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रागदोष परिणाम वण, कर्मनो होय न बंध विवेक दृष्टि देखता, लागे पुद्गल धंध. अन्तरदृष्टि योगथी, रागद्वेष नहि होय; हुँ छ शुद्ध स्वभावमां, नडे न कोने कोय. शुद्धरुपमा हुं सदा, परमां नहि तलभार; अहंभाव जडमां ग्रही, भूल्यो हुं संसार. पण पुद्गल ते हुँ नहि, जाण्यु निश्चय सर्व कर्ता भोक्ता भावनो, टळ्यो अनादि गर्व. ९ कर्ता भोक्ता खरो, शुद्ध गुणपर्याय: परमां म्हारु कंइ नहि, निश्चय ए मुखदाय. अन्तरदृष्टि योगथी, चिदानंदनी मोज, भोगवता ते जन अहो, जेणे कीधी खोज. खंडन मंडन शुं करूं, चिद्घन नहि खंडाय; बाकी जे खंडाय ते, पुद्गलना पर्याय. भात्मधर्म जिन धर्म छे, बाकी जडना धर्म, आत्मघम समज्या विना, होय न शाश्वत शर्म.. ५५ आत्मधर्ममा जिनपणुं, बाकी जड जंजाळ; जडमां धर्म नहि कदा, करशे ज्ञानी ख्याल. ५६ जर लक्ष्मीनी लालचे, मूर्खजनो ललचाय; मायाना कीडा बनी, चतुर्गति भटकाय. चिदानन्द चेतन प्रभु, निर्भय नित्य महान् परमज्योति मुखमय सदा, इष्टदेव भगवान्. ५८ सत्ताए अरिहंत तुं, वसियो पिंडमझार; सिद्धसूरि वाचक मुनि, परमेष्ठि निर्धार. अतीन्द्रिय अक्षर तुं हि, निरक्षर गुणवान्,
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