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१४७ बाह्य प्रवृत्ति परिहरो, ध्यान धरो निशदीन; सहजानन्द स्वरूपमा, रहिए निशदिन लीन. सार सार सहु ग्रन्थहैं, साध्यतत्त्वनी सिद्धि आत्मवीर्यथी साधतां, ज्ञानादिक गुण रूद्धि, शुद्ध समयने साधतां, जन्म सफलता थाय; बुद्धिसागर धमेथी, चेतन निजपद पाय.
आत्मविवेक.
दुहा.
अनन्त रत्नत्रयी प्रभु सहजानन्द स्वरूप; पुरुषोत्तम करुणानिधि, स्मरतां नासे धूप. एकरूप हुँ आतमा, द्रव्यार्थिक नयवाद। अनेक हुँ पर्यायथी, बोधे टळे प्रमाद. श्रुतज्ञानालंबीपणे, परम प्रभुतुं ध्यान; करतां शिवसुख संपजे, व्यक्तिपणे भगवान्. आत्मज्ञाननी सेवना, आत्म रमणता सार आत्मारामी मुनिवरा, जगमा छे जयकार. बाह्यदशा व्यवहारमा, काइन आवे हाथ, पुद्गलमा निज शोधतां, भूल्यो त्रिभुवननाथ. त्रिगुप्तिगुप्ता जना, ध्यावे आत्मस्वरूप अनन्त आनन्द स्वादीने, थावे छे जगभूप. बाह्य दशामा तुं नहि, निश्चय निर्मलधार. परम महोदय स्वामी तुं, अन्तरमा अवधार.
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