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१०८ जनक जननी नमन करे नहीं ठाठमाठमां रत रहे, धर्म कर्मनी समज नहि अरे धर्म करणी \ लहे. दारुमा बेभान रहे मन आव्यु बोले, नहि प्रभुपर प्रेम खरेखर टक्का तोले; लोक लाजी धर्म करे छे सत्य न धारे, नीं धर्मनी दाश धरणीने भारे मारे; धामधूममा ढळी पडे छे सदाचारने परिहरे, प्रभु उपर नहि प्रेम किंचित् जन्मीने ते शुं करे. नगरशेठना पुत्र अहो केइ धर्म करे छे, नगरशेठना पुत्र अहो केइ मुख वरे छ; नगरशेठना पुत्र अहो केइ धर्म मुणे छ, नगरशेठना पुत्र अहो केइ ज्ञान भणे छे मगरशेठना पुत्र सारा कीर्ति तेनी सहु करे, सदाचारमा मग्न रहेवे धर्मनी सिद्धि वरे. साधु गुरुने वंदन करता भावं धरीने, धर्म अनून घरे देश हृदयमा सत्य वरीने करे धर्मिजन रहाय संग सारानो राखे, धर्म टेके धरी वेश अनुभव अमृत चाखे। धन्य धन्य अहो ते जगत्मा श्रेष्ठ पुत्रो जाणीए, बुद्धिसागर योग्य न्यायी धर्मी भव्य वखाणीए.
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