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चालि. रतनमांहि सारो हीरो नीरोगी नरमाहि, शीतळमाहिं उसीरो, धीरो व्रत धरमाहि; तिम सर्व मंत्रमा भाष्यो श्री नवकार, कह्या न जायेरे एहना, जे छे बहु उपकार ॥१२६ ॥
दुहा. तजे ए सार नवकार मंत्र, जे अवर मंत्र सेवे स्वतंत्र; कर्म प्रतिकूल बहुल सेवे, तेह सुरतरु त्यजी आप टेवे. ॥१२७॥
चालि. एहने बीजेरे वासित होई, उपासित मंत, बीजो पणि फळदायक, नायक छे ए तंत; अमृत उदधि फु सारासारा हरत विकार, विषना ते गुण अमृतनो, पवननो नहींरे लगार. ।। १२८॥
दुहा. जेह निर्षीज ते मंत्र जूठा, फळे नहीं साहमुंहुइ अपुठा; जेह महामंत्र नवकार साधे, तेह दोए लोक अलवे आराधे.॥१२॥
चालि. रतनतणी जिम पेटी भार अल्प बहु मूल, चौद पूरवनुं सार छे मंत्र ए तेहने तूल्ल; सकल समय अभ्यंतर ए पद पंच प्रमाण, महमुअखंध ते जाणो, चूला सहित सुजाण. ॥१३० ॥ .
दुहा. पंच परमेष्ठि गुण गण प्रतीता, जिन चिदानंद मोजे उदीता; श्री यशोविजयवाचक प्रणीता, तेह ए सार परमेष्ठी गीता.
इति श्री पंचपरमेष्ठि गुणवर्णन गीता समाप्ता.
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