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३३ धर्म नाम सामान्यमां, मूर्खजनो भरमाय; आपआपनी ताणमां, राग द्वेष नहि जाय. नदी प्रवाहे काष्ट जेम, सरितामांहि तणाय; मनप्रवाह मोहथी, भव्यजनो भटकाय. अनेकमत जगमां अहो, भिन्न भिन्न कहे तत्त्व; सत्यतत्त्व सापेक्ष वण, समजे नहि जग सच्च फेर फुंदडी खावतां, स्थावर फरतुं जणाय; मिथ्याज्ञाने जीवने, ए उखाणो न्याय. दुःषम पंचम काळमां, यथामति अनुसार; एकांते उपदेश दे, मतिया जन निर्धार. षट् दर्शनना चक्रमां, युक्ति वृन्द विस्तार; काल अनादि अनंतथी, सामान्ये ते धार. भेद तेहना बहु कह्या, पुण्यवंत लहे पार; शुद्ध धर्मने आदरी, तरशे आ संसार. यावत् चेतन धर्मनो मर्म न समजे लोक; तावत् कष्ट क्रिया सहु, थाशे जाणो फोक. रत्नत्रविना स्वामी जे, तीर्थकर भगवंत; समवसरणमां बेसीने, दिये देशना संत. देव मनुष्य तिर्यचने, उपदेशे जिन धर्मः जिनवर वाणी सुणतां, भागे मिथ्या भर्म. कर्मरूप पुद्गलतणो, काल अनादि योग; चतुर्गतिमां भटकतां, सुख दुःख घरे वियोग . पुद्गल संगे राचियो, नाच्यो माच्यो छेक निगोद दुःख शुं विसर्यु, भूल्यो सत्य विवेक.
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