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१७५ चर्म चक्षु गोचर नहीं जे आहार नीहार; (४) अतिशय एहज सहजना च्यार धरे जिनराय, हवे कहई इग्यार जे होइ गए घनघाय. ॥ १२ ॥
दुहा. क्षेत्र एक योजनमें उच्छाहिं, देवनर तिरिय बहु कोडि माही; १ योजन गामिणी वाणी भास्ये, नर तिरिय सुर मुणे नित्य उल्ला
सं. २॥१३॥
चालि. योजन शत एकांहि निहां जिनवर विहरंत, इति मारि दुरभिक्ष विरोध विराधि नहुँत; स्वपरमक अतिवृष्टि अवृष्टि भयादिक जेह, ते सवि दूरि पलाये जिम दव वरसत मेह ॥ १४ ॥
तरणि मंडल परे तेज ताजे, पूंठिं भामंडल विपुल राजे (११) सुरकृत अतिशय जे? लहिए, एक उंणा हवे वीस कहीए ॥१५॥
चालि. धर्मचक्र शुचिचामर वत्रय विस्तार, छत्रत्रय सिंहासन दुंदुभि नाद उदार; रत्नत्रय ध्वज उंचो चैत्र द्रुम सोहंत कनक कमल पगला ठवे चउ मुह धर्म कहत ॥ १६ ॥
वायु अनुकूल मुखमल वाये, कंटका उंध मुख सकल थाए; स्वामी जबथी व्रत योग साधे, केश नख रोम तबथी न वाधे.
(१३) ॥१७॥
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