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धर्मनाथ स्तवनम्.
धर्म जिनेश्वर गाउ रंगश्यु-ए राग. धर्म जिनेश्वर वंदु भावथी, वस्तु धर्म दातार जगत्मांड वस्तु स्वभाव ते धर्म जणावता, षद् द्रव्योमांहि सार. जगत्मां. १ ज्ञेय हेय आदेय जणावता, सकल द्रव्यछेरे ज्ञेय; जगत्मा " उपादेय चेतननो धर्म छे, पुद्गल आदिरे हेय. जगत्मा. २ भावकर्म ते रागने द्वेष छे, काल अनादिथी जाण, जगत्मा. द्रव्यकर्मनुं कारण तेह छ, नोकर्म निमित्त आण, जगत्मां. ३ अशुद्धपरिणति योगे बंध छ, शुद्ध परिणतिथी छे मुक्ति, जगत्मा; अन्तरचेतनसन्मुख योगथी, शुद्ध उपयोगनी युक्ति, जगत्मा ४ कर्ता हर्ता चेतन कर्मनो, बाहिर अन्तर योग, जगत्मा आत्मस्वभावे रमणता आदरे, प्रगटे शिव सुख भोग, जगतमा ५ मुख अनन्तनी लीला ध्यानमां, चेतन अनुभव पाय, जगत्मा ध्रुवयोगतणी स्थिरता होवे, वीर्य अनन्त प्रगटाय, जगत्मा. ६ सविकल्पसमाधि शुभउपयोगमां, ध्याता ध्येयनो भेद, जगत्मा; शुद्धउपयोगे शुद्ध समाधिमां, टळतो विकल्पनो खेद, जगत्मा. ७ अन्तरमा उतरीने पारखो, निर्मल सुखनोरे नाथ, जगत्मा; बुद्धिसागर समता एकता, लीनता योगे सनाथ, जगत्मा
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