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१२१ मित्र सद्गुण धारतो मन उच्च जीवन गाळतो, बुद्धिसागर मित्र सज्जन सर्वनां दुःख टाळतो.
हितवचन.
छप्पय-छंद. करो क्रिया कष्ट ज्ञान वण धर्म न परखो, उपर उपरनी शून्य क्रियाथी लेश न हरखो, अन्तरना उपयोग विना नहि कर्म टळे छे, अन्तरना उपयोग विना नहि मुक्ति मळे छे; माळा मणका फेरवो पण ज्ञान विना नहि मुक्ति छ, आत्मज्ञाने सहज शांति ध्याननी त्यां युक्ति छे, पूजानां पाखंड करो पण सुख न मळशे, टोला टपकां करे अरे कई कर्म न टळशे; मननी स्थिरता थया विना सुखडां नहि पावे, बाह्य वेशने क्रिया कपटथी धर्म न थावे; अन्तरमा यदि धर्म छे तो बाह्य क्लेशे शुं थयु, अन्तरमा यदि धर्म नहि तो बाह्य क्लेशे शुं रडुं. सम्यग् नहि आत्मार्थपणुं तो मौन रहे शुं, सम्यग् यदि आत्मार्थपणुं तो वचन वदे शं; हृदय सरळ नहि यदि तदातो क्रिया करे शुं, हृदय सरळ यदि नित्य सदा तो क्रिया करे | धर्म धार्यो नहि हृदय तो ढोर हरायां सम गणो, जाण्यु तो केम भटकवू अरे तत्त्व विद्या दिल भणो. ३
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