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१५८ आ जगत्माहि जन्मी जेणे जीवन एळे गाळीयु, जननी भारे मारी फोगट दुःख न लेशन टाळीयु. जनक जननी मित्र बंधु बेन शत्रु समा गणो. उच्च जीवन नित्य करवा शास्त्र साचां जन भणो; धर्मना रीवाज जूना मर्म तेनुं ज जाणवू, गहन ग्रन्थो पूर्व मुनिना, ज्ञान पामो अभिनवु. माध्यस्थदृष्टि धारी भव्यो दोष सपला वारीए, पुनर्जन्मना हेतु समजी सत्य श्रद्धा धारीए; धर्म साचो कदी न काचो धर्ममां राची रहो, बुद्धिसागर धर्म करतां चिदानंद पदने लहो.
शुद्धस्वरूपप्राप्तव्य छे.
. हरिगीत छंद चाल. आत्मशक्तिप्राप्त करवा धर्म उद्यम आदरु, आत्मना सामर्थ्यथी आनंदनी लीला करु; आतमा परमातमारुप थाय ते निश्चय धरु, दुःख आवे धैर्य धरवू सत्य शाश्वत सुखवरु, शुद्ध रूपी आतमा हुं ब्रह्मा राची रहुं, शुभाशुभ संयोगमा नहि हर्ष के शोकज लहुँ निंदवा के वंदवाथी जतुं न मुज काई आवतुं, ज्ञान दर्शन धर्म मारो अन्यमा नहि फावतुं. दृश्य वस्तु तेन हुँ छ दृश्यथी न्यारो रहुँ,
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