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अथ श्री
योगनिष्ठ मुनिवर्य बुद्धिसागरमहाराज कृत स्तवनपद (भजन) संग्रह. चतुर्थ भाग आरभ्यते.
ऋषभदेव स्तवनम्.
प्रथम जिनेश्वर प्रणमीए-ए राग.
ऋषभ जिनेश्वर वंदना, होशो वारंवार;
पुरुषोत्तम भगवान निराकार संत छो, गुणपर्याय आधार. ए टेक. उत्पत्ति व्यय धौव्यता, एक समयमां हि जोय; पर्यायार्थिकनयथी व्यय उत्पत्ति छे, द्रव्यथकी ध्रुव होय. ऋ. १ त्स करतां सामर्थ्यना, होय पर्याय अनन्त;
अगुरु लघुनी शक्ति ते तेहमां जाणीए, अनन्त शक्ति सतत. ऋ २ परमभाव ग्राहक प्रभु, तेम सामान्य विशेषः
ज्ञेय अनन्तनुं तोल करे प्रभु ताहरो, क्षायिक एक प्रदेश. ऋ. ३ स्थिरता क्षायिक भावथी, मुखथी कही नहि जाय;
अनन्त गुण निज कार्य करे लही शक्तिने, उत्पत्ति व्यय पाय. क्र. ४ गुण अनन्तनी धौव्यता, द्रव्यपणे छे अनादिः
गुणनी शुद्धि अपेक्षी पर्याये करी, भंगनी स्थिति छे सादि. ऋ. ५ सादि अनंति मुक्तिमां सुख विलसो छो अनंत;
सुख ज्ञेयादिक ज्ञानमां ज्ञाता जगगुरु, ज्ञान अनंत वर्हत. ऋ. ६ रागद्वेष युगल हणी, थइया जग महादेव;
बुद्धिसागर अवसर पामी भक्तिथी, पामे अमृतमेव.
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ऋ.