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चालि. शान्त वहक वर अशरण शरण महाव्रत धार, पाखंडी अर्थ खंडी दंड विरत अणगार। लूह अभव तीरथी, पूर्ण महोदय काम, अबुद्ध जागरिका जागर शुद्ध अध्यातम धाम ॥ ११२ ॥
दुहा.
जेष्ट सुत जिन तणो उर्ध्व रेता, उन्मती भाव भावक मवेता; अनुभवी तारक ज्ञानवंत, ज्ञान योगी महाशय भदंत ॥ ११३ ।।
चालि. तत्त्वज्ञानी वाचंयम गुप्तेंद्रिय मन गुप्त, मोहजयी रूषि शिक्षित दीक्षित काम अलुप्तः गोप्ता गोपति गोप अगोप्य अकिंचन धीर, सर्व सह समता मय निःपति कर्म शरीर ॥ ११४ ॥
दुहा. श्रमण कृति द्रव्य पंडित पुरोग, अगर अविषाननुष्ठान रोग; अमृत तद्धेतु किरिया विलासी, वचन धर्म क्षमा शुभ अभ्यासी.११५
चालि. शुकल शुकल अभिजात्य अनुत्तर उत्तर शर्म, मग्न अतंत्र अतंद्रिय मुद्रित करण अकर्म; दीर्ण मात संतीर्ण समान ते संख्य प्रधान, प्रति संख्यान विचक्षण प्रत्याख्यान विधान ।। ११६ ॥
दुहा.
नाम इसादि महिमा समुद्र, साधु अकलंकना छे अमुद्रा सर्व लोके जिके ब्रहचारी तेहने प्रणमीए गुण संभारी. ॥११७॥
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