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ढाल. वाहण कहे सरण जगि धर्म विण को नही, तुं सरण सिंधु मुझ केणी भाति; शरण आव्या तणी सरम ते नवि रहें, जेह जाया हुई सुजस राति
घा०॥१॥ काल विकराल करवाल उलालतो, फूक के प्रबल व्याल सीरखि; जूठ अति दूठ जन सूख सरडो हतो, यम महिष सांभरई जेह निरखी. वा० ॥२॥ चोर करि सोर मलबारिया घारिया, भारिया क्रोध आव्ये हकार्या; भूत अभूधुत यमदूत यम भयकरा, अंजना पुत नूतन वकायों.
वा० ॥३॥ हाथि हथिआर सिर टोप आरोपिया, अंगि सभाह भुज वीर वलयां झळके तई नूर दलपूर, बिंदु तब मल्यां, वीररस जलधि उधाण बलियां. वा०॥४॥ नीलसितपित अतिस्याम पाटल धजा, पसन भूषण तरुण किरण छाजे मातु पहुं रूप रण लछि हृदय स्थलें, कंघूआ पंच वरणी विराजे.
वा० ॥५॥ भूर रणतूर पूरे गयण गडगडे, भायखें कटकनी सुभट कोडी; मावस्युं नावरण भाव भर मेलवी, केलवी घाउ दीई मुझ मोडी.
वा०॥६॥
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