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१७६ चालि.
कोडि गमे सुर सेवे, पंखि प्रदक्षण दंति ( १५ ) ऋतु अनुकूल कुसुमभर गंधोदक वरसंति; विषय सर्व शब्दादिक नवि होवे प्रतिकूल (१८) तरु पण सवि शिरनामे जिनवरने अनुकूल (१९) ॥१८॥
दुहा. हवे कहुं जे पण तीस वाणी, गुण सकल गुण तणी जेह खाणी; प्रथम गुण जेह संस्कारवंत (१ ) उदात्त गुण अपर (२) सविसुणे
संत, ॥१९॥ चालि. शब्द गंभिरपणुं जिहां (३) वली उपचारोपेत (४) अनुनादिव (५) सरलता (६) उपनीत राग समेत (७) शब्दातिशय ए साते, अर्थाविशय हवे जोय, महार्थता (८) अव्याहता, शिष्टपणुं गुण होय ॥२०॥
र
दूहा.
गुण असंदिग्ध विगत्तोत्तरत्व जनहृदय गामि गुण मधुरवत्त्व, पूर्व अपराध साकांक्ष भाव नित्य प्रस्ताव उचित स्वभाव ॥२१॥
चालि. तत्त्वनिष्ट अप्रकीर्ण प्रसृत निज श्लाघा अन्य निंद रहित, अभिजात मधुर अने स्निग्ध, ते धन्य मर्म न वेधर, उदार त्रिवर्ग विषय प्रतिबध्ध, कारकादिक अविपर्यय विभ्रम रहित मुबद्ध (२६) ॥२२॥
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