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१७३ श्री यशोविजय वाचककृत. ॥श्री पञ्चपरमेष्ठि गीता॥
प्रणमीई प्रेमस्युं विश्वत्राता, समरीइं सारदा मुकविमाता; पंच परमेष्ठि गुण थुणण कीजे, पुण्य भंडार मुपरि भरीजे. ॥१॥
चालि. अरिहंत पुण्यना आगर गुण सागर विख्यात, मुरघरथी चवि उपजे चउद सुपन लहे मात; ज्ञान त्रणें जू अलंकरिया सूरय किरणे जेम, जनमे तब जनपद हुई सकल सुभिख बहु प्रेम. ॥२॥
दश दिशा तव होई प्रगट ज्योति, नरकमांहि पणि होई खिण उद्योति. पाय वाई सुरभि शीत मंद, भूमि पणि मानु पामे आनंद. ॥३॥
चालि. दिशि कुमरी करे ओच्छव आसन कंपे ईद, रण कईरे घंट विमाननी आवे मिलि सुरवंद; पंचरुप करि हरि सुरगिरि शिखरें लेई जाई. न्हवरावई प्रभु भगतिं क्षीर समुद्र जल ल्याई.॥४॥
दुहा. स्नात्र करतां जगत् गुरु शरीरे, सकल देवै विमल कलसनीरे आपणा कर्ममल दरि कीधा, तेण ते विबुध ग्रन्थई प्रसिद्धा.॥५॥
चालि. न्हवरावी प्रभु मेहलेरे, जननी पासे देव; अमृत ठहरे अंगुठडे, बाल पियै एह टेव.
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