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६९ सापेक्षा समज्याथी प्रगटये सत्य विवेक; आत्मद्रव्य सापेक्षताथी असत् वस्तु कही सहु, आत्मरुपे न थाय बाकी शेष द्रव्यो मन लडु. ब्रह्ममांहि जे भासे ते सहू भिन्नाभिन्न, सद्सत् समजी अनेकांतनय थावो लीनः ब्रह्मरुप नविहोय भासतीज वस्तु सर्व, सापेक्षाए असत् तेहथी वस्तु अगर्व; भूतपष्यत् पर्यवो पण असत् अपेक्षाथी कला, बुद्धिसागर गहनशैली समजतानर सुख लह्या. आत्मस्वरूपे असत् पदार्थों जडता भावे, जडताभावे अजीव भात्रो समज्या जावे; ब्रह्मज्ञानपर्याय हंस वा समजी लेशो, ज्ञाने भासे सर्व भाव पण भिन्नज कहेशो; ज्ञानज्ञेय स्वरूप जाणे सर्व संशय जाय छे, ब्रह्म माया भिन्न समजे तव धर्म पमाय छे. परभावरुप जे जगत् इश तेनो छे कर्ता, परभावरूप जे जगत् इश तेनो छे हर्ता; देह जगत्नो सृष्टा आतम इश्वर जाणो, रागद्वेषप्रयोग कर्मनो कर्त्ता आणोः रागद्वेषविनाशथी जीव देह जगत् हर्ता कह्यो, कर्म हर्ता जीव इश्वर सिद्ध बुद्ध शाश्वत लह्यो. कृत्स्न कर्मनो नाश थयाथी सद्यज मुक्ति, जीव परमेश्वररूप पछी नाहि कर्मनी युक्ति; देहरूप जे जगत् पछी नहि तेनो कर्ता, आत्मिक शुद्ध स्वभाव थकी छे तेनो हर्ता;
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