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३४ बहिरात्मभावना त्यागीने, शुद्ध स्वरूप निहाळ; परपुद्गलसंयोग सहु, जाणो माया जाळ. आतम ते परमातमा, व्यापी रह्यो शरीर; आपोआप विचारतां, चेते चेतन धीर. रूपानो भ्रम सीपमां, देहे चेतन भ्रमः मोहें मुंझी आतमा, बांधे छे सहु कर्म. बाजीगर बाजी रचे, जूठी रचना जेम; म्हारु हारु जूट छे, चेतन मुझे केम. चतुर्गतिना चोकमां वेचायो बहु वार; त्हारू मान शुं त्यां रतुं, चेतन चिस विचार. एकेन्द्र तुं भम्यो, वनस्पति निर्धार;
शुन आदुमां उपन्यो, भूली भान विचार. शंख कोडा जन्म लेइ, पाम्यो दुःख अपार; जु मांकण अवतारमा, भान नहि मन धार. वृश्चिक भ्रमरा तीड थइ, भटक्यो वारंवार; आत्मतत्त्वश्रद्धा विना, थइ न शान्ति लगार. जलचर खेचर भूचरे, भमियो वार अनेक दुःख अनंतां त्यां सां, जाग जाग घरी टेक. परमाधामी वश पडयो, ज्यां नहि सुख लगार; छेदन भेदन ताडना, क्षेत्र वेदना धार.
हाय हाय त्यां तें करी, रोतो खमे महार; अधुना शुं तुं भूलियो, जैनधर्म निर्धार. नरकर्माहिथी नीकळं, करु कर्मनो अन्त; धर्म भावना क्यां गइ, चेत चेत गुणवन्त.
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