SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ आत्मतत्त्व उद्देशीने, करे क्रियाओ सर्व पण हुं तुं नहि बाह्यमां, टाळे सघळा गर्व. हुँ तुं वृत्ति बाह्यमां, वर्ते तो अज्ञान; आत्मतत्त्वना ज्ञानथी, नासे मिथ्या भान. चक्षु थकी देखाय जे, पौद्गलिक पर्याय जडता तेमा व्यापी छे, समजुने समजाय. जड वस्तु चेतन नहि, जडथी चेतन भिन्न आत्मरुपने ध्यावतां, शुद्ध समाधि लीन. जडमां सुख न होय छे, सुख नहि जडनो धर्म; जडना मोहे प्राणिया, बांधे निशदिन कर्म. क्षणिक जड वस्तु अहो, ते पर शानो राग ज्ञानदृष्टिथी देखता, प्रगटे छे वैराग्य भेदज्ञान प्रगटया थकी, प्रगटे अन्तरदृष्टि; गुणपर्याय विचारणा, प्रगटे निजगुण सृष्टि. अन्तरदृष्टि धारणा, अन्तरदृष्टि ध्यान; अन्तरदृष्टि समाधिमां, प्रगटे छे भगवान्. अन्तरदृष्टि योगथी, प्रगटे वीर्य अनंत; चिदानन्दनी पूर्णता, परमब्रह्म भगवंत. शोधकदृष्टि जो जगे; तो तुं अन्तरशोध; स्थिरोपयोगो शोधता, प्रगटे साचो बोध. हुं तुंनो अध्याम जे, जडमां ते सहु फोक; जड धर्मो नहि आत्मना, भूले दुनिया फोकदेहादिकनां कृत्यने, माने आत्मिक कृत्य; आत्म धर्म नहि जाणतो, शुं पामे ते सत्य. For Private And Personal Use Only
SR No.008539
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages308
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy