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ज्ञान दर्शन चरण लक्षण आत्मानुं छे खरु, अकेन्द्रिथी सिद्ध पर्यंत जीवव्यापी अनुसरु; शुभाशुभ जे कर्म तेनो न्याय कर्मज आपतुं, अपेक्षाए जीव ईश्वर न्याय मनमां लाव तुं. धर्म करतां कोटी भवनुं पाप आतम टाळतो, ध्यान अग्नि योगथी जीव कर्म ईन्धन बाळतो; आत्म शक्ति प्रगटवाथी कर्म मर्म हणाय छे, निज स्वभावे रमण करतां आतमा शिव पाय छे. आत्मभावे रमण करतां उगरकुं छे आपधी, कर्ममांहि रमण करतां उगर शुं बापथी; आत्मना सामर्थ्यथी तो सर्व शक्ति प्रगटती, आत्मना विश्वास योगे मूर्खता दूरे थती. मृत्यु पाछळ साथ आवे कर्म मनमां जाणशो, कर्मने वळी धर्म साथै सत्य मनमां आणशो; दुःखकारक कर्म जाणी धर्मवृत्ति आदरो, धर्म सागी मोहमां अरे केम भूली जन फरो. ज्ञानगुरुनो संग करीने ज्ञान चेतननुं करो, जे शुद्ध आत्मस्वभाव ते तो धर्म साचो अनुसरो; खरे शुद्ध आत्मस्वभावमांहि रमणथी सुख थाय छे, धर्मना व्यवहार भेदो हेतु रूप गणाय छे. सन्त करणी धर्मनी छे भक्ति मुक्ति हेतु छे, दोष अष्टादश रहित जिन ईश ए संकेत छे; आतमाने सिद्ध तेमां भेद कर्मना जाणवो, कर्म जातां आतमा ते सिद्धरूप पिछाणवो.
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