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છૂટ
घामधूम पुद्गलतणी, तेमां माने धर्मः बाह्यदृष्टिजन भूलता, बांधे उलटा कर्म. कर्मयोगथी भोगवे, पुद्गलना पर्यायः अन्तरथी न्यारो रहे, ज्ञानी नहि लेपाय. ज्ञानी अने अज्ञानिनां, बाहिर कृत्य समान; भोजन आदि जाणीए, अन्तरथी असमान. खावे पीवे ज्ञानी पण, रहे अन्तरथी भिन्न; पण अज्ञानी मोहथी, बाह्य भाव लयलीन. दयाक्षमा आचारथी, ज्ञानीजन व्यवहार; जगमां साचो जाणीए, परोपकृति करनार. विवेकदृष्टि रत्नवण, अन्तर बाह्याचार; अज्ञानिना फोकं छे, सापेक्षाएं धार.
अहंभाव जडमां जगे, अन्तरमां अंधेर; अहंभाव जडनो टळे, चिदानंदनी ल्हेर. पुद्गलना पर्यायने, चुंध्याथी भुं सुख; सुखबुद्धि भ्रांति थकी, अन्ते दुःखनुं दुःख. करो उपायो कोटिपण, जडमां सुखन लेश; अहंभाव जडमां थतां, मोहादिकनो क्लेश. अहंभाव जडमां जगे, राग दोषतुं जोर; अहंभावां मग्नता, त्यां अंधारुं घोर. जे जे अंशे नासतो, अहंभाव त्यां धर्म; समजु सत्य विचारीने, टाळे सघळां कर्म. जड वस्तुमांहि वस्यो, जड वस्तुनो भोग; अन्तरथी न्यारो रहे, घरी शुद्ध उपयोग.
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