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२२८ कोइ नहीं भय मुझ जो प्रभु चित्त वसोरी; जाओ तुम उदधि कुमार, सायर मेलकीसोरी. ॥९॥ जे साहिब सुप्रसन्न कादिई न रोसभजीओरी; ते अहें संख्यो दूत, सायर रित्यजोरी. ॥१०॥ आसपूरण प्रभु पास, हरस्ये विघ्न पतीरि; लहस्यु जगजसवाद, आरतिं नहीं अरतिरी. ॥११॥
दुहा. इणी आकानई धर्मने, तूठा सुर अमुमान कुसुम दृष्टि उपर करे, अंबर धरी विमान. मुखि भाषे धन धन्य तू, तुझ सम जगि नहीं कोई कुणनई एहवी धर्म मति, संकट आ होइ. ॥२॥ हरख नहीं वैभव लहे, संकटि दुख न लगार; रण संग्रामें धीरजे, ते विरला संसार. एम प्रसंसा सुरकरी, टालें सवी उतपात फिरि साज सघलो बन्यो, हुआ भला अवदात. ॥ ४ ॥ मुरवर जससानिध करें, तेहस्यु किसि रिस; इम सायर पणी उपसमी, धरइ वाहण निज सीस ।। ५॥
ढाल फागनी. हरखित व्यवहारि हुआहो, करता कोडिकल्लोल; टली वाहणथी आपदाहो चित्त हुआ अतिरंगरोल. ॥१॥ प्रभु पासजी नामथी दुख टल्यो हो. अहो मेरि ललना; सवि मल्यो मुख संजोग.
प्रभु० अ०॥१॥ किया छांटणा अति घणा हो, केसरकि झकझोल; मानु संकट रयणी गयेतें प्रगट भयो सुख भोर. प्रभु० ॥२॥ भयो हरख वरषा अति संकट गए, घामारंतु हेतु;
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