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१५१ शुद्धचित्तमक्काक्षेत्र पामी खुदा प्रभुने पामीए,
ए अलख निर्भय आत्म धारी दोष सघळा वामी ए; छे चौद भुवने वस्तु जे जे शरीरमां ते ते अहो, कदि बाह्य भावे भटकशो नहि आत्मभावे झट रहो. सागर हृदयने स्वात्मविष्णु चेतना लक्ष्मी खरी, योगियोए आत्मध्याने साची विद्या झट वरी;
आत्मज्ञान विना नहि शिव बाह्य दवमां शुं दहो. क्रिया कपटनी मुक्ति नहि दे सार समजी मन वहो. ६ ओ मित्र म्हारा अलखरुपी अलख देशे म्हालजे, जूठ समजी बाह्य दुनिया, सत्य शिवपुर चालने; रंगाईने तुं आत्मभावे शुद्ध स्थिरता लावने, बुद्ध्यन्धिसंगी मित्र मारा आत्मदेशे आवजे.
संसारनी अनित्यता.
हरिगीत छंद चाल.
संसारमां संयोग त्यां वियोग तो व्यापी रह्यो, संसारना संबंधांशुं जीव ललचाई रह्यो; राजा अने वळी रंक सर्वे मृत्यु वाटे चालता, विक्राळ काम कराळ थई कई अन्य गति संभाळता. जेनी हाके धरणी धुजे शत्रु सेना थरहरे, पलकमांही चालीया अरे की कर्मने अनुसरे, अभिमानना बहु तोरमां जे मरडी मूछो मही फरे,
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