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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२ 9 व्यापे ज्ञाने विष्णु ते, सापेक्षे सुखदाय. रागद्वेष मणाशयी, महादेव जयकार अनंत केवलज्ञानथी, ब्रह्मा जग मनोहार. क्षायिक भावे खेचतो, अनंत गुण तेहेत; कृष्णरूप पण आतमा, अभिधेय संकेत. कर्म हण्याथी जीवते, शिवरूप सोहाय; आतम ते परमात्मा, व्यक्ति अनंत ग्रहाय. नाम रूपथी भिन्नछे, निश्चयथी निर्धारः अहं ममत्व विनाशथी, सिद्ध बुद्ध जयकार. अन्तरदृष्टि देखतां प्रगटे वीर्य अनंत; क्षायिक शुद्ध स्वभावमा, सुख विलसे भगवंत. अनेकान्तनयदृष्टिथी, सम्यक् जीव जणाय; जिनदर्शनमां आत्मना, भेदो सर्व समाय. सप्तनयोना ज्ञानथी, सापेक्षा समजाय; सापेक्षाए सर्व धर्म, जिनदर्शनमां माय. अनेकान्तनयमां अहो, भेद न किंचित्मात्र; अनेकान्तनय आत्मज्ञान, समजे सज्जन पात्र. नित्य अनित्य विभेदयी, वेद बौद्धनो वादः जिन दर्शनमां वे मळे, अनेकान्तनयवाद. कर्तृत्वेतरवाद पण, अनेकान्तनय मान्य; सर्वधर्म ग्राहक अहो, जिनदर्शन प्राधान्य. मतना खेद टळे सहु, जो समजे नयवाद; सापेक्षा सर्व धर्म, माने नय स्याद्वाद. स्याद्वादनयदृष्टिथी, समता प्रगटे वेश; समकित चरित्र योगयी, आनन्द होय हमेश. For Private And Personal Use Only ८५ ८६ ८७ ea ८९ ९२ ९३ ९४ ९५ ९६ ९७
SR No.008539
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages308
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size12 MB
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