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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५ जैनधर्मयी संपजे, सकल शर्म निर्धार वारंवार नहि मळे, सामग्री सुखकार. जन्म्यो त्यारे लेश न, साथै लाग्यो जाण; कुटुंब लक्ष्मी कामिनी, दुःख उपाधि खाण. रत्नद्वीपमा जाइने, रत्न न लेवे जेह; मूढ तुल्य शुं तुं थयो, चेत चेत सुखगेह. चार दीवसंनी छांयडी, बाह्य रुद्धिनी होय; पामी तेनो मद करे, भूल्यो मूढ ते जोय. संगत तुजने जेहवी, तेवो तुं थइ जाय; मृत्यु शिरपर गाजतुं, आयु नष्टज थाय. लाखवातनी वात एक, संक्षेपे सुण भव्य; जैनधर्म आराधना, जगमां ए कर्तव्य. आत्मभावमां रमणता, सत्य शर्म दातार; पुद्गल ममता परिहरी, चेतो चित्त मझार. शुद्धचेतना योगथी, होशे मुख अनन्त; शुद्धचरणना योगथी, भारखे छे भगवन्त. श्वासोश्वासो जाय छे, अनंत मूल्य समान; बुद्धिसागर ध्यानथी, प्रगट थशे भगवान्. पुद्गल छत्रीशी कही, चेतनने हितकार; गाम पादरा शोभता, शान्तिनाथ जयकार asia मोहनलालना, हेते कीधी सार; आत्मभावमा जे रमे, ते पामे भवपार. ओगणित अठ्ठावननी, फाल्गुन कृष्ण रसाल. तृतिया तीथी वांचतां, थाशे मंगलमाल. For Private And Personal Use Only ૨૮ २९ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९
SR No.008539
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages308
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size12 MB
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