन्नि पयारू बिहु पखि दीसइ वीतरागु जहि तिहुयणसारू तउपूजानी पन्नीय पूवि धूप उट
३ भविजन. ४ बीजोरु ५ हवे ६ बकुल. ७ श्रीवालो. ८ पहेरामणी ९ समवसरण. १० वीतराग. ११ त्रिभुवनसार.
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२४८
ज्जली जाइवीजणियं ऊखेवितु गुरु तहि घंटी वाजइ ॥ ४२ ॥
૧૧.
धूप अगुरु सादेति वीरे सिद्धावडा कीजइ संदंडासणे
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18
૧૪
अतिरूपडे जिणभुवणु पुंजीजइ आखेरिहिंमजूसभली अन्न
૧૫
चकी वट ढोई आखे करउ भलीय मंगलीकं अठ्ठय ॥ ४३ ॥
1f
१७
वर्द्धमाणु वरकल अन
१८
૧૯ ૨૦
२१५
भदासणु छत्तु दप्पणु नंदावरतु
૨
૨૩
तहि साथीउ श्रीवत्सु अठ मंगलीक नीणपाटि भरिया जिन आगईण परिजंधन वेचीइ एतले खइ लागइ ॥ ४४ ॥
૨૪
૨૫
दीवा कीज जिनभुवणि छत्र त्रउ दीजइ, चमर ढलते बीतराग तेहि धनु वेवजह तेउऊलोवकारोवियइ जिणभुण गम्भारे वाटा मखर अलंबकीज जिनबारे || ४५ ॥
तोरण बंदु खालि बारि साथि जिणभुवणि, पूजा जोइ सहु
૨૬
૨૭
ક
कोइ आवs तीणि खिणि, पूजा जोइ वा जिणहभुयणि भोइ सुह गुरु आवर तर संधिहि आग्र कहु करीउतीछे रहाविय ॥ ४६ ॥ पडषउ वेला एक प्रभु अहांउच्छ होसिइ संघ वयणुमाने
૨૯
30 ૩૧
૩૨
33
वि सुगुरु तिसि सिखं पइसई तिथि वेलां बइसणां पाटि जोइ
१२ संदंडासणे. १३ जिनभुवन. १४ पुजीए. १५ मंगलीक आठ, आठ मंगलनां नाम १६ वर्धमान. १७ वरकलश. १८ भद्रासन. १९ छत्र २० दर्पण २१ नंदावर्त २२ साथियो, २३ श्री वत्स ए आठ मंगलनां नाम छे २४ छत्रत्रय २५ जिनभुबन गमारे. ५६ आवे. २७ ते क्षणे २८ जिनभुवन, २९ शुभ गुरु. ३० शिक्षा. ३१ देवे. ३२ ते वेला. ३३ बेसणां.
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४. ३५
४२.
२४९ पाटल्ला चउकीर्वदि बइसति सुगुरु तउ भावइ भल्ला ।। ४७॥
बइसइ सहइ श्रमण संघ सावय गुणवंता जोया इच्छबुह भुवणि मनिहर धुपुधरंता तीछे तालारस पडइ बहु भाट पढ़ता अनइ लकुटा रस जोईइ खेला नाचंता ।। ४८ ॥
सविह सरीषा सिणगार सवितेवड तेवह तेवहा नाचा धा. मीयर भरेत उभावइ रूडा सुललित वाणी मधुरि सादि जिणगुण गायता तालमानु बंदगीत मेलु वाजिंत्र वामंता ।। ४१ ॥ ___तिविलझालरि भेरु करडि कंसाला वाजई, पंचशब्द मंगली कहेतु जिणभुवणइं च्छाजइ, पंच शब्द वाजंति भाटु अंबर बहिरंती, इणपरि उछबु जिगभुवणि श्री संघु करतउ ॥ ५० ॥
तर आरती परुगुण काउं आरती पटऊपरि उठिउ संघ परि विधिहि सहिओतउ साहीउ बिहुकार नीरलुण ऊतारियए कुसम ऊतारी संघपति ऊठी सेसिभरई सहत्थिहि माडी संघपति आर तील्लिया हुइ जउ वा वाडरीआरती जोग थांभली अआणउग रूपरी ॥ ५॥
पाछइ जिण गुणगाइ पढइ.साहू पालउल लोक श्रीसंघवीह अदातुदियइ जाह जेसाजोगू ऊतारीया आरतीआ ताइ संघपति
३४ भावे. ३५ भला. ३६ श्रावक. ३७ उत्सव. ३८. मनोहर. ३९ धूप. ४० लकुटरस (डांडीयारस) ४१ मधुर सादे. ४२ झालर. ४३ भेर. ४४ छाजे. ४५ एणीपेर ४६ उत्क. ४७ नीर लुण-जलनी साथे लुण उतारवं ते) ४८ कुमुम.
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.
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1
UR
૫૪
सइहरखिउ रोमांदी सारीरु तहिजिणचंदं सणु देखीउ ॥५२॥
मंगलीकु ऊतारीयए घंट वाजइ सरूई, श्रीसंघु करइ प्रभावना जिणसासणि गरुइं, तउविधि वांदियउ वीतराग श्रीसंघु ऊतारीउ इणपरि सुंअकृत भंडारु तोइ, भव्यज्ञाविहिभरि आरती ताइ संघपति सइ हयाउ ॥ ५३ ॥
जे जिन भुवणतणां कृयई छेडइ, कहिया ते गृह चैत्य करावि यइ, सविशेषिहि सहिया अनि अनकाई कोइठामुमूहइंटी सरियउं तेउ मुम्हि भविय करावि जिअ सहूइ सांभरियउं ॥ ५४॥ ____उछ, जिनभुवयणि हरपिनियमणि करइ, सव्वु जयवंतु नितृ हिव त्रीजउक्षेत्रु कहि सुपठित्तू सणउ जीवजेतिना भणितू ॥५५॥
बीजउक्षेत्रु सुसभलउ ए वरलोयणेज भणिउं वीयराइ गुण मंभीर सो जिणहवयणु मृगलोयणे तसु नवि ऊपम काइ ॥५६॥ ___ वचन इकोका मूल नही वरलोयणुणेज वोलइ भगवतु तिहु भवणे धूजमाणीय मृगलोयणे सहू जाणइ ॥ ५७ ॥ ... अरिहंतु पढइ कवणव्युपजिन वचन तणउ वरलोपबुज्जइ लोकु अलोकु सेउजिसिद्धे तज सलही अइए मृगदे अइसिद्धि सजोगु ॥ ५८ ॥
गणधर करइजंपुर्वधरचरण मुयकेवलिहि करतु दसपूरव
४९ हर्षित. ६० रोमांचित. ५१ मंगलीक ५२ मोटी (गुर्वी) ५३ सुकृत भंडार. ५४ सर्व. ५५ त्रिजु क्षेत्र. ५६ जिनवचन.५७ उपमा. ५८ कांइ. ५९ एकेक. ६० जाणे. ६१ अरिहंत. ६२ पूर्वधर चरण, ६३ श्रुत केवली.
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२५१ धरज करइ मृगतं भणियउयइ सिद्धितु ॥ ५९ ॥
त्रिहु भुवणहतणउ जाणिय वरए आगमममाहिविचारु, चउदपूरव इग्यार अंग मृगय करइ गोतमु मुतिहारु ॥ ६० ॥
सूत्रहार तहिनिउछणा एवर० जिणि जाणिउ एउ सूत्रात्रि पदी आपीय वीरनाथिइ मृ. आयउं गोतम वुतु ॥ ६१ ॥ __ केवलनाण पुच्छितिगय उवर० गयसवि पूरवधर जे हुंता गुरु प्रशघणउं मृग० गयासुते मुनिवरा ॥ १२ ॥
अल्प प्रज्ञहन विधाहर एवरपजिण वयणुं निरुपमु तीणका रणि श्री संघ मीलीय मृगण्यो घेठवीउ आगमु ॥ ६३ ॥
भक्षाभक्ष सो छुड्डियए वरप अन्नी गनी गस्मा गंमु कृत्या कृत्य परीछिय ए मृग० जाणीय इ धम्माधम्मु ॥ ६४॥
नजीवीलाहु उलिउ एवरय च्छुड्डियइ एहु विचारु श्री सिद्ध तुलिख्य वियए मृग जोउत्रिभुवणहसारु ॥६५॥
श्रीजउक्षेत्रु इ सवावीय वए वरपवित्ति संवेगुधरेउ वेवीउ वि एहविचरत जोइत्तलिखावीयए मृग० श्री सिद्धान्त जएउ ॥६६॥
बाहूदंड पोथाकराउ एवर० पोथीयनीकीयतोइ ज्ञान लग
६४ विचार. ६५ सूत्रधार. ६६ जेणे. ६७ जाण्यु. ६८ उपमेवा, विष्णेवा, धुवेवा. १ उत्पन्न थर्बु, विनाश पामवो, मूळ रुपे स्थिर रहेQ एम वस्तुना त्रण धर्म छे माटे आ रणने त्रिपदी कहे छे. ६९ वीरनाथे. ७० घणीप्रज्ञा. ७१ भक्ष्याभक्ष्य. ७२ धर्माधर्मः ७३ सिद्धान्त लखावीए. ७४ जेतो. ७२ त्रिजु क्षेत्र. ७६ जोइतुं लखावीए. ७७ जिनागम.
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CN
इ सविलास हुइ मृग० ॥ ६७ ॥
पाठांदोरी वीटणां वरसिद्धांतहमत्ति वानीदोरा ऊतरीय मृग लोयणे पोथीय थाय सत्ति ॥ ६८ ॥ ___त्रीजउ क्षेत्रु इम वावनिरपमलियः लाभुहंता तणउजिम अकम्मगंजीउ भवदुह भंजीउ सिद्धि नयरि खेमिइ मुणउ ॥६९॥
हिव श्री श्रमण संघ भत्तिकरउजीवतुम्हियथाभक्तिपहिलाउं कीजइतोइ पावयणा अनीय विशेषिहि आयरियउ वणा७० ___ इणपरि श्रमणुक्षेत्र वावीजइ, निश्चय भवसायरु तरीजइ जे जिनवरिमुनि कहिया आगमि, क्रियासार अनइ खरतसंजमि।७१।
पंचमहवयभारु धरंता, दसअनुच्यारि उपगरण वहंता, नव कल्पिइ विहार करंता, ते मुनि भणियइ चारित्त दंता ॥ ७२॥
जे मुनि पंच समितिच्छइ समिता, त्रिहिहु गुप्तिहिजे अच्छ३ गुपिता, सीलंगसहस अढावरहंता, ते मुनि भाणियइ उपसमवंता ॥७३॥
जे मुनि निम्मल निरहंकार, सदाचार दीसइ सुविथार, जे धूरिजूता गणगच्छ भारा, ते मुनि भणिया गुणह भंडारा॥७४ ॥ " ईणपरिभल्ला क्षेत्र विशेषि, दियउ दानु तुम्हि भविहरखि, जिम तु छूटउभवना भार, पामउ सिवसुखु निरुपमसारु ॥७॥ ____७८ अष्टकर्म गंजनार. ७९ क्षेमे. ८० जाणो. ८१ भक्ति.८२ करो. ८३ तीक्ष्ण संयमे. ८४ पंचमहावतभार. ८५ चौद उपकरण मुनिनां छे. ८६ इयो आदि पंचसमिति. ८७ मन, वचन अने कायगुप्तिः ८८ अढार हजार शिलांगरथना भेदने धारनार. ८९ मुविस्तार.
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मूचइ ॥ ७७ ॥
२५३
८०
जे जिन आण सदाइ रतू, बावीस परीसह सहर अपनत, जिन आदेसु धरइ सिरिउपरि, तेजिमहामुनि नीयइ सुवरि ॥ ७६ ॥
હા
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तालीस दोषसु विसुद्धउ, लिया आहारु जे जिणवरि दिइंद्रिय विषय व्यापिनगूवइ, तवि, नीमि, संजभि खणत्रि न
૩
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किसुं घणउं हवं करूं विचारों, मुनिरवण गुण न लहउंपारो,
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100
अनुवतु वालइ जे जिन आण, ते मुनि भणीय मेरुसमाण || १८ ||
2
3
प्रसंसीद मुनिजिहिया तेगुणजिणवारे श्रीमणी कहिया एकु
પ
विशेखु पुणी श्रमणी दीसह उपगरनोइ पंचवीसइ ।। ७९ ।।
चालs खङ्गधार 'तोऊपरि, सीलवंत ते नमीई सुरवरि, महा
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सती जछइ अपमत्त, धाराभण तेहिपवित्त ॥ ८० ॥
ii. ૧૨
13
जीहां जिन आण हियइ परिणमी, ते श्रमणी तोइ मेरहसमी
૧૫
१४
जे सद्धी जिण आण करंती, धनुधनु श्रमणी महासती ॥ ८१ ॥
१७
१९
૧૯
जिण सासणु जेहिय इम उज्जाआलिउ, कसिमल पावपंकु ९० रक्त. (आसक्त ) ९१ शिर्षपर. ९२ बेतालीस दोष रहित आहार लेनार. ९३ क्षण पण ९४ न मूके. ९५ केटलो. ९६घणो ०७ हुं ९८ कहूं. ९९ पांच अनुव्रत. १०० पाळे. १ मेरु पर्वत समान २ श्रमणी (साध्वी) ३ एक. ४ विशेष. ५ पुनः ६ साध्वी पचीश उपकरणधारे. ७ तरवारनी धार. ८ जे छे. ९ प्रमाद रहित. १० पवित्र ११ आज्ञा. १२ हैयामां १३ मेरु समान. १४ शुद्धि. १५ धन्य धन्य १६ जिन शासन. १७ अजवाळयुं. १८ पाप. १९ पापपंक.
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૨૩ ૨૪
पखालिङ, एउ साहू अनइ श्रमणी खित्त, बावन धामी हुईउ स. वितू ।। ८१ ॥
जा हिवडांतूं संपति अच्छइ, इसीय वरापन पामि सिप्पछइ, ज भलखेत्रि वित्त न वाविसि, पाछइ परभवि किसउ लुणाविसि, ॥ ८३ ॥
परापटली विनु वाविसि सारु, गिसिखड सलुकाइ कतवारु, जउ भलो, क्षेत्रि वरापहवाविति, तउ इक गुणइ अणंतगुण पा. विसि ॥ ८४॥
एतलं क्षेत्र जिनवरि कहिया, वावें धम्मी भावणसहिया, तउ सीचे अनुमोदनापाणी, जिमहुइ सफली गयानिरुवाणी ॥८॥ ... ईणपरि वाविजइ सुखैत्रु, दीजई भक्त पानु सूझव विद्यादा. नुज दीजई सारु, जिणु भणइ ते पुन्य नहीं पारु ॥ ८६ ॥
ओषध आदि सहु सूझउं दीनई, नियवर नियधरिहंत अनिउज काई मुनि उपगरइ, तंसूझतूं वहरउं करइ ॥ ८७ ॥
जंजमुनि जोअइ सूझतउं, तंतं दीजइ नियघरुहुँतउं, गुरु आवती कीजइ अभिगमण, दीजइ भक्ति थोभवंदणउ,॥८८ ॥
विनय वयावच्चअनीउ विशेषिउ, कीजइ भुवीउ महा मुनिदे
२० धोयु, (पखाल्यु) २१ पछे. २२ परभवमा २३ शु.२४ लणीश. २५ धमि. २६ भावना सहित. २७ अनुमोदनाजल.२८ क्षेत्र. २९ मुजतुं. ३० मुजतुं. ३१ पोताना घरे होय ते. ३३जो. इए. ३३ मुजतुं. ३४ पोताना घेर होय ते. ३५ सामा अवु३६ स्थोभ वंदन. ३७ वैयासत्य,
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१
४३
४५
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२५५ खीउ, पर्युपास्ति तही कीजइ घणीय, जिमजिम जिनवरि आगमि भणीय ॥ ८९॥ . एहज परिश्रमणी जाणेवी, करउं भक्ति तुम्हि हरिख धरेवी, जेमुझ महामुनि दोजइ, तंतं श्रमणी कीजई ॥ ९० ॥ ___ आगइताइ पूर्विहि सुणीजइ, धनुधनु सारथवाह कहीजइ, घीउ विहिराविउ जिणिमुर्णिदउ, तिणि फलि हयड पढम जिणंदू, ॥ ९१॥
हथिणाउरि नयरि श्रेयसि, हियरो विउरिषु भुरिपुरिसि,तिणि फलि तिणभवि केवलु ज्ञानु, दिइतु भविक मुनि इणपरि दाना९२॥ - वीर जिणेसर छट्ठा मास, वंदण पारवेइको मास, तीणि दानि व संपति पामी, दियउ दान तम्हि अनवत धामी ॥ ९३ ॥
जोइन संगमिकीउ, मुनिपारावीउ खंड खीरु घीउ, तिणि फलि तु सर्वार्थ सिद्धि पामी, पाछइ होसिइ सिवमुहगामी ॥९॥ - इउ भल्लउ खेतू वावउ वितू , सिवसुह संपत्ती देइन भत्ति न भत्ति सामि सालु आगमि भणित्ति ॥ ९५ ॥
हिव तोइ श्रावक तणो क्षेत्तु भवी कहीसइ जउ जिण सासण तणी भूमि अति भलउ फलीसिइ किसउ सुश्रावक जाणिवउ
३८ आगेतो. ३९ पूर्वे. ४० धन्य धन्य. ४१ घी (घृत) ४२ वहेराव्यु. ४३ थयो. ४४ जिनेन्द्र. ४५ हस्तिनापुर. ४६ नगरी. ४७ केवलज्ञान. ४८ दान. ४९ दान. ५० अनुव्रतधमि. ५१ वीर. ५२ घी. ५३ शिवमुख गामी. ५४ भलुं.
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२५६
૫૫
जिणसासण भिंतरि, श्री वीतराग तणीय आण मानइ सिर उपरि
॥ ९६ ॥
૫
समकित थूल मूलवार वरत, पालइ नरनारि निवसइ हियडइ
५७
वीतरागुए पूजि सुरसारु कामदेव जिम चलइ नही वीतरागह धर्म
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वीरनाहू जिनवरु दिवइ तमुनी ऊपम्म ॥ ९७ ॥
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૫૯
१०
सदाचार सुविचारु कुसलु अनइ निरुहंकार, शीलवंत निकलंक अनइ दीनगण आधार, जिनह वचनि तिम सातधातु जीह श्रावक भेदी, जाणे तीह गर्भवास वेलि मूलहुंतीच्छेदी ॥ ९८ ॥
१३
૬૪
૬૫ ૬
१७
जाणइ ऊचितुं सहू काय साचउ, विचारुउ धातुधिमनमाहि बसइ इकु निश्वर सारु, उत्सर्ग अनइ अपवाद एहइ जाण सविसे भाणियई श्रावकतणी भावीमय मूली साजीहए हुविविक्ता ॥ ९९ ॥ जे पुण श्रावकतणा भविय कहीयइ जिण सासणि ते गुण जिणभणइ श्रीवियह जाणेवा नियमा ॥ १०० ॥
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त्रिधा सुठि वीतराग वरुइ मनसी भितरि जीह सुलहउ सि अपुरतणव वासुतो श्रावक तीहपेढइ जिणत्रयण सुणइ संवेगि
७०
૯૧
संपूरिय सीलसनाहि पहिरिइ क्रमऊ परि सूरी ॥ १ ॥
ft and क्षेत्र वालु सवि दीस जे तुम्हि भविय अच्छइकाइ धर्मतणी जगीस जिम भरथेसरिवावी रिसहेसरनं-
५५ मध्य . ५६ हृदये. ५७ वीतराग. ५८ वीरनाथ. ५९ सदाचार. ६० सुविचार ६१ कुशल ६२ निरहंकार. ६३ जाणे. ६४ उचित ६५ कार्य ६६ साचो. ६७ सविशेष. ६८ श्राविका.. -६९ शुद्धि. ७० शीलसनाह. ७१ पहेरे, ७२ भरतेश्वरे,
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दणि गृहवास ऊपरि ज्ञानुना सुपसरीउ तिहुयणि ॥२॥
तिम तुम्हि वावेउ भलीपरि भविउहउ खित्तु लहिमउ लुण निरवाण नयरिति पतिहावुहूतुपहिलं कीजइ महाविनउं गुणश्रावक ज्ञानाउ जाणी पाय पोय पखोलीय सइहाविलेउ कुंकुम, वाणी ॥३॥
इईई भोजनुं भलीयभक्ति सविवेकिहि सयउ दीजइ श्राविकां पउ आगमि कहिउ उपरिउगटि फल पान कापड अनुमानिया दीजइ निजभक्ति भलागरूयइ बहुमानि ॥४॥
भद्रथेसर जिम,श्रावकह दीजइ आवास लीणाजे जिनवयणि अछइ वणहनिवास आछिलनी परि एक कीसउ परिहुइ अइस संखाविधि मानु फरसइ सहू नरनारी दुःख ॥ ६ ॥
वाछिलनी परि एकजीतहउंकहीउ नमसाकउ एकहवार सकूसारु तुम्हकहीउ अजमूकिउं जीजी कीजइ कुणबकाजिए अति भलाभलेरांतो कीजइ साहमिय प्रति अजी अधिकेरां ।। ६॥
कीधे काजे कुटंब भाण अतिघणउ संसारेउ सोरे संकीजइ साहमियकेरउन कीजइ साहमिअकाजिते परत भडारो इणपरि वाछिल श्रावकह कीजइ सुरवंगू हवते कहीइसिइ जिणभवणि वा .छिल अंतरंगू ॥ ७॥
जिणपरि लोगथाकइ ज़िम संसारमझि वलिवाल एउ फेरु कीजइ श्रावक श्राविकारोहि घरपोयषधशालजी छे करिसिइ धरमध्यान तुहरखि सविकालो ॥ ८॥ ___ षड्जीवरक्षा सदि काल तीच्छेदंसींतीसमकितसिउ बारय
७३ क्षेत्र. ७४ साधर्मिक. ७५ अतिघणं. ७६ अन्तरंग. ७७ षड्जीवरक्षा.
101
...७०
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व्रत जीव आनकिइ लहंता प्रतिमा नीम अभिग्रह संपज्जर तिणि
७९
हाय अनेक सुकृतऊपजइ कुहिया कहे वरमाट ॥ ९ ॥
८०
ते छे सुगुरु वखाणु करइ आगम तदापि सहू समाधियह स पिंभलइ ब्यूष्व नरनारे थापनाचार्य व कीटओ सिंहासन की
કર
८ ३
८४
जइ नरवाली चिवला महुपत्ती मूकीजइ ॥ १० ॥
૫
संघराऊतरउ टपाटिकीजइ पुंछणारे पोसाल पटेला अ
CF
८७
८८
ટ
नइ दंडाच्छणा काजामेलशीय परंजणीय काजाऊधरणी पौष धसाहतणइवामि एकाज करणी ॥। ११ ॥
कीजर कमलीवणी थवा वीजर सिद्धातूं ज्ञान पढ़ता जीवती छोतोई दीसइ आखर पडवडा अन जाणाहोई ईई सातई
Co
क्षेत्र इमा बोलीया आगम अणुसारे पुणतुम्है वावीयं भलीय परि वित्त आपणार० ॥ १२ ॥
आणि आयव्ययने तुलिडं तीउ थानकि वावे जिण सासणि वे चीतु कुलिक मंडसुवडावे संघ समुदाइ सहू कोई तीरथ वंदावे, देव जात्र गुरु जात्र करीइ तर भलउ भणावे. ॥ १३ ॥
- इमवितु सुवेचउ धम्म सु संच अप्पं जीवमववथ सुउ वलीन लहि सउ प्रस्तानु ए सउ केरज सफलु भव माणस ॥ १४ ॥
દા
७८ नियम. ७९ अनेक. ८० व्याख्यान. ८१ स्थापनाचार्य. ८२नवकार वाली. ८३ चरवला. ८४ मुहपोत (मुखपति, मुखवस्त्रिका, मुखानन्तक. ) ८५ पौषधशाला. ८६ दंडासण ८७ काजामेलणी. ८८ पुंजणी. ८९ काजाउद्धरणी. ९० आगम अनुसारे. ९१ सफल.
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८४
७
सातक्षेत्र इम बोलिलिया पुण एकु कहीसिए कर जोडी श्री संघ पासि अविणउ मागीसइ काईउऊण आगउं बोलिउं उत्सूत्रूतो बोल्यामिच्छादुकडं श्री संघ वदीतुं ॥ १५ ॥
मूं मूष तोइ ए कुण मात्र पुण सुगुरु पसाऊं अनइ जत्रिभु. वन सामि वसइ हियडइ जगनाहो तीणि प्रमाणिइ सात क्षेत्र इम. कीपऊ रासो स श्री संघु दुरियह अपहरउ सामी जिणपासो ९६ - संवत तेरसत्तावीस एमहामसवाडइ गुरुवारि आवा यदसमियहि लइ पखवाडइ तहि पुरु हूऊ रासु सिव सुख निहाणू जिगचुवीसइ भवीयणह करिसिइ कल्याणु ॥ १७ ।। ___ जो सिसिरचि गयणंगणिहि उगइ महि मंडलि ताव रतउ एउराम भवियणा जिणसासणि निम्मल जग्रह नक्षत्र तारिका व्यापई गयवंतु श्री संघ अनइ जिगसासणु ११८ ॥
॥ इति ससक्षेत्र रास समाप्त ॥
लि० मुनि बुद्धिसागर.
13
___ ९२ एक. ९३ भागीश. ९४ हैयडामां. ९५ कीघो. ९६ दुरित. ९७ अपहरो. ९८ स्वामी. ९९ जिन पार्थ (पार्श्वनाथ.) १०० संवत १३२७ तेरसे सत्तावीशनी सालमां आ रास रच्यो. १ जिनचोवीश. २ भविकजन. ३ कल्याण. ४ यावत् . ५ शशिरवि. ६ गगनांगणो. ७ उगे. ८ महीमंडलमां. ९ तावत् (त्यां मुधी.) १० ए रास तो. ११ जयवंतु, १२ अने. १३ जिनशासन.
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सात क्षेत्रनो रास सं. १३२७ नी सालमां गुर्जर भाषामां रचायो छे. बुद्धि प्रमाणे सुधारो कर्यो छे. मूल प्रति प्रमाणे मूल छपाव्यो छे, अने तेमां कोइ ठेकाणे शब्दो सुधार्या छे. फुटनोट पण बुद्धि प्रमाणे यथाशक्ति करी छे. तेमां दोष होय तो पंडितो सुधारशो, अने आ रास संबंधी गुर्जर भाषाना पंडितो शोध करशे तो आ रासने सारी स्थिति उपर मूकी शकशे. एम आशा रखाय छे शुभे यथाशक्ति यतनीयं ए न्याय अनुसरी प्रयत्न कर्यो छे. जिनमंदिर, जीर्णोद्धार, साधु, साधवी, श्रावक, श्राविका, ज्ञान, आ सात क्षेत्र जाणवतं.
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अथ श्री यशोविजयवाचककृत. ब्रह्मगीता.
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शोधक मुनि. बुद्धिसागर.
दुहा.
समय सरसती विश्व माता, होये कविराज जस ध्यान ध्याता; करिय रंगरसभरि ब्रह्मगीता, वरणवुं जंबु गुण जग वदीता. १ राग फाग ब्रह्मचारी सिर सेहरो, ब्रह्म मनोहर ज्ञान; ब्रह्मवतीमांहि सुंदर, ब्रह्म धुरंधर ध्यान.
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२६१ मोह अब्रह्म निवारण तारण तरण जिहाज, जंबुकुमर गुण थुणतां जन्म कृतारथ आज. होय जस वदने शत सहस जिहा, आउखु बळी असंख्पात दीहा; तास पणि जंबु मुनि सुगुण गातां, पार नावे सदा ध्यान ध्यातां.
शील सलिल जे पाले वाले चंचळ चित्त, आप शक्ति अजुवाले त्रिहु काले सुपवित्त; पाप पखाले टाले मोह महामदपूर, ब्रह्मरूप संभाले ते निज सहज सनूर.
एहवा जंबु मुनि पुरुष सिंह, जेहनी कोय लोपे न लीह; भवतर्या शील सम्यक्त्व तुंबे, स्त्री नदी मांहि ते केम विलम्बे. सोहमवयणे जागी वयरागी सिरदार,
सोभागी वडभागी मागी अनुमतिसारः मातपिता प्रतिबुजवे आठ कन्या उपरोध, करणी परणी तरुणी जीपे मन्मथरोध.
आठमदनी महा राजधानी, आठ ए मोह माया निशानी; जगवशी करणनी दिव्य विद्या, कामिनी जयपताका अनिंद्या. मुख मटके जगमोहे लटके लोयण चंग, नव यौवन सोवन वन भूषण भूषित अंग;
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४
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शृंगारे नवि माती राती रंग अनंग, अलबेली गुणवेली चतुर सहेली संग. जेहने देखी रवि चंद थंभे, बंभ हरिहर अचंभे विलंभे कवणर्नु धैर्य रहे तेह आगे, जंबुनी टेक जगि एक जागे. आठ ते भूमि भयंकर शंकर कर जित लेइ माम, श्रम करि सीखीने सज थयो फिरि जगिजय परिणाम सरव मंगलालिंगित देखी जंबु कुमार, जुजे बुजे पंडित तिहां जयभंग प्रकार. चाप जे मयण करि बाण न्हाखे, जंबुवर धैर्य सन्नाह राखे । चाप दुइ पंड हुओ भमूह ठामे, धैर्य पूजा कुसुम जंबु पामे. एणी नयनानी वेणी लेइ धायो नरवारि, ते तिहां भी दंभी सघले पामी हारि; कांनि झाल जबुके तोली रहयो मानु चक्र, तेह सुदर्शन धारीस्युं पणि न हुवे वक्र. नाकि मोती ते बंधृक छाकि, गोलिका ते रथो मांनु ताकि छुटि करि जंबु धैर्य नांह लोपे, रहे ढलती ते आमरण रूपे. दियशस्त्र हिवे फोरवे जोर माया अंधकार, जेहमांहि बंभ पुरंदरनो पणि नांहि चार;
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तत्त्वविचार उद्योतने शस्त्रे ते जंबु कुमार, . मोघ शक्ति करि संवरी पाम्या जगि जयकार. जाणीये काम उत्पत्ति मूल, थाइ संकल्पथी ते त्रिशूल; ज्ञान घरी जो न संकल्प कीजे, उपजे काम कहो कोणि बीजे. हुओ अनंग तेसारुरे जोतुं धरतो अंग, .. बाणकरण तांइ तांणीने नांपत होत अनंग थोथा कूटये स्यु होइ जो तुं चित्त विकार, कांटे काटो काढस्युं चिधिरि ब्रह्म विचार. भावना इम क्षमादिक प्रपंची, शस्त्र लीयां सकल तास पंची; तेणि न बले ते नाठा कषाय, पडि अवेलाई कुणहोइ सहाय. तुं जाणे जित काशी जगवासी कीयोजेर, पणि जिनभांणनी आंणमां वर्ततो हुंछ सेर; अम्ह साहमिणी शीतादिक अबलाथी पणि भग्ग, तुजस्युं जुझस्ये किणिपरे इम कहि नाठा ते नग्ग. सज्ज थाती हुंति मदन फोज, आठ कन्या कथा सुणत मोज; जंबुनी अडकथाये ते भाजे, जंबु जीते अने कंदर्प लाजे.
आठ ते कामिनी ओरडी गोरडी चोरडी चित्त, मोरडी परिमद माचती नाचती गीत;
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दीठि गलाबइ छोरडी बोरडी पाकी जेम, जंबुकुमार ते लेखवे कोरडी दोरडी तेम; विश्व वशीकरणथी जेह सबला, तेहनो नाम किम होइ अबला, नाम माला तणी माम राखी, जंबु धैर्य तणा' सकल साखी, आठ कन्या आप ते जननी जनक समते, चोरी करवा आव्या ते चोरने प्रभव सहेत; ए सवि दीक्षा ओदरी विचरी उग्र विहार, जंबु ते पूर्वधर हुआ सोहम पट्टधार. वर्ष अतिक्रमे अनुत्तर विमानी, सुर अधिक सुख लहे ब्रह्मज्ञानी. ते हुआ शुक्ल शुक्लालाभिजाति, आत्मरति आत्मधृति कर्मघाती. ब्रह्मरूप निरुपाधिक आतमज्ञान ते योग, इन्द्रजाल सम सघला पुद्गलना संयोगः उपादान पुद्गलथी पुद्गल उपचय होइ, कर्ता नहि तिहां आतमा निश्चय साखी सोइ. एह अध्यातम ते मोक्ष पंथ, एहमां जे रह्या ते निग्रंथ; एह अंत:करणे होइ सुधि बीजे, विहित किरिया तेतसाहती कीजे. नय होइ युक्ति जोता किरिया ज्ञाननी व्यक्ति, साधन फलता दोइमा साधन शक्ति
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आणा विणा आचारमांहि आणे, अनाचार; जंबु प्रते इम सोहम कहे अंगे आचारः ज्ञान किरियातणा इम अभ्यासी, हुइ चिदानन्द लीला विलासी स्थानवर्णार्थ आलम्ब अन्य, योग पांचे हुआ जंबु धन्य. वली इच्छा प्रवृत्तिने थीरवली सिद्धि ए भेद छ चार, मीति भक्तिने वचन असंग तिहां मुविचार सकल योग ए सेवी पामी केवलनाण, मुगते पुहता तेहनुं नाम जपे सुविहाण. खंभनगर थुण्या चित्त हरखे. जंबु वसभुवन मुनि चंद वरखे श्री नय विजय बुध सुगुरु सीस: कहे अधिक पुरयो मनय जगीस ॥ इति श्री यशोविजय विरचिता ब्रह्मगीता समाप्ताः॥
श्री यशोविजय वाचक कृत. आदि जिनस्य संस्कृतभाषायां स्तवनम्. आदिजिनं वंदे गुणसदनं,
. सदनंतामलबोधरे; बोधकतागुणविस्तृतकीर्ति,
कीर्तितपथमीवरोधरे. आ०१
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२६६
रोधराहतविस्फुरदुपयोग, - योगं दधतमभंगरे भंगनयत्रजेपशलवाचं,
वाचंयमसुखसंगरे. आ०२ संगतशुचिपदवचनतरंग,
रंग जगति ददानंरे दानसुरद्रुममंजुलहृदयं.
हृदयंगमगुण भानरे. आ. ३ भानंदितसुरवरपुन्नागं,
नागरमानसहसंरे। हंसगतिपंचमगतिवासं.
____ चासविहिताशं मेरे. आ०४ शंसंत नयवचन नवम,
नवमंगलदातारंरे; तारस्वरमघधनपवमान, मानसुभटजेतारंरे.
आ०५ इत्थं स्तुतः प्रथम तीर्थपतिः प्रमोदा,
रन्छीमद्यशोविजयवाचकंपुगवन श्री पुंडरीकगिरिराजविराजमानो मानोन्मुखानि वितनोतु सतां सुखानि आ०६
इति श्री ऋषभदेव सवनम्.
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२६७ मनभ्रमर.
ओधवजी संदेशो कहेशो श्यामने-ए राग. मनः भ्रमर बहु भ्रमण करे भववनविषे, घडी घडीमा नवनव वृक्षे जायजो; गुंजारव करतो गर्वित थइ आथडे, विषय पुष्पने देखीने हरखाय जो.
मन० १ रागद्वेष बे पांखो काळी तेहनी, षट्पदना मिषे ट्रिपुर्नु ठामजो; नवनवरंगी विषयपुष्पपर बेसतो, कामकमळमा लपटातो दुःख धामनो.
मन० २ शाम्पवंशने कोतरतो जे तुर्तमा, काळहस्तिथी काम कमळ भक्षायजो. चींची करतो काळकोळीयो थइ रहे, रविविद्युत् पेठे ते चंचळ थाय जो.
मनः३ काळ अनादि विषय पुष्प सुंध्यां घणां, मनभमराने तोपग तृप्ति न थाय जो . अकळगति मनभ्रमरतणी क्षण क्षण विषे, मनभमरो अहो पणभुवनमा जाय जो. मन०.४ मन भमराने पुरो समता पांजरे, रखे न उडे लेशो बहु संभाळजो। चौदभुवननो मोझीलो स्थिरता धरे त्यारे थावे झटमा मंगळमाल जो,
मन० ५
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ध्यान दोरीथी मनभमराने बांधीए, अनुभव अमृत स्वाद करावी बेश जो; बुद्धिसागर अन्तरमा समज्या थकी, आत्मस्वभावे आनंद होय हमेश जो.
मन० ६ ॐ शान्ति.
नमन ह०१
श्री सद्गुरु सत्तरी.
ओघवजीना रागे. नमन हजो मुन एवा सद्गुरु ज्ञानीने, जगत जीवोने शांति दायक देवजो, क्षमाश्रपण जे कहावे समता आदरी, दर्शनथी शाश्वतपद छे ततखेवजो. .. ज्ञायकभावे वरते सत्य स्वरुपमां, साध्यक्रियाने करता गुणनी खाणजोः . उपशम परिणामे वहेता चारित्रने, मोडे मिथ्यामोहमणिधरमान जो. स्त्रपर समयने जाणे श्वासोश्वासाधी, जिन आज्ञाने छडे नहिं लवलेश जो
आगमनी साखे जाणे सौ भावने, विषय विकारो प्रत्ये धरता क्लेश जो. दीन कृपणता दूर करे धरी नूरने प्रकटावी निज शक्ति शर्म अनूप जो आत्मस्वरूपे लीन रहे क्षण क्षण विषे, शुद्ध समाचारी धरता अवधूत जो.
नमन०. २
नमन० ३
नमन०४
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नमन० ५
नमन० ६
नमन०
७
उपसर्गों सहवामा सिंह समा बळी, समभाव रहे समुद्रसम गंभीर जो; शुद्ध बाम. धरता जे अलख अभेदन, प चक्रोने भेदे योगि वीर जो. द्रव्य भावथी परवस्तुने त्यागता, निर्विकल्पने वैरागे तल्लीन जो अचळ अडोल अफंद अविकारी सदा, गुरुपरंपर आगममाहि प्रवीण जो. प्रण शल्यने तृणवत् जाणी त्यागता, गारव रस रिदिने शाता साथ जो; धर्म करण कारणने सहेजे संग्रहे, राग द्वेषनो त्याग दयाना नाथ जो. निंदा विकथा चारे त्यागे नित्य जे, कषायने तो कहाडे घरनी बहारजो वचन जेहनां पडे हृदयमा सोसरां, तत्वज्ञान ने धर्मकथानी वखार जो. चरण नावमा बेठा मुनिवर साधता, मुक्तिपुरीनो मार्ग वीकट मुखमेवजो। चार भावना मित्रादिक जे भावता, जग जंतुथी वैर शमावे देव जो. पंचमहाव्रत विशुद्धताथी पालता, गुप्ति समिति अजुआळि स्वयमेव जो; अतिचारने दूर करी ज्ञानी गुरु, पंचाचारे घरे ज्ञानामृतमेव जो. छकायना जीवोनी रक्षा बहु करे,
नमन०
८
नमन
९
नमन० १०
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२७० शत्रु मित्र सम गणता गुरु गुणवान् जो; षद् आवश्यक नित्य करे लही अर्थने, क्रिया न करता फोनोग्राफ समान जो. नमन० ११ पर परिणतिने त्यागे शुद्धातम थकी, आठ मदोने त्यागे दुःख देनार जो; छत्रीश गुण धारक म्हारा श्री सद्गुरु, सरळ अने मृदुभाव हृदय धरनार जो. नमन १२ अडदश सहस शिलांग रथे विराजता, नवविध पाळी ब्रह्मचर्य मतिमान जो दशविध यतिना धर्मे जे छे उजळा, अनुभव रसना रसीया प्रभु गुणखाण जो. नमन. १३ योगाष्टक साधे जे प्रेम थकी सदा, आत्मज्ञाननी अलख खुमारी मस्त जो; दुनियांने दिवानी गणता सद्गुरु, ज्ञानामृत पीतां ने पाता तृप्त जो.. नमन० १४ समुद्र ज्ञान विशाळ हमेशां डोलता. दीन रजनी पण ज्ञान ज्ञान ने ज्ञान जो ज्ञान गोष्ठी वीण ग तु जरा न जेहने, ज्ञानोदधि रस पीवा लाग्युं तान जो. नमन०१५ सार साधु गुण धरे धरावे शिष्यने, मिथ्या जोरे कुगुरुमां न फसाय जो; तप जप क्रिया करतां भव बंधा मटे, सिद्धि समकित विना न कदीये पमाय जो. नमन० १६ अंतर्मुहुर्त समकित जो पामे भवि,
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२७१ तस भव गणती निश्चयी समजाय जो; बुद्ध्यब्धिअंकित मद्गुरु महाराजना, वे कर जोडि मगी वंदे शुभ पाय जो
नमन० २७
सांवत्सरिक क्षमापना.
राग धीराना पदनो. जीवोने हुँ खमाबुरे, वैरझेर दूरे करी; मित्रो सर्वे म्हारारे, खपावं सहु मेम धरी. लक्ष चोराशी, जीवनीयोनि, उपन्यो वार अनंत. मन वाणी कायाथी दुहव्या जीयो मोहे अत्यंत; पश्चाताप तेनोरे, करु हके ज्ञान धरी. जीवोने १ मनुष्यजन्म धारी आ भवमां, बांध्यां में जे वेर. स्मरण करी हुँ दुर करूं टुं समताए लीला हेर; वैरीनां वैर नासोरे, उपशम भावे मुक्ति खरी. जीवोने. २ क्रोधमान मायाने लोभे, जीव संताप्या बहु. अज्ञाने माटु जे जे कीg, खमा छु ते महुः नमी नमी खमारे, सकलसंघ भक्ति धरी. जीवोने. ३ पापी मिथ्यात्वी जीवो तेम मित्रो भक्तो सर्व. खेद अभीति जे उपजावी, खमाबु छु तजी गर्व पर्युषणाना पर्वेरे, परभाव परिहरी. . जीवोने. ४ क्रोध कपट कामादिक दोष, संताप्यो निज जीव. पोते पोताने हुँ खमा, निश्चयथी जीव शिव अन्तरना देशे उतरेरे, क्षमापना शुद्ध ठरी. जीवोने. ५
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२७२ सिद्धसमा सर्वेछे जीवो, सताए गुणवंत, कोइ न शत्रु तेमा म्हारो, निश्चय विश्ववसंत; शिष्योने हुं खमारे, गुरुओने प्रेमभरी. करुणा सर्व जीवोपर रहेशो द्रव्यभावधी नित्य. परगुण परमाणु पर्वतसम, भासो प्रमोदे चित्त; माध्यस्थभावे रहीनेरे, खमुखमा करगरी. अहंभावनो खेद टळो सहु, नासो माया दूर. द्रव्यभावथी जीव खमानुं, ज्ञानानंद भरपूर; द्रव्यभावपरे, मलीनता दूर हरी.
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वाणी.
बाणी वाणीरे म्हारा गुरुनी वाणी, योगिए पकडी घर आणीरे,
वाणी उपर जे जन बेठा, मुक्ति पुरीमां ते पेठारे, वाणी घाणी मांहि पीलाशे, खोळ तेनो ढोर खाशेरे.
वाणी वेश्याना संदेशा, समजे नहि तो अंदेशारे. मार्ग अनेकने नगर छे एक, बुद्धिसागरनी छे टेकरे.
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जीवोने. ६
त्रण भुवननो नाथ अहो हुँ, सत्ताए कद्देवाड, आप स्वरुपे ध्याने रहुं तो व्यक्तिपणे शुद्ध थाउ; बुद्धिसागर ज्ञानेरे, जागंतां शिवशांतिवरी.
+
जीवोने. ७
जीवोने. ८
जीवोने. ९
म्हारा. १
म्हारा. २
म्हारा. ३
महारा. ४
म्हारा. ५
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२७३
अवळी वाणी. भला जग सांभळो संतोरे, के नाव पर दरियो चाल्यो जाय, बुडिया बावा जति सन्यासी, खाखी जोगी फकीर. जळमय दुनिया देखी ज्यारे, रही नहि कोइनी धीर. भला. १ एक कीडीए दरियो पीधो, तो पण तरसी थाय. बार मेघनां पाणी पीओ, नदीमा डुबी जाय. भला. २ एक सरिता नीची व्हेती, ऊंची चाली जाय? ए सरितामा स्नान करे ते, हतो न हतो थाय. भला. ३ पूजारीने तीरथ पूजे, रची माछले जाळ, पकडाणा धीवर ते जाळे, जोया जेवो ताल. भला. ४ एक तमासो एवो देख्यो, ज्यां सहु एकाकार हिंदु मुसल्ला पारसी सहु, खाय पीवे एकलार. भला. ५ एक त्राजवं अद्भूत देख्यु, त्रण भुवन तोलाय. बुद्धिसागर अवळी वाणी, कोइकने समजाय. भला. ६
अन्यमंगलम्.
श्री संखेश्वर पार्थ प्रभु जयकारी, पग पग जगजयकारीरे. श्री चिंतामणि तुजमंत्र सवायो, धारणा ध्यानथीज ध्यायो, भक्ति प्रतापे दशन पायो, अनुभव आनन्द पायोरे. श्री. १
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२७४ धरणेन्द्रपद्मावती देवी, साह्य करे जयकारी. पार्श्वयक्ष बहु साह्य करेछे, मंत्रचितामणि धारीरे.
श्री २
इष्टदेव वामादेवीना नन्दन, शरणुं छे एक तमारु नाममंत्र तुज जगमहि मोटो, काम करे छे सहु धार्युरे. श्री ३ दर्शन देने आनन्द आप्यो, विघ्न हय बहुभारी; साकारने निराकार तुंहि प्रभु, जिनशासन सुखकारीरे. श्री. ४ पुरिसादाणी परमकृपालु, ध्यान धरु उरधारी; बुद्धिसागर शासन देवो, पग पग मंगलकारीरे.
श्री. ५
सं. १९६५ विजयादशमी. अमदावाद. ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
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श्री भजनपद संग्रह चौथा भागर्नु अशुद्धि शुद्धि पत्रक.
पत्र. लीटी. १ १० ९ १४ ९ २८
शुद्धि. सत् रूद्धि बुद्धि सनाथ औदयिक व्यवहार शुद्ध
2002
अशुद्धि. तस रूद्धि बुष्ट्रि सनाव औदपिक व्यवहार शुद्ध बुद्धि दुख खयं वडी सुपुम्णा स्थिरोपयोगो शोधतां
२६ १७ २६ १८ २८ ४
बुद्धि दुःख स्वयं .घडी
४२ १४ ४७ २० ४७ २०
सुषुम्णा स्थिरोपयोगे शोधतां चिदानन्द
चिदान्द
शुद्ध सद
६९ ७२
कयां
सद कया । मीतथी खाइ वीर्यात्साहे
८२ १६ ८४ ८
मतिथी
खोइ वीर्योत्साहे
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पत्र, लीटी.
१०० ६
१०९
१११
११२ ६
१२० १५
१९३ ११
१२३ १४
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अशुद्धि
१२३ २१
१३५ ५.
नाश
१४९ ९ प्रभुना
२१३ २१
२२०
अहां
धसोछे
रले
मूड
पडी
मनमा
झल्या
अरे
१५२ २१ आत्मा
१५३ १९
करतो
१५३ २३
संवरु
१५४ १७
आत्मा
१५८ २१
वरतु
१६९ ४
१७१ ११
१७२
१७५ १०
१७६ ४
गी
२७६
आराघन
शलि
वक्र
विषय
२०३ १३
निण
२०७ ६ ठि
asi
सतजा
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शुद्धि
अहो
धसोछो
रेले
मूढ
पडे
मनमां
झूल्या
अरेते
नाश
भुने
आतमा
करुतो
संचरु
आतमा
वस्तु
गीत
आराधन
शील
चक्र
विषय
निगुण
दिठ
तिहां सतेज.
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पत्र लीटी २२४ ६ २२४ १५ २४८ २० २४९ २० २५१ २ २५५ ११ २५५ २१
२७७ अशुद्धि बिलास कला २९ शुभगुरु ४६ उत्व आगमममाहि ४९ दान वीर
शुद्धि विलास कलशदंड २९ वचनमाने ४६ उत्सव आगममाहि ४९ दानु
खीर
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