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२५१ धरज करइ मृगतं भणियउयइ सिद्धितु ॥ ५९ ॥
त्रिहु भुवणहतणउ जाणिय वरए आगमममाहिविचारु, चउदपूरव इग्यार अंग मृगय करइ गोतमु मुतिहारु ॥ ६० ॥
सूत्रहार तहिनिउछणा एवर० जिणि जाणिउ एउ सूत्रात्रि पदी आपीय वीरनाथिइ मृ. आयउं गोतम वुतु ॥ ६१ ॥ __ केवलनाण पुच्छितिगय उवर० गयसवि पूरवधर जे हुंता गुरु प्रशघणउं मृग० गयासुते मुनिवरा ॥ १२ ॥
अल्प प्रज्ञहन विधाहर एवरपजिण वयणुं निरुपमु तीणका रणि श्री संघ मीलीय मृगण्यो घेठवीउ आगमु ॥ ६३ ॥
भक्षाभक्ष सो छुड्डियए वरप अन्नी गनी गस्मा गंमु कृत्या कृत्य परीछिय ए मृग० जाणीय इ धम्माधम्मु ॥ ६४॥
नजीवीलाहु उलिउ एवरय च्छुड्डियइ एहु विचारु श्री सिद्ध तुलिख्य वियए मृग जोउत्रिभुवणहसारु ॥६५॥
श्रीजउक्षेत्रु इ सवावीय वए वरपवित्ति संवेगुधरेउ वेवीउ वि एहविचरत जोइत्तलिखावीयए मृग० श्री सिद्धान्त जएउ ॥६६॥
बाहूदंड पोथाकराउ एवर० पोथीयनीकीयतोइ ज्ञान लग
६४ विचार. ६५ सूत्रधार. ६६ जेणे. ६७ जाण्यु. ६८ उपमेवा, विष्णेवा, धुवेवा. १ उत्पन्न थर्बु, विनाश पामवो, मूळ रुपे स्थिर रहेQ एम वस्तुना त्रण धर्म छे माटे आ रणने त्रिपदी कहे छे. ६९ वीरनाथे. ७० घणीप्रज्ञा. ७१ भक्ष्याभक्ष्य. ७२ धर्माधर्मः ७३ सिद्धान्त लखावीए. ७४ जेतो. ७२ त्रिजु क्षेत्र. ७६ जोइतुं लखावीए. ७७ जिनागम.
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