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ब्रह्म नित्य तो अनेक धर्मी कदी न थावे, भिन्न धर्म न रहे एकमां व्यासज गावे नैकस्मिन् ए सूत्रदोष निज मतमा आवे, सापेक्षा ए यदि कहो स्याद्वाद सुहावे, . स्वयं एक अनेक थावे वृथा प्रयासो धर्मना, एक आतम बहुपणुं त्यां हेतु भेदो कर्मना १२ बहुत्व प्रति जो एकपणाने कारण मानो, पाप पुण्यमय ब्रह्म दोष ए महापिछानो; ब्रह्म एकने बहुपणुं तेनुं जो थावे, ब्रह्म कहुं एकांत नित्य ए मिथ्या भावे; ब्रह्म विकारी अनित्यता त्यां कथंचित् मानशोयदा, स्याद्वादने अवलंबवाथी पक्ष रह्यो नहि तुम तदा. १३ इच्छा रहित जो ब्रह्म कहो तो बहु केम थावे, इच्छा विशिष्ठ ब्रह्म कहो तो दोषज आवे; इच्छा हेतु ब्रह्म कहो तो कदी न शान्ति, इच्छाथी यदि ब्रह्म भिन्न तो करो न भ्रांति; ब्रह्मने समज्या विना तो भ्रांतिमां जीव झूलतो, एक एवाह ब्रह्म मानी भ्रांतिथी बहु फूलतो एकोऽहं बहु स्याम् श्रुतिनी इच्छा कोने, इच्छा कहो जो ब्रह्मने त्यारे दोषज जोने; ब्रह्म एकने अनेक रुपा इच्छा शाथी, व्यापक कहो जो ब्रहा तदा वे प्रगटी क्याथी; सर्वत्रथी जो प्रगट थांती हेतु तेनो शुं अहो, ब्रह्ममाहि ब्रह्म हेतु दोष ब्रह्मनो तो कहो. उपादानने निमित्त कारण भिन्न कहावे,
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