SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३ धर्म नाम सामान्यमां, मूर्खजनो भरमाय; आपआपनी ताणमां, राग द्वेष नहि जाय. नदी प्रवाहे काष्ट जेम, सरितामांहि तणाय; मनप्रवाह मोहथी, भव्यजनो भटकाय. अनेकमत जगमां अहो, भिन्न भिन्न कहे तत्त्व; सत्यतत्त्व सापेक्ष वण, समजे नहि जग सच्च फेर फुंदडी खावतां, स्थावर फरतुं जणाय; मिथ्याज्ञाने जीवने, ए उखाणो न्याय. दुःषम पंचम काळमां, यथामति अनुसार; एकांते उपदेश दे, मतिया जन निर्धार. षट् दर्शनना चक्रमां, युक्ति वृन्द विस्तार; काल अनादि अनंतथी, सामान्ये ते धार. भेद तेहना बहु कह्या, पुण्यवंत लहे पार; शुद्ध धर्मने आदरी, तरशे आ संसार. यावत् चेतन धर्मनो मर्म न समजे लोक; तावत् कष्ट क्रिया सहु, थाशे जाणो फोक. रत्नत्रविना स्वामी जे, तीर्थकर भगवंत; समवसरणमां बेसीने, दिये देशना संत. देव मनुष्य तिर्यचने, उपदेशे जिन धर्मः जिनवर वाणी सुणतां, भागे मिथ्या भर्म. कर्मरूप पुद्गलतणो, काल अनादि योग; चतुर्गतिमां भटकतां, सुख दुःख घरे वियोग . पुद्गल संगे राचियो, नाच्यो माच्यो छेक निगोद दुःख शुं विसर्यु, भूल्यो सत्य विवेक. For Private And Personal Use Only १० ११ १२ १३ १४ १५
SR No.008539
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages308
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy