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जिणसासण भिंतरि, श्री वीतराग तणीय आण मानइ सिर उपरि
॥ ९६ ॥
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समकित थूल मूलवार वरत, पालइ नरनारि निवसइ हियडइ
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वीतरागुए पूजि सुरसारु कामदेव जिम चलइ नही वीतरागह धर्म
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वीरनाहू जिनवरु दिवइ तमुनी ऊपम्म ॥ ९७ ॥
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सदाचार सुविचारु कुसलु अनइ निरुहंकार, शीलवंत निकलंक अनइ दीनगण आधार, जिनह वचनि तिम सातधातु जीह श्रावक भेदी, जाणे तीह गर्भवास वेलि मूलहुंतीच्छेदी ॥ ९८ ॥
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जाणइ ऊचितुं सहू काय साचउ, विचारुउ धातुधिमनमाहि बसइ इकु निश्वर सारु, उत्सर्ग अनइ अपवाद एहइ जाण सविसे भाणियई श्रावकतणी भावीमय मूली साजीहए हुविविक्ता ॥ ९९ ॥ जे पुण श्रावकतणा भविय कहीयइ जिण सासणि ते गुण जिणभणइ श्रीवियह जाणेवा नियमा ॥ १०० ॥
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त्रिधा सुठि वीतराग वरुइ मनसी भितरि जीह सुलहउ सि अपुरतणव वासुतो श्रावक तीहपेढइ जिणत्रयण सुणइ संवेगि
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संपूरिय सीलसनाहि पहिरिइ क्रमऊ परि सूरी ॥ १ ॥
ft and क्षेत्र वालु सवि दीस जे तुम्हि भविय अच्छइकाइ धर्मतणी जगीस जिम भरथेसरिवावी रिसहेसरनं-
५५ मध्य . ५६ हृदये. ५७ वीतराग. ५८ वीरनाथ. ५९ सदाचार. ६० सुविचार ६१ कुशल ६२ निरहंकार. ६३ जाणे. ६४ उचित ६५ कार्य ६६ साचो. ६७ सविशेष. ६८ श्राविका.. -६९ शुद्धि. ७० शीलसनाह. ७१ पहेरे, ७२ भरतेश्वरे,
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