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शास्त्राज्ञा निरपेक्षने, शुद्ध नाह हितकार; जेम भौतहण नारने, नहि पदस्पर्श विचार. वचन अहो वीतरागना, वर्ते छे जयकार; कयु प्रयोजन ज्ञानिने, वदे जूठ दुःखकार. रागद्वेषाभावथी, भाख केवली सत्य; सत्य वचन श्रद्धा थतां, प्रगटे उत्तम कृत्य. जिनवाणी आगळ करे, को अग्र जिनराज; श्री जिनवर आगळ करे, सर्व सिद्धि साम्राज्य १५ चर्म चक्षुधारी सहु, अवधि चक्षु छे देव; सर्व चक्षु सिद्धो कह्या, शास्त्र चक्षु मुनि सेव. १६ कप छेदने तापथी, यथा स्वर्ण परखायः सूत्र तथा परखाय छे, पंडित समजो न्याय. विधि अने प्रतिषेधनी, कष शुद्धि कहेवाय; अधिकार ज्यां वर्णव्या, शास्त्र सदा सुखदाय ध्यानाध्ययन विधि वज, हिंसादिकना त्याग; निषेध मार्गों जाणीए, प्रगंटे सद्गुण राग. अर्थ काम विमिश्रने, क्लृप्त कथा भरपूर; आनुषंगिक मोक्षमा, कष शुद्धि दुःख दूर. विधि मार्ग निषेधनी, क्रिया क्षेमकर योग वर्णन यत्र ते शास्त्र छे, छेद शुद्धिमत् भोग. सर्वनय सापेक्षथी, पामे जन परमार्थः ताप शुद्धि ते जाणीए, लगे न दोषनो सार्थ. नयसापेक्ष विचारणा, करतां दोष विलाय; सम्यग्दृष्टि जीवने, परमबोध घट थाय. ...
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