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९८ विद्या.
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छप्पय छंद.
विद्या सुखनुं मूळ सज्जनो जाणी लेशो, विद्याभ्यासी सज्जन सत्वर साचुं कहेशो; सर्व देशमां सर्व कालमां विद्या सारी, विद्याथी छे सत्य सुधारो जग जयकारी; सर्व सुखनुं मूळ जगत्मां विद्या वृद्धि ज जाणीए, विद्वान् जन छे सर्व पूज्य ज सत्य मनमां आणीए. सर्वोन्नतिनुं मूळ जगत्मां विद्या साची, चक्षु विना जेम काया उम्मर तद्वत् काची; मूढपणुं अळपातुं विद्या तेजे जगमां, विद्यानो शुभराग ज्ञानीने छे रगरगमां; सर्वभाषा जाणवाथी ज बुद्धि विकसे छे खरी, उन्नतिने शोधवामां सत्य विद्या जयकरी. विद्याथी सर्वत्र पूज्यछे नरने नारी, विद्यार्थी नीतिनी वृद्धि छे सुखकारी; आत्मतत्त्वनुं ज्ञान करावे विद्या साची, टळे अविद्या विद्यायोगे रहेशो राची; ज्ञातिधर्म देशोन्नतिमां भव्यविद्या मूळ छे, जन्मी विद्या ग्रही नहि तो सर्व उमर धूळ छे. चढती पडती सर्व पिछाणे विद्यायोगे, तन धन सत्तानी प्राप्ति छे विद्याभोगे। विद्यावण जन पशु समाना आर्यो होवे, विद्या पायें म्लेच्छोदय पण अधुना जोवे;
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