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जगत्तुं भलं इच्छq.
हरिगीत छंद चाल. आ जगत् सघळु मित्र मान्युं कुंटुंब मारु खरेखरु, करुं न हिंसा कोईनी हुं भावना ए चित्त धरु; क्षण रागीने क्षण द्वेषी एवी वृत्तिने झट परिहरु, माध्यस्थदृष्टि हृदय धारी सर्वनुं सारु करु. आ म्हारु ने आ हारु एवी मोह वृत्ति परिहरी, आत्मभावे धर्म जाणी सत्यता दिलमां धरी; जगत जननुं भप करई सस धर्म बतावीने, जगत जननुं भव्य करवू चित्त करुणा लावीने. सहु आत्म सरखा जगत जीवो कीडीथी कुंजर लगी, कोईने संतापुं नहि ए भव्य रटना दिल लगी; देशी के विदेशीनो नहि भेद मनमा आवतो, सर्व जीवनुं भव्य करवू प्रेम सत्य बतावतो. ज्ञाति जाति भेद नहि मन जीव सघळा उच्च छ, जीवने जे उच्च जाणे कदी नहि ते नीच छे; जगत जनने धर्मी करु हुँ भावना दिल मां वसी, द्वेषवृत्ति दूर नाठी धर्म वृत्ति धसमसी. धर्मनां हुं कृत्य करतो दुःख कोणज आपशे, पापना हु कृत्य करु तो स्वर्गमां कोण थापशे; धर्म करतां सुख थाशे न्याय मारो हुँ करु, पाप करतां दुःख थाशे अन्यने शीद करगरु. आत्मबळ विश्वास लावी धर्म पन्थे संवरु,
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