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सुविधिनाथ स्तवन.
नदी यमुनाके तीर-ए गग. मुविधि जिनेश्वर देव दया दीनपर करो, करुणावंत महंत विनति ए दील धरो भवसागरनी पार उतारो कर ग्रही, शक्ति अनन्तना स्वामी कहावोछो मही. तमनो शो छ भार कहो रवि आगळे, कीडीनो शो मार के कुंजरने गळे कर्मतणो शो भार प्रभुजी तुम छते, सिंहतणो शो भार अष्टापद त्यां जते. शुं खद्योतनुं तेज रवि ज्यां झळहळे, तेंम शुं मोहर्नु जोर के उपयोग नीकळे; ससलानुं शुं जोर सिंह आगळ अहो, अनेकांत ज्या ज्योति एकांतनुं शुं कहो परम प्रभु वीतराग राग त्यां शुं करे, देखी इन्द्रनी शक्ति के सुरसहु करगरे; माणजीवन वीतराग हृदयमा मुज वश्या, ते देखी मोह योधके सहु दूरे खस्या. गुण पर्यायाधार स्मरण हारु खरु, ध्यान समाधि योगे अलख निज पद वरु; परम ब्रह्म जगदीश्वर जय जिनराजजी, शरणे आव्यो सेवक राखो लाजजी.
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