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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ बहिरात्मभावना त्यागीने, शुद्ध स्वरूप निहाळ; परपुद्गलसंयोग सहु, जाणो माया जाळ. आतम ते परमातमा, व्यापी रह्यो शरीर; आपोआप विचारतां, चेते चेतन धीर. रूपानो भ्रम सीपमां, देहे चेतन भ्रमः मोहें मुंझी आतमा, बांधे छे सहु कर्म. बाजीगर बाजी रचे, जूठी रचना जेम; म्हारु हारु जूट छे, चेतन मुझे केम. चतुर्गतिना चोकमां वेचायो बहु वार; त्हारू मान शुं त्यां रतुं, चेतन चिस विचार. एकेन्द्र तुं भम्यो, वनस्पति निर्धार; शुन आदुमां उपन्यो, भूली भान विचार. शंख कोडा जन्म लेइ, पाम्यो दुःख अपार; जु मांकण अवतारमा, भान नहि मन धार. वृश्चिक भ्रमरा तीड थइ, भटक्यो वारंवार; आत्मतत्त्वश्रद्धा विना, थइ न शान्ति लगार. जलचर खेचर भूचरे, भमियो वार अनेक दुःख अनंतां त्यां सां, जाग जाग घरी टेक. परमाधामी वश पडयो, ज्यां नहि सुख लगार; छेदन भेदन ताडना, क्षेत्र वेदना धार. हाय हाय त्यां तें करी, रोतो खमे महार; अधुना शुं तुं भूलियो, जैनधर्म निर्धार. नरकर्माहिथी नीकळं, करु कर्मनो अन्त; धर्म भावना क्यां गइ, चेत चेत गुणवन्त. For Private And Personal Use Only १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७
SR No.008539
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages308
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size12 MB
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