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द्वैत अने अद्वैत मत पण निरपेक्षाए भिन्न छे, स्याद्वादनी सापेक्षताथी अनेकांत अभिन्न छे. जड चेतन बे तत्त्व विचारे द्वैत कहावे, त्रण कालमा जड चेतन बे भिन्न सुहावे; चेतनथी नहि जगदुत्पत्ति न्याय विचारे, ब्रह्मथकी प्रगटे नहि जडता ज्ञानी धारे; जीव अजीव बे भिन्न तत्व छे धर्म बेना भिन्न छे, भिन्न धर्मी भिन्न रहेवे सत्य ए आकीन छे. काळ अनादि कर्म जीव संयोगे विचारों, अशुद्ध परिणति योगे कर्त्ता कर्मनो धारो, कर्मभेद छे आठ पुद्गल द्रव्य कहावे; कर्म प्रयोगे चेतन चतुर्गतिमां जावे; जन्म जराने मरण हेतु कर्म भेदो धारीए, एक चेतन कर्म वे एम द्वैततातो विचारीए. कर्मयोगथी द्वैतभाव भवमोहि निरखो, कर्मटळे अद्वैत भाव शुद्धतम परखो; प्रथम द्वैत पश्चात् अहो अद्वैतपणुं छे, सापेक्षाए आम ज्ञानिए सत्य भण्युं छे माया असती कही अरे जे अद्वैतपणाने थापता, सम्यक्त्व ज्ञान विना अहो ते सत्यतत्त्व उध्यापता ७ ब्रह्म एकने तेमांथी सहु प्रगटयुं थापे, एकोsहं बहुस्याम् श्रुति आधारज आपे जनुं उपादान कहो केम ब्रह्म ज थावे, विरुद्ध धर्मनुं उपादान नाही ब्रह्म सुहावे; ब्रह्म विकारी जो कहो तो बहुपणं तेनुं घटे,
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