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१६४ चेतन हंसीनो चेतन हंसने उपालंभ.
हरिगीत छंद चाल, ओ हंस मान सरोवरे तुं, हंसली साथे रमे, मोति चारो तुं चरे छे, अन्यत्र भक्ष्यज नहि गमे शुभ श्वेतवर्णे श्वेतचरणे, शोभतो जगमां अरे, त्यॉगी कूळघट टेक त्हारी, काक संगति शुं करे. तुं स्वच्छ दिलथी दूध जेवो, योगियोना मन गमे, त्यागी कूळवट मोहथी अरे, काग संगे क्यां भमे; दुग्ध जल संयोगनो वियोग चंचुथी करे, चतुराइ चावी जगतमां बहु, लाज मूकी शुं फरे. पद्मिनीनी गतिने जीती, नाम चावं बहुं कयु,
ओ हंस कूळवट मूकवामां चित्त शाथी तब फर्यु। तुं हंसी साथे हेत हरदम मान सरवर झीलतो, सूक्ष्म कमली तंतुओने पाद गतिथी पीलतो. उच्च कूळ प्रख्यात प्यारा विनति आ उरमां धरो, स्नेह तंतु बांधीया शुभ केम शाथी विचरो; जीव राजा चेतनास्त्री उपालंभ ए आपीयो, बुद्धिसागर आत्मभावे समजतां सुख व्यापियो.
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