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चालि. ब्रह्मचारीए ब्रह्म कह्यो सघळो आचार, तिहां मनवृत्ति प्रतिज्ञा क्षय उपशम विस्तार; ते विण बंभ अणुत्तर सुरने नवि हुए तंत, मन विरोध पण शुद्ध ते बंभ कहे भगवंत ॥१०७॥
एम दस धर्म पाळे विचित्र, मूळ उत्तरे गुणे मुनि पवित्र; भ्रमर परिं गोचरी करीय पूंजे, शुद्ध सज्झाय अहर्निशं प्रजूंजे॥१०७॥
चालि. क्लेष नासिनी देशना देत गणे न प्रयास, असंदीन जिम द्वीप तथा भविजन आश्वास, तरण तारण करुणापर जंगम तीरथ सार, धन धन साधु मुहंकर गुण महिमा भंडार. ॥ १०८ ॥
सम अनाबाध सुखना गवेषी, धर्ममाहि थिर हृदय हित उल्लेखी; एहवा मुनिनुं उपमान नाहि, दैत्य नर सुर सहित लोकमाहि॥१०९॥
चालि. षट व्रत काय छ रक्षक निग्रहे इंद्रि न लोभ, खंती भाव विसोही पडि लेहण थिर शोभ अशुभ रोध शुभ योग करण तप शुद्धि जगीश; सीतादिक मरणांतिक सहे गुण सत्तावीश. ॥ ११०॥
दुहा. मुनि महानंद अर्थी सन्यासी, भिक्षु निग्रंथ आतम उपासी, मुक्त माहण महात्मा महेशी, दान्त अवधूत निति शुद्ध लेशी. १११
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