Book Title: Ahimsa Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ ____ अहिंसादिग्दर्शन। BOSS MOSSOS कर्ताशास्त्रविशारद-जैनाचार्य श्रीविजयधर्ममरि । प्रकाशक अनोपचंद नरसीदास तथा अमृतलाल छगनलाल से० यशोविजय जैन-ग्रंथमाला। भावनगर। * वीर सं. २४ ४. कर्धमें सं. १ [वि. सं. १९७९ PRISHUHUSHUSHISHISHO*** Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वडोदरा-हाणामित्र स्टीम प्रिं. प्रेसमां किलमाइ आशाराम ठाकरे प्रकाशक माटे अपी प्रसिद्ध कयु. ता. १-६-१९२३. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना । यद्यपि यह ग्रन्थ ही प्रस्तावना रूप होने से इससे अतिरिक्त प्रस्तावना की कोई आवश्यकता नहीं थी, तथापि यह नियम है कि 'कारण के विना कार्य की उत्पत्ति नहीं होती इस लिये इस ग्रन्थ के बनाने में भी कोई न कोई कारण अवश्य ही होना चाहिये, अतएव इस ग्रन्थ की प्रस्तावना लिखने के उद्देश्य से अगर दो वचन कहे भी जायँ तो अस्थान पर अथवा अप्रस्तुत नहीं गिने जायँगे । कथन करने की कोई आवश्यकता नहीं है कि इस नये जमाने में जिस रीति से अनेक प्रकारके प्राचीन, अर्वाचीन, मूलग्रन्थ, भाषान्तर, प्रबन्ध, निबन्ध, नोबेल और भजन कीर्त्तनादिकी किताबें प्रकट होती है, उसी भांति यह 'अहिंसादिग्दर्शन' ग्रन्थ भी प्रकट हुआ है । मुझे इस ग्रन्थ के बनानेका कारण दिखलाते हुए सखेद कहना पड़ता है कि धर्मशास्त्रों में ' अहिंसा परमो धर्मः ' 1 मा हिंस्यात् सर्वाभूतानि इत्यादि महर्षियों के वाक्यों को दृष्टिगत करते हुए और समझते हुए भी हमारे कितनेही भारतवासी, हिन्दु-नामधारी मांसहार से बचे नहीं हैं, ऐसे और भी लोग जो धर्मशास्त्रको नहीं जानकर केवल जिह्वेन्द्रिय की लालच से मांसहार करते हैं उन पर करुणाभाव होने से इस ग्रन्थ के लिखनेका विचार हुआ और उपर्युक्त हेतुसे ही शास्त्र, स्वानुभव और लोकव्यवहार को लक्ष्य में रख कर यह निबन्ध लिखा गया है। इस निबन्ध में, पाठकों को रागद्वेष न होने पावे Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) वैमी जहांतक बनी सावधानता रक्खी गई है और शार के अनभिज्ञ लोगों को लौकिक दृष्टान्त युक्तियाँ देकर सहज में समझाने का प्रयत्न भी किया गया है, जिनसे कि वे लोग अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण न करें। प्रसङ्गानुरोध से मुझे कहना पडता है कि-गुजरातदशक छोड़कर मध्य हिन्दुस्थान, बङ्गाल, मगध और मिथिला दिदेशो में में जब विचरने लगा नव उन उन देशों में प्रचलित घोर हिंसाको देखकर मेरे अन्तःकरण में जी जी विचार उत्पन्न हुए उनका दिग्दनर्श भी अगर यहा पर कराया जाय तो एक दूसरा ही निवन्ध तैयार हो जाय, किन्तु उन दूसरी बातों को छोडकर सब धर्मवालो की माता · अहिंमा ' महादेवी की आशातना करने वाले.. धर्म के निमित से हिंमा करनेवाले, देविओं के सन्मुख उनके पुत्रों को मारने वाले क्रूरात्माओं पर उत्पन्न हुई भावदया के कारण, ' यावबुद्धिबलोदयम इस निय. मानमार मैने : अहिंसादिर्शन ' नामक ग्रन्थ लिखकर भव्यपुरुषों के सम्मुख उपस्थित किया है। इस निबन्ध में केवल जैन शास्त्रों के ही नहीं, बल्कि विशेष करके महाभारत, पुराण, मनुस्मृति और गीता आदि हिन्दुधर्मवालों के माननीय ग्रन्थों के दो प्रमाण देकर ' अहिंसा ' की पुष्टि की गई है । ___ अन्त में मेरा यह करुणाभाव संपूर्ण जगत् के समस्त प्रदेशों में निवास करे, इतनाही कहकर में इस छोटीसी प्रस्तावना को समाप्त करता है। ग्रंथकर्ता । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रविशारद-जैनाचार्य श्रीविजयधर्मसूरि । जन्म १९२४ निर्वाण १९७९ He is one of the most impressive personalities I ever met with in the whole world. ( Dr. Sylvain Levi, ) मैंने इनके समान महान् प्रभावशाली पुरुष को विश्वभर में नहीं पाया. ( डा. सिल्वन लेवी.) Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन | जगत्पूज्य शास्त्रविशारद - जैनाचार्य श्री विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराजने जिस उद्देश्य से यह ग्रन्थ लिखा था, वह उद्देश्य बहुत अंशों में सफल हुआ है । यह कहते हुए हमें हर्ष होता है । और इसका यही प्रमाण है कि- आज तक इस ग्रंथकी कई आवृत्तियांमें हजारों कापियाँ प्रकाशित होने पर भी दिन बदिन इसकी मांग आती ही रही है और इसी हेतु हमें इसका यह संस्करण निकालने की आवश्यक्ता हुई है । साथही साथ हमें यह प्रकट करते हुए अत्यन्त खेद होता है कि- जिस महात्माने इस ग्रन्थके द्वारा हजारों मनुष्योंके जीवन सुधारे, और असंख्य प्राणियोंके प्राण बचाये, वे अब इस संसार में नहीं है । इस ग्रंथके पाठक इसमें दिये हुए ग्रन्थकर्तामहात्माजीके चित्रसे ही दर्शन-लाभ उठावें, और ग्रंथको पढकर दयाज्याति प्रकटावें, यही अभिलाषा है । प्रकाशक । Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ॥ अहम् ॥ शान्तमूर्तिश्रीवृद्धचंद्रगुरुभ्यो नमः। अहिंसादिग्दर्शन। नत्वा कृपानदीनाथं जगदुद्धारकारकम् । अहिंसाधमदेष्टारं महाबीरं जगद्गुरुम् ॥ १॥ मुनीशं सर्वशास्त्रज्ञ वृद्धिचन्द्र गुरु तथा । समदृष्ट्या दयाधर्मव्याख्यानं क्रियते मया ॥ २ ॥ __ अनादि काल से जो इस संसार में प्राणीमात्र नये नये जन्मों को ग्रहण करके जन्म, जरा, मरणादि असह्य दुःखों से दुःखित होते हैं उसका मूल कारण कर्म से अतिरिक्त कोई दूसरा पदार्थ नहीं है। इस लिये समस्त दर्शन (शास्त्र) कारों ने उन कर्मों को नाश करने के लिए शानद्वारा जितने उपाय बतलाये हैं, उन उपायों में सामान्यधर्मरूप-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, निस्पृहत्व, परोपकार, दानशाला, कन्याशाला, पशुशाला, विधवाऽऽश्रम, अनाथाश्रमादि सभी दर्शनवालों को अभिमत हैं; किन्तु विशेषधर्मरूप-स्नान-सन्ध्यादि उपायोंमें विभिन्न मत है, अत एव यहाँ विशेषधर्मकी चर्चा न करके केवल सामान्यधर्म के मंबन्ध में विवेचना कर Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) नाही लेखक का मुख्य उद्देश्य है और उसमें भी सर्वदर्शनवालों की अत्यन्त प्रिया दयादेवी का ही अपनी बुद्धि के अनुसार वर्णन करने की इच्छा है। उसीको आक्षेपरहित पूर्ण करने के लिए लेखक की प्रवृत्ति है। दश का स्वरूप- लोकव्यवहारद्वारा, अनुभवद्वारा और श द्वारा लिखा जायगा; जिसमें प्रथम लोकव्यवहारसे यदि विचार करें तो मालूम होता है कि जगत् के समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में दया का अवश्य ही संशार है; अर्थात दुर्बल जीव पर यदि कोई बलवान जीन मार्ग में आक्रमण करता हो तो अन्य पुरुष, बलवन से दर्बल को बचाने के लिए अवश्यही प्रयत्न करेगा, जैसे कि यदि किमी को चोर रास्ते में लूटता हो और वह चिल्लाता हो तो उसकी चिल्लाहट सुनतेही लोग इकट्ठे होकर चोर के पकड़ने की कोशिश अवश्यही करेंगे, वैसेही कोई कैसाही क्यों न तुच्छ जीव हो, उसको यदि बलवान् जीव मारता होगा तो उसके छुडाने का प्रयत्न लोग अवश्य करेंगे, अर्थात् छोटे पक्षी को बड़ा पक्षी, बडे पक्षी की बाज़, बाज़ को दिल्ली, बिल्ली को कुत्ता, और कुत्तेको कुत्तामार (डोम ) मारता होगा तो उसके छुड़ाने का प्रयत्न, देख लेवाला अवश्य ही करेगा । इसीसे कृष्णजी ( जिनको हिन्दू लोग भगवान् मानते हैं ) की भी कपटनीति को देखकर लोग एक बार उनके भी कृत्यों की निन्दा करने में संकोच नहीं करते हैं । अर्थात् भारतयुद्ध के समय चक्रव्यूह (चक्रावा) के बीच में जो अभिमन्यु से कृष्ण ने कपट किया था उसको सुनकर आजभी समस्त भक्तजन उनकी भी निन्दा करने की Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैयार होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि लोगोंके मनमें स्वाभाविकही दया बसी हुई है, किन्तु खेद की बात है कि जिह्वाइन्द्रिय के लालच से फिरभी अकृत्य को करते हैं अर्थात् मांसाहार में लुब्ध हो कर धर्म-कर्म से रहित हो जाते हैं, क्योंकि यदि मांसाहार करनेवाला सहस्रों दान पुण्य करे तौभी एक अभक्ष्य आहार के द्वारा समस्त अपने गुणों को दूषित करदेता है। जैसे भोजन चाहे जितना सुन्दर हो किन्तु यदि उसमें लेशमात्र भी विष पड़ जाय तो वह फिर ग्राह्य नहीं रहता, वैसेही मांसाहारी कितनेही शुभ कर्म करे तौभी वे अशुभप्रायही हैं, क्योंकि जिसके हृदय में दया का संचार नहीं है उसका हृदय हृदय नहीं किन्तु पत्थर है। मांसाहारी ईश्वरभजन, सन्ध्या आदि कोईभी धर्मकृत्य के लायक नहीं गिना जासकता, उसमें कारण यह है कि बिना स्नान के, सन्ध्या और ईश्वरपूजादि शुभकृत्य नहीं किए जाते और "मृतं स्पृशेत् स्नानमाचरेत् "इस वाक्य से मुरदे को छूकर स्नान अवश्य ही करना चाहिये। तब विचारने का समय है कि बकरा, भैंसा, मछली आदि का मांस भी मुर्दाही है, उसके खाने से स्नानशुद्धि कैसे गिनी जायगी ? क्योंकि मांसका अंश पेट से जल्दी नाश नही होता तब बाहर का स्नान क्या करलेगा ? इसी कारण से वराहपुराण में वराहजीने वसुन्धरा से अपने बत्तीस अपराधियों में से मांसाहारी को अठारहवाँ अपराधी कहा है; वहां उस प्रकरण में यह कहा है कि जो मांसाहार करके मेरी पूजा करता है वह मेरा अठारहवाँ अपराधी है । जैसे Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “ यस्तु मात्स्यानि मांसानि भक्षयित्वा प्रपद्यते । अष्टादशापराधं च कल्पयामि वसुन्धरे !" ॥ (कलकत्ता गिरिश विद्यारत्न प्रेसमें मुद्रित पत्र ५०८ अ. ११७ श्लो० २१) यस्तु वाराहमांसानि प्रापणेनोपपादयेत् । अपराध त्रयोविशं कल्पयामि वसुन्धरे !" ॥ , ,, . श्लो० २६ " सुरां पीत्वा तु यो मर्त्यः कदाचिदुपसर्पति । अपराध चतुर्विशं कल्पयामि वसुन्धरे !" ॥ , , श्लो० २७ सज्जनगण ! केवल इतनाही नहीं किन्तु प्रत्यक्ष दोषों से भी मांसाहार सर्वथाही त्याग करने योग्य है । देखिये-मांसाहारी के शरीर से सदैव दुर्गन्धि निकला करती है और उसका पसीना भी दुर्गन्धित रहता है । यद्यपि जीवोंका यह स्वभाव है कि जिस काम को वे किया करते हैं वह उन्हें अच्छाही मालूम होता है तो भी उनको विचार करना चाहिये कि जैसे, जिसको माँस का व्यसन पड़जाता है तो वह उसे अच्छाही समझता है इतनाही नहीं बल्कि दूसरों के सामने प्रशंसा भी करता है, एवं मद्य को पीनेवाला मद्य पीने के समय औषधि की तरह पीता है, वैसे ही मांस खानेवाले से यदि पूछाजाय तो उसके बरतन ( जिसमें कि उसने मांस पकाया है ) और उसके हाथ ( जिससे उसने मांस खाया है ) बहुत मुश्किल से साफ होते हैं; तथा मत्स्यादि मांस Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खानेके अनन्तर खानेवाले के मुखसे लार निकलती है जो कि, पान, सुपारी आदि बिना खाये शुद्ध नहीं होती, ऐसे कष्टोंको सहन करता हुआ भी कोई २ जीव उसी आहार को अच्छा मानता है । अधिक क्या कहा जाय, डोक्टर की भांति फिर उसे उन पदार्थों से घृणाभी नहीं होती । जैसे डाक्टर पहिले जब मुरदे को चीरता है तो उसे कुछ घृणा भी आती है किन्तु पीछे धीरे २ बिलकुल घृणा जाती रहती है उसी तरह मांसाहारी का हाल समझना चाहिए। अगर मछली आदि खानेवाले से पूछा जाय तो मालूम होगा कि मछली आदि के काटने पर जो जल उसमें से निकलता है वह कैसी दुर्गन्धि पैदा करता है ? कि जिसकी दुर्गन्धि से भी मनुष्य को कय ( वमन ) होजाता है। हा! ऐसे नीच पदार्थों को उत्तम पुरुष कैसे खाते होंगे ? यह भी एक शोचने की बात है। वनस्पति, जो कि सर्वथा मनुष्य को सुखकर है, उसका भी पुण्य यदि दुर्गन्धित होजाय तो उसे मनुष्य फेंक देते हैं, किन्तु मल, मूत्र, रुधिर आदि से संयुक्त, सड़े हुए और कीड़ोंसे भरे हुए भी मांस को यदि मनुष्य न छोड़ें तो उन्हें मनुष्य कैसे कहना चाहिए। कोई २ मांसाहारी जो यह कहते हैं कि मांस खाने से शरीरमें बल बढ़ता है और वीरता आती है वह उनलोगों की भूल है, क्योंकि यदि मांसाहार से बल बढ़ता होता तो हाथी से सिंह अधिक बलवान् होता, क्योंकि जो बोझा हाथी उठाता है वह सिंह कदापि नहीं उठा सकता । अगर कोई यह कहे कि हाथीसे सिंह यदि बलवान् नहीं होता तो हाथी को कैसे मारडालता है ? Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसका उत्तर यह है कि हाथी फलाहारी होने से शान्तस्वभाव है और सिंह मांसाहारी होने से क्रूरात्मा है, इसलिए हाथी को दबा देता है, अन्यथा शुण्डादण्ड से यदि हाथी सिंह को पकड़ ले तो उसकी रग रग का यूर कर सकता है । अतएव यह बात सभीको स्वीकार करनी पड़ेगी कि मांसाहार से क्रूरता बढ़ती है और क्रूरता किसी पुण्यकृत्य को अपने सामने ठहरने नहीं देती है। और यह भी सब लीग सहज में समझ सकते हैं कि जो मांसाहारी लोग अपने घर में झगड़े के समय मार पीट करने से बाज नहीं आते, वह क्या निर्दयता का फल नहीं है ? इसलिये मांसाहारही का फल निर्दयता स्पष्ट मालूम पड़ता है। __अब रही वीरता। वह भी मांस का गुण नहीं है किन्तु पुरुष काही स्वाभाविक धर्म है; क्योंकि अगर नपुंसक को ताकतदेने वाले हजारों पदार्थ खिलाए जावे तौभी वह युद्ध के समय अवश्य भागही जायगा; इससे प्रत्यक्ष दृष्टान्त यह है कि-बङ्ग, मगध आदि देश के मनुष्य प्रायः मांसाहारी होने पर भी ऐसे कातर होते हैं कि यदि चार आदमी भी छपरे जिले के हों तो बङ्गदेशीय पचास आदमी भाग जायँगे; लेकिन बेचारे छपरे जिले के आदमी प्रायः सत्तूही खाकर गुज़र करते हैं । ___ गुरु गोविन्दसिंह के शिष्य सिक्खलोग, जो कि किले के फतह करने में अव्वल नम्बर के गिने जाते हैं वे भी प्रायः फलाहारी ही देखने में आते हैं; इलका कारण यह है कि जैसी लड़ाई स्थिरचित्त से फलाहारी लोग लड़ते हैं वैसी मांसाहारी कदापि नहीं लड़ सकते। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) उसमें दूसरा कारण यह भी है कि मांसाहारी को गर्मी बहुत लगती है और श्वास भी ज्यादा चलती है किन्तु फलाहारी को नतो वैसी गर्मी लगती है और न श्वासही बढ़ती है। ** पाठकगण ! आपलोगों ने सुना होगा कि जब रूस और जापान की लड़ाई हुई थी तब प्रायः कचेही मांस के खानेवाले बड़े भयानक रूसियों को भी, मिताहारी और विचारशील जापानी वीरों ने परास्त करके संसार में कैसी आश्चर्यकारिणी अपनी जयपताका फहराई थी ? | यदि मांसाहार से ही वीरता बढ़ती होती तो रूस की सेना में मनुष्य बहुत थे, इतनाही नहीं किन्तु मांसाहार करने में भी कुछ कमी नहीं थी, फिरभी उन्हीं लोगों की क्यों हार हुई ? इससे साफ मालूम हुआ कि हार का मूल कारण. अस्थिर चित्तताही है 1 मनुष्य की प्रकृति मांसाहार की न होने पर भी जो इन्द्रिय की लालच से निर्विवेकी जन मांसाहार करते हैं उसका बुरा फल सबको प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है । अर्थात् मांसाहारी प्रायः मद्य का सेवक, वेश्यागामी तथा निर्दयहृदय होता है । यद्यपि कोई २ मांसाहारी बता दुर्गुणी नहीं होता तौभी उसके शरीर में बहुत रोग हुआ करते हैं । जैसे मत्स्य- मांसादि के पाचन न होने से खानेवाले को रात्रि में खट्टी डकारें आतीं हैं, और बहुतों का खून बिगड़ जाता है, तथा शरीर पीला पड़जाता है, हाथ पैर सूख जाते हैं, पेट बढ़ जाता है, और किसी २ के तो पैर भी फूल जाते हैं, तथा गले में गांठ पैदा हो जाती है; और यहां तक देखने में आया है कि बहुत Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) से मांसाहारी कुष्ठादि रोग से पीड़ित होकर परम कष्ट सहते हुए मर भी जाते हैं । जो कोई इन कष्टों से बच भी जाता है तो उसमें पापानुबन्धी पुण्य का उदय ही कारण समझना चाहिए । अर्थात् जब उस पुण्य का क्षय होगा तब जन्मान्तर में वह अत्यन्त दुःख का अनुभव करेगा | गोस्वामी तुलसीदास जी कहगये हैं: " जबतक पुरविल पुण्यकी पूजी नहीं करार | तबतक सब कुछ माफ है औगुन करो हजार " ॥ १ ॥ प्रायः मांसाहारी की मृत्यु भी विशेष दुःख से ही होती है और उसके मृत्यु के समय कितनेही स्पष्ट तथा गुप्त रोग उत्पन्न होते हैं, इस बात का लोग प्रायः अनुभव किया करते हैं । मनुष्यों की स्वाभाविक प्रकृति फलाहारीही है क्योंकि मांसाहारी जीवों के दाँत मनुष्य के दाँतों से विलक्षण होते हैं और जठराग्नि भी उनकी मनुष्यों से भिन्न प्रकार की ही होती है, तथा स्वभाव भी विचित्र दिखलाई देता है; एवं समस्त मांसाहारी जीव जिह्वा ही से जल पीते हैं किन्तु मनुष्यजाति तो मुख से पीती है । अतएव यह सिद्ध हुआ कि मनुष्य की जाति स्वाभाविक मांसाहारी नहीं है, फिरभी जो मांस खाते हैं चे पलाद ( पलमत्तीति पलादः ) गिने जाते हैं । मुसलमान और हिन्दुओं में खान पान ही से विशेष Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) भेदहै, क्योंकि मुसलमान के हाथ का जल हिन्दू नहीं पी सकते किन्तु उन्हें हिन्दुओं के हाथ का पानी ग्रहण करने में कोई परहेज़ नहीं है । उसमें कारण यह है कि मुसलमान अपने भोजन में प्रधान मांसही रखते हैं । यदि हिन्दू भी वैसाही करने लगें तो फिर परस्पर भेदही क्या रहेगा ? अर्थात् जैसे, प्रायः सभी मुसलमान बकरीद के दिन बकरे वगैरह जानवरों की जान लेते हैं, वैसेही बहुत से हिन्दू लोग नवरात्र में बकरे आदि जीवों को मारते हैं; एवं जैसे मुसलमान अपनी दावत में यदि मत्स्यमांस का विशेष व्यवहार करते हैं तो वह दावत उत्तम गिनी जाती है, वैसे ही यदि श्राद्ध में हरिणादि मांस का व्यवहार हिन्दू लोग करें तो वह श्राद्ध उत्तम गिना जाता है; तथा जैसे मुसलमान लोग खुदा के हुक्म से जीव मारने में पाप न मानकर खुदा के हुक्म की तामीली करने से खुश होते हैं, वैसेही हिन्दूलोग देव पूजा-यज्ञक्रिया मधुपर्क-श्राद्धादि में जीवहिंसा को हिंसा न मानकर अहिंसाही मानते हैं; इतनाही नहीं, बल्कि मरनेवाले और मारनेवाले दोनों की उत्तम गति मानते हैं। अब यहां पर मध्यस्थ दृष्टि से विचार करने पर हिन्दू और मुसलमानों में बहुत भेद मालूम नहीं पड़ता, क्योंकि जो हिन्दूलोग मांस नहीं खाते और मुसलमानों के हाथ का जल नहीं पीते हैं वे तो ठीकही हैं किन्तु मांसाहार करने परभी जो हिन्दू सफाई दिखाते हैं वह उनका बिलकुल पाखण्डही है, क्योंकि दोनों मरकर बराबर दुर्गति पावेंगे, अर्थात् दोनों एकही रास्ते पर चलनेवाले हैं । इसपर कबीर ने कहा है: Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61 ( १० ) मुसलमान मारे करद सो हिन्दू मारे तरवार । aa haiर दोनों मिलि जै हैं यम के द्वार " || इसासे मांसाहारकरनेवाले हिन्दू आर्य नहीं कहेजासकते; क्योंकि आर्य शब्द से वेही लोग व्यवहार करने योग्य हैं जिनके हृदय में दयाभाव, प्रेमभाव, शौच आदि धर्म विद्यमान हैं. किन्तु मांसाहारी के हृदय में न तो दयाभाव रहता है और न प्रेमभाव | एक मांसाहारी ( जिसने उपदेश पाकर मांसाहार त्याग दिया ) मुझे मिला था, वह जब अपनी हालत कहने लगा तो उसकी आंख से अश्रुपात होने लगा | अश्रुपात होनेका कारण जब मैंने उससे पूछा तो वह कहने लगा कि - " मेरे समान निर्दय और कठोरहृदय, इस दुनियां भर में थोड़ेही पुरुष होंगे। क्योंकि कुछ दिन पहले मैंने एक बड़े सुन्दर बकरे को पाला था, वह मुझे अपना प्रेम पुत्र से भी अधिक दिखलाता था, मैं भी उससे बहुत प्रेम करता था, अतएव वह प्रायः दाना चारा मेरे हाथ से दिये बिना नहीं खाता था और जब मैं कहीं बाहर चला जाता था और आने में दो चार घण्टे की देर हो जाती थी तो वह रास्ते को देख २ कर ब्याँ २ किया करता था, अगर कहीं एक दो दिन लग जाता था तो चारा पानी बिलकुल नहीं खाता था और मेरे आने पर बड़ा आनन्द प्रकट करता था; उसी बकरे को मैंने अपने हाथसे मांस के लिए मार डाला और उस मांस को आए हुए पाहुनों ( प्राघूर्णिक ) के साथ मैंने भी खाया । यदि उस बकरे के मरनेकी हालत मैं आपके सामने कहूँ तो Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) मुझे आप पूरा चाण्डाल ही कहेंगे । हा! जब २ वह बकरा मुझे याद आता है, तब २ मेरा कलेजा फटने लगता है, इसलिये मैं निश्चय और मजबूती से कहता हूं कि जो मांसाहार करता है वह सबसे भारी पापी है क्योंकि अन्य अकृत्यों से जीवहिंसा ही भारी अकृत्य है। " __यदि कोई यह कहे कि-हम मारते नहीं और न हमें हिंसा होती है, तो यह कथन उसका वृथा है क्योंकि यदि कोई मांस न खावे तो कसाई बकरे को जबह क्यों करें। अत एव धर्मशास्त्र में भी एक जीव के पीछे आट मनुष्य पातक के भागी गिने गये हैं । यथा " अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी। .. संस्कृर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः१॥ भावार्थ-मारने में सलाह देनेवाला; शस्त्र से मरेहुए जीवों के अवयवों को पृथक् २ करनेवाला, मारनेवाला, मोललेनेवाला, बेचनेवाला, सँवारनेवाला, पकानेवाला और खानेवाला-ये सब घातकही कहलाते हैं। .. यहां पर कोई कोई मांसाहारी लोग यह प्रश्न करते हैं कि-फलाहारी भी तो घातकही हैं, क्योंकि शास्त्रकारों ने पौधों में भी जीव माना है, फिर फलाहारी और धर्मान्ध पुरुष केवल मांसाहारी ही पर व्यर्थ आक्षेप क्यों करते हैं ? । इसका उत्तर यह है कि-जीव अपने २ पुण्यानुसार जैसे २ अधिकाधिक पदवी को प्राप्त करते हैं वैसे २ अधिक पुण्यवान् गिने जाते हैं; इसी कारण से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय रूप से जगत में जो जीवों के मूल भेद पांच माने Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) गए हैं, उनमें एकेन्द्रिय जीव से द्वीन्द्रिय अधिक पुण्यवान होता है और द्वीन्द्रिय से त्रीन्द्रिय. तथा त्रीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय इस तरह सर्वोत्तम जीव पञ्चेन्द्रिय समझना चाहिए । और पश्चेन्द्रिय में भी न्यूनाधिक पुण्यवाले हैं; अर्थात् तिर्यकपश्चेन्द्रिय ( बकरा, गौ, भसे आदि ) में हाथी अधिक पुण्यवान् है, और मनुष्यवर्ग में भी राजा, मण्डलाधीश, चक्रवर्ती और योगी अधिक पुण्यवान होने से अवध्य गिने जाते हैं, क्योंकि संग्राम में यदि राजा पकड़ा जाता है तो मारा नहीं जाता। इससे यह सिद्ध हुआ कि एकेन्द्रिय की अपेक्षा द्वीन्द्रिय के मारने में अधिक पाप होता है, एवं अधिक २ पुण्यवान् के मारने से अधिक - पाप लगता है । इसलिए जहांतक एकेन्द्रिय जीव से निर्वाह हो सके, वहांतक पोभिद्रा जीव का मारना सर्वथा अयोग्य है । यद्यपि एहन्द्रिय जीव का मारना भी पापबन्ध का कारणही है किन्तु कोई उपायान्तर न रहने से गृहस्थों को वह कार्य अगत्या करनाही पड़ता है। अत एव कितनेही भव्य जीव इस पाप के भय से धन, धान्य, राज, पाट वगैरह छोड़कर साधु होजाते हैं, और अपने जीवनपर्यन्त अग्नि आदि को भी नहीं छूते, तथा भिक्षामात्र से उदरपोषण करलेते हैं। गृहस्थ भी जो अगत्या एकेन्द्रिय का नाश करते हैं उस पाप के परिहार के लिए साधुओं की सेवा, दान, धर्म और दोनों सन्ध्या आदि पुण्यकृत्य जन्मभर किया करते है। भिक्षामात्रजीवी साधुओं के ऊपर आरम्भ का दोष नहीं है, क्योंकि गृहस्थ लोग जो अपने लिये आहार Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) बनाते हैं उसमें वे लोग अत्यन्त आवश्यक तथा निर्दोष पदार्थ मात्र को ग्रहण करते हैं तिसपर भी गृहस्थों को यह नहीं मालूम रहता कि आज मेरे घर साधुलोग भिक्षा लेने आवेंगे । अनायास ही भोजन के समय गृहस्थ के घर पर साधु जाकर समयोचित आहार ग्रहण करता है जिससे कुछ भी दोष पूर्वकाल या उत्तरकाल में उसे नहीं लगता। ___यदि यहां पर कोई यह प्रश्न करे कि-तब साधुओं को सन्ध्यादि क्रिया करने से क्या प्रयोजन है ? इसका उत्तर यह है कि आहार नीहारादि के लिए उपयोगपूर्वक भी गमनागमन क्रिया करने में जो अनुपयोगरूप से दोष लगता है उसके प्रायश्चित्त निमित्त ही वह क्रिया की जाती है। ____ महाशय ! लोकव्यवहार से अनुभव द्वारा विचार करने पर एक सामान्य न्याय दिखाई पड़ता है कि " जैसा आहार वैसा विचार " याने उत्तम आहार खाने से उत्तमही विचार उत्पन्न होगा और मध्यम आहार से मध्यम, किन्तु तुच्छ आहार करनेसे तुच्छही विचार होगा; इसलिए समस्त दर्शनवालों के महात्मालोग जब योगारूढ़ होते हैं तब उनका आहार कैसा अल्प होता है वह भी देखने ही के लायक है । तात्पर्य यह है किसर्वोत्तम आहार में मूंग की दाल और चावल तथा उसके साथ में वनस्पति की किसी प्रकार की तरकारी गिनी गई है; क्योंकि भात हलका और पौष्टिक भोजन है, इसीलिए प्रायः समस्त देशोंमें वह भोजन श्रेष्ठ गिना जाता है और प्रायः चावल खानेवाले बुद्धिमान ही Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) दिखाई पड़ते हैं । वर्तमान के अल्पज्ञ और रसनेन्द्रिय के लोभी, ऐसे उत्तम भोजन में कुत्सित मांस को मिलाकर भातके सर्वोत्तम और स्वतन्त्र ( बुद्धि बढ़ानेवाले । गुण को नष्ट कर देते हैं । और बाकी बचे हुए गुण को भी जो मांसादि का ही गुण मानते हैं, वह उनकी कितनी भारी भूल है । अगर मछली मांस को छोड़ करके दाल भात का ही आहार रक्खा होता तो आज दिन बङ्गाल वगैरह देश वुद्धिबल में बहुतही बढ़ जाते । अतएव इङ्गालेन्ड जो आजकल बुद्धिबल में तेज है वह भी भात का ही प्रताप है । यद्यपि बुद्धिबल यह गुण आत्मा का ही है तथापि वायु के वेग से वह मलिन हो जाता है, और मांसाहार वायु को विशेष बढ़ाता है। अतएव केवल मांसाहार करनेवाला जंगली (निर्बुद्धि) गिना जाता है। जो किसी २ देश में मनुष्य विशेष बुद्धिमान होते हैं उसका भी कारण उस देश में वायु का प्रकोप कम होनाही मानना चाहिये । जिस आहार में वायु का प्रकोप कम होता है वह आहार उत्तम गिना जाता है; जैसे चावल, दाल, और वनस्पति वायु को नहीं बढ़ाते, इसलिए वह उत्तम ही भोजन है; परन्तु गेहूँ की रोटी, उड़द की दाल मध्यम आहार गिना जाता है, क्योंकि उसमें बुद्धि की वृद्धि और हानि दोनों का प्रायः संभव है, किन्तु वायुकारक होने से सबसे अधम मांसही का आहार गिना गया है। अतएव मनुष्यों को उत्तम आहारही ग्रहण करना योग्य है और अधम सर्वथा त्याज्य है। जिस देश में मांसाहार का विशेष प्रचार है वह देश इतिहासों से असभ्य सिद्ध होता है, किन्तु भारत Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) वर्ष सर्वदा और सर्वथा शिल्पकला, धर्मकला आदि में प्रवीण होने से असभ्य नहीं माना जाता। अब रही बात यह कि-जो उसके कितनेही भागों में और कितनीही जातियों तथा धर्मों में मांसाहार प्रवेश करगया है उसका कारण यह है कि-श्रीमहावीरस्वामी के बाद बारह वर्ष का दुष्काल तीन वार पड़ गया, उस समय अन्न का अभाव होने से बहुत मनुष्य अपने२ प्राण की रक्षा के लिए मांसाहारी बनगए, किन्तु धीरे २. अकाल की निवृत्ति होने परभी मांसाहारका अभ्यास दूर न हुआ। अतएव जैन साधुओं का विहार सर्वथा पूर्व देशादि में शुद्धोहार के न मिलने से तथा मुसलमानों के उपद्रव होने से बन्द होगया था, इसलिए लोगों को अहिंसाधर्म का उपदेश नहीं मिला। कितने ही कल्याणाभिलाषी भव्यजीवों ने मांसाहारी ब्राह्मणों से यह प्रश्न किया कि महाराज ! मांसाहार करनेवाले को शास्त्रों में भारी दण्ड लिखा है अर्थात् पशु की देह पर जितने रोम होते हैं उतने हजार वर्ष मारनेवाला नरक के दुःख का अनुभव करता है तो अपने लोगों की मांसखाने से क्या गति होगी ? इसके उत्तर में ब्राह्मणों ने कहा कि अविधिपूर्वक मांस खाने से ही नरक होता है, किन्तु विधिपूर्वक मांस खाने से धर्म ही होता है । अतएव तुम लोग भी यदि देवपूजा, या श्राद्धादि में मांस खाओगे तो हानि नहीं होगी। इसी तरह साथही साथ पूर्वोक्त बात का उपदेश भी करना प्रारम्भ कर दिया और जैसा मन में आया वैसे श्लोक भी बना दिये। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) देखिये स्वार्थ और इंद्रियस्वाद में लुब्ध अपनी झूठी कीर्ति के लिए उन लोगों ने कैसा अनर्थ किया ? क्योंकि विचार करने की बात है, यदि हिमाही से धर्म होता हो तो फिर अधर्म किसे कहा जायगा ? क्योंकि मांसाहार करने वाले का मन प्रायः दुःखित और मलिन रहता है और किसी जीव के देखने पर उसके मनमें यही भाव उत्पन्न होता है कि यह जीव कैसा सुंदर है और इसका मांस स्वादिष्ट तथा पुष्टिकर ही होगा, तथा इससे कितना मांस निकलेगा । इसलिए मांसाहारी को वन में जानेपर हरिणादि जीवों को देखकर उनके पकडने की ही अभिलाषा उठती है । अथवा तालाब या नदी के किनारे पर मत्स्य को देखकर मारने ही की अभिलाषा उत्पन्न होती है । इसी तरह आठपहर हिंसक जीव रौद्रपरिणामवाला बना रहता है । जैसे व्यान, सिंह, बिल्ली आदि हिंसक जीवों को, खाने के लिए कोई जीव न मिलने पर भी जैसे कर्मबंधन करने से जरकादि गति अवश्य मिलती है, वैसी ही मांसाहारी जाध की दशा जाननी चाहिए । हा; मांसाहारी जीव सुन्दर पक्षियों का नाश करके जङ्गलों को शून्य कर देते हैं और सुन्दर बगीचे में अपने कुटुम्ब के साथ आनन्द से बैठे हए पक्षियों की बन्दक वगैरह से मारकर नीचे गिरा देते हैं। मुझे विश्वास है कि उस समय के बीभत्स दृश्य को दयालु पुरुष तो कभी नहीं देख सकता, लेकिन मांसाहारी तो उसीको देखकर बड़ी प्रसन्नता से मारनेवाले को उत्तेजना देता है कि वाह ! एकही गोली से कैसा निशाना मारा। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७ ) यहाँ पर एक यह भी विचारने की बात है कि-एक पक्षी को मारनेवाला एकही जीव का हिंसक नहीं है किन्तु अनेक जीवों का हिंसक है। क्योंकि जिस पक्षीकी मृत्यु हुई है, यदि वह स्त्री जाति है और उसके छोटे २ बच्चे हैं तो वह माँ के मरजाने से जीही नहीं सकते, फिर उन सबके मरजाने से घोर पापकर्म का बन्ध मारने वाले को होगा । इसलिए कर्मबन्धन होने से पहिले ही बुद्धिमान पुरुषों को चेतना चाहिए । __ अब दूसरी बात यह रही कि-हिंसा न करने पर भी कितनेही लोग जो पक्षियों को पींजरे में बन्द करते हैं उसमें भी भारी कर्मबन्ध होता है, अर्थात् जो लोग जङ्गल से नये २ पक्षियों को पकड़वाने में हजारों रुपया खर्च करते हैं और उनके खाने पीने के लिए अनर्थ भी करते हैं, उन शौकीन और धनाढय लोगों को समझना चाहिए कि पक्षियों की वनविषयक स्वतन्त्रता को भङ्ग करके कैदी की भाँति पींजरे में डालकर और अधर्म की धर्म मानकर जो यह समझते हैं कि हम पक्षियों को दाना चारा अच्छा देते हैं और दूसरों के भय से मुक्त रखते हैं और बाजार में बिकते हुए जीवोंको केवल जीवदयाही से मोल लेकर रक्खा है, सो यह उनका समझना बिलकुल असत्य है; क्योंकि यदि उनको भी कोई उनके कुटुम्ब से अलग करके बंधन में डालकर अच्छा भी खाना पीना दे तो क्या वे उसे अच्छा मानेंगे ? और जो बाजार में पक्षी बिकने आते हैं उन्हें यदि कोई न खरीदे तो बेचनेवाले कभी नहीं ला सकते; क्योंकि मांसाहारी वैसे २ पक्षियों का मांस प्रायः नहीं Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाते हैं । उसमें कारण यह है कि खर्च ज्यादा होकर भी मांस कम मिलता है, इसी लिए जिस देश में पक्षी पालने की चाल नहीं है वहांपर भिन्न २ तरह के लाखों पक्षी रहने पर भी एक भी बाजार में नहीं बिकता, क्योंकि बेचनेवाले को पैसा नहीं मिलता है। गुजरात बगैरह देश में नीच और दूसरे देशोंसे आए हुए प्रायः करके बावे और फकीर लोग ही पक्षियों को पालते हैं; किन्तु वहां के वासी गृहस्थलोग दयालु होनेसे - पशुशाला में जीवोंको छुड़वा देते हैं। प्रसङ्गवश यहांपर एक बात यह याद आती है कि-समस्त देशों में जिसके कन्या पुत्र नहीं होते हैं वह अनेक देव देवी की मानता करता है और मन्त्र यन्त्र तन्त्रादि का भी प्रयोग करता है, तो भी उसके सन्तति नहीं होती है। उसका कारण प्रायः यही है कि पर्वभवमें उसने अज्ञानदशा से किसीके बच्चों को अपने मां बाप से वियोग कराया होगा, या पक्षियों को पींजरे में डाला होगा; इसीलिए उस समय उनके बालकों को दुःख देने से इस भवम उस पापके उदय होनेसे कितनेही लोगों के पुत्र उत्पन्नही नहीं होता और जिनके होता भी है तो जीता नहीं है। यद्यपि निप्पुत्र लोग पुत्रके लिए संन्यासी, साधु, फकीर वगैरह की पूजा करते हैं; क्योंकि " सेवाधीन सब कुछ है "यह सामान्य न्याय है; यदि किसी समय योगी और फकीर को प्रसन्न देखकर पुत्र प्राप्ति के लिए लोग प्रार्थना भी करते हैं तो यही करते हैं कि " महाराज ! एक पुत्र की वांछा है उसकी प्राप्ति के लिए कोई उपाय बतलाइये" लेकिन वैसे योगियों और फकीरों को तत्त्वज्ञान तो प्रायः Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९) रहता ही नहीं है; केवल बाह्याडम्बर ज्यादा रहनेसे लाभकी अपेक्षा जिसमें हानि विशेष होती है उसी कार्य को वे प्रायः बतलाते हैं। इसमें दृष्टान्त यह है कि-जैसे-चीटियों के बिल के पास लोग उनके खाने के लिए आटा और चीनी डालते हैं, जिससे विशेष चीटी वहां आ जाती हैं और वही उपाय पुत्रोत्पत्ति का मानते हैं क्योंकि बिचारे भोले लोग धर्मतत्त्व के अनभिज्ञ कर्मप्रकृति के अविश्वासी लाभालाभ को न विचार कर कितनेही देशोंमे ऐसी क्रिया करते हुए पाये जाते हैं, लेकिन यहाँ पर विशेष विचार का अवसर है कि जब आटा और चीनी डालने से चीटियां बहुतसी इकट्ठी होती हैं तो अगर वह आटा चीनी कोई जीव खाजायगा तो बहुतसी चीटियों का संहार होजायगा । प्रायः देखने में भी आया है कि पक्षी आटा खाकर चीटियों का संहार कर डालते हैं। यह एक बात हुई, दूसरी यह है कि चीटी संमूर्च्छन जीव होने से विना माता पिता से भी उत्पन्न होती है, तो आटा और चीनी के मिलनेसे हवा का संयोग होने पर नयी चीटियां भी उत्पन्न होती हैं, तब उनकी भी हिंसा होती है; इससे स्पष्ट है कि ऐसे कार्य में धर्म की अपेक्षा अधर्म विशेष है। पुत्र-प्राप्तिका उपाय तो परोपकार, शील, सन्तोष, दया, धर्म वगैरह ही है और ऐसेही धर्मकृत्योंके करने से पुत्र की प्राप्ति हो सकती है । लेकिन सपाप क्रिया करने से वैसा फल नहीं मिलता । अतएव जिसमें लाभ की अपेक्षा हानि विशेष हो वह क्रिया नहीं करनी चाहिए। समस्त तत्त्ववेत्ताओंने परोपकार को ही सार माना है और परोपकार Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) जीवदया का पुत्र है, क्योंकि जैसे विना माता के पुत्र का जन्म नहीं होता वैसे ही दया विना परोपकार नहीं होता है । देखिये 'इसी : परोपकार पर व्यासजी का वचन 66 अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् " ॥ १ ॥ अर्थात् - अठारह पुराणों में अनेक बातें रहने पर भी मुख्य दो ही बातें हैं । एक तो परोपकार, जो पुण्य के लिये है और दूसरा ( पर पीड़न ) दूसरे को दुःख देना, जो पाप के लिए है । अर्थात् परपीड़ा से अधर्म ही होता है और जीवदया रूप परोपकार होने से पुण्यही होता है और इसीसे स्वर्ग तथा मोक्ष मिलता है । अब लोकव्यवहार से विरुद्ध, अनुभवसिद्ध शास्त्र - द्वारा अहिंसा के स्वरूप का यथावत् दिग्दर्शनमात्र कराया जाता है सकल दर्शनकारों ने हिंसा को अधर्म में परिगणित fकया है और सबसे उत्तम दयाधर्म ही माना है । इसमें किसी आस्तिक को भी विवाद नहीं है, तौ भी हरएक धर्मवालों को यहां पर शास्त्रीय प्रमाण देनेसे विशेष दृढता होगी, इसलिए हिन्दूमात्र माननीय मनुस्मृति, तथा महाभारत और कुर्मादिपुराणों की साक्षी समय २ पर दी जायगी । उनमें पहिले मनुस्मृति को देखिये Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) " योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया । स जीवंश्च मृतचैव न कचित् सुखमेधते " ॥ ( निर्णयसागर की छपी म० अ० ५. श्लो० ४५ पृ० १८७) अर्थात् - अहिंसक ( निरपराधी ) अपने सुख की इच्छा से मारता है वह मृतप्रायः 'है, क्योंकि उसको कहीं सुख नहीं मिलता । जीवों को जो जीता हुआ भी तथा " 1 “ यो बन्धनवशान् प्राणिनां न चिकीर्षति । स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखमत्यन्तमनुते " ॥४३॥ भावार्थ - प्राणियों के वध, बन्ध आदि क्लेशों के करने को जो नहीं चाहता वह सबका शुभेच्छु अत्यन्त -सुख रूप स्वर्ग अथवा मोक्ष को प्राप्त होता है । और भी देखिये - " यद् ध्यायति यत् कुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च । तदवाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किञ्चन ॥४७॥ तात्पर्य - जो पुरुष दंश मशकादि सूक्ष्म अथवा बड़े जीवों को नहीं मारता है वह अभिलषित पदार्थ : को प्राप्त होता है और जो करना चाहे वही कर सकता है या जहां पुरुषार्थ ध्यानादि में लक्ष्य बांधे उसे अनायासही या जाता है अर्थात् अहिंसा करनेवाला प्रतापी पुरुष जो मन में विचारे उसे तुरन्त ही पासकता है । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) और यह भी लिखा है कि" नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते कचित् । न च प्राणिवधः स्वय॑स्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् " ॥४८॥ - भावार्थ-प्राणियों की हिंसा किए विना मांस कहीं पैदा नहीं होता, और प्राणिका वध स्वर्गसुख नहीं देता, इसलिए मांस को सर्वथा त्याग करदेना ही उचित है। और भी कहा है " समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम् । असमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्" ॥ ४९ ॥ तात्पर्य-मांस की उत्पत्ति एवं प्राणियों के वध तथा बन्ध को देखकर सर्व प्रकार के मांसभक्षण से मनुष्य को निवृत्त होना चाहिये । विवेचन-पूर्वोक्त मनुस्मृति के पञ्चम अध्याय के ४४ से ४९ तक के श्लोकों का रहस्य जाननेवाला कदापि मांसभक्षण नहीं करेगा। क्योंकि सीधा रास्ता छोड़कर विवादास्पद मार्ग में चलने की कोई भी हिम्मत नहीं करेगा । ४९ वें श्लोक में सब प्रकारके मांसों के भक्षण से निवृत्त होने का मनुजी ने उपदेश किया है। इससे विधिपूर्वक मांस खाने से दोष नहीं माननेवालों का पक्ष सर्वथा निर्बल ही है; क्योंकि देवताओं की मांसाहार करने की प्रकृतिही नहीं है। यदि सौ मन मांस देवता के सामने रक्खा जाय तो भी एक छटाँक भी कम नहीं Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) होगा । दस बकरों को अगर देवता के मन्दिर में रात को रखकर चारों तरफ से उस मन्दिर की रक्षा की जाय, फिर प्रातःकाल अगर मन्दिर खोलकर देखा जाय तो उन दस बकरों में से एक भी कम नहीं होगा । इससे यह स्पष्ट होता है कि मांसमात्र के लोभी लोग, बिचारे भोले भाले लोगों को भरमाकर नाहक दूसरे के प्राणों का नाश कराते हैं । अपनी जिह्वा की क्षणभर तृप्ति के लिये बिचारे जीवों के जन्म को नष्ट कराते हैं। कई एक भक्तलोग देवी के सामने मनौती करते हैं कि “ हे माता जी ! मेरा लड़का यदि अमुक रोग से मुक्त होगा तो मैं आपको एक बकरा चढाऊँगा” । अगर कर्म के योग से बालक के आयुष्यबलसे आराम हुआ तो मानता करनेवाले लोग समझते हैं कि माताजी ने कृपा करके मेरे लड़के का जीवदान दिया, तब खुशी होकर निरपराधी बकरे को बाजे गाजे के साथ भूषित करके देवी के पास लेजाते हैं और वहांपर उसको नहलाकर और फूल चढ़ाकर तथा ब्राह्मणों से स्वर्ग प्राप्त करानेवाले मन्त्रों को मारने के समय पढ़ाकर बकरे का प्राण निर्दय रीति से निकालते हैं। यहां पर एक कवि का वाक्य याद आता है किः " माता पासे बेटा मांगे कर बकरे का साँटा । अपना पूत खिलावन चाहे पूत दूजे का काटा। __ हो दिवानी दुनियां"। देखिये ! दूसरे के पुत्र को मार कर अपने पुत्र की Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) शान्ति चाहनेवाली स्वार्थी दुनियां को। यहाँपर ध्यान देना उचित है कि पहिले मानतारूप कल्पना ही झूठी है, अगर मानता से देवी आयुष्य को बढाती होती तो दुनियां में कोई मरता ही नहीं। जो लोग मानता मानते हैं उनसे अगर शपथपूर्वक पूछा जाय तो वह भी अवश्यही यह स्वीकार करेंगे कि सभी मानता हमलोगों की फलीभूत नहीं होती । कितनी ही दफे हजारों मानता करने पर भी पुत्रादि मरण को प्राप्त होता ही है। अतएव मानता दोनों प्रकारसे व्यर्थ ही है, क्योंकि रोगी की अगर आयुष्य है तो कभी मरनेवाला नहीं है तब मानता का कोई प्रयोजन नहीं है, और यदि आयुष्य नहीं है तो बचनेवाला नहीं है, तो भी मानता निष्फल है। और भी विचारिये कि-यदि बकरे की लालच से देवी तुम्हारे रोगों को नष्ट करेगी तो वह तुम्हारी चाकरानी ठहरी, अथवा रिश्वत ( घूस ) लेनेवाली हुई। क्योंकि जिससे माल मिले उसका तो भला करे और जिससे न पावे उसका भला न करे । घूस खानेवाले की दुनियां में कैसी मानमर्यादा होती है सो पाटक स्वयं विचार कर ही सकते हैं। महाशय ! माता शब्द का अर्थ पहिले विचारिये । जो सर्वथा पालन पोषण करती है वही माता कही जाती है और जिसके पास बकरे का बलिदान किया जाता है वह जगदम्बा के नाम से दुनियां में कैसे प्रसिद्ध हो सकती है ? | क्योंकि जो समस्त जीवोंकी माता वही जगदम्बा कही जा सकती है तो समस्त जीवों के बीचमें । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) बकरा आदि भी (जो बलि दिये जाते हैं ) आये उनकी भी तो माता ही ठहरी न । अब सोचिये कि एक पुत्र को खाकर माता दूसरे को बचावे, ऐसा कभी होसकता है ? क्योंकि माताके सभी पुत्र समान ही होते हैं। अज्ञानी लोग स्वार्थान्ध होकर माता की मर्जी से विरुद्ध आचरण करके जीवहिंसा के लिए साहस करते हैं, उसी कारण से इस समय महामारी, हैजा, प्लेग आदि महाकष्ट को लोग भोगते हैं । क्योंकि माता हाथ में लाठी लेकर नहीं मारती। केवल परोक्ष रीति से मनुष्यों की अनीति का दण्ड देती है। मैंने स्वयं देखा है कि विन्ध्याचल में देवीजी का मन्दिर है, वहां पर हजारों संस्कृत के पण्डित विशेष करके नवरात्र में मिलते हैं और प्रातःकाल से लेकर सन्ध्या समय तक वे लोग समस्त सप्तशती (दुर्गा पाठ) का पाठ करते हैं, जिसमें कि दुर्गा की भक्ति की प्रशंसा ही है किन्तु वहां पर अनाथ, निर्नाथ, और गरीब से गरीब बकरे और पाठे का बलिदान जो देते हैं वह देखकर उनके भक्तों के मनमें भी एक दफे शङ्का होती है कि ऐसी हिंसा करके पूजा करता कहां से चला होगा ? माता भी अपने पुत्र के मारने से नाराज होकर हैजा आदि रूपसे उपद्रव करती है तब ब्राह्मण वगैरह भागते हैं और कितनेही लोग बकरे के मार्गानुगामी होते हैं। यह बात बहुत बार लोगों को प्रत्यक्ष देखने में आती है, और स्वयं अनुभव किया जाता है; तथापि पकडी हुई गदहे की पूँछ को छोड़तेही नहीं । माता की भक्ति बकरे मारने से नहीं होती है । अपने २ मत में मानी हुई काली, महाकाली, गौरी, Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) "" गान्धारी, अम्बा, दुर्गा वगैरह की सेवा उत्तम २ पदार्थों को चढ़ाकर करनी चाहिए। कितनेही लोग दुर्गापाठ की साक्षी देकर पशुपूजा के लिए आग्रह करते हैं, उनलोगों को समझना चाहिये कि " पशुपुष्पैश्च धूपैश्च यह जो पाठ है उसमें विचार कीजिए कि पुष्प को जैसे साबूत ( समूचा ) चढ़ा देते हैं वैसे ही पशु को भी चढ़ादेना चाहिए याने चढ़ाते समय यह प्रार्थना करनी चाहिए कि है जगदम्ब ! आपके दर्शन से जैसे हम लोग अभय और आनन्द से रहते हैं वैसे ही तुम्हारे दर्शन से पवित्र हुआ यह बकरा जगत् में निर्भय होकर विचरे । अर्थात् किसी मांसाहारी की छुरी उसके गले पर न फिरे । ऐसा संकल्प करके बकरे को छोड़ना चाहिए, जिससे कि पुण्य हो और माता भी प्रसन्न हो, तथा जगदम्बा का सच्चा अर्थ भी घटित हो जाय । अन्यथा जगदम्बा नाम रहने पर भी जगद्भक्षिणी हो जायगी । महानुभव ! मनुजी ने ४८ और ४९ वें श्लोक में प्राणियोंके वध से स्वर्ग का निषेध स्पष्ट दिखलाया है । यदि कदाचित् उन श्लोकों को कल्पित मानोगे तो मांसाहार से स्वर्ग होता है, यह कल्पित क्यों न माना जाय ? जब कि दोनों कल्पित नहीं हैं तो यही दोनों श्लोक बलवान् हैं और बलवान् से दुर्बल बाधित होता है । और देखिये उसी अध्याय के ५३-५४-१५ श्लोकों को : " वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः । मांसानि च न खादेद् यस्तयोः पुण्यफलं समम् " ॥५३॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) भावार्थ - वर्ष २ में एक पुरुष अश्वमेध करके सौवर्ष तक यज्ञ करे और एक पुरुष बिलकुल कोई मांस न खाय तो उनदानों का समान ही फल है । " फलमूलाशनैर्मेध्यैर्मुन्यन्नानां च भोजनैः । न तत्फलमवाप्नोति यन्मांसपरिवर्जनात् " ॥ ५४ ॥ अर्थात् - जो पवित्र फल मूलादि तथा नीवारादि के भोजन करने से भी फल नहीं मिलता वह केवल मांसाहार के त्याग करने से ही मिलता है । " मांस भक्षयितामुत्र यस्य मांसमिहाम्यहम् | एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः " ॥ ५५ ॥ याने जिसका मांस मैं यहां खाता हूं वह मुझको भी जन्मान्तर में अवश्यही खायगा ऐसा " मांस अर्थ महात्मा पुरुषों ने कहा - शब्द का विवेचन—५३ वें श्लोक में लिखा है कि, सौ वर्ष तक अश्वमेध यज्ञ करनेसे जो फल मिलता है वह फल मांसाहार मात्र के त्याग करने से होता है । हिन्दू शास्त्रानुसार अश्वमेध की विधि करना इस समय बहुत कठिन है, क्योंकि पहिले तो समस्त पृथ्वी जीतना चाहिये, तब अश्वमेध यज्ञ करने का अधिकारी होता है और तिसपर भी लाखों रुपये खर्च होते हैं और इतने पर भी हिंसाजन्य दोष होता ही है, ऐसा सांख्यतत्वकौमुदी में दिखलाया है - " स्वल्पः सङ्करः सपरिहारः सप्रत्यवमर्षः ” अर्थात् स्वल्प, सङ्कर याने दोषसहित यज्ञ का पुण्य है, और सपरिहार याने कितने ही प्रायश्चित्त है 1 .. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) करके शुद्ध करने योग्य, तथा सप्रत्यवमर्ष अर्थात् यदि न होवे तो पुण्य भोगने के समय हिंसाजन्य पाप भी अवश्य सहना पड़ेगा इत्यादि । यद्यपि इस विषय में वैदिकधर्म को नहीं मानने वाले के साथ विवाद है तो भी मनुजी ने मांसाहार त्याग करने से जो फल दिखलाया है वह तो सबके मत में निर्विवाद और अनायाससाध्य होने से सर्वथा स्वीकार करने के योग्य है । ५४ वें श्लोक में लिखा है कि, मुनियों के आचार पालने से जो पुण्य मिलता है वह पुण्य केवल मांसाहार के त्याग करने से ही मिलता है, अर्थात् शुष्क जीर्ण पत्राहारादि से जो लाभ होता है वह लाभ मांसाहार के त्याग करने से होता है। ऐसे सरल, निर्दोष, निर्विवाद, मार्ग को छोड़कर सदोष, विवादास्पद, पर के प्राणघातक कृत्यों से स्वर्ग को चाहनेवाले पुरुष को ५५ वें श्लोक पर अवश्य दृष्टि देनी चाहिए । मांस शब्द की निरुक्ति में ऐसा लिखा है कि "मांस याने मुझको खानेवाला " सः" याने वह होगा, जिसका मांस में खाता हूं, ऐसा मांस शब्द का अर्थ मनुजी कहते हैं। अब मनुजी के वाक्य को मान करके यज्ञादि करने वालों को ध्यान रखना चाहिए कि स्वर्ग जाने के लिये बहुत से रास्ते हैं तो फिर समस्त प्रजा के अनुकूल रास्ते से जानाही सर्वथा ठीक है याने प्रजा वर्ग के प्रतिकूल रास्ते से जाना उचित नहीं है । पुराणों ने भी पुकार २ कर हिंसा का निषेध किया है। देखिये व्यासजी ने पुराणों में इस तरह - Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९) "ज्ञानपालीपरिक्षिप्ते ब्रह्मचर्यदयाऽम्भसि । स्नात्वाऽतिविमले तीर्थे पापपङ्कापहारिणि" ॥१॥ "ध्यानाग्नौ जीवकुण्डस्थे दममारुतदीपिते । असत्कर्मसमित्क्षेपैरग्निहोत्रं कुरूत्तमम्" ॥ २ ॥ "कषायपशुभिर्दुष्टैधर्मकामार्थनाशकैः। शममन्त्रहतैर्यझं विधेहि विहितं बुधैः" ॥ ३ ॥ "प्राणिघातात्तु यो धर्ममीहते मूढमानसः । स वाञ्छति सुधाष्टिं कृष्णाऽहिमुखकोटरात्" ॥४॥ ___ अर्थात्-ज्ञानरूप पाली से युक्त ब्रह्मचर्य और दयारूप जलमय अत्यन्त निर्मल पापरूप कीचड़ को दूर करनेवाले तीर्थ में स्नान करके ध्यानाग्निमय दमरूप वायु से संतप्त हुआ जीवरूप कुण्ड में असत्कृत्यरूप काष्ठों से उत्तम अग्निहोत्रों को करिये । क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायरूप दुष्ट पशुओं को (जो धर्म, अर्थ तथा काम को नाश करने वाले हैं ) शमरूप मन्त्र से मार कर पण्डितों से किये हुए यज्ञ को करो। और प्राणियों के नाश से जो धर्म की इच्छा करता है वह श्यामवर्ण सर्प के मुख से अमृत की वृष्टि चाहता है। विवेचन-पूर्वोक्त चारों श्लोकों से अहिंसामय यज्ञ को पाठकलोग समझ गये होंगे । इस प्रकार यज्ञ करने से क्या स्वर्ग नही मिलेगा ? यदि इस विधि में वि. श्वास नहीं है तो विवादास्पद सदोष विधि में तो अत्यन्त विश्वास नहीं किया जा सकता, क्योंकि Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) वेद के माननेवालों में भी बहुत से लोग हिंसाजन्य कार्य से विपरीत हैं । देखिये अचिमागियों के उद्गारयथा" देवापहारव्याजेन यज्ञव्याजेन येऽथवा । नन्ति जन्तून् गतघृणा घोरां ते यान्ति दुर्गतिम्" ॥१॥ भावार्थ-देव की पूजा के निमित्त या यज्ञ कर्म के निमित्त से जो निर्दय पुरुष प्राणियों को निर्दय होकर मारता है वह घोर दुर्गति में जाता है, अर्थात् दुर्गति को पाता है। वेदान्तियों के वचन को सुनो" अन्धे तमसि मज्जामः पशुभिर्ये यजामहे । हिंसा नाम भवेद् धर्मो न भूतो न भविष्यति" ॥१॥ भावार्थ-जो हमलोग यज्ञ करते हैं वह अन्धकारमय स्थान में डूबते हैं क्योंकि हिंसा से न कदापि धर्म हुआ और न होगा, ऐसे वाक्य अनेक जगह में दिखाई पड़ते हैं । तथापि आग्रह में डूबे हुए पुरुष लाभालाभ का विचार न करके सत्य वस्तु का आदर नहीं करते हैं और न युक्ति को देखते हैं । देखिये व्यासजी ने चौथे श्लोक में कहा है कि-यदि सर्प के मुख से अमृतवृष्टि होती हो तो हिंसा से भी धर्म हो सकता है, यह व्यासजी का कैसा युक्तियुक्त वाक्य है और युक्तियुक्त वाक्य किसीका भी हो तो उसके स्वीकार करने को समस्त लोग तैयार होते हैं; फिर व्यास ऐसे कविवर के वाक्य को कौन नहीं मानेगा ? । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) मनुजी ने ५३-५४-५५ वें श्लोक में जो अहिंसा मार्ग दिखलाया है वह समस्त मनुष्यों के माननेयोग्य है क्योंकि अहिंसा ही सब कल्याणों को देने वाली है, इस विषय में जैनाचार्यों के वाक्यामृत को देखिये - 16 क्रीडाभूः सुकृतस्य दुष्कृतरजः संहारवात्या भवो - दन्यन्नर्व्यसनान्निमेघपटली संकेतदूती श्रियाम् । निःश्रेणिस्त्रिदिवौकसः प्रियसखी मुक्तेः कुगत्यर्गला सच्चेषु क्रियतां कृपैव भवतु क्लैशैर शेषैः परैः " ॥ १ ॥ Y भावार्थ - प्राणियों में दयाही करनी चाहिये, दूसरे क्लेशों से कुछ प्रयाजन नहीं है । क्योंकि सुकृत का कीड़ा करने का स्थान अहिंसा है अर्थात् अहिंसा सुकृत को पालन करनेवाली है और दुष्कृतरूप धूली को उड़ाने के लिये वायु समान है, संसाररूपी समुद्र के तरने के लिये नौकासमान है, और व्यसनरूप दावाग्नि के शान्त करनेके लिये मेघकी घटा के तुल्य, तथा लक्ष्मी के लिये संकेतदूती है; अर्थात् जैसे दूती स्त्री या पुरुष को परस्पर मिला देती है वैसेही पुरुष का और लक्ष्मी का मेल अहिंसा करा देती है और स्वर्ग में चढ़ने के लिये सोपानपङ्क्ति है, तथा मुक्ति की प्रियसखी कुगति के रोकने के लिये अर्गला अहिंसा ही है । विवेचन - अहिंसा ही समस्त अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाली है । इस पर किसी २ को यह शङ्का उत्पन्न होगी कि ब्रह्मचर्य पालन, परोपकार, सन्तोष, ध्यान, तप, आदि धर्म, शास्त्र में जो कहे हुए हैं वह व्यर्थ हो जायेंगे Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) ध्यान, तप, क्योंकि केवल दया करनेही की सूचना की गई है और अन्य क्लेशों की मनाही की है। उसके उत्तर में समझना चाहिए कि जिसके हृदय में अहिंसा देवी का थोड़ा बहुत प्रतिबिम्ब पड़ा हुआ है उसके हृदय मन्दिर में ब्रह्मचर्य, परोपकार सन्तोष, दान, जपादि समस्त गुणों की श्रेणी बैठी हुई है अगर न हो तो दयादेवी निरुपद्रव रह ही नहीं सकती । अहिंसारूप सुन्दर बगीचे में दान, शील, तप, भावादि क्यारियां सुशोभित हैं । और कारुण्य, मैत्री, प्रमोद, और माध्यस्थ्य- ये चार प्रकारकी भावनारूप बाली से शान्तिरूप जल इधर उधर बहता है । तथा दीर्घायुष्य, श्रेष्ठशरीर, उत्तमगोत्र, पुष्कल द्रव्य, अत्यन्त बल, ठकुराई, आरोग्य, अत्युत्तम कीर्तिलतादि वृक्षों की पङ्क्ति कल्लोल कर रही है, और विवेक, विनय, विद्या, सविचार आदि की सरल और सुन्दर पत्रपक्तियां प्रफुल्लित होकर फैल रही हैं; तथा परोपकार, ज्ञान, ध्यान, तप, जपादि रूप पुष्पपुञ्ज भव्यजीवों को आनन्दित कर रहा है, एवं स्वर्ग, अपवर्ग रूप अविनश्वर फलों का बुभुक्षित मुनि आस्वादन कर रहे हैं; ऐसे अहिंसारूप अमूल्य बगीचे की रक्षा के लिये, मृषावाद - परिहार, अदत्तादान - परिहार, ब्रह्मचर्य - सेवा, परिग्रह - त्याग रूप अटल अभेद्य ( काम क्रोधादि अनादिकाल के अपने शत्रुओं से दुर्लङ्घ्य ) किलेकी आवश्यकता है । विना मर्यादा कोई चीज नहीं रह सकती, अत एव अहिंसारूप अत्युपयोगी बगीचे के बचाने के लिये समस्त धर्मवाले न्यूनाधिक ध्यान सन्ध्यादि धर्मकृत्यों को करते हैं, यह बात सर्वथा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) माननीय है। यदि इस बातके न मानने वालेको नास्तिक कहा जाय, तो अतिशयोक्ति नहीं है। जीवहिंसा के समान दूसरा कोई पाप नहीं है और दया के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है । इसलिये हिंसा से कभी धर्म नहीं होता, इसके लिये कहा है कि" यदि ग्राबा तोये तरति तरणिर्यादयते __ प्रतीच्यां सप्ताचियदि भजति शैत्यं कथमपि । यदि क्षमापीठं स्यादुपरि सकलस्यापि जगतः प्रसूते सत्वानां तदपि न वधः कापि सुकृतम्"॥१॥ भावार्थ-यद्यपि जल में पत्थर तैरता नहीं है, यदि वह भी किसी प्रकार तैरे; और सूर्य पश्चिम दिशामें उदय नहीं होता, यदि वह भी किसी प्रकार उदय हो, और अग्नि कदापि शीतल नहीं होती, यदि वह भी, सीता ऐसी महासती के प्रभाव से शीत हो जाय, एवं पृथ्वी कभी अधोभाग से ऊपर नहीं होती, यदि वह भी हो तो भी प्राणियों का वध कभी सुकृत को उत्पन्न नहीं करेगा । और इसी बात को दृढ करने के लिये जैनाचार्यों ने कहा है कि" स कमलवनमग्नेर्वासरं भास्वदस्ता दमृतमुरगवत्रात् साधुवादं विवादात् । रुगपगममजीर्णाज्जीवितं कालकूटा दभिलषति वधाद् यः प्राणिनां धर्ममिच्छेत् " ॥१॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) भावार्थ-जो पुरुष प्राणियों के वध से धर्म की इच्छा करता है वह दावानल से कमल की इच्छा करता है, या सूर्य के अस्त होने पर दिन की वाञ्छा करता है, अथवा सर्प के मुखसे अमृत की अभिलाषा करताहै, तथा •विवाद ( झगड़े ) से अपने को अच्छा कहलाना चाहता है, और अजीर्ण से रोग की शान्ति चाहता है और हलाहल ( जहर ) से जीने की इच्छा करता है । विवेचन-यद्यपि पत्थर जल में तैरता नहीं फिर भी यदि किसी प्रकार तैरे, तो भी अश्चर्य नहीं, किन्तु प्राणियों के वध से पुण्य कदापि नहीं हो सकता । धूममार्गानुसारी कहते हैं कि हमलोक मन्त्र से पवित्र करके मांस को खाते है, अतएव दोष नहीं लगता, किन्तु पुण्य का ही उपार्जन है, यह बोत ठीक नहीं है; क्योंकि विवाहादि कृत्यों में मन्त्र पढ़े जाते हैं उसमें विपरीत भी फल दिखाई देता है, तब मांसाहार से विपरीत फल क्यों न हो ? मन्त्रसंस्कृत मांस भक्ष्य है और दूसरा अभक्ष्य है, यह कहना मात्र है; किन्तु मांसमात्र अभक्ष्य ही है; क्योंकि विष को मन्त्र से संस्कृत करोगे तो भी मारेगा और असंस्कृत रहने पर भी मारेही गा । जान कर खाने में या अनजान से खाने में, जीने के लिये या मरने के लिये, या किसी भी रीति से खाया जाय तो भी प्राणनाश ही करेगा । हिंसाजन्य पाप का नाश कभी नहीं होता । बुद्धजी के ही वचनों को देखिये" इत एकनवति कल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः । तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः !" ॥१॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात्-इस भव से एकानवे कल्प में मैंने शक्ति से पुरुष को मारा था, उससे उत्पन्न हुए पाप कर्म के विपाक से, हे साधुजन ! मैं कण्टक से पाद में विद्ध हुआ हूँ । किये हुए कर्म, भवान्तर में भोगनेही पड़ते हैं " यादृशं क्रियते कर्म तादृशं प्राप्यते फलम् " याने जैसा कर्म किया जाता है वैसाही फल मिलता है। कर्म को किसीका भी लिहाज नहीं है। पशुमारनेवाला जरूर पाप का भागी होता है और नरकमें जाता है। यथा " यावन्ति पशुरोमाणि पशुगात्रेषु भारत !। तावद् वर्षसहस्राणि पच्यन्ते पशुघातकाः " ॥१॥ भावार्थ हे भारत ! पशु के शरीर में जितने रोम हैं उतने हजार वर्ष पशु के घातक नरक में जाकर दुःख भोगते हैं । याने स्वकृत-कर्मानुसार ताड़न, तर्जन, छेदन, भेदनादि क्रिया को सहते हैं। ऐसे स्पष्ट लेख रहने पर भी हिंसा में धर्म मानने वाले मनुष्य, महानुभाव भद्रलोगों को भ्रम में डालने के लिये कुयुक्ति देते हैं कि विधिपूर्वक मांस खाने से स्वर्ग होता है, इतनी आज्ञा देने से अविधि से मांसखानेवाले लोग भय से रुक जावेंगे और हिंसा भी नियमित ही होगी । इत्यादि कुत्सित विचारों के उत्तर में समझना चाहिए कि-अविधि से मांस खानेवाले तो अपने आत्मा की निन्दा और पश्चात्ताप भी करेंगे, क्योंकि आत्मा का स्वभाव मांस खाने का नहीं है, किन्तु विधिपूर्वक मांस खानेवाले तो पश्चात्ताप भी नहीं करते, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बल्कि धर्म मानकर प्रसन्न होते हैं, तथा एक दफे मांस का स्वाद लेने से समय समय पर देवपूजा के व्याज से उदर की पूजा करेंगे और हिंसा के निषेध करनेवालों के सामने विवाद करने को तैयार होंगे। तब सोचिये कि इससे अनर्थ हुआ कि लाभ हुआ? इस बात का विचार बुद्धिमानों को करना चाहिए । मैं कह सकता हूँ कि स्वर्गकी लालचसे अन्धश्रद्धावाले अनर्थ करते हैं । सांख्य लोग भी मांसभोजियों के प्रति आक्षेप पूर्वक उपदेश करते हैं। यथा" यूपं छित्त्वा पशून हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् । यद्येवं गम्यते स्वर्ग नरके केन गम्यते ? " ॥१॥ अर्थात्-यज्ञस्तम्भ को छेदकर, पशुओं को मारकर, रुधिर का कीचड़ करके यदि स्वर्ग में गमन होता हो, तो फिर नरक में किन कर्मोसे गमन हो सकेगा ? अर्थात जीवहिंसा के समान पाप दुनिया भर में नहीं है। वैसे क्रूरकर्मके करने से यदि स्वर्ग में गमन होता हो तो हिंसासे अतिरिक्त कौन कर्म है कि जो नरक में लेजावे । देखिये तुलसीदास के अहिंसा-पोषक वचनों को। यथा" दया धर्म को मूल है पापमूल अभिमान । तुलसी दया न छाडिए जबलग घट में प्रान" ॥१॥ अर्थात्-धर्म का मूल दया है, तो हिंसा जहाँ होगी Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) वहाँ पर दया का नाम भी नहीं रहेगा । और मूल विना वृक्ष रह नहीं सकता और वृक्ष के विना फल नहीं हो सकता; यह बात साधारण भी मनुष्य समझ सकता है, जैसे कहा है कि 46 दयामहानदीतीरे सर्वे धर्मास्तृणाङ्कुराः । तस्यां शोषणुपेतायां कियन्नन्दन्ति ते चिरम् ?" ॥१॥ भावार्थ - दयारूप महानदी के तीर में सभी धर्म तृणाङ्कुर के समान हैं। उस नदी के सूख जाने पर वे अङकुर कहां तक आनन्दित रहेंगे ? विवेचन-नदी के तीर में वृक्ष, घास, लता आदि सभी वृद्धि को प्राप्त होते हैं, नदी के जल की शीतल हवा के स्पर्श होने से नवपल्लवित रहते हैं, किन्तु नदी वर्षा के अभाव से यदि शुष्क हो जावे तो उसके आधार से उत्पन्न सभी वनस्पति नष्ट हो जाती है, वैसे ही दयारूप नदीके अभावसे धर्मरूप अङ्कुर स्थिर नहीं रह सकते । नीतिशास्त्रकार ने भी दया की मुख्यता दिखलाई है । यथा- “यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते नित्रर्षणच्छेदन तापताडनैः । तथैव धर्मो विदुषा परीक्ष्यते श्रुतेन शीलेन तपोदयागुणैः ॥ १ ॥ 15 अर्थात् - जैसे निघर्षण ( कसौटी पर कसना ) तथा छेदम ( काटने ) ताप ( तपाने ), ताड़न ( पीटने ) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) आदि से सुवर्ण परीक्षित होता है वैसेही शास्त्र, शील, तप, दया आदि गुणों से विद्वान् पुरुष धर्मकी परीक्षा करते हैं। विवेचन-जब सुवर्ण चञ्चल और विनश्वर वस्तु रहने पर भी बुद्धिमान उसकी परीक्षा करनेको नहीं चूकते, तो अविनश्वर, अचल, अनुपम सुख को देनेवाले धर्मरत्नकी परीक्षा करें तो इसमें आश्चर्यही क्या है ? जैसे सुवर्णकी परीक्षा के लिये निघर्षणादि पूर्वोक्त चार प्रकार दिखलाये गये हैं वैसेही धर्मरत्न की परीक्षा के लिये श्रुत, शील, तप और दया दिखलाई है; जिस शास्त्र में परस्पर विरुद्ध बात न हो किन्तु युक्तियुक्त ‘पदार्थोकी व्याख्या हो, तथा परोपकारादि गुणों का वर्णन हो वह शास्त्र प्रामाणिक मानना चाहिए । शील याने ब्रह्मचर्य अथवा आचारके पालने की आवश्यकता को सहेतुक जानने वालाही ब्रह्मचर्यपालनेवाला गिना जाता है, और ब्रह्मचर्य पालन का मूल कारण जीवदयाही है। क्योंकि कामशास्त्रकार वात्स्यायन ने स्वशास्त्र में स्पष्ट लिखा है कि-स्त्रीकी योनिमें असंख्य कीड़े उत्पन्न होते हैं इसीसे उसको पुरुषसेवन करनेकी उत्कट इच्छा होती है और जैनशास्त्रकार तो स्त्रीयोनिगत वीर्य और रुधिर में असङ्ख्य जीवकी उत्पत्ति मानते हैं, इस लिये गर्भज ९ लाख जीव एक वार मैथुन करने से मरजाते हैं और द्वीन्द्रियादि जीवों के मरनेकी संख्या दो । लाख से लेकर नौ लाख तक है एवं संमूच्छिम जीव भी असंख्यात मरते हैं। इस पर दृष्टान्त यह है कि-जैसे बांस की नली में भरी हुई सई को तप्त लोहेकी सलाई शीव्र भस्म Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९) कर देती है, वैसेही स्त्रीपुरुषके संयोगसे योनिस्थ संमूर्छिम असंख्य और द्वीन्द्रियादि एकसे लेकर नव लाख तक जीव मरजाते हैं तथा गर्भज ९ लाख एकवारही विषयसेवन से नष्ट होजाते हैं और नये नये उत्पन्न होते हैं। कर्मयोग से जो एक दो या तीन जीव रह जाते हैं वह बालकरूप से उत्पन्न होते हैं। मद्य, मधु (शहद) और मांस, तथा मक्खन में असवय कीड़े उसी रंग के उत्पन्न होते हैं। पूर्वोक्त बातोंको निश्चय करानेवाली प्राकृतगाथाएँ यहाँ पर दी जाती हैं"तहिं पंचिंदिय जीवा इत्थीजोणीनिवासिणो। मणुआणं नवलक्खा सव्वे पासेई केवली ॥१॥ "इत्थीणं जोणीसु हवन्ति बेइन्दिया य जे जीवा । इको य दुन्नि तिन्निवि लक्खपहुत्तं तु उक्कोसं" ॥२॥ "पुरिसेण सह गयाए तेसिं जीवाणं होइ उद्दवणं । वेणुअ दिलुतेणं तत्ताइ सिलागनाएण" ॥३॥ "इत्थीण जीणिमज्झे गब्बगयाइं हवन्ति जे जीवा । उप्पज्जन्ति चयन्ति य समुच्छिमा असंखया भणिया"॥४॥ "मेहुणसनारूढो नवलक्ख हणेइ सुहुमजीवाणं । तित्थयरेणं भणियं सद्दहिअव्वं पयत्तेणं" ॥५॥ मज्जे महुम्मि मंसम्मि नवणोयम्मि चउत्थए । उप्पज्जन्ति असंखा तमन्ना तत्थ जन्तुणो" ॥ ६॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) इन गाथाओं का भावार्थ पहिलेही लिखा जा चुका है, इसलिये अब विशेष व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है । पाठकोंने अच्छी तरह से समझ लिया होगा कि वस्तुतः ब्रह्मचर्य अहिंसा पालन के लिये ही है, तथापि यदि लौकिक व्यवहार पर भी दृष्टि दी जाय तो और भी विशेष स्पष्ट होगा | देखिये किसीकी बहिन या स्त्री पर कुदृष्टि करने से जो दुःख होता है उसका विवेचन करना असंभव है और दुःख देना ही अहिंसा का स्वरूप है । अतएव ब्रह्मचर्य पालन अहिंसा के लिये है और उस ब्रह्मचर्यको ही शील कहते हैं । अथवा शीलसे सदाचार भी लिया जाता है और जिसके पालने में किसीको बाधा न हो वही सदाचार कहलाता है; अतएव सदाचार सबका उपकारक ही होता है, क्योंकि उससे किसीका भी अपकार नहीं होता । यथा “ लोकापवादभीरुत्वं दीनाभ्युद्धरणादरः । कृतज्ञता सुदाक्षिण्यं सदाचारः प्रकीर्तितः " ॥ १ ॥ भावार्थ - प्रामाणिक लोगोंके अपवाद से डरना, और दीनोंके उद्धार में आदर करना, तथा आदर किये हुवे गुणोंको जानना तथा सुन्दर दाक्षिण्यको सदाचार कहते हैं । ऐसे सुन्दर आचार को ही शील कहते हैं; तथा जिसके आचरण से इन्द्रियोंका निग्रह होता है उसे तप कहते हैं, अर्थात् कषायोंकी शान्ति और सर्वथा आहारका त्याग ही तप है । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) यथा" कपायविषयाऽऽहारत्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं लङ्घनकं विदुः " ॥१॥ अर्थात् -क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेषादि कषाय और पञ्चेन्द्रियके विषयोंका जिसमें त्याग है उसीको उपवास कहना चाहिए, इससे अतिरिक्त तपस्या को तत्ववेत्ता लोग लङ्घन कहते हैं। लेकिन बहुतोंको देखकर आश्चर्य होता है कि दशमी के रोज खान पान में चार आने से उनका कार्य सिद्ध होता है, किन्तु एकादशी के रोज आठ आने का माल उड़ जाता है तो भी उपवास ही कहा जाता है; यह क्या कोई रपवास (तप) है? जिस तपसे कर्मोंका नाश हो उसी का नाम तप है । मन, वचन और शरीरसे किसी जीवकी हानि नहीं करना, किन्तु समस्त जीवों को अपने समान ही मानने को दया कहते हैं, क्योंकि जैसे अपने शरीर में फोडा होने से वेदनाका अनुभव होता है और उसके हजारों उपचार करने का प्रयत्न किया जाता है, वैसे ही अन्य के लिये उपचार करना सर्वथा पण्डितों को उचित है; क्योंकि अन्यजीवों पर जो दया नहीं करता वह कदापि पण्डित नहीं कहलाता है। यथा-- " आत्मवत् सर्वभूतेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् । मातृवत् परदारेषु यः पश्यति स पण्डितः ( यः पश्यति स पश्यति )"॥ १॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) भावार्थ - जो पुरुष सब प्राणियों में अपनी आत्मा के समान बर्ताव करता है और दूसरेके द्रव्य में पत्थर के समान बुद्धि करता है तथा परस्त्रीको माताकी तरह देखता है वही पण्डित है, अथवा वही नेत्रवाला है । देखिये, पूर्वोक्त श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि सब प्रकार जीवों को शान्ति देना, यही दया है । और पूर्वोक्त शास्त्र, शील, तप, दया जिसमें हो उसे धर्मरत्न जानना चाहिए। इससे भिन्न कोई धर्म नहीं है, किन्तु इससे भिन्न जो कुछ होगा वह भद्रिक जीवोंको भवभ्रमणकरानेवाला ही होगा । इसी कारणसे नीतिकार श्लोकरत्नोंको भूमण्डल में छोड़ करके परीक्षा करनेके लिये प्रेरणा करते हैं, तथापि वर्तमान कालके मनुष्य पक्षपातरहित होकर विचार नहीं करते, किन्तु विशुद्ध और निर्मल अहिंसा धर्मका अनादर करके हिंसा करने में कुयुक्तियों का उपयोग करते हैं । वस्तुतः अहिंसादि सामान्य धर्म समस्त दर्शनानुयायियों को संमत है । यथा " पञ्चैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जनम् " ॥ १ ॥ अर्थात् - अहिंसा, सत्य, चोरी का त्याग, ब्रह्मचर्य का पालन और सर्वथा परिग्रह याने मूर्च्छाका त्याग, ये यांच पवित्र महाव्रत समस्त दर्शनानुयायी महापुरुषों को बहुमानपूर्वक माननीय हैं, अर्थात् संन्यासी, स्नातक, नीलपट, वेदान्ती, मीमांसक, साङ्ख्य वेता, बौद्ध, शाक्त, Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) शैव, पाशुपत, कालामुखी, जङ्गम, कापालिक, शाम्भव, भागवत, नग्नव्रत, जटिल आदि आधुनिक तथा प्राचीन समस्त मतवालोंने यम, नियम, व्रत, महाव्रतादि के नामसे मान दिया है और देते भी हैं। तथा इस विषयमें पुराण भी इस तरह साक्षी देते हैं महाभारत शान्तिपर्वके प्रथम पाद में लिखा है कि" सर्वे वेदा न तत् कुर्युः सर्वे यज्ञाश्च भारत !। सर्वे तीर्थाभिषेकाश्च यत् कुर्यात् प्राणिनां दया" ॥१॥ भावार्थ-हे अर्जुन ! जो प्राणियोंकी दया फल देती है वह फल चारों वेद भी नहीं देते और न समस्त यज्ञ देते हैं तथा सर्वतीर्थों के स्नान वन्दन भी वह फल नहीं दे सकते हैं। और यह भी कहा है" अहिंसालक्षणो धर्मो ह्यधर्मः प्राणिनां वधः।। तस्माद् धर्माणिभिर्लोकः कर्तव्या प्राणिनां दया" ॥१॥ अर्थात–दया ही धर्म है और प्राणियों का वध ही अधर्म है, इस कारणसे धार्मिक पुरुषों को सर्वदा दया ही करनी चाहिए। क्योंकि विष्ठाके कीड़ेसे लेकर इन्द्र तक सबको जीविताशा और मरणभय समान है। " अमेध्यमध्ये कीटस्य सुरेन्द्रस्य सुरालये। समाना जीविताऽऽकाङ्क्षा तुल्यं मृत्युभयं द्वयोः"॥१॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) इसका भावार्थ ऊपर दिया ही है । अब जैनशास्त्र के प्रमाणसे दशवैकालिकका यथार्थ वचन दिखलाया जाता है " सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउँ न मरिज्जउं । तम्हा पाणिवहं घोरं निम्गंथा वज्जयंति णं " ॥१॥ भावार्थ- समस्त जीव जीने ही की इच्छा करते है किन्तु मरने की कोई भी इच्छा नहीं करता, अतएव प्राणियों का वध घोर पापरूप होनेसे साधुलोग उसका निषेध (त्याग) करते हैं । इस बातको दृढ़ करते हुए तत्त्वेवत्ता कहते हैं कि " दीयते म्रियमाणस्य कोटिर्जीवित एव वा । धनकोटिं परित्यज्य जीवो जीवितुमिच्छति " ॥ १ ॥ अर्थात् - अगर मरते हुए जीवको कोई आदमी करोड़ अशर्फी दे और कोई मनुष्य केवल जीवन दे तो 'अशर्फियों की लालच को छोड़ वह जीवन की ही इच्छा करेगा, क्योंकि स्वभावसे जीवोंको प्राणोंसे प्यारी और कोई वस्तु नहीं है। इस बात को विशेष दृढ़ करने के लिये यह दृष्टान्त है एक समय राजसभा में बुद्धिमान पुरुषोंने परस्पर विचार करके यह निश्चय किया कि प्राणसे बढ़कर कोई चीज नहीं है । इस बातको सुनकर राजाने परीक्षा ( करने के लिये चार पुरुषोंको बुलाया और हर एक के Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) हाथ में तेलसे भरा हुआ कटोरा देकर आज्ञा दी कितुम सबलोग कटोरे को ले करके शहरके किले की चारों तरफ प्रदक्षिणा करो, किन्तु पात्रसे रास्तेमें एक भी बूंद तेलका न गिरे अगर गिरेगा तो पहिले को दसहजार अशर्फियों का दण्ड होगा, और दूसरे को पचास हजार, तथा तीसरे को लाख और चौथे को कहा गया कि तुह्मारी जान ही लेली जायगी। राजा की इस आज्ञा के वशीभूत होकर चारों आदमी चले, किन्तु कटोरों के भरपूर होने से कुछ न कुछ गिरने का सम्भव था ही, इसलिये वे लोग धीरे २ बहुत ही सम्हल कर चले; किन्तु वैसा करने पर भी पहिले और दूसरे से आधी दूर पहुँचने पर कितनी ही बूंदें गिरी, तीसरे से अन्त में जाकर कुछ बूंदें गिरी, लेकिन जिससे यह कहा गया था कि तुह्मारी जान ही लेली जायगी, उससे तो एक बूंद भी नहीं गिरी । क्योंकि उसने मन, वचन और कायाकी एकाग्रता से काम किया था; अर्थात् जैसा भरा पुरा कटोरा उसने राजाके पाससे उठाया था वैसा ही पहुँचा दिया। इसलिये राजा देखकर चकित हुआ कि अहो! देवसे भी दुर्लभ कार्य जीविताशासे हो सकता है। इसलिये निश्चयसे जीविताशाको नाश करनेवाले पुरुष महापापी हैं ओर अभयदान देनेवाला महादानी शास्त्र में कहा गया है। यथा" महतामपि दानानां कालेन हीयते फलम् । भीताभयप्रदानस्य क्षय एव न विद्यते " ॥१॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) " कपिलानां सहस्राणि यो विप्रेभ्यः प्रयच्छति । एकस्य जीवितं दद्याद् न च तुल्यं युधिष्ठिर" ॥२॥ " दत्तमिष्टं तपस्तप्तं तीर्थसेवा तथा श्रुतम् । सर्वेऽप्यभयदानस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् " ॥३॥ " नातो भूयस्तपो धर्मः कश्चिदन्योऽस्ति भूतले । प्राणिनां भयभीतानामभयं यत् प्रदीयते " ॥ ४ ॥ " वरमेकस्य सत्त्वस्य दत्ता ह्यभयदक्षिणा । न तु विप्रसहस्रेभ्यो गोसहस्रमलङ्कृतम् " ॥५॥ .." हेमधेनुधरादीनां दातारः सुलभा भुवि । दुर्लभः पुरुषो लोके यः प्राणिष्वभयप्रदः" ॥ ६ ॥ " यथा मे न प्रियो मृत्युः सर्वेषां प्राणिनां तथा । तस्माद् मृत्युभयानित्यं त्रातव्याः प्राणिनो बुधैः॥७॥ " एकतः क्रतवः सर्वे समग्रवरदक्षिणाः।। . एकतो भयभीतस्य प्राणिनः प्राणरक्षणम् "॥ ८॥ " एकतः काञ्चनो मेरुर्बहुरत्ना वसुन्धरा ।। एकतो भयभीतस्य प्राणणः प्राणरक्षणम् " ॥ ९ ॥ . नि . भावार्थ-बड़ेसे भी बड़े दानका फल कुछ काल में क्षीण हो जाता है, किन्तु डरे हुए प्राणीको अभय देनेसे जो फल उत्पन्न होता है उसका क्षय नहीं होता, अर्थात् अभयदान से मोक्ष होता है । १ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) ब्राह्मणोंको हजारों कपिला गौएँ दी जावें और यदि केवल एक जीवको भी अभयदान दिया जाय तो बराबर ही फल नहीं है, बल्कि अभयदानका फल अधिक है। २ इष्ट वस्तु के दानसे, तपस्या करनेसे, तीर्थसेवा से या शास्त्रके पढ़नेसे जो पुण्य होता है वह पुण्य अभयदानके सोलहवें भागके सदृश भी नहीं है । ३ भयभीत प्राणीको जो अभयदान दिया जाता है उससे बढ़कर पृथ्वी पर तप अधिक नहीं है अर्थात् सर्वोत्तम अभयदान ही है । ४ ।। एक जीवको अभयदान रूप दक्षिणा देनी श्रेष्ठ है, किन्तु भूषित भी हजारों गौओं का दान देना वैसा श्रेष्ठ नहीं है। ५ . हेम (सुवर्ण), धेनु (गौ) तथा पृथ्वीके दाता संसार में अनेक हैं किन्तु प्राणियों को अभय देने वाले जगत में दुर्लभ हैं । ६ हे अजुर्न ! जैसे मुझे मृत्यु प्रिय नहीं है वैसे ही प्राणिमात्रको मृत्यु अच्छी नहीं लगती अतएव मृत्युके भयसे प्राणियोंकी रक्षा करनी चाहिए । ७ एक तरफ समग्रदक्षिणावाला यज्ञ और दूसरी तरफ भयभीत प्राणीकी प्राणरक्षा करना बराबर है। ८ । एक तरफ सुवर्णका सुमेरुदान, तथा बहु रत्नवाली पृथ्वीका दान रक्खा जाय और एक तरफ केवल प्राणीकी रक्षा रक्खी जावे तो समान ही है । ९ विवेचन-पूर्वोक्त श्लोक पुराणों के हैं, पाठकोंने Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) उनको देखा होगा कि इनमें अभयदान की ही प्रशंसा की है। जैनशास्त्र में तो अभयदानको मोक्षका कारण माना है। उसी रीति से पुराणों में भी लिखा है, तथापि कितने ही लोग शास्त्रमोहित होकर अभयदानकी महिमा को नहीं समझते। यहाँ पर प्रथम श्लोक सब दानों में अभयदानको ही श्रेष्ठ बतलाता है और अभयदान देने में द्रव्यका भी कुछ खर्च नहीं पड़ता है, केवल मनमें दयाभाव रखकर छोटे बड़े सभी जीवों की यथाशक्ति रक्षा तथा करता का सर्वथा त्याग करना चाहिये; और अपने सुख के लिये अन्य जीवोंका प्राण लेना किसीको उचित नहीं है, इसीसे लिखा हुआ है कि "न गोप्रदानं न महीप्रदानं नाऽनप्रदानं हि तथा प्रधानम् । यथा वदन्तीह बुधाः प्रधानं सर्वप्रदानेष्वभयप्रदानम्"।२९८॥ पृ. ७७ पञ्चतन्त्र । __ अर्थात्-विद्वान् लोग संपूर्ण दानों में जैसा अभयदान को उत्तम मानते हैं वैसा गोदान, पृथ्वीदान और अन्नदान आदि किसी को भी प्रधान नहीं मानते हैं। कितने ही अज्ञानी जीव विना विचारे ही मच्छर, डाँस । खटमल, जूंआ, वगैरह छोटे २ जीवों को स्वभाव से ही मार डालते हैं, और बहुत से तो घोडे के बाल की मूरछल से, या हाथ से, या घर में धूआँ करके, या गरम जल से खटमल आदि जीवों को मारते हैं, परन्तु यदि कोई उनको समझावे तो वे ऊटपटांग जवाब देकर अपना बचाव करने का यत्न करते हैं; लेकिन वस्तुतः वैसे Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९) जीवों के मारने से भी बहुत पाप होता है । इस विषय को दृढ़ करानेवाला वाराहपुराण का श्लोक देखिये" जरायुजाण्डजोद्भिज्जस्वेदनानि कदाचन । ये न हिंसन्ति भूतानि शुद्धात्मानो दयापराः " ॥८॥ १३२ अ. ५३२ पृ. भावार्थ-मनुष्य, गौ, भैंस और बकरी वगैरह एवं अण्डज अर्थात् सब प्रकार के पक्षी; उद्भिज याने वनस्पति, और स्वेदज याने खटमल, मच्छर, डांस, जुआँ, लीख वगैरह समस्त जन्तुओं की जो पुरुष हिंसा नहीं करते हैं वेही शुद्धात्मा और दयापरायण सर्वोत्तम हैं। विवेचन-पूर्वोक्त श्लोक से स्पष्ट हुआ कि समस्त जीवों की रक्षा करनी चाहिये, अर्थात् किसी जीव को किसी प्रकार से भी मारना उचित नहीं है । खटमल, मच्छर, डांस, जुआँ वगैरह पहिले तो मनुष्य के पसीने और गन्दगी से पैदा होते हैं, किन्तु पीछे वे अपने २ पूर्वजों के खून से उत्पन्न होते हैं । परन्तु जहां कहीं वैसे जीव मरते हैं वहां पर पहिले से दुने बल्कि चौगुने उत्पन्न होते हैं। अत एव उनको मारना लाभदायक न होकर हानिकारकही है; यद्यपि वे जीव अपना २ काल पूरा करके स्वयं मरेंगे तथापि उनको मारना नहीं चाहिये, क्योंकि अभयदान जैसा उत्तम है वैसा कोई भी उत्तम धर्म नहीं है; यह बात पूर्वोक्त श्लोकसे स्पष्ट हो ही चुकी है। इसलिये जब कोई जीव अपने शरीर पर बैठे तो उसे कपड़े से सहज में हटादेना चाहिए; और जमीन को भी जहाँ तक बनसके देख देख Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) कर चलना चाहिए, जिससे कोई जीव मरने न पावे । यदि किसी को कुछ भी द्रव्य न खर्च करके धर्म करने की इच्छा हो तो उसके लिये अहिंसा धर्म के सिवाय कोई दूसरा धर्म नहीं है । इसीसे श्रीमद्भगवद्गीता में भी देवीसम्पत् और आसुरीसंपत् जो दिखलाई गई हैं, उनमें दैवीसम्पत् तो मोक्ष को देनेवाली है, और आसुरीसम्पत् केवल दुर्गति का कारण है। और दैवीसंपत् में भी केवल अभयदान को ही मुख्य रक्खा है । यथा" अभयं सत्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः। दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् " ॥ १ ॥ " अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् । दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम् " ॥ २ ॥ " तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानता । भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत !" ॥ ३ ॥ गीता, अ० १६ भावार्थ-अभय याने भयका अभाव १, सत्त्वसंशुद्धिचित्तसंशुद्धि, अर्थात् चित्तप्रसन्नता २, आत्मज्ञान प्राप्त करने के उपाय में श्रद्धा ही ज्ञानयोगव्यवस्थिति है ३, और अपने भोगने की वस्तु में से यथोचित अभ्यागत को देने को दान कहते हैं ४, बाह्येन्द्रियों को नियम में रखना ही दम कहलाता है ५, तथा ईश्वर की पूजा रूप ही यज्ञ है, क्योंकि यज्ञ का यह अर्थ भगवद्गीता के पृ. २८ कर्मयोग नामक तीसरे अध्याय में २३ वा श्लोक Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) पहिलेही लिख दिया है, कि-" यज्ञायाचरतः कर्म " :अर्थात् ईश्वरार्थ कर्म के स्वीकार से । अत एव यहां पर भी वही अर्थ घटता है, क्योंकि अन्य यज्ञ के हिंसामय होने से अभय, अहिंसा, दया तीनों वस्तुएं पृथक् २ दिखलाई गई हैं। यदि यहां पर हिंसामय यज्ञ का कथन होता तो दैवीसंपत् के जो छब्बीस कारण गिनाये हैं, उनमें परस्पर विरुद्ध भाव हो जाता, अत एव यज्ञ का अर्थ यहाँ पर ईश्वरपूजा से अतिरिक्त दूसरा नहीं हो सकता है ६, तत्व विद्या का पाठ ही स्वाध्याय है ७; तप तीन प्रकार का है, वह पृ. ९४ अध्याय १७ वे में कहा है कि " देवद्विजगुरुमाज्ञपूजनं शौचमार्जवम् । ___ ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते " ॥ १४ ॥ " अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् । स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते " ॥१६॥ " मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः । भावसंशुद्धिरित्येतद् तपो मानसमुच्यते " ॥ १६ ॥ भावार्थ-देव, ब्राह्मण, गुरु और पण्डित की पूजा, शौच-अन्तःकरणशुद्धि, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसारूपही शरीर का तप कहलाता है। उद्वेग को नहीं करनेवाला वाक्य, सत्य, प्रिय, हितकर और स्वाध्याय तथा अभ्यास यह वाङ्मय तप है। मनकी प्रसन्नता, चन्द्रमाके तुल्य शीतलता, मौन होना, आत्मनिग्रह और भाव की शुद्धता Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) मानस तप कहलाता है । इस शारीरिक, मानसिक, वाचिक रूपसे तीन प्रकार का तप लिखा है ८; अवक्रता को आर्जव कहते हैं ९, जिसमें पर की पीड़ा किसी प्रकार की न हो उसे अहिंसा कहते हैं १०, यथार्थ भाषण को सत्य कहते हैं ११, अत्यन्त ताड़न किये जाने पर भी मन में कुछ भी व्याकुलता नहीं आना अक्रोध है १२, उदार भावसे दान देनाही त्याग है १३, मन में उत्पन्न हुए विकल्पों को दबा देनाही शान्ति है १४, परोक्ष में दूसरे के दोषों को नहीं कहना ही अपैशुन्य है १५, धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चार पदार्थों में से किसी पुरुषार्थ के साधन करनेकी सामर्थ्यरहितदीन जीवों में अनुकम्पा करने को दया कहते है १६, विषय में लालच के त्याग को अलोलुपता माना है १७, अक्रूरता अर्थात् सरलता को मार्दव कहते हैं १८, अकार्य करने में लोकलज्जा को ही कहते हैं १९, अनर्थदण्डवाली क्रियासे मुक्त होकर स्थिरभाव रखना ही अचपलता है २०, दुःखावस्था में अपनी सत्ता से नहीं हटना अर्थात् गम्भीरताही तेज कहलाती है । २१, शक्ति रहने पर भी किसीसे व्यर्थ परिभवादि पाने पर क्रोध नहीं करनेको क्षमा कहते हैं २३, दुःखों की परम्परा आनेपर भी स्थिरता ( दृढ़ता ) रखना धृति कहलाती है २३, आभ्यन्तर और बाह्य पवित्रता को शौच माना है २४, किसी की बुराई करने की इच्छा नहीं करना ही अद्रोह है २५, अहंकाररहितता को नातिमानता कहते हैं २६ । भावि कल्याणवान् पुरुषकोही दैवी संपत् होती है; प्रायः दम्भ, मद, अहङ्ककार, क्रोध, निष्ठुरता तथा Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) अज्ञानादि आसुरीसंपत् नरकगामी जीवको होती है, सर्वोत्तम दैवीसंपत् दिखाई है; उसमें अभयदानादि छब्बीस गुणोंका वर्णन देखनेसे सिद्ध होता है कि कदापि हिंसा से धर्म नहीं है देखिये-मनुस्मृति, वाराहपुराण, कूर्मपुराणादि में तो हिंसा करनेवाले को प्रायश्चित्त दिखलाया है; इसलिये भव्यजीवों को उस प्रायश्चित्त का भागी नहीं बननाही श्रेष्ठ है; क्योंकि " प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ” अर्थात् कीचड़ में पहिले पैर डालकर पीछे धोने की अपेक्षा उसमें पहिलेही से पैर नहीं डालना अच्छा है। यदि ऐसे महावाक्यों पर ध्यान दिया जाय तो कदापि प्रायश्चित्त लेने का समय ही न आवे । मनुस्मृति के ११ वें अध्याय का ४४८ वाँ पृष्ठ देखिये । यथा" अभोज्यानां तु भुक्त्वाऽन्नं स्त्रीशूद्रोच्छिष्टमेव च । जग्ध्वा मांसमभक्ष्यं च सप्तरात्रं यवान् पिबेत् "॥१५९॥ भावार्थ-जिसका अन्न खानेलायक नही है जैसे चमार आदि शूद्रों का अन्न खाकर, और स्त्री तथा शूद्र का जंठा खाकर, तथा सर्वदा अभक्ष्यही याने नहीं खानेलायक मांस को खाकर यदि कोई शुद्ध होना चाहे तो सात दिन तक यव का पानी पीना चाहिये। इत्यादि । विवेचन-प्रायश्चित्त विधि में मांस खानेसे प्रायश्चित्त भी दिखलाया है, तो भी हिंसा से लोग क्यों नहीं डरते हैं ? विधिविहित मांस खाने में दोष न माननेवालों को देखना चाहिये कि श्रीमद्भागवतीय चतुर्थ स्कन्ध के २५ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) वें अध्याय में-प्राचीनबर्हिष राजाने नारद जी से पछा कि मेरा मन स्थिर क्यों नहीं रहता है ? तब नारदजी ने योगबल से देखकर कहा कि आपने जो प्राणियों के वधवाले बहुत से यज्ञ किये हैं इसीसे आपका चित्त स्थिर नही रहता है । ऐसा कहकर योगबल से राजा को यज्ञमें मारे हुए पशुओंका दृश्य आकाश में दिखलाया और नारदजीने कहा कि हे राजन् ! दया रहित होकर हजारों पशुओं को यज्ञ में जो तुमने मारा है वे पशु इस समय क्रुध होकर यह रास्ता देख रहे हैं कि राजा, मरकर कब आवे और हम लोग उसको अस्त्रों से काट कर कब अपना बदला चुकावें । देखिये श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कन्ध में “भो भोः ! प्रजापते ! राजन् ! पशून् पश्य त्वयाऽध्वरे। ___ संज्ञापितान् जीवसङ्घान् निघणेन सहस्रशः " ॥ ७ ॥ " एते त्वां संप्रतीक्षन्ते स्मरन्तो वैशसं तव । संपरेतमयैः कूटैश्छिन्दन्त्युत्थितमन्यवः" ॥८॥ इन दोनों श्लोकों का भावार्थ ऊपरही स्पष्ट हो चुका है। इसके बाद प्राचीनबर्हिष राजा भयभीत होकर नारद के चरण पर गिर पड़ा और कहने लगा कि हे भगवन् ! अब मैं हिंसा नहीं करूंगा; किन्तु मेरा उद्धार कीजिये । तब नारदजीने ईश्वरभजनादि शुभकृत्यों को बतला कर उसका उद्धार किया; यह बात श्रीमद्भागवतमें लिखी है । इस स्थल में विशेष न लिखकर श्रीमद्भार Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) गवत के चतुर्थस्कन्ध को देखजाने का मैं अनुरोध करता हूँ। यज्ञ में हिंसा करने का निषेध महाभारत शान्तिपर्व के मोक्षाधिकार में अध्याय २७३ पृष्ठ १५४ में लिखा है। यथा"तस्य तेनानुभावेन मृगहिंसाऽऽत्मनस्तदा । तपो महत् समुच्छिन्नं तस्माद् हिंसा न यज्ञिया ॥१८॥ "अहिंसा सकलो धर्मोऽहिंसाधर्मस्तथा हितः। सत्यं तेऽहं प्रवक्ष्यामि नो धर्मः सत्यवादिनाम्" ॥२०॥ भावार्थ-स्वर्ग के अनुभाव से एक मुनिने मृगकी हिंसा की, तब उस मुनिका जन्मभर का बड़ा भारी तप नष्ट होगया, अतएव हिंसासे यज्ञ भी हितकर नहीं है। वस्तुतः अहिंसा ही सकल धर्म है, और अहिंसा धर्म ही सच्चा हितकर है। मैं तुम से सत्य कहता हूं कि सत्यवादी पुरुषका हिंसा करनेका धर्म नहीं है । विवेचन-पूर्वोक्त दोनों श्लोकोंमें लिखा है कि किसी मुनिके आगे मुगका रूप धर कर धमें आया। तब उसको मुनिने स्वर्गके लिये मारा, इस कारणसे मुनिका सब तप नष्ट होगया; तो विचार करने की बात है कि जब ऐसे मुनिका भी तप हिंसा करने से नष्ट होगया तब बिचारे उन लोगों का क्या हाल होगा कि जिन्होंने कभी तप का लेशमात्र भी नहीं अर्जन किया ? केवल सांसारिक सुख में लम्पट यज्ञ निमित्त हिंसा करके कौनसी Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गति को पावेंगे? यही विचारलेना चाहिये ? तथा देखिये महाभारत शान्तिपर्व के मोक्षधर्माधिकार अध्याय १६५ पृष्ठ १४१ में यज्ञ का स्पष्ट ही निषेध किया है यथा " छिन्नस्थूणं वृषं दृष्ट्वा विलापं च गवां भृशम् । गोग्रहे यज्ञवाटस्य प्रेक्षमाणः स पार्थिवः" ॥२॥ " स्वस्ति गोभ्योऽस्तु लोकेषु ततो निर्वचनं कृतम् । हिंसायां हि प्रवृत्तायामाशीरेषां तु कल्पिता" ॥३॥ " अव्यवस्थितमर्यादेविमूढेर्नास्तिकैनरैः। संशयात्मभिरव्यक्तैर्हिसा समनुवर्तिता ॥ ४ ॥ " सर्वकर्मस्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुरवीत् । कामकाराद् विहिंसन्ति बहिर्वेद्यान् पशून्नरः" ॥५॥ " तस्मात् प्रमाणतः कार्यो धर्मः सूक्ष्मो विजानता । अहिंसा सर्वभूतेभ्यो धर्मेभ्यो ज्यायसी मता" ॥६॥ भावार्थ-प्रथम श्लोक में छिन्न शरीरवाले वृषभ का और गौओंका विलाप देखकर, तथा मारनेके लिये यज्ञवाटमें ब्राह्मणों को देख कर विचक्ष्णु राजाने निर्वचन किया कि गौवों का कल्याण हो, और उसके बाद जो जो अहिंसा धर्म के नाशक हैं उन लोगों को आगे के श्लोक से आशीर्वाद दिया कि मर्यादारहित महामूर्ख नास्तिकशिरोमणि संशयवान् अव्यक्तसिद्धान्तानुयायी पुरुषोंने ही Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) हिंसाको मान दिया है, और तुच्छ इच्छा पूर्ण करने के लिये पशुओं को मनुष्य मारते हैं; किन्तु धर्मशास्त्र के विचारसे यह उचित नहीं है, क्योंकि धर्मात्मा मनुजी सभी कर्मों में अहिंसाही करने को कहते हैं, इस कारण से सूक्ष्म धर्मको प्रमाण से करना । तत्त्ववेत्ताओंने भी सर्वभूतधर्मसे अहिंसाही बड़ी मानी है। विवेचन-राजा विचक्ष्णु क्षत्रिय होकर भी हिंसा को देख कर त्रस्त हुए, किन्तु वर्णों के गुरु ब्राह्मणों को कुछ भी डर नहीं लगता, यह भी एक आश्चर्य ही है। कितने ही मूर्ख ( गवार ) तो हिंसा करने में बड़ी बहादुरी मानते हैं, और कहते हैं कि हिंसा करनेसे हिंसकों की संख्या बढ़ती है जिससे युद्धादि कार्य में विशेष विजय होने की संभावना है; किन्तु उनलोगों की यह कल्पना निर्मूल है; क्योंकि देखिये, राजा विचक्ष्णु और प्राचीनबहिष ने यदि हिंसाका त्याग किया और हिंसाकर्म की निन्दा भी की, तो क्या उनका राज्य नष्ट हो गया ?, अथवा वे लोग लड़ाई में अशक्त हो गये ?, या वे शत्रुओं से हार गये ? और ब्राह्मण लोग श्राद्ध में, मधुपर्कम, यज्ञ में यथेष्ट मांस खानेसे क्या विजयी हुए ? अथवा लड़ाई में सफलता प्राप्त की ? मैं तो यही कहता हूं कि वे लोग पेट को बढ़ाकर दरिद्र हो जायेंगे और दरिद्र होकर फिर कुछ भी सिद्ध नहीं कर सकेंगे। राजाने हिंसा करने वाले ब्राह्मणों को आशीर्वाद कैसा दिया? यह बात चतुर्थ श्लोकके अक्षरार्थसे ऊपर ही कही हुई है किन्तु मैं उसको कुछ और विवेचन करता हूं हिंसाकर्मसे भिन्न कर्मको मर्यादा कहते हैं-उसको Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) स्थिर याने व्यवस्थित नहीं रखनेवाले ही अव्यवस्थित मर्यादावाले पुरुष कहे जाते हैं; उसका कारण केवल मुर्खता ही है, अत एव दूसरा विशेषण — विमूढैः' दिया है, किन्तु यह भी विना कारण नहीं कहा जासकता, इसलिये 'नास्तिकैः' यह विशेषण दिया है । धर्मश्रद्धारहित पुरुष को नास्तिक कहते हैं, अत एव 'संशयात्मभिः' यह भी विशेषण दिया है और संशयशील वही पुरुष है जो आत्मा और देह में कभी अभेद बुद्धि और कभी भेद बुद्धि करता हो। तथा आत्मा यदि भिन्न है तो कर्ता है या अकर्ता, और यदि कर्ता है तो वह एक है या अनेक, तथा यदि एक है तो सगवान् है या असङ्ग, इत्यादि संशयवालों के लिये ही संशयात्मभिः” यह कहागया है, और 'अव्यक्तैः' यह जो विशेषण दिया है उसका तात्पर्य यह है कि यज्ञादि कर्मोसे ही अपनी ख्याति (प्रसिद्धि) चाहनेवाला पुरुष हिंसाको श्रेष्ठ मानता है। ___स्पष्ट रूप से ऐसे श्लोकोंके रहने पर भी लोग हिंसा करना बन्द नहीं करते, यह बड़ा ही आश्चर्य है; अथवा इन्हें महामोह के पाश में फंसा हुआ समझना चाहिये । इस लिये यह सिद्ध हुआ कि यज्ञ के उद्देश्य से भी कदापि मांस खाना उचित नहीं है । यही बात महाभारत शान्तिपर्व के २६५ वें अध्याय में लिखी है कि" यदि यज्ञांश्च वृक्षांश्च यूपांश्चोद्दिश्य मानवाः ॥ __ वृथा मांसं न खादन्ति, नैप धर्मः प्रशस्यते " ॥ ८॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९ ) भावार्थ - यज्ञपरायण जो मनुष्य ( केवल यज्ञोंका, वृक्षोंका और यज्ञस्तम्भोंका उद्देश्य करके ( मांस खाने को छोड़कर ) वृथा मांस नहीं खाते, यह धर्म भी प्रशस्त नहीं है, अर्थात् विधिविहित मांस का खाना भी उचित नहीं है । तथा हिंसाका निषेध भी इसी अध्याय में दिखलाया है । यथा 46 सुरां मत्स्यान् मधु मांसमासवं कृसरौदनम् । धूर्तेः प्रवर्तितं ह्येतद् नैतद् वेदेषु कल्पितम् " ॥ ९ ॥ भावार्थ - मदिरापान, मत्स्यादन, मधु - मांसभोजन, आसव याने मद्य का पान, और तिलमिश्रित भात का भोजन, ये सब धूर्तों से ही कल्पित हुआ है किन्तु वेदकल्पित नहीं है । विवेचन - व्यासर्षिने स्वयं यह कहा कि- वेद में हिंसा नहीं है और यदि है तो धूतने ही अर्थका अनर्थ कर डाला है, यह बात इसी नववें श्लोक से स्पष्ट होती है । फिर भी हिंसा करनेवाले पुरुषोंने क्यों सब जगह बलिदान की बहुत महिमा बढाई है ? और वे केवल यज्ञमें ही पशुकी हिंसा करते हों सो भी नहीं, किन्तु यज्ञस्तम्भ के लिये जिस वृक्षको प्रसन्न करते हैं उसके पहिले भी बलिदान करते हैं फिर उसका मांस यज्ञके करानेवाले खाते हैं और वृक्ष का जो यूप बनता है उसको जब यज्ञ मण्डप में स्थापन करते हैं उस समय भी बलिदान देते हैं यज्ञाश्रित वृक्षका और यज्ञस्तम्भ का उद्देश्य करके जो मांस खाते हैं वह पूर्वोक्त आठवें श्लोक से स्पष्ट मालूम Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) होता है, किन्तु व्यासर्षि ने तो इसको भी स्वीकार नहीं किया, बल्कि तिरस्कार ही किया है। जिस देवके समीप बलिदान दिया जाता है उसका भजन ( पूजन ) सुरापानतुल्य है, अर्थात् उसकी सेवा सुरापान के समान पाप का कारण है । यही बात पद्मपुराण (आनन्दाश्रम सीरीज़ में मुद्रित ) के अध्याय २८० पृष्ठ १९०८ में कही है कि" यक्षाणां च पिशाचानां मद्यमांसभुजां तथा। दिवौकसां तु भजनं सुरापानसमं स्मृतम् ” ॥ ९ ॥ भावार्थ-यक्ष, पिशाच और मद्यमांस प्रिय देवताओं का भजन सुरापान के समान ही कहा है, अर्थात् सुरायान करने से जो पापबन्ध होता है वही पापबन्ध इन देवताओं के भजन से भी होता है। फिर भी जो लोग श्राद्ध में मांस खानेका आग्रह करते हैं उनलोगोंने प्रायः श्रीमदभागवत के ७ व स्कन्ध का १५ वां अध्याय नहीं देखा है। यदि देखा होता तो कभी आग्रह नहीं करते । देखिये उसके श्लोक ७ वें ११ ३ को" जयादाभिषं श्राद्धे न चायाद् धर्मतत्त्ववित् । सुन्योः स्वाल परा प्रीतियथा न पशुहिंसया" ।। ७ ।। " तस्मादेवोपपन्नेन मुन्यन्नेनापि धर्मवित् । संतुष्टोऽहरहः कुर्यानित्यनैमित्तिकीः क्रियाः" ॥११॥ भावार्थ-धर्मतत्त्वके ज्ञाता पुरुष तो श्राद्ध में न किसी को माँस देते हैं और न खाते हैं, क्योंकि मुनियों Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के खानेयोग्य व्रीहो आदि शुद्ध अन्न से पितरों को जैसी परम प्रीति होती है, वैसी पशुकी हिंसासे नहीं होती । ११ वें श्लोक के पहिले अर्थात् दशवें श्लोक में कहा है कि यज्ञ करनेवाले को देखकर पशु डरते हैं कि यह हत्यारा अज्ञानी हमलोगों को मारेगा, क्योंकि यह परप्राण से स्वप्राण का पोषण करनेवाला है। इत्यादि अधिकारके परामर्श करने के लिये ११ वें श्लोक में 'तस्मात्' पद दिया है। इसी कारण से धर्मज्ञ पुरुष दैविक कर्म के योग्य अन्न नीवारादि से, संतुष्ट होकर निरन्तर नैमित्तिक क्रियाओं को करें, परन्तु कोई पुरुष हिंसा कदापि न करे । यदि कोई पुरुष पूर्वोक्त वाक्यपर यह शङ्का करे कि सत्ययुग में ही यज्ञ, श्राद्ध और बलिदान में मांस खानेका निषेध है; किन्तु कलियुग में तो पूर्वोक्त कर्मानन्तर मांस खानाही चाहिये, तो इसके उत्तर में मैं यह कहता हूँ कि-सर्वजनप्रसिद्ध ब्रह्मवैवर्त पुराण और पाराशर स्मृति में कहे हुए कलियुग में बहुत से कार्य उनको नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसमें इस बातके प्रतिपादक श्लोक ऐसे लिखे हैं । यथा "अश्वालम्भं गवालम्भं संन्यासं पलपैतृकम् । देवराच सुतोत्पत्ति कलौ पञ्च विवर्जयेत् ॥ १॥ तथा बृहन्नारदीय पुराणके अध्याय ११ में भी लिखा है कि "देवरेण सुतोत्पत्तिमधुपर्के पशोर्वधः। मांसदानं तथा श्राद्धे वानप्रस्थाश्रमस्तथा ॥ १ ॥ इमान् धर्मान् कलियुगे वानाहुर्मनीषिणः "॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) भावार्थ-अश्वमेध, गोमेध, संन्यासी होना, श्राद्धसंबन्धिमांसभोजन, और देवर से पुत्र की उत्पत्ति, ये पांचों बातें कलियुग में वर्जित हैं । इसी तरह नारदीय पुराण में कहा है कि कलियुग में देवरसे पुत्र की उत्पत्ति, मधुपर्कमें पशुका वध, श्राद्ध में मांस का दान और वानप्रस्थाश्रम नहीं करना चाहिये ।। और बृहत्पराशरसंहिता के ५ वें अध्याय में इस तरह मांस का निषेध लिखा है कि“यस्तु प्राणिवधं कृत्वा मांसेन तर्पयेत् पितॄन् । सोऽविद्वान् चन्दनं दग्ध्वा कुर्यादगारविक्रयम् ॥ १॥ क्षिप्त्वा कूपे तथा किश्चित् बाल आदातुमिच्छति । पतत्यज्ञानतः सोऽपि मांसेन श्राडकृत् तथा " ॥२॥ भावार्थ-जो पुरुष प्राणीका वध करके मांससे पितरोंकी तृप्ति करना चाहता है वह मूर्ख चन्दन को जलाकर कोयलों को बेचना चाहता है, अर्थात् उत्तम वस्तु को जला देता है । और किसी पदार्थ को कुएँ में छोड़ कर फिर उसे लेनेकी इच्छा से बालक जैसे अज्ञान के वश स्वयं कुएँ में गिर पड़ता है, वैसेही मांस से श्राद्ध करनेवाले अज्ञान के प्रभाव से दुर्गति को पाते हैं । यज्ञ में हिंसा करने से धर्म नष्ट होता है इस बात को सूचन करनेवाला महाभारत ( वेङ्कटेश्वर प्रेस में छपा हुआ) । आश्वमेधिक पर्व ९१ अध्याय पृ० ६३ में लिखा है Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) यथा "आलम्भसमयेऽप्यस्मिन् गृहीतेषु पशुष्वथ । महर्षयो महाराज ! बभूवुः कृपयाऽन्विता" ॥११॥ "ततो दीनान् पशून् दष्ट्वा ऋषयस्ते तपोधनाः । ऊचुः शक्रं समागम्य नायं यज्ञविधिः शुभः" ॥१२॥ "अपरिज्ञानमेतत्ते महान्तं धर्ममिच्छतः। न हि यज्ञे पशुगणा विधिदृष्टाः पुरन्दर !" ॥१३॥ "धर्मोपघातकस्त्वेष समारम्भस्तव प्रभो !। नायं धर्मकृतो यज्ञो न हिंसा धर्म उच्यते" ॥१४॥ "विधिदृष्टेन यज्ञेन धर्मस्तेषु महान् भवेत् । यज्ञबीजैः सहस्राक्ष ! त्रिवर्षपरमोषितैः" ॥१६॥ भावार्थ-हे युधिष्ठिर! यज्ञमण्डप में अध्वर्यु लोगों से वध समयमें पशुओंके ग्रहण करने पर ऋषि लोग कृपावन्त हुए । उसी समय दीन पशुओं को देख करके तपोधन-ऋषिलोग इन्द्र के पास जाकर बोले कि हे बड़े धर्मकी इच्छा करनेवाले इन्द्र! यह यज्ञविधि शुभ नहीं है, किन्तु तेरा अज्ञानमात्र है; क्योंकि यज्ञ में पशूसमूह विधिदृष्ट नहीं है, बल्कि यह तेरा समारम्भ धर्म का घात करनेवाला है । इस यज्ञ से धर्म नहीं होगा, क्योंकि हिंसा, धर्म नहीं गिना जाता है । इसीसे केवल विधि से दिखलाये हुए यदि तीन वर्ष के पुराने बीज से यज्ञ करोगे तो विशेष धर्म होगा । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेचन-पूर्वोक्त श्लोकों के बाद ऋषि और देव- . ताओं के साथ यज्ञ विषयक वाद-विवादवाला हिंसामिश्रितधर्मनिन्दा नाम का संपूर्ण अध्याय है। जो राजा वसुने देवताओंका पक्ष लेकर अर्थका अनर्थ किया इसलिये वह नरक में गया, यह बात सर्वजनविदित है। इसी प्रकारका अधिकार महाभारत शान्तिपर्व मोक्षाधिकार अध्याय ३३५ पत्र २४३ में भी है । यथायुधिष्ठिर उवाच" यदा भागवतोऽत्यर्थमासीद् राजा महान् वसुः । किमर्थ स परिभ्रष्टो विवेश विवरं भुवः ? " ||१|| भीष्म उवाच" अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् । . ऋषीणां चैव संवादं त्रिदशानां च भारत ! " ॥२॥ " अजेन यष्टव्यमिति प्राहुर्देवा द्विजोत्तमान् । स चच्छागोऽप्यजो ज्ञेयो नान्यः पशुरिति स्थितिः॥३। ऋषय ऊचुः" बीजैर्यज्ञेषु यष्टव्यमिति वै वैदिकी श्रुतिः। अजसंज्ञानि बीजानि च्छागं नो हन्तुमर्हथ " ॥ ४ ॥ " नैष धर्मः सतां देवाः यत्र वध्येत वै पशुः । इदं कृतयुगं श्रेष्ठं कथं वध्येत वै पशुः ? " ॥ ५ ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीष्म उवाच - G " तेषां संवदतामेवमृषीणां विबुधैः सह । मार्गागतो नृपश्रेष्ठस्तं देशं प्राप्तवान् वसुः " ( ६५ ) 46 " अन्तरिक्षचरः श्रीमान् समग्रब वाहनः । तं दृष्ट्वा सहसाऽऽयान्तं वसुं ते त्वन्तरिक्षगम् " ||७| " ऊचुर्द्विजातयो देवानेष च्छेत्स्थति संशयम् । यज्वा दानपतिः श्रेष्ठः सर्वभूतहितमियः " ॥ ८ ॥ कथंस्विदन्यथा ब्रूयादेष वाक्यं महान् वसुः ? | एवं ते संविदं कृत्वा विबुधा ऋषयस्तथा " ॥ ९ ॥ अपृच्छन् सहिताऽभ्येत्य वसुं राजानमन्तिकात् । भोः ! राजन् ! केन यष्टव्यमजेनाहोस्विदोषधैः ? " ॥ १० ॥ ܕܕ ॥ ६ ॥ 44 " एतन्नः संशयं छिन्धि प्रमाणं नो भवान् मतः । स तान् कृताञ्जलिर्भूत्वा परिपप्रच्छ वै वसुः " ॥११॥ कस्य वैको मतः कामो ब्रूत सत्यं द्विजोत्तमाः ! | धान्यैर्यष्टव्यमित्येव पक्षोऽस्माकं नराधिप ! " ॥ १२॥ " देवानां तु पशुः पक्षो मतो राजन् ! वदस्व नः । देवानां तु मतं ज्ञात्वा वसुना पक्षसंश्रयात् " ॥ १३॥ भीष्म उवाच - " छागेनाजेन यष्टव्यमेवमुक्तं वचस्तदा । कुपितास्ते ततः सर्वे मुनयः सूर्यवर्चसः " ॥ १४ ॥ 5 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) १६ असं विमानस्थं देवपक्षार्थादिनम् । सुरपक्षो गृहालस्ते यस्मात्तस्माद् दिवः पन" ॥ १५ ॥ भावार्थ-युधिष्ठिरने भीष्म पितामह से प्रश्न किया कि-भगवान् का अत्यन्त भक्त राजा वसु परिभ्रष्ट होकर भूमितल को क्यों प्राप्त हुआ? इसके ऊत्तर में भीष्मपितामह ने कहा कि-विवादकथावाला पुराना इतिहास यहां तुमसे मैं कहता हूँ-कि हे भारत ! ऋषि लोगों का और देवताओं का विवाद इस तरह हुआ कि देवता उत्तम ब्राह्मणों से कहने लगे कि 'अज' से ही यज्ञ करना और 'अज' का अर्थ बकरा ही करना, दूसरे पशु को ग्रहण नहीं करना। किन्तु ऋषियों ने अपना पक्ष प्रकट किया कि यज्ञ में बीजादि से होम करना, क्योंकि यह वैदिकी श्रुति, 'अज' से बीजही का ग्रहण करती है, इसलिये बकरे का मारना अच्छा नहीं है। हे देवताओ : यज्ञ में बकरे की हिंसा करना सत्पुरुषों का धर्म नहीं है, क्योंकि सब युगों से श्रेष्ठ यह सत्ययुग है, इस में पशु को कैसे मारना उचित है ?, इस तरह देवताओंके साथ जब विवाद चल रहा था उसी समय आकाश में चलनेवाला लक्ष्मीवान् समस्त सैन्य वाहनयुक्त श्रेष्ठ राजा वसु उस देश को प्राप्त हुआ, जहां देवता और ऋषि लोग विवाद कर रहे थे । सत्य के प्रभाव से आकाश में रहनेवाले राजा वसु को देखकर ऋषियोंने देवताओं से कहा-कि राजा वसु यज्ञविधि को करानेवाला दानेश्वर सब प्राणियों को हितकर हमलोगों के संशय का छेदन करेगा, क्योंकि यह राजा वसु कभी अन्यथा वाक्य नहीं बोलेगा। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) ऐसा विचार कर एकत्रित हुए देवता और ऋषि लोग राजा वसु के पास आकर कहने लगे कि हे राजन् ! किस पदार्थ से यज्ञक्रिया करनी चाहिए ?, अज से या अन्न से ?, हम लोग आपको इस विषय में प्रमाण मानते हैं, अतएव आप हमलोगों के संशय का निवारण कीजिए । तदनन्तर उन सत्पुरुषों को हाथ जोड़ कर राजा वसु बोला कि हे ऋषिवर ! आप लोग सत्य कहिये कि किस को कौन मत अभीष्ट है। ऋषियोने कहा कि धान्यों से ही यज्ञ करनेका तो हमलोंगों का पक्ष है, और देवताओं का पक्ष पशुकी हिंसा करके यज्ञ करनेका है । अत एव हे राजन् ! आप हमलोगों के इस संशय को हटाइए । तदनन्तर देवताओं के मत को जानकर वसु ने देवताओं के पक्ष का ही आश्रयण किया अर्थात् 'अज' शब्द का छाग ही अर्थ है यह बात पक्षपात के आवेश में होकर कह दिया, अर्थात् अज शब्द का अर्थ बकरा ही करके यज्ञ करना चाहिये । ऐसा जब उसने कहा, तब तो सूर्य के समान तेजस्वी मुनिलोग क्रुद्ध हुए और विमानस्थ देवपक्षपाती राजा वसु को शाप दिया कि जो तुमने पक्षपात से देवताओंका ही पक्ष ग्रहण किया है इसलिये आकाश से तुम्हारा पृथ्वीपर पात हो, अर्थात् तुम नरक को प्राप्त हो । उसके बाद ऋषियों के वाक्य के प्रभाव से राजा बसु नीचे गिरकर नरक में गया । इन पूर्वोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि यज्ञ में भी हिंसा करने का विशेष निषेध है । राजा वसुके समान सत्यवादी नराधिप ने भी दाक्षिण्य के आधीन होकर ज़ो अर्थ का अनर्थ कर डाला, इसलिये वह स्वयं अनर्थ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) का भागी हुआ, और उसके उद्धार के लिये देवताओं ने बहुतही प्रयत्न किया; तो फिर आजकल के मांसलोलुए जन बिचारे भद्रिक स्वर्ग के अभिलाषी प्राणियों के धन का नाश कराकर पर्वोक्त वाक्यानुसार यजमान को नरकगामी बनाकर स्वयं (यज्ञ करानेवाले) भी नरक में गिरते हैं। अत एव ऋषियों ने अजशब्द का अर्थ पुगना धान ही किया है । और इसमें प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शाब्दादि कोई भी प्रमाण का विरोध नहीं है । इस अहिंसा शास्त्र को प्रमाण (संमान) करनेवाले मुनियों का यह अर्थ है । और तीन प्रकारका अर्थवाद वृद्ध पुरुषों ने जो माना हैउसमें मुनियों का मत केवल भूतार्थवादरूप अर्थवाद है किन्तु गुणवाद, अनुवादरूप नहीं है। क्योंकि गुणवाद विरोध में होता है, जैसे सन्ध्याकरनेवाला कोई पुरुष पत्थर पर बैठा है उस पत्थर को कोई पुरुष यदि “ सन्ध्यावान् प्रस्तरः ” ऐसा कहे, तो सन्ध्यावान् और प्रस्तर का अभेद प्रत्यक्ष बाधित है, तथापि गुणस्तुतिरूप वाक्य होने से यह गुणवादरूप अर्थवाद माना जा सकता है । किन्तु मुनियों के मत में कोई विरोध नहीं है अत एव वह गुणवाद नहीं है । और निश्चितार्थ में ही अनुवादरूप अर्थवाद होता है । जैसे " अग्निहिमस्य भेषजम् ' अर्थात् अग्नि हिम का औषधि है, यह बात आबालगोपाल प्रसिद्ध होने पर भी उसीका जो कथन किया गया वह अनुवादरूप अर्थवाद है । प्रस्तुत में मुनियों ने जो अज शब्द का धान्य अर्थ किया है वह प्रायः समस्त प्राणियों में प्रसिद्ध न होने से अनुवादरूप अर्थवाद नहीं हो सकता। और जहाँ पर Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६९) विरोध और निश्चितार्थ दोनों नहीं है वहाँ भूतार्थवाद ही होता है-जैसे " रावणः सीतां जहार" अर्थात् रावण ने सीता का हरण कर लिया, इसमें न तो कोई विरोध है, और न पहिले ऐसा निश्चय ही था, किन्तु बात तो ठीक ही है, इसी तरह मुनियों का पक्ष भी भूतार्थवाद ही है, परन्तु अज शब्दका पशु अर्थ बतानेवाले देवताओं का पक्ष तो पहिले प्रत्यक्ष प्रमाण से ही दूषित है, तदनन्तर शास्त्रप्रमाण से भी दूषित है, उसीप्रकार अनुभव और लोकव्यवहार से भी दोषग्रस्त है । क्योंकि पशुहनन के समय पशु मारनेवाले पुरुष की मनोवृत्ति, और शरीराकृति, प्रत्यक्ष ही परम क्रूर दिखाई देती है। पाठकवर्ग। पशुवध से स्वर्ग होना बुद्धिमानों के अनुभव में भी ठीक नहीं मालूम होता, क्योंकि 'यद दीयते तत् प्राप्यते' अर्थात् जो दिया जाता है वही मिलता है, इस न्याय के अनुसार तो सुखदेनेवाला सुख, और दुःखदेनेवाला दुःख, अभय दाता अभय, और भयदेनेवाला पुरुष भय को ही प्राप्त होना चाहिये। किन्तु यज्ञ में जो पशु मारे जाते हैं वे न तो निर्भय, और न सुखी ही दिखाई देते हैं, बल्कि भयभ्रान्त और महादुःखी ही दिखलाई पड़ते हैं, तो फिर पशुमारनेवाला स्वर्ग में किस तरह जा सकता है ? और लोकव्यवहार में भी कोई उत्तम जाति का पुरुष मृतप्राणी का स्पर्श भी नहीं करता और यदि कोई मरे हुए जीव को छूता है तो वह नीच ही गिना जाता है। अब यह समय विचार करने का है कि यज्ञमण्डप में वेद मन्त्रोंके द्वारा याज्ञिक लोग, बकरे के मूंह को यत्र के आटा आदि से बन्द Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) करके उसपर मुष्टयादि प्रहार से गतप्राण कर देते हैं, तदनन्तर उसके अवयवों को अलग अलग कर उसमें से कुछ हिस्सा हवन के काम में लाते हैं, बहुत सा हिस्सा स्वयं खाजाते हैं, और जो कुछ अवशिष्ट भाग उसका बचता है उसको यज्ञ कर्म में भाग लेने के लिए यज्ञ में आये हुए आस्तिकों को प्रसादरूप से देते हैं। अब इन याज्ञिकों की किस में गणना करनी चाहिये? इसका विचार पाठकलोग अपने आप ही कर सकते हैं। पूर्वोक्त बातों से यह सिद्ध किया जाता है कि किसी कारण से भी पशु से यज्ञ करना उचित नहीं है । जब राजा वसु भागवत, दानीश्वर, सत्यवादी, श्रेष्ठ और सब भूतों के प्रियंकर होने पर भी अजशब्द का पशु हो अर्थ मानकर नरक में गये, तो फिर साधारण मनुष्यों की क्या दशा होगी यह विचारणीय है। अब महाभारत अनुशासन पर्व के अध्याय ११६ पृष्ठ १२६ मे युधिष्ठिर ने भीष्मपितामह से जो अहिंसाविषयक प्रश्न किया है किमांस खाने से क्या और कैसा दोष होता है ? और उसके त्याग करने से क्या गुण है ?; वही दिखलाया जाता है। यथा युधिष्ठिर उवाच" इसे वै मानवा लोके नृशंसा मांसगृद्धिनः । विसृज्य विविधान् भक्ष्यान् महारक्षोगणा इव" ॥१॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) अपूपान् विविधाकारान् शाकानि विविधानि च । खाण्डवान् रसयागान्न तथेच्छन्ति यथाऽऽमिषम् ॥२॥ " तत्र मे बुद्धिरत्रैव विषये परिमुह्यते । न मन्ये रसतः किञ्चिन् मांसतोऽस्तीति किञ्चन" ॥३॥ 64 " तदिच्छामि गुणान् श्रोतुं मांसस्याभक्षणे प्रभो ! | भक्षणे चैव ये दोषास्तांश्चैव पुरुषर्षभ ! " ॥ ४ ॥ " सर्व तन धर्मज्ञ ! यथावदिह धर्मतः । किञ्च भक्ष्यभक्ष्यं वा सर्वमेतद् वदस्व मे " ॥ ५ ॥ यथैतद्यादृशं चैव गुणा ये चास्य वर्जने । दोषा भक्षयतो येsपि तन्मे ब्रूहि पितामह ! " ॥ ६ ॥ 44 , भावार्थ - यह प्रत्यक्ष दृश्यमान मनुष्यलोग लोक में महाराक्षस की तरह दिखाई देते हैं, जो नाना प्रकार के भक्ष्यों को छोड़ कर मांसलोलुप मालूम होते हैं, क्योंकि नाना प्रकार के अपूप ( पूआ ) तथा विविधप्रकार के शाक, खंड (चीनी) से मिश्रित पक्वान्न और सरस खाद्य पदार्थ से भी विशेषरूप से आमिष (मांस) को पसन्द करते हैं । इस कारण इस विषय में मेरी बुद्धि मुग्धसी हो जाती है कि मांसभोजन से अधिक रसवाला क्या कोई दूसरा भोजन नहीं है ? इससे हे प्रभो ! मांस के त्याग करने में क्या २ गुण होते है, पहिले तो मैं यह जानना चाहता हूँ; पीछे खाने में क्या २ दोष हैं यह भी मुझे जानना है । हे धर्मतत्त्वज्ञ ! Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) यथार्थ प्रमाण के द्वारा यहां पर मुझे भक्ष्य और अभक्ष्य बतलाइये, अर्थात् मांस खाने में जैसा दोष और गुण होता हो वैसा कहिये । भीष्म उवाच" एवमेतन्महाबाहो ! यथा वदसि भारत !। न मांसात् परमं किञ्चित् रसतो विद्यते भुवि " ॥७॥ " क्षतक्षीणाभितप्तानां ग्राम्यधर्मरतात्मनाम् । ___ अध्वना कर्षितानां च न मांसाद् विद्यते परम्" ॥८॥ " सद्यो वर्द्धयति प्राणान् पुष्टिमयां दधाति च। ____ न भक्ष्योऽभ्यधिकः कश्चिन्यांसादस्ति परन्तप!" ॥९॥ विवर्जिते तु बहवो गुणाः कौरवनन्दन !। ये भवन्ति मनुष्याणां तान् मे निगदतः शृणु" ॥१०॥ " स्वमांस परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति । ___ नास्ति क्षुद्रतरस्तस्मात् स नृशंसतरो नरः " ॥१२॥ " न हि प्राणात् प्रियतरं लोके किश्चन विद्यते । ___ तस्माद् दयां नरः कुर्याद् यथाऽऽत्मनि तथा परे"॥१२॥ " शुक्राच्च तात ! संभूतिर्मासस्येह न संशयः । भक्षणे तु महान् दोषो निवृत्त्या पुण्यमुच्यते" ॥१३॥ " यत् सर्वेष्विह भूतेषु दया कौरवनन्दन !। . न भयं विद्यते जातु नरस्येह दयावतः " ॥२०॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) " दयावतामिमे लोकाः परे चाऽपि तपस्विनाम् । अहिंसा लक्षणो धर्म इात धर्मविदो विदुः" ॥२१॥ " अभयं सर्वभूतेभ्यो यो ददाति दयापरः। _ अभयं तस्य भूतानि ददतीत्यनुशुश्रुम " ॥२३॥ " क्षतं च स्खलितं चैव पतितं कृष्टमाहतम् ।। सर्वभूतानि रक्षन्ति समेषु विषमेषु च " ॥२४॥ " नैनं व्यालमृगा नन्ति न पिशाचा न राक्षसाः। मुच्यते भयकालेषु मोक्षयेद् यो भये परान् " ॥२५॥ " प्राणदानात्परं दानं न भूतं च भविष्यति । न ह्यात्मनः प्रियतरं किंचिदस्तीह निश्चितम्" ॥२६॥ " अनिष्टं सर्वभूतानां मरणं नाम भारत !। मृत्युकाले हि भूतानां सद्यो जायेत वेपथुः" ॥२७॥ " जातिजन्मजरादुःखैर्नित्यं संसारसागरे । जन्तवः परिवर्तन्ते मरणादुद्विजन्ति च " ॥२८॥ " नात्मनोऽस्ति प्रियतरः पृथिवीमनुसृत्य ह । तस्मात्याणिषु सर्वेषु दयावानात्मवान् भवेत् " ॥३२॥ " सर्वमांसानि यो राजन् यावज्जीवं न भक्षयेत् । ___ स्वर्ग स विपुलं स्थान प्राप्नुयान्नात्र संशयः" ॥३३॥ " य भक्षयन्ति मांसानि भूतानां जीवितैषिणाम् । भक्ष्यन्ते तेऽपि भूतैस्तैरिति मे नास्ति संशयः" ॥४३॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) " मां स भक्षयते यस्माद् भक्षयिष्ये तमप्यहम् । . एतद् गांसस्य मांसत्वमनुबुद्धयस्व भारत !" ॥३५॥ " येन येन शरीरेण यद् यत्कर्म करोति यः। तेन तेन शरीरेण तत्तत्फलमुपाश्नुते " ॥३६॥ " अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परो दमः । अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः ॥३७॥ " अहिंसा परमो यज्ञस्तथाऽ हसा परं फलम् । ___ अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् " ॥३८॥ " सर्वयज्ञेषु वा दानं सर्वतीर्थेषु वाऽऽप्लुतम् । सर्वदानफलं वाऽपि नैतत्तुल्यमहिंसया" ॥ ३९ ॥ " अहिंस्रस्य तपोऽक्षय्यमहिंस्रो यजते सदा । अहिंस्रः सर्वभूतानां यथा माता यथा पिता" ॥४०॥ " एतत्फलमहिंसाया भयश्च कुरुपुङ्गव !। न हि शक्या गुणा वक्तुमपि वर्षशतैरपि" ॥४१॥ (श्रीवेङ्कटेश्वर प्रेस में छपाहुआ महाभारत अनुशासनपर्व के पत्र १२६ से १२७ तक) विवेचन-इन पूर्वोक्त श्लोकों के अत्यन्त सरल होने से इनकी व्याख्या करने की विशेष आवश्यकता नही है तथापि सामान्य रूप से यहां कुछ विवेचन करके आगे चलता हूँ । भीष्मपितामह ने युधिष्ठिर के पूर्वोक्त प्रनों का यह उत्तर दिया कि-हे भारत ! पृथ्वी में कोई वस्तु मांस की अपेक्षा किसको अच्छी नहीं मालूम होती Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) है यह स्पष्ट किये विना बनता नहीं है; इसलिये जो मांस को उत्तम मानते हैं वे पुरुष दिखलाये जाते हैंअर्थात् घायल पुरुष, क्षीण, संतापी, विषयासक्त और मार्गादि परिश्रम से थके हुए पुरुष ही मांस की अपेक्षा से अधिक अच्छा पदार्थ अपनी समझ से कुछ भी नहीं समझते हैं और केवल मांसाहारसे ही शरीर की पुष्टि मागते हैं, इसलिये उनकी समझ से मांस से अच्छा कोई दूसरा भक्ष्य नहीं है । किन्तु धर्मात्मा पुरुष तो मांसाहार को कदापि स्वीकार नही करते । हे कौरवनन्दन! मांसाहार त्याग करने से मनुष्यों को जो गुण होते हैं उनका दिग्दर्शनमात्र कराया जाता है । जो पुरुष दूसरे के मांस से अपने मांस की वृद्धि करना चाहता है उस निर्दय पुरुष से दूसरा पुरुष हजार कुकर्म करनेवाला भी अच्छा ही है, क्योंकि संसार में प्राण से बढ़कर कोई भी दूसरा वस्तु प्रियतर नहीं है, अतएव हे पुरुषश्रेष्ठ ! अपने आत्मा पर जैसा तुम प्रेमभाव रखते हो वैसाही दूसरे के प्राणोंपर भी करो । तथा वीर्य से ही मांस की उत्पत्ति होती है यह बात भी सभी को संमत है क्योंकि इसमें किसी को कुछभी संदेह नहीं है, अतएव उसके खाने में बहुत दोष ह और त्याग करने में बहुत पुण्य है । हे युधिष्ठिर ! सब प्राणियों में दया करनेवाले पुरुष को कभी भय नहीं होता, और दयावान् पुरुष को और तपस्वीजनों को ही यह लोक और परलोक दोनों अच्छे होते हैं; इसलिये हमलोग अहिंसा को ही परम धर्म मानते हैं । जो पुरुष दया में तत्पर होकर सब प्राणियों को अभयदान देता है वही पुरुष सब भूतों से Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) अभय पाता है ऐसा मैंने सुना है । धर्मात्मा पुरुष तो आपत्तिकाल में और सम्पत्तिकाल में सब भूतों की रक्षा ही करता है । किन्तु वर्त्तमानकाल के कितने ही स्वार्थी पुरुष दया नहीं करते और कितने ही धर्मतत्त्व के जानकार होनेपर भी अपने पास पाले हुए गौ, भैंस, घोड़े वगैरह को जब बेकार देखते हैं तब उन्हें पशुशाला में छोड़ देते हैं या दूसरों के हाथ बेच देते हैं किन्तु बहुत से नास्तिकलोग तो अनुपयोगी जानवरों को गोली से मार देते हैं, यदि इसका मूल कारण देखा जाय तो हृदय में दयादेवी का संचार न होना ही है, तथा सामान्यनीति को भी स्वार्थान्ध होने के कारण नहीं देखते हैं, किन्तु सच्चे धार्मिक पुरुष तो अनुपयोगी पशु का भी पालन करते हैं । पूर्वोक्त निःस्वार्थ दया करनेवाले पुरुष पर व्यात्र, सिंह, पिशाच, राक्षसादि कोई भी क्रूर जन्तु कभी उपद्रव नहीं करते । इसलिये संसार में प्राणदान से अधिक कोई दान नहीं है, क्योंकि प्राण से अधिक प्रिय कोई बी चीज नहीं दिखाई पडती है । हे भारत 1 ! सब प्राणियों को मृत्यु के तुल्य कुछ भी अनिष्ट दिखाई नहीं देता, अर्थात् मृत्युकाल में कैसा ही दृढ पुरुष क्यों न हो उस समय उसको भी डर मालूम होता ही है । जिन माहानुभाव पुरुषों की समाधि ( सुख ) से मृत्यु होती है उनको भी स्वेद कम्पादिरूप शरीर धर्म तो अवश्य होते हैं क्योंकि वह शरीर का स्वभाव ही है | देखिये योगियों का जब शरीर से संबन्ध छुटता है तब वे केवल आत्मतत्त्व में ही लवलीन होते हैं, उस अवस्था में भी Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) द्रव्य दुःखो से पीडित होकर शरीर कांपता है, और हाथ पांव भी हिलते हैं । ध्यानी पुरुष को भी वेदनीय कर्म होगा तो जरूर शरीर का धर्म दृष्टिगोचर होगा, तथापि इससे ध्यानी कभी अध्यानी नहीं माना जा सकता । दृष्टान्त यह है कि महावीर देव ने, अनन्त बलवान् और मेरु की तरह निष्कम्प, तथा पृथ्वी की तरह दृढ होने पर भी कर्णकीलकर्षण के समय तो आक्रन्द किया ही; इससे यह न समझना चाहिये कि भगवान् ध्यान से भ्रष्ट होकर पौगलिक भाव में लीन हुए किन्तु वह तो शरीर का धर्म ही है । देखिये, वर्तमान समय में अविद्या में कुशल डाक्टर लोक औषधि के प्रयोग से रोगी को बेहोश करके उसके शरीर के अवयवों को काटते हैं और काटने के समय रोगी के हाथ पांव को दो चार आदमी पकडे रहते हैं और उस समय भी रोगी हाथ पैर हिलाताहि है और अस्फुट शब्द को बोलता है; किन्तु काटने के बाद जब औषध ( क्लोरोफार्म ) उतर जाता है उस समय यदि उससे पूछा जाय कि काटने के समय तुमको क्या हुआ था ? तो वह यही कहता है कि मुझे तो कुछ भी मालूम नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि केवल शरीर का धर्म ही कम्पादि क्रियावाला है। यह विना आत्मा के उपयुक्त हुए ही स्वभाविक होता है तथापि शरीर के साथ आत्मा का सम्बन्ध जीवन पर्यन्त है यह बात स्वीकार करनी ही पड़ेगी। क्योंकि मृत शरीर में कोई चेष्टा नहीं होती है, जीवित शरीर में कम्प, स्वेद, मूर्छा और चलनादि क्रिया मालूम पड़ती है; और यह दुःखरूप कार्य के ज्ञापक चिह्न हैं, क्योंकि मरण के Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) समय प्रायः पूर्वोक्त चिह्न संसारी जीवों में दीखते हैं। अतएव हिंसा त्याज्य है, और अपनी आत्मा की तरह सबको देखना उचित है। यदि समस्त पृथ्वीपर घूमकर अनुभव प्राप्त किया जाय तो मब जीवों को प्राण से अधिक कोई वस्तु प्यारी नहीं मालूम होगी, अतएव सब प्राणियों में दया करनेवाला जीव ही आत्मतत्त्वज्ञ माना जाता है । इसलिये दया का विशेषभाव भीष्मपितामह ने युधिष्ठिर को दिखलाया है कि हे राजन् ! जीवनपर्यन्त सकलमांसत्यागी जो पुरुष होता है वह स्वर्ग में उत्तमोत्तम स्थान को पाता है इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। यदि महाभारत को हिन्दू लोग पञ्चम वेद मानते हैं तो पूर्वोक्त समस्त श्लोक महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म की महिमा के समय अहिंसा धर्म के फल में भीष्मपितामह ने युधिष्ठिर को दिखलाये हैं, उन पर क्यों नहीं ध्यान देते ? । अब मैं उनका विशेष विस्तार न करके अन्तिम श्लोक मात्र का लक्ष्य रखकर' पाटक महाशयों को सूचित करता हूँ: ___ हे कुरुपुङ्गव । अहिंसा का स्वर्ग मोक्षादिरूप बड़ा भारी फल प्रतिपादन किया हुआ है, जिस अहिंसा के गुणों को सौ वर्ष पर्यन्त भी अगर कोई वर्णन करे तो भी वह पूर्ण नहीं हो सकता । अन्तिम श्लोक के पूर्व श्लोकमें भी लिखा है कि संपूर्ण यज्ञ, दान, सर्व तीर्थीका स्नान, और सब दानों का जो फल है वह भी अहिंसा की बराबरी नहीं कर सकता, क्योंकि हिंसाकरनेवाला गर्भवास और नरक के दुःख को अवश्य भोगता है । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९) यह बात उसी अध्याय के निम्न लिखित श्लोक के देखने से प्रतीत होती है- . यथा" गर्भवासेषु पच्यन्ते क्षाराम्लकटुकै रसैः । मूत्रस्वेदपुरीषाणां परुषैभृशदारुणैः " ॥ २९ ॥ जाताश्चाप्यवशास्तत्र च्छिद्यमानाः पुनः पुनः। पाच्यमानाश्च दृश्यन्ते विवशा मांसद्धिनः" ॥३०॥ " कुम्भीपाके च पच्यन्ते तां तां योनिमुपागताः । आक्रम्य मार्यमाणाश्च भ्राम्यन्ते वै पुनः पुनः" ॥३२॥ भावार्थ-क्षार, आम्ल, और कटु रसों से मांसभक्षी पुरुष गर्भवास के समय परिताप को प्राप्त होते है, तथा मल मूत्रादि द्वारा भयङ्कर दुःख को भी प्राप्त होते है, तथा नरक गति में उत्पत्ति के समय भी अवश होकर वारंवार नरक को जाते है और तत्तदयोनि में 'जाने पर भी कुम्भीपाक में पकाये जाते हैं, तथा उन नारकी जीवों को अनेक प्रकार के शस्त्रों से छेदते हुए असिपत्रादि वन में यमदत लोग लेजाते है, जिस पत्रके गिरते ही उन दुष्टों का शिरच्छेद होता है । इस प्रकार नरकपाल लोग वहांसे फिर उन्हें अन्यत्र ले जाते हैं। देखिये-यह सब वेदना मांसाशी जीवही प्रायः पाते है, इसलिये ही परप्राण से स्वप्राण की रक्षा करनेवाले मूर्ख शिरोमणि गिने जाते है। अतएव समस्त नीतिशास्त्र और धर्मशास्त्रों में परोपकार के लिये क्षणभङ्गुर शरीर के ऊपर मोह करनेका निषेध है । जैसे Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) " जीवितं हि परित्यज्य बहवः साधवो जनाः । स्वमांसः परमांसानि परिपाल्य दिवं गताः " ॥ १८ ॥ जीवनकी मूर्छा दूसरों के मांस भावार्थ - बहुत से साधुजन अपने ( मोह ) छोड़ कर, निज मांस के द्वारा की रक्षा करके उत्तम गति को प्राप्त हुए हैं । इत्यादि अनेक श्लोक, मांस त्याग के लिये महाभारत अनुशासन पर्व के अध्याय ११४-११५ पृ. १२५ वें में दिखाई देते हैं; उनमें से थोड़े ही श्लोक यहां उद्धृत किये जाते हैं" पुत्रमांसोपमं जानन् खादते यो विचक्षणः । मांसं मोहसमायुक्तः पुरुषः सोऽधमः स्मृतः ॥ ११ ॥ अ. ११४ “ यो यजेताश्वमेधेन मासि मासि यतव्रतः । EL वर्जयेद् मधु मांसं च सममेतद् युधिष्ठिर ! " ॥ १० ॥ न भक्षयति यो मांसं न च हन्याद् न घातयेत् । तद् मित्रं सर्वभूतानां मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत् " ॥ १२॥ " स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति । नारदः प्राह धर्मात्मा नियतं सोऽवसीदति " ॥ १४ ॥ " मासि मास्यश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः । न खादति च यो मांसं सममेतन्मतं मम ॥ १६ ॥ " सर्वे वेदा न तत् कुर्युः सर्वे यज्ञाश्च भारत ! | 99 यो भक्षयित्वा मांसानि पश्चादपि निवर्तते " ॥ १८ ॥ " सर्वभूतेषु यो विद्वान् ददात्यभयदक्षिणाम् । दाता भवति लोके स प्राणानां नात्र संशयः || २० |अ. ११५ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) इत्यादि जो बहुत से श्लोक महाभारत में लिखे हुए हैं उन्हें जिज्ञासुओं को उसी स्थल पर देख लेना उचित है । इन पूर्वोक्त श्लोकों में समस्त शास्त्र का रहस्य दिया हुआ है । अतएव जीवन की इच्छा न रखकर, जो उत्तम पुरुष स्वमांस से पर मांस की रक्षा करते हैं, अर्थात् मरणान्त तक परोपकार करने की इच्छा करते हैं, वे ही पुरुष देवलोक के सुख को पाते हैं । और जो पुरुष मांस को तुच्छ मानते और उसको पुत्रमांस की उपमा देते हुए भी मोह से उसे खाता है उससे बढ़कर तो अधर्मी कोई नहीं है, क्योंकि धर्मशास्त्र में मांसत्यागी पुरुष को ही धर्मात्मा माना है । इसीलिये लिखा है कि कोई एक मनुष्य यदि सौ वर्ष तक महीने महीने अश्वमेध यज्ञ करे, और दूसरा केवल मांस का ही त्याग करे, तो वे दोनों तुल्य ही हैं, कदाचित, भूल से या अज्ञान से मांस कभी खा लिया हो और पीछे छोड़ दे, तो, जो फल चारों वेदों से और संपूर्ण यज्ञों से नहीं मिलता है वह फल केवल उसे मांसत्याग से ही मिल जाता है । पाठकवर्ग ! यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि ऐसा सीधा और सरल उपदेश होने पर भी मनुष्य ऐसी अनुचित प्रवृत्ति में क्यों पड़ते हैं ? अस्तु, मैं तो उनके कर्म का ही दोष देकर आगे चलता हूँ । एक बड़े खेद की यह भी बात है कि बहुत से मांसाहारी लोग तो अपनी चतुराई से नये नये श्लोक बनाकर नयी नयी कल्पनाद्वारा भव्यपुरुषों को भ्रमजाल में डालने के लिये भी प्रयत्न करते हैं । यथा “ केचिद वदन्त्यमृतमस्ति पुरे सुराणां केचिद् वदन्ति वनिताsधरपल्लवेषु । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) ब्रमो वयं सकलशास्त्रविचारदक्षा जम्बीरनीरपरिपूरितमत्स्यखण्डे " ॥१॥ अर्थात्-यद्यपि कोई लोग कहते हैं कि देवलोक में अमृत रहता है, और कोई कहते हैं कि स्त्री के अधरोष्ठपल्लव में अमृत स्थित है; किन्तु सकलशास्त्रविचारचतुर हमलोग (मांसाहारी) कहते हैं कि नींबू के जल से भरपूर मछली के टुकड़े में ही अमृतास्वाद है। - सजन महाशय ! तत्त्ववेत्ताओं ने तो पूर्वोक्त श्लोक के तृतीय पाद का “ब्रूमो वयं सकलशास्त्र विचारशून्याः" ऐसा ठीक ठीक पाठ बना दिया है, क्योंकि विचारशून्य मनुष्य की इच्छा है कि वह चाहे जैसी बकवाद करे, क्योंकि सद्बुद्धि के अभावसे मनुष्य बहुत अनर्थ करता है; याने देव को अदेव और अदेव को देव, गुरु को अगुरु और अगुरु को गुरु, धर्म को अधर्म, और अधर्म को धर्म, तत्त्व को अंतत्त्व और अतत्त्व को तत्त्व, भक्ष्य को अभक्ष्य और अभक्ष्य को भक्ष्य, इत्यादि विपरीत मानकर भयङ्कर भूल में पड़कर संसारसागर में (वह जीव ) सदा घूमताही रहता है। इसीलिये सब लोगों को कल्पित बातों पर ध्यान न देकर वास्तविक अहिंसा धर्म को ही स्वीकार करना चाहिये। किन्तु जो मनुष्य मांसरसलम्पट होता है वही अपनी इच्छानुसार मनमाने श्लोक भी बना लेता है । यथा" रोहितो नः प्रियकरः मद्गरो मद्गुरुप्रियः। हिल्सी तु घृतपीयूषो वाचा वाचामगोचरः" ॥१॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) भावार्थ- कोई कहता है कि रोहित मत्स्य हमको अत्यन्त प्रिय है, और मनर नामक मत्स्य तो मेरे गुरु को प्रिय है; तथा हिल्सी जाति का मत्स्य घृत और अमृत के समान है, और वाचाजाति के मत्स्य का स्वाद कहने में नहीं आसकता । देखिये ऐसे कल्पित श्लोकों क बनाकर मांसाहारी लोग बिचारे धर्मतत्त्व के अनजान पुरुषों को भी परिभ्रष्ट करते हैं । इस पूर्वोक्त श्लोक को बङ्गदेश के मनुष्य प्रायः कहा करते हैं । और ' केचिद् वदन्त्यमृतमस्ति पुरे सुराणाम्' इत्यादि श्लोक तो प्रायः मैथिल कहते हैं । बङ्गदेशनिवासियों में कितनेही मनुष्यों के मत्स्यभक्षण आदि कुत्सित व्यवहार को देखकर अन्य कवियों ने कवितारूपसे बङ्गवासियों का हास्य किया है कि " स्थाने सिंहसमा रणे मृगसमाः स्थानान्तरे जम्बुका आहारे बककाकशुकरसमाइलागोपमा मैथुने । रूपे मर्कटवत् पिशाचवदना क्रूराः सदा निर्दया बङ्गीया यदि मनुषा हर ! हर ! त्रेताः पुनः कीदृशाः ॥ १ ॥ भावार्थ - अपने स्थान में सिंह की भांति स्थिति करनेवाले, रंण में मृग ( हरिण ) की तरह भागनेवाले, दूसरे के स्थान में शृंगाल जैसे, बगले, काक और शूकर की तरह अभक्ष्य आहार करने वाले, विषय सेवनमें बकरे जैसे, बन्दर के सदृश रूपवाले, पिशाच जैसे मुखवाले अर्थात् भयंकर तथा क्रूर स्वभाव वाले और दया करके रहित ऐसे मांस भक्षणादि कुत्सित व्यवहार करने वाले बङ्गवासी लोगों को अगर मनुष्य कहें तो भला Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) फिर प्रेतों में किसकी गणना होगी ? अर्थात् यही मनुष्यरूप से प्रेतगण हैं । एवं रीत्या कान्यकुब्जों के व्यवहार पर भी एक कवि ने ऐसा लिखा है कि " कान्यकुब्जा द्विजाः सर्वे सूर्या एव न संशयः । मीनमेषादिराशोनां भोक्तारः कथमन्यथा ? " ॥ १ ॥ भावार्थ - इसमें कुछभी सन्देह नहीं है, कि कान्यकुब्ज ब्राह्मण सूर्य ही हैं, यदि वे ऐसे न होते तो मीन (मछली) तथा मेष ( बकरे ) इत्यादि का भक्षण क्यों करते ? | प्रसङ्गानुसार यहां पर यह भी कह देना उचित है कि जो मांसादि को खानेवाले कहते हैं कि ' तन्त्रक्रिया करनेवालों को तो अवश्यही मद्य, मांसभक्षण तथा बलिप्रदान करनाही चाहिए, क्योंकि ये सब बातें शास्त्र संमत हैं इस के विषय में देवीभक्त किसी सज्जनने ठीक कहा है कि "या योगीन्द्रहृदि स्थिता त्रिजगतां माता कुपकवता सा तुष्येत् श्वपचीव किं पशुवधैर्मासासवोत्सर्जनैः ? । तस्माद् वीरवराऽवधारय तदाचारस्य यद् बोधकं रक्षोभिर्विरचय्य तच वचनं तन्त्रे प्रवेशीकृतम् ॥ १२ ॥ भावार्थ - सब जीवों पर सदा दयाही रखनेवाली, योगाभ्यासियों के हृदय में निवास करनेवाली, तीनों जगत् की माता देवी चाण्डाली की भांति पशुवध से तथा मांस और मद्य देने से क्या प्रसन्न हो सकती है ? Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५) अत एव हे वीरवर ! विचार की बात है कि यह सब वचन मांसभक्षी राक्षसों ने किसी के द्वारा बनवाकर तन्त्र शास्त्र में रख दिये हैं। ___ अब उपर्युक्त उदाहरणों से आप के अन्तःकरण में यह विचार तो ठीक ही बैठ गया होगा कि हिंसा, परस्त्रीगमन तथा मांसभक्षण करने से कभी धर्म नहीं हो सकता, तथापि अगर कोई यह कहे कि हां हिंसादि करने से भी धर्म होता है, तो उसको रोकने के लिये नीचे का श्लोक अवश्यही समर्थ हो सकता है। "धर्मश्चत् परदारसङ्गकरणाद् धर्मः सुरासेवनात् । संपुष्टिः पशुमत्स्यमांसनिकराहाराच्च हे वीर ! ते। हत्या प्राणिचयस्य चेत् तव भवेत् स्वर्गापवर्गाप्तये - कोऽसत्कर्मत या तदा परिचितः स्यान्नेति जानीमहे ॥१॥ भावार्थ-हे हिंसादि कर्मों में वीर ! यदि तुमको परस्त्रीगमन, मद्यसेवन से धर्म हो, पशु तथा मत्स्योंके आहार करने से शरीर की पुष्टि होती हो और प्राणिगण को मारने से स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति होती हो, तो फिर कुकर्मी पुरुष कौन कहा जा सकता है ? यह मैं नहीं कह सकता। अर्थात् उक्त कर्मों को करनेवाले ही पापी और नरकादि के क्लेशों को भागने वाले होते हैं । इसी प्रकार मैथिलों का व्यवहार देखकर किसी कवि ने अवतारों की संख्या में जो भगवान् ने नृसिंहावतार धारण किया है उसकी भी उत्प्रेक्षा की है कि Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) धारण “ अवतारत्रयं विष्णोर्मेथिलैः कबलीकृतम् । इति संचिन्त्य भगवान् नारसिंहं वपुर्दधौ " ॥ १ ॥ भावार्थ - विष्णु ने पहिले तीन अवतार किए अर्थात् मत्स्य, कच्छ और वाराह रूप से प्रकट हुए, किन्तु उनको मैथिलों ने खा डाला । तब तो भगवान् ने क्रोध करके नारसिंह शरीर को धारण किया, क्योंकि मैथिल यदि उसको खाते तो स्वयं ही भक्षित हो जाते । यद्यपि यह श्लोक हास्यप्रयुक्त है, तथापि वास्तविक विचार करने पर भी मैथिलों का व्यवहार मत्स्य, कच्छप वगैरह जीवों के संहार करने का अवश्य मालूम होता है । सामान्य नीति यह है कि जिसके कुल में भारी पण्डित या महात्मा हुआ हो वह कुल भी उत्तम माना जाता है, इसलिये उस कुल में कोई आपत्ति आवे तो -लोग उसके सहायक होते हैं । तो जिसको लोग भगवान् मानते हैं उस भगवान् का अवतार जिस जाति में हो, उस जाति का यदि नाश होता हो तो उसका उद्धार करना चाहिये, किन्तु उद्धार के बदले नाश ही किया जाता हो तो कैसा अन्याय है ? यह भी एक विचारtय बात है । और भी एक विचार करने का अवसर है कि जो पुरुष मछली खाता है वह समस्त मांस को ही खाता है, इसके प्रमाण के लिये मनुस्मृति के ५ वें अध्याय के पृ. १८१ में श्लोक १६ को देखिये 1 “ यो यस्य मांसमश्नाति स तन्मांसाद उच्यते । मत्स्यादः सर्वमांसादस्तस्माद् मत्स्यान् विवर्जयेत् ॥ १५ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७) भावार्थ- जो पुरुष जिसका मांस खाता है वह पुरुष उसका भक्षक गिना जाता है, जैसे बिल्ली चूहे को खाती है तो वह बिल्ली मूषकादक मानी जाती है, उसी प्रकार मत्स्य को खानेवाला मत्स्याद गिना जाता है, किन्तु वह मत्स्यादमात्रही कहा जाता हो सो नहीं, किन्तु सर्वमांसभक्षी गिना जाता है । अतएव मत्स्यों का मांस खाना सर्वथा अनुचित है । अपनी जाति की, धर्म की और घर की पवित्रता की रक्षा करनी हो तो मत्स्य का भक्षण सर्वथा त्याग करना चाहिये । विवेचन—मत्स्य खानेवाले को जो सर्वमांसभक्षी माना है वह बहुत ही ठीक है, क्योंकि मत्स्य तो सब पदार्थों को खाता है, अर्थात् समुद्र में या नदी में, जो किसी जीव का मृत शरीर पड़जाता है तो उसको मत्स्यही खाता है और उसके खाने के साथ साथ उसका मल मूत्र भी खाता है, तो फिर जिसने मत्स्य का मांस खाया उसने तो मानों मनुष्य का मल मूत्र भी खालिया । अत एव कल्याणाभिलाषी जीवों को ऐसे कुत्सित आहार का कदापि ग्रहण नहीं करना चाहिए । अब मैं मांसाहार के निषेध करनेवाले कुछ थोड़े से पौराणिक श्लोकों को दिखलाता हूं । महाभारत, शांतिपर्व के २९६ अध्याय पृष्ठ १८८ में राजा जनक ने पराशर ऋषि से प्रश्न किया है कि कौन कर्म श्रेष्ठ है ? यथा जनक उवाच Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) पराशर उवाच" शृणु मेऽत्र महाराज ! यन्मां त्वं परिपृच्छसि । यानि कर्माण्यहिंस्राणि नरं त्रायन्ति सर्वदा" ॥३६॥ भावार्थ-प्रश्न-हे द्विजसत्तम ! अहिंसा कर्म तथा हिंसा कर्म में कौन धर्मयोग्य कर्म है और कौन अधर्मयोग्य है ? उत्तर-हे महाराज जनक! जो कर्म अहिंसा याने हिंसादोष से रहित है वही कर्म पुरुषों की सर्वदा रक्षा करता है । अत एव अहिंसाकर्म धर्म, और हिंसाकर्म अधर्म माना गया है। आगे वाराहपुराण में भी कहा है कि" जीवहिंसानिवृत्तस्तु सर्वभतहितः शुचिः। सर्वत्र समतायुक्तः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥ ८ ॥ अध्याय १२१ पृष्ठ ५२८ हिंसादीनि न कुवन्ति मधुमांसविवर्जकाः। मनसा ब्राह्मणी चैव यो गच्छेन्न कदाचन ॥ २४ ॥ अध्याय १२५ पृष्ठ ५३० विकर्म नाभिकुर्वीत कौमारव्रतसंस्थितः। सर्वभूतदयायुक्तः सत्त्वेन च समन्वितः ॥ ५ ॥ अध्याय १२२ पृष्ठ ५३१ ... न भक्षणीय वाराहं मांसं मत्स्याश्च सर्वशः। • अभक्ष्या ब्राह्मणरेते दीक्षितेश्च न संशयः ॥ ३४ ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८९) परीवादं न कुर्वीत न हिंसां वा कदाचन । पैशुन्यं न च कर्त्तव्यं स्तन्यं वापि कदाचन ॥ ३५॥ - अध्याय १२७ पृष्ठ ६२१ नित्ययुक्तश्च शास्त्रज्ञो मम कर्मपरायणः । अहिंसा परमश्चैव सर्वभूतदयापरः ॥ ३७॥ अध्याय ११७ पृष्ठ ५१० भावार्थ-बाराहपुराण के कई श्लोक पहिले भी दिये जा चुके हैं किन्तु विशेषरूप से पूर्वोक्त श्लोक भी दिये गये हैं। इनका सारांश इस तरह है कि-जीवहिंसा से निवृत्त पुरुष सब जीवों के हितकर और पवित्रपुरुष तथा सर्वत्र समभाववाला होता है, याने उसको लोहा, पत्थर और काञ्चन (सुवर्ण) समान होता है। तथा किसी हिंसादि अनर्थ कार्य को नहीं करता है, और मधु, मांस का त्यागी, होकर मन से भी परस्त्री-ब्राह्मणी आदि के प्रति नहीं जाता है; और कुत्सित कर्मों को न करके अपना कौमारबत पालन करता है, तथा सब भूतों में दयायुक्त होकर सत्त्व से युक्त भी रहता है। वाराह का मांस, खाने के योग्य नहीं है और मत्स्य का मांस भी अभक्ष्य है। और दीक्षित ब्राह्मणों को तो कदापि इन्हें नहीं खाना चाहिये, क्योंकि उनके लिये वे सर्वथा अभक्ष्य हैं। और सत्पुरुष को परनिन्दा, हिंसा, चुगली, और चोरी भी नहीं करनी चाहिये। नित्यकर्मयुक्त शास्त्र को जाननेवाला मेरे कर्म में परायण, अहिंसा को परम धर्म माननेवाला, और सब सूक्ष्म बादर जीवों की दया में Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) तत्पर हो, इत्यादि अनेक बातें वाराहपुराण में लिखी हुई हैं । इसलिये ये सब बातें एसियाटिक सोसायिटी के छपे हुए वाराह पुराण में देखने से पाठकों को स्पष्ट मालूम होंगी। इसी तरह कूर्मपुराण में भी अहिंसा धर्म की साक्षी देनेवाले श्लोक हैंयथा" न हिंस्यात् सर्वभूतानि नानृतं वा वदेत् क्वचित् । नाहितं नाप्रियं ब्रूयात् न स्तेनः स्यात् कथश्चन ॥२॥ __अध्याय १६ पृष्ठ ५५३ भावार्थ-सब भूतों की हिंसा नहीं करनी, झूठ नहीं बोलना, अहित और अप्रिय नहीं बोलना और किसी. प्रकार की चोरी भी नहीं करनी चाहिये। विवेचन-पुराणों मे हिंसा करने, चोरी करने तथा अहित अप्रिय और झूठ बोलने की भी मनाही की गयी है। इतना लिखे रहने पर भी स्वार्थान्ध पुरुष अमूल्य महावाक्यों का अनादर करके, जिसम प्राणियों का अहित और अप्रिय दोनों हों, ऐसे ही कामों को करते और कराते हैं ओर करनेवाले को अच्छा मानते हैं। जहाँ बलिदान होता है वहां पर मरनेवाले जीव का अहित और अप्रिय नहीं तो क्या होता है? यह भी विचार करने के योग्य है । क्योंकि प्राण से प्यारी कोई भी चीज दुनिया भर में नहीं है, यह बात जैन सिद्धान्त से तथा महाभारत आदि से सिद्ध हो चुकी है। किन्तु अब विचारने की बात यह है कि बलिदान करके जो प्राणियों के प्राण लिये जाते हैं, उसमें उनका अहित Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९१) और अप्रिय संपूर्ण रीति से मालूम होता है। इसलि : एक स्थान में यज्ञ के वास्ते एक बकरा बाँधा हुआ बें बें कर रहा था । उसपर कई कवियों ने भिन्न २ प्रकारकी उत्प्रेक्षा की-एक ने ऐती उत्प्रेक्षा की कि-बकरा कहता है कि मुझे जल्दी स्वर्ग पहुंचा दो, तो दूसरे ने यह उत्प्रेक्षा की कि यह बकरा कहता है कि इस राजा का कल्याण हो, जिसने केवल तृण आहार को छुड़ाकर अमताहार का भागी बनाया, तब तीसरे कवि ने कहा कि यह बकरा वैदिक धर्म को धन्यवाद देरहा है कि यदि वैदिक धर्म न होता तो हमारे ऐसे अज्ञानी पशु को स्वर्ग कौन ले जाता ? । इस प्रकार की जब कल्पनाएँ चल रहीं थीं; उसी समय एक दयालु पुरुष कहने लगा कि-यह पशुयज्ञ करनेवालों से विनति करता है कि"नाहं स्वर्गफलोपभोगतृषितो नाभ्यर्थिस्त्वं मया संतुष्टस्तृणभक्षणेन सततं साधो ! न युक्तं तव । स्वर्ग यान्ति यदि त्वया विनिहता यज्ञे ध्रुवं प्राणिनो यज्ञ किं न करोषि मातृपितृभिः पुत्रैस्तथा बान्धवैः ?"॥१॥ __ भावार्थ-हे यज्ञ करनेवाले महाराज ! मैं स्वर्ग के फलोपभोग का प्यासा नहीं हूं और न मैंने तुमसे यह प्रार्थना ही की है कि तुम मुझे स्वर्ग पहुंचादो, किन्तु मैं तो केवल तृण के ही भक्षण से सदा प्रसन्न रहता हूं, अतएव हे सजन ! तुम्हे यह कार्य (यज्ञ ) करना उचित नहीं है, और यदि तुम्हारा मारा हुआ प्राणी स्वर्ग में निश्चय से जाता ही हो, तो इस यज्ञ में अपने माता Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९२) "पिता आदि बन्धुओं को ही मारकर स्वर्ग क्यों नहीं पहुंचा देते ?। जो अहिंसा धर्मकी पुष्टि पुराण, स्मृति आदि बहुत से ग्रन्थों में की हुई है, उसको मैं यहाँ न दिखलाकर, केवल अहिंसा की महिमा और उसके सङ्गकरनेवाले की अपूर्व शक्ति तथा हिंसक पुरुष की दुर्दशा ही दिखलाता हूँ। - अहिंसा की महिमा कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यजी ने इस तरह की है यथा“ मातेव सर्वभूतानामहिंसा हितकारिणी । अहिंसैव हि संसारमरावमृतसारणिः" ॥ ५० ॥ " अहिंसा दुःखदावाग्निप्रावृषेण्यघनाऽऽवली । भवभ्रमिरुजार्तानामहिंसा परमोषधी" ॥ ५९॥ योगशास्त्र द्वि. प्र. पृ. २८५ भावार्थ-अहिंसा सब प्राणियों की हित करनेवाली माता के समान है, और अहिंसा ही संसाररूप मरु (निर्लज) देश में अमृत की नाली के तुल्य है; तथा दुःखरूप दावानल को शान्त करने के लिये वर्षाकाल की मेघपक्ति के समान है; एवं भवभ्रमणरूप महारोग से दुःखी जीवों के लिये परमौषधि की तरह है । अहिंसा समस्त व्रतों में भी मुकुट के समान मानी Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९३) "हेमाद्रिः पर्वतानां हरिरमृतभुजां चक्रवर्ती नराणां । शीतांशुज्योतिषां स्वस्तरुरवनिरुहां चण्डरोचिहाणाम् । सिन्धुस्तोयाशयानां जिनपतिरसुरामर्त्यमाधिपानां यद्वत् तद्वद् व्रतानामधिपतिपदवीं यात्यहिंसा किमन्यत् ॥१॥ भावार्थ-जैसे पर्वतों में मेरु, देवताओं में इन्द्र, मनुष्यों में चक्रवर्ती, ज्योतिर्मण्डल में चन्द्रमा, वृक्षावली में कल्पवृक्ष, ग्रहों में सूर्य, जलाशयों में सिन्धु और वासुदेव-बलदेव-चक्रवर्ति, तथा ६२ इन्द्रों में जिनराज उत्तम हैं, वैसे ही समस्त व्रतों में श्रेष्ठ पदवी को अहिंसा ही पाती है, अर्थात् अहिंसा सबसे श्रेष्ठ है । अतएव जिस धर्म में दया न हो वह धर्म किसी कामका नहीं है। क्योंकि शस्त्ररहित सुभट और विचारहीन मंत्री, किले के विना नगर, नायक रहित सेना, दन्तहीन हस्ती, कलाशून्य पुरुष, तप से विहीन मुनि, प्रतिज्ञाभङ्ग पुरुष, ब्रह्मचर्य रहित व्रती, स्वामी के विना स्त्री, दान विना धनाढय का धन, स्वामीहीन देश, विद्या के विना विप्र, गन्धहीन पुष्प, दन्त विना मुख, वृक्ष और कुसुम के विना सरोवर, एवं पातिव्रत्यधर्महीन स्त्री जैसे अच्छी नहीं लगती है वैसेही दया के विना धर्म अच्छा नहीं लगता है। किन्तु दयावान् पुरुष समदृष्टि होने से आदेयवचन, पूजनीयवाक, महितकीर्ति, परमयोगी, शान्तिसेवधि, परोपकारी, ब्रह्मचारी इत्यादि विरुदों से अलङ्कृत होता है । अतएव पशु पक्षी भी उसकी गोद में निर्भय होकर क्रीड़ा करते हैं, क्योंकि पशु पक्षी स्वयं क्रूर स्वभाव को छोड़कर जन्म वैर को भी जलाञ्जलि देते हैं और स्वभाव से दया Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४) भाव में मग्न होकर महात्मा के उपदेश का पान करने लिये उत्साही से मालूम पड़ते हैं। इसलिये जिसके ऊपर दयादेवी की कृपा होती है, उसको सब प्रकार की निर्मल बुद्धि उत्पन्न हो जाती है, और वही जगत् का पूज्य बनता है, तथा उसीकी महिमा अवर्णनीय होती है। यथा"सारङ्गी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नन्दनी व्याघ्रपोतं मार्जारी हंसवालं प्रणयपरवशात् केकिकान्ता भुजङ्गम् । वैराण्याऽऽजन्मजातान्यपि गलितमदाजन्तवोऽन्ये त्यजेयु दृष्ट्वा सौम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम्"॥१॥ भावार्थ-शान्ति में लीन और निष्कलुषितभाववाले योगी को देख कर कितनेही जीव जन्मजात वैर को जलाञ्जलि देते हैं; अर्थात् हरिणी सिंह के बच्चे को पुत्र की तरह प्रेम से स्पर्श करती है, और गौ व्याघ्र के बच्चे को निजपुत्र की बुद्धि से प्रेम के वश होकर स्पर्श करती है; तथा बिल्ली हंस के बालक को स्नेह बुद्धि से देखती है और मयूरी भी सर्प से मित्रता करती है, इत्यादि । विवेचन-समस्त जन्तुओं पर दयाभाव रखनेवाला पुरुषही महात्मा गिना जाता है, जिससे दयाभाव कुछभी दूषित न हो इसीलिये अन्य नियमों को भी महात्मा लोग पालन करते हैं। क्योंकि समस्त महात्मा पुरुषों का लक्ष्य अहिंसा ही पर है और उनका उपदेश भी वैसाही होता है । यदि मध्यस्थ बुद्धि से उनलोगों का सिद्धान्त देखा जाय तो न्यूनाधिक रीति से सभी बात जीवदयापूर्वक Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही मालूम होगी । किन्तु कालान्तर में दयारहित पुरुर्षों के मन में अनेक कल्पनाएँ उत्पन्न हुई, इसलिये उन्होंने ही अर्थ का अनर्थ करडाला । क्योंकि महाभारत में ऋषियों ने अज शब्द का अर्थ तीन वर्ष का पुराना धान ही माना है, यह बात पहिले भी कही जा चुकी है । यद्यपि अनेक कविलोग बलिदान शब्द को लेकर नयी नयी कल्पनाएँ करके हजारों जाति के जीवों के पक्के शत्रु (दुश्मन ) बन गये हैं; किन्तु वास्तव में बलिदान शब्द का तो यह अर्थ है कि-बलि याने नैवेद्य का दान करना, जिससे हजारों गरीबों के पेट भरें, और वे लोग आशीर्वाद दें, जिससे अपनी कामना पूर्ण हो, न कि दूसरे के प्राण की हिंसा हो; किन्तु जो लोग ऐसा न करके देव देवियों को बकरा मार कर संतुष्ट करना चाहते हैं वे तो प्रत्यक्ष ही अन्याय करते है । ___बकरीद के रोज मुसलमान लोग व्यर्थही असङ्ख्य जीवोंके प्राण ले लेते हैं। यदि खुदाके नामसे उनके किसी सच्चे फकीर से पछा जाय तो वह अपने धर्मशास्त्र से भी इसे अन्याय ही कहेगा । क्योंकि जब खुदा दुनियां का पिता है तब दुनियां के बकरी, ऊंट, गौ वगैरह सभी प्राणियोंका वह पिताही हुआ,तो फिर वह खुदा अपने किसी पुत्र के मरने से खुशी किस तरह होगा ? अगर होता है तो उसे पिता कहना उचित नहीं है । और विचारदृष्टि से भी देखिये कि मुसलमान लोग जो एकही दातून को बहुत दिन अपने काम में लाते हैं उसका कारण भी यही है कि जहांतक हो दातून के लिये भी नयी २ वनस्पति को न काटना पड़े। अब रहा यह कि जो Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९६ ) काल को मारने के लिये कुरान में सूचना दी है उसका बहुत से आधुनिक मुसलमान लोग तो सर्प, बीहू व्याघ्रादि अर्थ करते हैं इसलिये उन जीवोंके मारने के लिये सभी बालक से लेकर वृद्ध पर्यन्त यत्न किया करते हैं, किन्तु वास्तविक में काल से क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि का ही महात्माओं ने ग्रहण किया है, इसलिये उन्हींको मारना चाहिये | क्योंकि पक्के शत्रु आत्मा के वेही हैं, सर्पादि उस प्रकार के तो नहीं हैं । क्योंकि सर्पादि के मारने से काल का मारना नहीं गिना जासकता है । कदाचित् यह कहा जाय कि वे अपने सुख के लिये ही मारे जाते है सो भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि जिस जगह पर जितने ही जहरीले जीव मरते हैं, वहां पर उतनेही वे ज्यादा पैदा होते हैं । इसलिये गुजरात देश में प्रायःकरके कोई भी हिन्दू सर्प बीछू नहीं मारता, किन्तु मारनेवालों में केवल मुसलमान ही दिखाई पड़ते हैं, इसलिये वहाँ पर वे जीव बहुत कम उत्पन्न होते हैं । यदि मुस लमान भी नहीं मारते होते तो सर्प बोछू आदि का गुजरात में बिलकुल ही डर न होता । पूर्वदेश, बङ्गाल और मगध आदि देशों में तो ब्राह्मण भी सर्प, बीछु, आदि जीवों को मारने में जरा भी पाप, अथवा अपवाद नहीं मानते, जैसे ही जीव दृष्टि में आया कि तुरन्त मार डालते हैं । यद्यपि समस्त देश के कुछ न कुछ मनुष्य उन्हें मारते ही है किन्तु गुजरात की अपेक्षा कई गुने अधिक इस देश में सर्प बीछू आदि जीव देखने मे आते हैं; उसका कारण यही है कि जिस Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगह उन जीवों का खून गिरता है वहीं पर उन जीवों की ज्यादा उत्पत्ति होती है। और मारनेवाला भी सर्पावस्था को प्राप्त होकर उस सर्प से अवश्य मारा जायगा। क्योंकि जो जीव एक दफे जो कर्म करता है उसको वह कम से कम दस गुना भोगता है । यावत्परिणाम के वश से सौ गुना, हजारगुना, लाखगुना, और करोड़गुना भी कर्म का बन्ध पड़जाता है । सर्पादि के मारने से न तो लोकोपकार होता है और न स्वोपकार ही होता है, किन्तु पूर्वोक्त बातों से दोनों का अपकार ही सिद्ध होता है । क्योंकि पहिले जो थोड़े सर्प थे, उनको अब वह मारकर बढ़ावेगा, और मारनेवाले को मरनेवाले जन्तु का भव अवश्य धारण करना पडेगा। अत एव काल शब्द से आत्मा के वास्तविक शत्रु क्रोधादि को ही लेना चाहिये, और उनके ही मारने की पूर्ण चेष्टा करनी चाहिये । जो हिन्दू और मुसलमानों में आजतक महात्मा हुए हैं, वे सब दयाभाव से ही हुए है । और जैनों के लिए यह कथन तो सिद्धसाधनरूप है । क्योंकि पूर्वोक्त श्लोकों में दिखलाया गया है कि महात्मा पुरुष के प्रभाव से ही कर जन्तु भी शान्त होगये हैं और हो जाते हैं, तब स्वभावसरल जीवों की कथा ही क्या है ? । योगवासिष्ठ में जो मोक्ष के चार द्वारपाल बताये गये हैं उनमें एक शम भी गिनाया गया है; क्योंकि शमशाली पुरुष, समस्त जीवों को विश्वासपात्र ही दिखाई देता है। यथा" मोक्षद्वारे द्वारपालाश्चत्वारः परिकीर्तिताः। शमो विचारः सन्तोषश्चतुर्थः साधुसङ्गमः " ॥४७॥ यो० वा० पृष्ठ ४ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९८ ) " मातरीव परं यान्ति विषमाणि मृदूनि च । विश्वासहि भूतानि सर्वाणि शमशालिनि" ॥ ६२ ॥ यो० वा० पृष्ठ ६ अर्थात् - मोक्षद्वार में शम, सदविचार, सन्तोष, और साधुसमागमरूप चार द्वारपाल हैं, इन चारों द्वारपालों के विचार करने में पहिले ही शम का बिचार किया है । उसमें पूर्वोक्त ६२ वें श्लोक में लिखा है कि शमशाली पुरुष से संपूर्ण क्रूरजन्तु और शान्तजीव विश्वास पाते हैं । अर्थात् जीवों को उनसे बिलकुल भय नहीं 1 1 होता है, क्योंकि वे तो दयाप्रधान पुरुष हैं । जीवहिंसा करनेवाले जीवों की दुर्दशा कैसी होती है, देखिये "" यथा श्रूयते प्राणिघातेन रौद्रध्यानपरायणौ । सुभूमो ब्रह्मदत्तश्च सप्तमं नरकं गतौ " ॥ २७ ॥ पृष्ठ २०२, योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश. भावार्थ-सुना जाता है कि प्राणियों का घात करके रौद्रध्यान में तत्पर सुभूम और ब्रह्मदत्त दोनों सातवीं नरक में गये । इसी कारण से जो लोग लङ्गडे लूले होते हैं, सो तो अच्छा ही हैं, लेकिन संपूर्ण अङ्गवाला होकर भी जो हिंसा करता है वह ठीक नहीं है 1 यथा कुणिर्वरं वरं पङ्गरशरीरी वरं पुमान् । अपि संपूर्णसर्वाङ्गो न तु हिंसापरायणः" ॥ २८ ॥ पृष्ठ २६० यो० शा० द्वि० प्र० Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस श्लोक का भावार्थ ऊपर ही लिख दिया गया है । यदि यहाँ पर कोई शङ्का करे कि जिस हिंसा से रौद्रध्यान हो, वह नहीं करनी, किन्तु शान्ति के लिये की हुई हिंसा से तो रौद्रध्यान नहीं होता, इसलिये वह हिंसा तो निर्दोष है। इसके उत्तर में हेमचन्द्राचार्य कहते हैं कि " हिंसा विघ्नाय जायेत विघ्नशान्त्यै कृताऽपि हि । कुलाचारधियाऽप्येषा कृता कुलविनाशिनी" ॥ २९ ॥ पृष्ठ २६०, यो० शा० द्वि० प्र० . याने विघ्न की शान्ति के लिए की हुई हिंसा भी, उलटे विघ्न को ही करनेवाली होती है । जैसे किसीकी कुल की रीति है कि अमुक दिन हिंसा करनी चाहिये; किन्तु वह हिंसा भी कुल का नाश करनेवाली ही है। देखिये कुलक्रम से प्राप्त भी हिंसा को छोडकर कालसौकरिक कसाई का पुत्र सुलस कैसा सुखी हुआ ? । यथा" अपि वंशक्रमायातां यस्तु हिंसां परित्यजेत् । स श्रेष्ठः सुलस इव कालसौकरिकात्मजः " ॥३०॥ . पृ २६१ यो० शा० द्वि० प्र० यदाह"अवि इच्छन्ति य मरणं न य परपोडं कुणन्ति मणसा वि। जे सुविइअसुगइपहा सोयरिअसुओजहा सुलसो' ॥१॥ यो० द्वि०, पृ २६१ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०० ). तात्पर्य-कुल क्रम से प्राप्त हिंसा को भी त्याग करना चाहिये, हिंसा त्याग करने से जैसे कालसौकरिक कसाई का पुत्र सुलस श्रेष्ठ गिना गया है । प्राकृत गाथा का भावार्थ-जो पुरुष मृत्यु की इच्छा तो करता है परन्तु दूसरे को दुःख देने की मन से भी इच्छा नहीं करता है, वह उत्तम रीति से सुगति के मार्ग का ज्ञाता होता है, जैसे कालसौकरिकपुत्र. सुलस के कुटुम्ब ने उसे हिंसा करने के लिये बहुत ही प्रेरणा की, किन्तु उसने हिंसा नहीं की। यह दृष्टान्त विस्तार से योगशास्त्र में लिखा हुआ हैं । उसका सार यही है कि जब सुलस के कुटुम्ब ने अनेक युक्ति से हिंसा करने के लिये उसे बाध्य किया, यहाँ तक कि सुलस के पाप में भी भाग लेने को कबूल किया । तब सुलल लाचार हो कुहाडी लेकरके तो चला, किन्तु अपने कुटुम्ब के अन्तःकरण में प्रतिबोध करने के आशय से तथा स्वयं हिंसा से सर्वथा छूटने के विचार से जान बूझ कर उसने अपने ही पैर पर कुहाडी मार ली । जिससे उसका पैर रुधिर और मांस से पूर्ण दिखाई देने लगा, तदनन्तर उसके चिल्लाने पर सभी कुटुम्ब इकट्ठा हुआ । उसके बाद जब उनलोगों के उचित रीति से दवा वगैरह करने पर भी सुलस की वेदना शान्त न हुई, तब उसने अपने कुटुम्ब से यह कहा कि हमारे दुःख में ते थोडा थोडा तुमलोग भी बाँटलो । उस समय एक वद्ध ने उत्तर दिया कि किसीकी वेदना क्या किसीसे बाँटी जा सकती है ? । तब तो सुलस बोला कि जब तुमलोग प्रत्यक्ष दुःख के भागी नहीं हो सकते हो तो क्या परोक्ष Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरकादि दुःख में भाग लेने की शक्ति तुमलोगों में है ?, जो मुझको झूठ मूठ हिंसा में फंसाते हो ? । इत्यादि अनेक युक्तिद्वारा बेचारा सुलस पाप कर्म से किसी प्रकार मुक्त हुआ । शास्त्रकारों ने इसीलिये तो सुलस को श्रेष्ठ दिखलाया है । ___जो कोई प्राणी इसी तरह जीवहिंसा का त्याग करेगा वही श्रेष्ठ गिना जायगा। किन्तु शान्ति के लिये जो पुरुष हिंसा करते हैं वे तो मूर्ख ही हैं; क्योंकि दूसरे की अशान्ति उत्पन्न करके अपनी शान्ति करनेवाले को विचारशून्य पुरुष समझना चाहिये । अतएव बहुत जगह जब कोई उपद्रव होता है तब धर्मात्मा पुरुष तो ईश्वर भजन, दान, पूजादि करते हैं, किन्तु नास्तिक और निर्दय मनुष्य प्रायः बलिदान देने की कोशिश करते हैं और अन्त में वे लोग भद्रिकलोगों को भी उस उन्मार्ग पर ले जाते हैं। ___ यथा" विश्वस्तो मुग्धधीर्लोकः पात्यते नरकावनौ । अहो ! नृशंसर्लोभान्धैर्हिसाशास्त्रोपदेशकैः " ॥१॥ पृष्ठ २७६ यो० शा० द्वि० प्र० भावार्थ-बिचारे विश्वासू भद्रिक बुद्धिवाले लोग भी निर्दय, लोभान्ध और हिंसाशास्त्र के उपदेशकों से वञ्चित होकर नरकभूमि में जाते हैं; अर्थात् वे निर्दय, अपने भक्तों को नरक में ले जाते हैं। . यह कुरीति तो गुजरात आदि सामान्य देश में भी प्रचलित है, याने निर्दय मनुष्य बकरे बगैरह जीव Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) को मारकर अशान्ति से शान्ति चाहनेवाले दिखाई पडते हैं; इसीलिये महाशान्त-स्वभाव के पक्षपाती भी, हेमच. न्द्राचार्य आदि आचार्यों ने जीवदयापर अत्यन्त प्रीति रखने के कारण हिंसाशास्त्र के उपदेश करनेवाले पुरुषों को नोस्तिकातिनास्तिकशब्द से कहा है। ... यथा"ये चक्रुः क्रूरकर्माणः शास्त्रं हिंसोपदेशकम् । क ते यास्यन्ति नरके नास्तिकेभ्योऽपि नास्तिकाः?"॥३७॥ : भावार्थ-जिन क्रूरकर्माओं ने हिंसोपदेशक शास्त्रों को रचा है, वे नास्तिकों से भी नास्तिक होने के कारण किस नरक के भागी होंगे यह नहीं मालूम पडता है ? । अर्थात वे चाहे अपने मन में आस्तिक होनेका दावा भलेही करें, वस्तुतः तो वे नास्तिकों से भी नास्तिक हैं । क्योंकि नास्तिकों के फन्दे में साधारण भी मनुष्य सहज में नहीं आते, इसलिये वे लोग आस्तिकों का वेष धरकर मुग्धलोगों को विश्वास दिलाते हैं, अतएव वे बिचारे अनभिज्ञ अनर्थकारिणी हिंसा आदि निन्दनीय कृत्यों को भी धर्मही मानने लगते हैं । जिस हिंसा का दोष कदापि छूटही नहीं सकता उस हिंसा करनेवाले की नरकगति हिंसोपदेशकों ने भी अवश्य मानी है, किन्तु विचार करने से मुझे तो यही मालूम होता है कि जब हिंसोपदेशकलोग सत्यवक्ता से युक्तिपूर्वक विचार में परास्त होने लगे हैं तब डरकर अपने भक्तों के पास अपने सत्यवक्ता होने का घमण्ड Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) 1 रखने के लिए उन्होंने यह लिखा है कि यज्ञ, मधुपर्क, श्राद्ध और देवपूजा आदि में जो हिंसा की जाती है उसका फल यद्यपि स्वर्ग है, तथापि साथही साथ हिंसाजन्य पाप से नरकादि दुःख भी भोगना पड़ता है । इससे दुनियां के लोग उन्हें सत्यवक्ता मानते हैं कि 'देखिये यह ऐसे सत्यवक्ता हैं कि अपनी हार्दिक कुछ भी बात छिपी नहीं रखते । परंतु अपने सत्यवक्ता कहाने के लिये ही हिंसा में दोष उन्होंने माना है अन्यथा वे कदापि दोष न मानते । वर्त्तमान समय में जीवदयापालक मनुष्यों को देखकर याज्ञिक लोग, हिंसा की पुष्टि विशेष करते हैं और क्षत्रियों के लिये तो वे लोग हिंसा करना धर्मही बतलाते हैं और कहते हैं कि क्षत्रिय लोगोंको मृगया ( शिकार ) करने में कुछ भी दोष नहीं है, क्योंकि मांसाहार न करने पर शत्रुओं से देश की रक्षा होही नहीं सकती । ऐसे अनेक कारण दिखाते हैं, किन्तु वे उनकी युक्तियां बुद्धिमान् पुरुषों को ठीक नहीं मालूम देती हैं। देखिये शिकार के लिये दोष न मानना तो राजाओं के प्रिय होने के लियेही लिखा है. क्योंकि यदि शिकार करने में दोष न होता तो धर्मिष्ठ राजा लोग उसको क्यों छोडते ? । और युक्ति से भी देखा जाय तो राजा का धर्म यही है कि निरपराधी जीव की रक्षाही करे, न कि उसको मार डाले । अतएव निरपराधी जीवों को मारने वाले क्षत्रियों के पुरुषार्थ को महात्मा लोग एक प्रकार से तिरस्कारही करते हैं कि Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "रसातलं यातु यदत्र पौरुषं कनीतिरेषाऽशरणो ह्यदोषवान् । निहन्यते यद्बलिनाऽतिदुर्बलोहहा! महाकष्टमराजकं जगत्"? "पदे पदे सन्ति भटा रणोत्कटा न तेषु हिंसारस एष पूर्यते । धिगीदृशं ते नृपते! कुविक्रमं कृपाऽऽश्रये यः कृपणे मृगे मयि"२६ भावार्थ-जो दुर्बल जीव बली से मारा जाता है इस विषय में जो पौरुष है वह रसातल को चला जाय; और अदोषवान् याने निर्दोष जीव अशरण हो अर्थात् उसका कोई रक्षक न हो? यह कहाँ की नीति है, बडे कष्ट की बात है कि विना न्यायाधीश संसार अराजक हो गया है। दूसरे श्लोक में कवियोंने हरिण का . पक्ष लेकर अहिंसाधर्म का उपदेश राजाओं के करने के लिये युक्तिपूर्वक उत्प्रेक्षा की है कि-हे क्षत्रियो ! यदि तुमारे अन्तःकरण में स्थित हिंसा का रस तुझे पूर्ण करना तो स्थान स्थान में लाखों जो संग्राम में भयङ्कर सुभट तैयार है, क्या वहां पर वह रस तुह्मारा पूर्ण नहीं हो सकता है ? । अर्थात् उनलोगों से लड़कर यदि शस्त्रकला को सफल करो तो ठीक है; किन्तु कृपा करने के लायक और कृपण मेरे ऐसे बेचारे मृग में जो हिंसारस को पूर्ण करना चाहते हो इसलिये इस तुम्हारे दुष्ट पराक्रम को धिक्कार है। विवेचन-क्षत्रियों का धर्म शस्त्रवान् शत्रु के संमुख होने के लिये हो है, किन्तु वह भी योग्य और शास्त्रयुक्त और नीतिपूर्वक, निष्कपट होकर, इतनाही नहीं किन्तु उत्तमवंशी वीर राजा के साथही करना चाहिये । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५) ऐसा नियम है कि जो मनुष्य हार जाता है वह अपने मुख में घास लेकर और नम्र होकर यदि शरण में आजावे तो वह माफी पाता ही है, किन्तु वह मारा नहीं जाता। इस लिये मग कहता है कि हे राजन् ! न तो मेरे पास शस्त्र है और न मैं उत्तम कुल में राजाही हुआ हूँ किन्तु हमेशा मुख में घास रखनेवाला मैं निरपराधी जीव हूँ, मुझे यदि मारोगे तो तुह्मारी कीर्ति कैसी होगी यह विचारणीय है। कहा हुआ है कि " वैरिणोऽपि विमुच्यन्ते प्राणान्ते तृणभक्षणात् । तृणाहाराः सदैवैते हन्यन्ते पशवः कथम् ? ॥१॥ “ वने निरपराधानां वायुतोयतृणाशिनाम् । . निघ्नन् मृगाणां मांसार्थी विशिष्येत कथं शुन:?"॥२३॥ " निर्मातुं क्रूरकर्माणः क्षणिकामात्मनो धृतिम् । ___समापयन्ति सकल जन्मान्यस्य शरीरिणः " ॥२६॥ " दीर्यमाणः कुशेनापि य स्वाङ्गे हन्त ! यते । निर्मन्तून् स कथं जन्तूनन्तयेन्निशितायुधैः ? "॥२४॥ इत्यादि अनेक श्लोकों से राजाओं के शिकार करने का निषेध प्रत्यक्ष सिद्धही है। इतनाही नहीं किन्तु जो वन में झरने का पानी और घास खाकर रहनेवाले निरपराधी जीवों को मांस के लोभी लोग मारते हैं क्या कुत्तों से विशेष गिने जासकते हैं ? । क्योंकि Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) " सर्वे वेदाश्च यज्ञाश्च तपो दानानि चानघ । जीवाभयप्रदानस्य न कुर्वीरन् कलामपि " ॥ ४१॥ भागवत ३ स्कन्ध, ७ वां अध्याय । भावार्थ-जीवों के अभय दान देने की एक कला को भी संपूर्ण वेद, यज्ञ, तप, दान आदि नहीं कर सकते हैं। और भी लिखा है कि" ये त्वनेवंविदोऽसन्तः स्तब्धाः सदभिमानिनः । पशून् द्रुह्यन्ति विस्रब्धाः प्रेत्य खादन्ति ते च तान् "॥१४॥ भागवत ११ स्कन्ध ५ अध्याय । भावार्थ-निश्चलभाव को प्राप्त होकर अहिंसाधर्म को न जानकर अपने को अच्छा मानने वाला जो असाधु पुरुष पशुओं से द्रोह करता है, वह उन पशुओं से दूसरे जन्म में अवश्य खाया जाता है। और श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा है कि" आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन !। मुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः" ॥३२॥ अध्याय ६ पत्र ११९ (बहुत छोटा गुटका।) भावार्थ-जो महात्मा सब में अपने समानही सुख और दुःख दोनों मानता है वही परम योगी माना जाता है। अब विचारने की बात है कि" स्वच्छन्दं वनजातेन शाकेनाप प्रपूर्यते । अस्य दग्धोदरस्यार्थे का कुर्यात् पातकं महत् ?" ॥१॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७) भावार्थ-यदि वन में उत्पन्न हुए. शाक से भी स्व.. च्छन्दता पूर्वक उदर पूर्ण होजाता है तो इस नष्ट उदर के वास्ते कौन पुरुष घोर पाप करे ?। देखिये, क्रूर काम करने वाले अपनी क्षणभर की तृप्ति के लिये अन्य जीवका जन्म नष्ट करते हैं, क्या यह कोई बुद्धिमान् पुरुष योग्य मानेगा?! क्योंकि अपने अङ्ग में एक सूई लगने से भी जब दुःख होता है, तो तीक्ष्ण शस्त्रोंसे निरपराधी जीवोंका नाश करना क्या उचित है ?। प्रसंगानुसार 'बकरीविलाप' द्वारा जो सुन्दर उपदेश भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्रजी ने किया है सो भी नीचे दिखलाया जाता हैमानुष जनसों कठिन् कोउ, जन्तु नाहिं जगबीच । बिकल छाडि मोहि पुत्र लै, हनत हाय सब नीच ।। बृथा जवन को दूसही, करि वैदिक अभिमान । जो हत्यारो सोइ जवन, मेरे एक समान ॥ धिक् २ ऐसो धर्म जो, हिंसा करत बिधान । धिक्.२ ऐसो स्वर्ग जो बध करि मिलत महान ॥ शास्त्रन को सिद्धान्त यह, पुण्य सु परउपकार । पर पीड़न सों पाप कछु, बढ़ि के नहिं संसार ।। जज्ञन में जप जज्ञ बढ़ि, अरु सुभ सात्त्विक धर्म । सब धर्मन सो श्रेष्ठ है, परम अहिंसा धर्म ॥ पूजा लै कहँ तुष्ट नहिं, धूपदीप फल अन्न । जो देवी बकरा वधे, केवल होत प्रसन्न ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. (१०८) हे विश्वम्भर ! जगतपति ! जगस्वामी जगदीस !। हम जगके बाहर कहा, जो काटत मम सीस ॥ जगमाता ! जगदम्बिके ! जगतजननि ! जगरानि !। तुम सन्मुख तुम सुतनको सिर काटत क्या जानि ?॥. क्यों न खींच कै खड्ग तुम, सिंहासन तें धाय । सिर काटत सुत बधिक को, क्रोधित बलि ढिग आय ॥ त्राहि २ तुमरी सरन, मैं दुखनी अति अम्ब !। अब लम्बोदरजननि बिनु मो को नहिं अवलम्ब ॥ अब मांसाहार के लिये *कबीर जी आदि महात्माओं ने क्या कहा है ?, उसे देखिये " माँस अहारी मानई, प्रत्यक्ष राक्षस जान । ___ ताकी संगति मति कर, होइ भक्ति में हानि "॥१॥ " माँस खाय ते डेढ़ सब, मद्य पीनै सो नीच । कुल की दुर्मति पर हरै, राम कहै सौ ऊँच " ॥२॥ __ * कबीर के प्रमाण देने से कवीर को हम सर्वथा आप्त पुरुष नहीं समझते। एक सत्य 'कबीर की साखी' नाम की पुस्तक छपी है, वह भी ठीक नहीं है। कबीर की भाषा बहुत जगह ग्रामीण है उन्हें शास्त्रीयभाषा का ज्ञान नहीं मालूम पड़ता है। और उनका लेख रागद्वेष से भी पूर्ण हमें दिखाई देता है, यह बात साखी के अन्तिम दर्शननिन्दापरक बचनों से ही मालूम होती है। जिसमें उन्होंने जैनदर्शन की व्यर्थ असत्य आक्षेपों द्वारा निन्दा की है। तथापि उनमें दयादि सामान्य गुणों का पुष्टि करने वाला गुण, अवश्य प्रशस्य था; इसलिये उनकी कविता बाल जीवों को माननीय होने से यहाँ पर दी गई है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०९) " माँस मछलिया खात हैं सुरापान से हेत । ते नर नरके जाहिंगे, माता पिता समेत "॥३॥ " माँस माँस सब एक है, मुरगी हिरनी गाय । ___ आँखि देखि नर खात है, ते नर नरकहिं जाय" ॥६॥ " यह कुकर को भक्ष है, मनुष देह क्यों खाय । मुख में आमिष मेलिके, नरक परंते जाय" ॥७॥ " ब्राह्मण राजा वरन का, और पवनी छत्तीस । __ रोटी ऊपर माछली, सब बरन भये खबीस " ॥८॥ " कजिजुग केरा ब्राह्मणा, माँस मछलिया खाय । पांय लगे मुख मानई, राम कहे जरि जाय " ॥९॥ " तिल भर मछली खाय के, कोटि गऊ दै दान । ___ काशी करवट लें मरै तौ भी नरक निदान" ॥ १६॥ " बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल । जो बकरी को खात है, तिनका कौन हवाल"॥१८॥ " कबीरा तेई पीर हैं, जो जाने पर पीर ।। जो पर पीर न जानि है, सो काफर बेपीर" ॥ ३६॥ * हिन्दू के दया नहिं, मिहर तुरक के नाहि । कहै कबीर दोन गया , लख चोरासी मांहिं "॥३९॥ " मुसलमान मारे करद सो, हिन्द मारे तरवार । कहै कबीर दोन मिलि, जैहैं यम के द्वार" ॥४०॥ . Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबीर के कथनानुसार शिकार आदि सभी हिंसा कार्य निषिद्ध और अनुचित हैं। सप्त व्यसनों की सर्व दर्शनकारों ने जो सूचना दी है, उसमें शिकार को भी एक व्यसन माना है यथा“घृतं च नांसं च सुरा च वेश्या पापढिचौर्ये परदारसेवा। एतानि सप्त व्यसनानि लोके घोरातिघोरं नरकं नयन्ति'१ भावार्थ-जूआ, मांसाहार, सुरापान, वेश्यागमन, शिकार, चोरी, और परदारागमन-ये सात व्यसन, मनुष्यों को घोर से भी घोर नरक को प्राप्त कराते हैं । विवेचन-पापधि, मृगया, ये सब शिकार के नाम हैं, नाम से सिद्ध होता है कि जिसमें पाप की ऋद्धि हो वह पापद्धि है और व्यसन शब्द से सिद्ध होता है कि शिकारादि कृत्य महाकष्टमय हैं। इतना दोष होने पर भी, राजा का धर्म शिकार करना जो मानते हैं, उनको किसी अंशम तत्त्वज्ञानी मानना जाते हैं यह भी एक विचित्र लायक बात है । कदाचित् कोई आदमी यह साहस करके कहे कि शिकार करनेवाला शस्त्रविद्या में यदि कुशल होगा तो देशरक्षा इसके द्वारा विशेष होगी, इसलिये ही राजाओं को शिकार में दोष नहीं माना है। इसका उत्तर यह है कि अपने को कुशल बनने के लिये अन्यजीवों के कुशलको हानि पहुँचाना क्या मनुष्यों के लिये उचित है ? कदापि नहीं । प्राचीन पुरुष जो निशानेबाज होते थे, वे क्या जीव मारने से ही होते थे?; नहीं। एक ऊँचे स्थान पर नीबूं या और कोई चीज Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१११) रख कर उसको उडाते थे, जब वे स्थिर निशानों में कुशल हो जाते थे उसके बाद अस्थिर निशानों का अभ्यास करते थे। याने सूखे मिर्च को डोरी से ऊँचे टाँगते थे जब वह वायु के जोरसे हिलने लगता था तब उसे गोली से उडाते थे। इत्यादि अनेक प्रकार की अहिंसामय क्रिया से कुशलता प्राप्त करते थे, जैसे वर्तमान समय में भी कई एक अगरेज लोग झठी वस्तु बनाकर उसपर घोडाओं को दौडाते है तथा निशानों पर पूर्वोक्त कोई चीज रखकर अभ्यास करते हैं। जब सीखने के लिये अनेक रास्ते हैं तो अन्य को दुःख देकर स्वयं कुशल बननेवाले को कोई बुद्धिमान उचित नहीं गिनेगा यदि राजा महाराजा को खुश करने के लिये शिकार करने की आज्ञा दी हो तो हम नहीं कह सकते है, क्योंकि कभी २ दाक्षिण्यता भी दुर्जनता का काम कर जाती है; किन्तु स्वार्थान्धता ही अनर्थ को उत्पन्न करती है । शिकार में कोई दोष न मानना, और शिकार राजा का भूषण कहना इत्यादि दाक्षिण्य और स्वार्थान्धता ही से है । सब प्रकार की जीवहिंसा में जो दोष माना है उसे मैं पुराणों के द्वारा पहिले ही सिद्ध कर चुका हूँ। सुश्रुत में भी कहा हुआ है कि" पाठीनः श्लेष्मलो वृष्यो निद्रालुः पिशिताशनः । दूषयेदम्लपित्तं तु कुष्ठरोगं करोत्यसौ ॥ ८॥ सुश्रुत, पृष्ठ १९८ भावार्थ-मत्स्य श्लेष्माकारक, वृष्य, निद्राकारक Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२११) और मांसभक्षी होता है; और अम्लपित्त को दूषित करता हुआ कुष्ठरोग उत्पन्न करता है । भिन्न भिन्न दर्शनकारों के भिन्न भिन्न आशय के द्वारा भिन्न भिन्न रीति से माने हुए आत्मतत्त्व के भिन्नता के कारण हिंसाशब्द में जब तक विवाद दृष्टि गोचर होता है तब तक अहिंसाधर्म की सिद्धि होनी अशक्य है । अतएव तत्संबन्ध में अब थोडा लिखकर इस निबन्ध को समाप्त करना चाहता हूँ। कितने ही दर्शनकार आत्मा और शरीर को एकान्त रीति से भेद मानते हैं। उनके अभिप्रायानुसार शरीर के छेदन, भेदन दशा में हिंसा नहीं मानना चाहिये; क्योंकि आत्सा शरीर से एकान्ततः भिन्न है । और एकान्त देहात्मा को अभिन्न मानने वाले महात्माओं के सिद्धान्तानुसार तो परलोकभाव और हिंसा भी नहीं सिद्ध होसकती है, क्योंकि देह के नाश में देही आत्मा का भी नाश होगा, तब आत्मा घट पट की तरह अनित्य हुआ, तो फिर जैसे घट पट के नाश से कोई हिंसा नहीं मानता, वैसेही अनित्य आत्मा के नाश से न तो हिंसा होगी और न कोई परलोकगामी होगा, और जब परलोकगामी कोई नहीं होगा तो परलोक का ही अभाव सिद्ध होगा। अतएव कथञ्चित् शरीर से भिन्नाभिन्नता से ही जीव की स्थिति अङ्गीकार करनी चाहिये; याने किसी प्रकार से तो आत्मा शरीर से भिन्न है और किसी प्रकार से अभिन्न है ऐसा युक्तियुक्त माना जाय तब जो शरीर नाश के समय पीडा उत्पन्न होती है उसे हिंसा कहते हैं; और शरीर नाश होने से आत्मा पदार्थ दूसरी गति Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३ ) प्राप्त करता है इसलिये परलोक भी सिद्ध होता है। हिंसा का स्वरूप इस प्रकार तत्त्ववेत्ताओं ने दिखलाया है । यथा "दुःखोत्पत्तिर्मनक्लेशस्तत्पर्यायस्य च क्षयः । यस्यां स्यात् सा प्रयत्नेन हिंसा हेया विपश्चिता॥१॥ भावार्थ-जिसमें दुःख की उत्पत्ति, मन को क्लेश, और शरीर के पर्यायों का क्षय होता हो, उस हिसा का यत्नपूर्वक बुद्धिमान पुरुषों को त्याग करना चाहिये । विषय, कषाय, निद्रा, मादक वस्तुओं का पान करना, विकथादिरूप प्रमाद से दुःखोत्पत्ति, मनःक्लेश, और जीव ने धारण किये हुए शरीर का नाशकरना ही हिंसा मानी जाती है । वह हिंसा संसाररूप वृक्ष के बढ़ाने के लिये अमोघ बीज है । यहां यह शङ्का उत्पन्न होती है कि योगी भोगी दोनों को चलने फिरने से हिंसा लगती है किस प्रकार संसाररू वृक्ष का नाश हो सकता है ? इसका उत्तर यह है कि प्रमादी ( अज्ञानी पुरुष विना उपयोग भी क्रिया किया करता है, उससे जीव चाहे मरे,. या न मरे यह दूसरी बात है, किन्तु हिंसा का पाप तो उस प्रमादी के शिरपर चढ़ता ही है, परन्तु अप्रमादी पुरुष उपयोगपूर्वक गमनागमन क्रिया करता है, यदि कदाचित् उसमें जीव मर भी जाय तो हिंसा. जन्य दोष उसके शिरपर शास्त्रकारों ने नहीं माना हैं; क्योंकि परिणाम से ही बन्ध होता है, अतएव राजकीय न्याय भी इसी के अनुसार होता है, अर्थात् मारने के इरादे से ही मारनेवाले को फाँसी होती है, और मारने Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) की इच्छा न करने पर अगर किसी कारण से कोई जीव मर जावे, तो उसे फाँसी नहीं मिलती, बल्कि निर्दोष समझकर छोडदिया जाता है । क्योंकि हिंसा न करने पर भी मारने के इरादे मात्र से ही बहुत से पुरुषों को दोषपात्र मानकर न्याययुक्त दण्ड दिया जाता | वैसेही प्रमादी पुरुष के हाथ-पैर से कदाचित् जीव न भी मरे, तो भी परिणाम की शुद्धि न होने से दोष का पात्र तो वह अवश्य गिना जाता है और अप्रमादी पुरुष यत्नपूर्वक कार्य करे और फिरभी भावीभाव के योग से यदि कदाचित् कोई जीव मर भी जाय तो भी हिंसाजन्य दोष उसके शिरपर नहीं पड़ता । इस तरह तस्ववेत्ताओं का अभिप्राय है । दशवैकालिक सूत्र में भी शिष्य इसतरह गुरु से प्रश्न करता है कि "कहं चरे कहं चिट्टे कहमासे कहूं सए । कह भुजंतो भासतो पावं कम्मं न बंधई " ॥ १ ॥ भावार्थ - कैसे चलें और कैसे खडे हों, कैसे बैठें तथा कैसे सोवें और कैसे खावें और कैसे बोलें जिसमें पापकर्म मुझसे न हो ? | "जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए । जयं भुजंतो भासतो पावं कम्मं न बंधई " ॥ १ ॥ -- भावार्थ - यत्नपूर्वक चलो, यत्नपूर्वक खडे हो, यत्नपूर्वक बैठो और यत्नपूर्वक सोवो, यत्नपूर्वक खाओ और यत्नपूर्वक बोलो तो पापकर्म नहीं लगेगा । अर्थात् Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) उपयोगपूर्वक कार्य करने से हिंसाजन्य दोष से दूषित मनुष्य नहीं होता है । अतएव योगी और भोगी के विषय में प्रश्न करनेवाले को पूर्वोक्त कथन से संतोष मिलेगा। किन्तु एकान्तरूप से आत्मा को नित्यमाननेवाले और एकान्त पक्ष से आत्मा को अनित्य माननेवाले के मन्तव्यानुसार दोनों पक्ष में हिंसा शब्द का व्यवहार नहीं होगा। क्योंकि एकान्त आत्मा के नित्य माननेवाले के पक्ष में आत्मा अविनाशी है अर्थात् उसका नाश होनेवाला नहीं है। उसी तरह अनित्य पक्षवालों के मत में भी आत्मा प्रतिक्षण विनाशी होने से स्वयं नष्ट होनेवाला है, उसका नाश्यनाशकभाव दुर्धट है, तो फिरहिंसा किसकी?! जहां हिंसाशब्दका प्रयोग ही नहीं है वहां अहिंसाधर्म की महिमा खरशृङ्ग के समान असत्कल्पनास्वरूप ठहरेगी। अतएव स्यावादमतानुसार कथञ्चित् नित्यानित्यभाव आत्मा में स्वीकार करना ही होगा, तब परिणामी आत्मा का उत्पाद, व्यय होने में कुछ भी विरोध नहीं आवेगा । और उत्पाद व्यय होने से भी पदार्थ का मूलस्वरूप जो तभावाव्ययरूप नित्यत्व है, वह बनाही रहता है । नित्यैकान्तवादी नित्य का लक्षण — अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपं नित्यम् ' इस तरह करते हैं। अर्थात् जो न कभी पतनको प्राप्त हो, और न उत्पन्न हो, ऐसी स्थिर जो वस्तु है वह नित्य है। किन्तु यह संसारी जीव में लक्षण नहीं घटेगा, क्योंकि जन्म मरणादि क्रिया आत्मा के जीवपरत्व में ही दिखाई देती है। इसी तरह एकान्त अनित्य पक्षमें अनित्य का लक्षण — तृतीयक्षणत्तिध्वंसप्रतियोगिकत्वं ' है, अर्थात् प्रथम क्षण में सभी Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) अतएव पदार्थों की उत्पत्ति, और द्वितीय क्षण में स्थिति, और तृतीयक्षण में नाश होता है । ऐसे माननेवालों के मतानुसार सांसारिक व्यवहार सुव्यवस्थित नहीं बनेगा | क्योंकि पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से आत्मा, अनेक नर तिर्यञ्चादि पर्यायादि का अनुभव करता है, अनित्य है । द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से आत्मा अच्छेदी, अभेदी, अविनाशी, शुद्ध, बुद्ध, अविकारी, असंख्य प्रदेशात्मक, सच्चिदानन्दमय पदार्थ है और इसी आत्मा को प्राण से मुक्त करने को ही हिसा कहते हैं । यह हिंसा आत्मा में युक्तियुक्त नित्यानित्यभाव मानने ही में सिद्ध होती है । अत एव हिंसा के त्याग करने को ही अहिंसाधर्म कहते हैं। विपर्यासबुद्धिवाले पुरुष कुतर्काधीन बनकर कहते हैं कि घातकजन्तुओं के मारने में कोई दोष नहीं है, क्योंकि एक जीव के मर जाने से अनेक जीव बचाये जायेंगे । किन्तु जो लोग ऐसा मानते हैं उनकी भूल है । क्योंकि संसार में प्रायः समस्त प्राणी किसी न किसी अंश में किसी जीव के हिंसक दिखाई देते ही हैं तो पूर्वोक्त न्यायानुसार सभी जीवों के मारने का अवसर प्राप्त होगा, तब तो लाभ के बदले उलटी हानि ही होगी । अतएव हिंसक जन्तुओं के मारने को धर्म मानना सर्वथा अनुचित है । चाहे हिंसक हो चाहे अहिंसक हो, सभी प्रकार के जीवों को भय से मुक्त करने में परम धर्म है; क्योंकि परिणाम में बन्ध और क्रिया में कर्म दिखलाया है । चार्वाक के संबन्धी संसारमोचक कहते हैं कि- दुःखित Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा ज्व ( ११७ ) जीवों को मारदेने से उनके दुःख का नाश और दुःख से जीवों को मुक्त करना ही परम ऐसी स्थूल युक्ति से धर्ममाननेवाले यदि दीर्घदृष्टि से देखते तो ऐसी भारी भूल में पड़ते । यद्यपि हाथ पांव के टूट जाने से, रादि वेदना से विह्वल जीवों को देख करके मारने की क्रिया उनके सुख के लिये गोली से वे भले ही करें किन्तु वास्तविक रीति से देखा जाय तो स्वल्प वेदनावाले को अत्यन्त वेदनावान् बनाते हैं। क्योंकि जो जीव इस भव में स्वल्प वेदना को अनुभव करता था वही परलोक में अब गर्भादि की अनन्त वेदना सहन करेगा । तथा पूर्व वेदना से जो अधिक गोली लगने से वेदना होती है वह तो प्रत्यक्ष सिद्ध ही है, इसलिये वे जीव आर्तरौद्रध्यान वाले होने से नरकादि गति के भागी होते हैं । अतएव दुःख से मुक्त करने के आशय से गोली मारना उनका भ्रान्तिरूप हा है । यदि यह आशय सच्चा भी हो तो जिस तरह पशुओं की पीडा छुडाना चाहते हैं उसी तरह अपने माता पिता को भी दुःखित देखकर उन्हें मारकर उस दुःखसे उन्हें मुक्त क्यों नहीं करते हैं ? | क्योंकि मनुष्य को सर्वत्र समान दृष्टि हो रखना उचित है । दुःखी प्राणियों के मारने से धर्म माननेवालों का सुखी जीवों का भी मंहार करना चाहिये, जिससे कि उन जीवों से संसारवर्धक पाप कर्म न होने पावें । इत्यादि अनेक अनर्थरूप आपत्तियां आ पड़ती हैं; इसीलिये संसारमोचकों को उचित है कि कुयुक्ति रूप कदाग्रह से मुक्तहोकर वस्तुत: संसारमोचक बनें । होजाता है धर्म है । थोड़ी भी कभी न Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११८) नास्तिकशिरोमणि चार्वाक तो यह कहते हैं कि-जब आत्मा पदार्थ का ही ठिकाना नहीं है तो फिर हिंसा किसकी होगी ? । तात्पर्य यह है कि भूतों (पृथिव्यादि) से चलनादि सभी क्रिया उत्पन्न होती है, जैसे-ताड़ी, गुड, आटा वगैरह पदार्थ से एक मादकशक्ति विचित्र उत्पन्न हाती है । उस शक्ति के प्रध्वसाभाव में ही लोग मरण का व्यवहार करते हैं, किन्तु मरने के बाद कोई भी परलोक में नही जाता । क्योंकि जब आत्मा पदार्थ की सत्ताही नहीं है तब परलोक प्राप्ति कहां से होगी और परलोक का कारण पुण्य पाप जब सिद्ध नहीं हुआ तब पुण्य पाप का कारण धर्म अधर्म भी सिद्ध न होगा। और धर्म अधर्म की अस्त दशा में तप, जप, योग, ज्ञान, ध्यान आदि क्रिया सब विडम्बना प्रायः है, इत्यादि कुविकल्प करने वाले चार्वाकों को समझना चाहिए कि पूर्वोक्त युक्ति बतानेवाला कोई पदार्थ चार्वाक के पास है या नहीं। और यदि है तो वह पदार्थ जरूप है या ज्ञानरूप ? । यदि जडरूप है तो जड में ऐसी शक्ति नहीं है कि आस्तिकों को नास्तिक बना सके । और यदि ज्ञानरूप कहा जाय तो जड़ से अतिरिक्त पदार्थ सिद्ध हागा । क्योंकि चार या पांच भूतों से शक्ति उत्पन्न होने में जो दृष्टान्त दिया जाता है वह विषम दृष्टान्त है क्योंकि ताडी वगैरह पदार्थ में मदशक्ति तो होती है किन्तु पृथिव्यादि पदार्थों में ज्ञान गुण नहीं होता अतएव पञ्चभूतों से उत्पन्न होनेवाली शक्ति में क्या ज्ञान गुण दिखाई पड़ता है ? । तथा जो शक्ति हमारे तुझारे में है वह भी भिन्न स्वभाववाली Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११९ ) दिखाई देती है; इसी तरह अन्य मैं भी अन्य प्रकारकी मालूम पड़ती है । अतएव वह शक्ति भूतों से सर्व प्रकार स्व. तन्त्र माननी पड़ेगी, तथा कर्माधीन भी माननी होगी। क्योंकि विचित्र प्रकार के: कर्मों से विचित्र स्वभाववाली देख पड़ती है। उसी शक्ति को आस्तिकलोग आत्माशब्द से कहते हैं । किन्तु यदि चार्वाक लोगों से प्रकारान्तर से पूछा जाय कि तुम लोग नास्तिक मत की दृढ़ता के लिये जो हेतु देते हो वह प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? । अप्रामाणिक तो नहीं कहकसते, क्योंकि सारा कर्तव्य ही तुह्मारा अप्रामाणिक हो जायगा और प्रामाणिक पक्ष में प्रश्न उठता है कि उसमें प्रमाण प्रत्यक्ष है या परोक्ष ? । परोक्ष प्रमाण को तो परलोकादि के मानने के डर से तुम नहीं मान सकोग। अब केवल प्रत्यक्ष बचता है । क्योंकि 'प्रत्यक्षमेकं चार्वाकाः' यदि प्रत्यक्ष प्रमाण को ही प्रमाण मोनोगे तो वह तुह्मारा प्रत्यक्ष प्रमाण प्रमाणीतभूत है या नहीं, ऐसा कहने वालों को समझाना पड़ेगा । जो प्रत्यक्ष प्रमाण प्रमाणीभूत है तो कौन प्रमाणसे प्रमाणीभूत है? । इस पर यदि कहोगे कि प्रत्यक्ष से, तो वह प्रत्यक्ष प्रमागीभूत है, या नहीं: इत्यादि अनवस्थादोष आ जायगा; इसलिये प्रत्यक्ष प्रमाण को प्रमाण मानने के लिये अनुमान करना पड़ेगा, जैसे प्रत्यक्ष, अव्यभिचारित्वात्, यदव्यभिचारि तत् प्रमाणं, यथा घटज्ञानम्, इत्यादि अनुमान का आधार, प्रत्यक्षं की प्रमाणता स्वीकार करने में लेना पड़ेगा। तो फिर जब अनुमान अनायास सिद्ध हुआ तो आत्मा पदार्थ भी सिद्ध हो गया। क्योंकि-"अस्ति खलु आत्मा सुखदुःखादि संवेदनवत्त्वात, यः सुखदुःखादिसंवेदन Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) वान् स आत्मा, अस्मदाद्यात्मा इत्यादि युक्तियों से आत्मसिद्धि होने के बाद, परदेहादि में भी आत्मा की सिद्धि होगी । तो फिर आत्मासिद्धि होने के बाद परलोकादि की सिद्धि स्वाभाविक हो जायगी, और परलोकादि भी पुण्यपाप से सिद्ध हुआ तो धर्माधर्म भी सिद्ध ही है । धर्माधर्म की सवदशा में, तप, जप, ज्ञान, ध्यानादि सभी कृत्य सफल हैं । तिसपर भी इनको जो निष्फल कहते हैं उन्हें विचारशून्य कहना चाहिये । और जहाँ पर आत्मा पदार्थ सिद्ध है वहां पर अहिंसा का विचार युक्तिसिद्ध है । यद्यपि बहुत से लोग शरीर को ही आत्मा मानते हैं तथा बहुत I 1 लोग इन्द्र को ही आत्मा मानते हैं । इत्यादि अनेक तरह के कल्पितमतजाल दुनियाँ में फैले हुवे हैं । जिनमें मछलियों की तरह भद्रिक लोग फसकर कष्ट का पारहे हैं । उन लोगों पर भावदया लाकर यथाशक्ति शुभ मार्ग दिखलाने की जो चेष्टा करता है वही पारमार्थिक परोपकारी है | "" शरीर और इन्द्रियों को आत्मा माननेवाले वस्तुतः चार्वाक के संबन्धी हैं, क्योंकि शरीर को ही आत्मा मानते हैं उनसे यदि छा जाय कि मृतावस्था में शरीर ता बसाही बना रहता है किन्तु पहिले की तरह उसमें चेष्टा क्यों नहीं देखी जाती ? | उसके उत्तर में वे लोग यदि यह कहे कि वैसी एक शक्ति का उसमें अभाव हो गया है, तो उनसे यह पूछना चाहिये कि वह तुह्मारी शक्ति शरीर से भिन्न है या अभिन्न ? | अभिन्न पक्ष का आश्रय नहीं लिया जा सकता । क्योंकि अभिन्न हो ता फिर मृतशरीर में भी वह शक्ति हानी चाहिये । भिन्न मानोगे तो वह शक्ति Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) चिद्रूप है या अचिद्रूप ? । अचिद्रूप पक्ष मानने में, अहं सुखी, अहं दुःखी यह प्रत्यय (ज्ञान) नहीं होगा। और यदि चिद्रूप मानोगे तो शब्दान्तर से शरीर से भिन्न आत्मा ही सिद्ध हुआ। अब इन्द्रिय को आत्मा मानने वाले का भ्रम दूर किया जाता है । इन्द्रिय को आत्मा माननेवालों के मत में जो सामुदायिक ज्ञान होता है वह अब नहीं होना चाहिये । अर्थात् मैंने सुना और मैंने देखा, तथा मैंने स्पर्श किया इत्यादि सामुदायिक प्रतीति आबालगोपाल को जो होती है वह नहीं होगी। क्योंकि सुननेवाला तो करणेन्द्रिय है और देखनेवाला चक्षुरिन्द्रिय है, तथा गन्धग्राहक घ्राणेन्द्रिय है एवं रसलेनेवाला रसनेन्द्रिय है, और स्पर्श करनेवाला स्पर्शन्द्रिय है । तो जब इन्द्रियादि ही आत्मा तुम्हारे मत में हैं तो तत्तत् इन्द्रियां से भिन्न भिन्न ज्ञान होना चाहिये किन्तु वैसा न होकर सामुदायिक ज्ञान होता है । अतएव इन्द्रियों का एक नायक आत्मा अवश्य होना चाहिये । ऐसा न हो तो मृतावस्था में इन्द्रियाँ तो नष्ट नहीं होती हैं किन्तु ज्ञान नहीं होता। उसका कारण वहां पर आत्मा का अभाव होनाही मानना पड़ेगा। क्योंकि आत्मा शरीर और इन्द्रियों को छोड़कर गत्यन्तर करता है इसलिये आत्मा इन्द्रिय नहीं है । किन्तु भिन्न हो है । वास्तविक में तो आत्मा नित्य है किन्तु कर्म के संबन्ध से जन्म मरणादि होने की अपेक्षा से अनित्य माना जाता है । जैनशास्त्रकार द्रव्यमात्र को उत्पाद स्थिति व्ययात्मक मानते हैं । आत्मो भी एक सच्चिदानन्दमय Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२) द्रव्य है वह भी स्थिति उत्पाद व्यय शब्द का भागी होता है। स्थिति कहने से द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से अच्छेदी, अभेदी, नित्य, शुद्ध, बुद्ध आत्मा है । उत्पाद, व्यय, जन्म मरणादि को लेकर आत्मा में पर्यायार्थिकनय स्वीकार करना पडता है। क्योंकि उनका अन्योन्य कार्यकारणभाव है। वही अनादि कालका व्यवहार चित्त में रखकर तत्त्ववेत्ताओं ने आत्मा को ज्ञाता, द्रष्टा, भाक्ता, कर्ता और कायपरिमाण माना है किन्तु वास्तविक में उसमें कायपरिमाणत्व भी नहीं है क्योंकि वह तो अरूपी पदार्थ है । और परिमाण तो रूपी पदार्थ में ही होता ह । आकाश में यह परिमाण जो माना जाना जाता है वह वास्तविक नहीं है किन्तु औपचारिक है। वैसे ही आत्मा का परिमाण नहीं है किन्तु कर्मरूप शङ्खला से बंधे हुए शरीरका संबन्धी होने से शरीरी कहा जाता है। याने कायपरिमाण जो माना हुआ है सो युक्तियुक्त है। व्यापक परिमाण मानने से अनेक आपत्तियाँ आती हैं, क्योंकि व्यापक परिमाण मानने से घटपट के नाश के समय आत्मा को व्यापक होने से दुःख होना चाहिए । किन्तु होता नहीं है । इसका उत्तर यही है कि ज्ञान होने का नियम शरीर मानना, 'शरीरावच्छेदेन ज्ञानमुत्पद्यते' ऐसा मानने से भी ठीक नहीं होता है । क्योंकि मोक्षावस्था में शरीर नहीं है इस लिये ज्ञान नहीं होना चाहिये । और मृतावस्था में शरीर के रहने पर ज्ञान होना चाहिये । इसके उत्तर में कदाचित् यह कहा जाय कि मृतावस्था में आत्मा नहीं है, वाह ! व्यापक परिमाणवाला आत्मा जब सर्वत्र है, तब मृतशरीर में Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यों न हो? मोक्षावस्था में ज्ञान है या नहीं है ?। है तो वह हमको इष्ट है। वाह ! क्या कर्मों को छोड कर मुक्तिगामी जीव अज्ञान के भागी होते हैं ? मुक्ति में ज्ञानादि यदि न मानाजाय तो पाषाण और मुक्तात्मा का भेद क्या होगा ?, इत्यादि अनेक आपत्तियाँ आत्मा के व्यापक मानने में आती हैं । अतएव औपचारिक कायपरिणाम आत्मा में मानना ही उचित है, उस आत्मा के दुःखी या क्लेशी अथवा प्राणमुक्त करने से हिंसा होती है । उस हिंसा का त्याग रूप अहिंसा धर्म संपूर्ण प्राणियों को शुभावह है। बहुत से लोग तो केवल शब्दशास्त्रं को ही पढ़कर अपने को बड़ा पण्डित मानते हैं, उनसे कोई जिज्ञासु पुरुष पूछे कि-हे महाराज! जैनधर्म कैसा है ? तो उसका उत्तर देने के लिये और अपने पाण्डित्य की रक्षा करने के लिये तथा संसार समुद्र की वृद्धि करने के लिये जैनधर्म का स्वरूप न जानकर कहते हैं कि ईश्वर को जैनी लोग नहीं मानते हैं, और आत्मा को अनित्य मानते हैं, तथा श्राद्धादि कृत्यों को भी वे लोग मिथ्या मानते हैं । इत्यादि अपने मन का जवाब देकर जिज्ञासु मनुष्यको उसकी कल्याणेच्छा से अस्त व्यस्त कर देते हैं । ऐसी उनलोंगों की बनावटें अब भी प्रत्यक्ष दिखाई पड़ती हैं। पाठक महाशय ! जहां तक जैनशास्त्र नहीं देखा जायगा और पक्षपात रूप चश्मा नही हटाया जायगा वहाँ तक धर्मक्रिया भी विडम्बना रूपही है । जैनोंने Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) - रागद्वेषादि अठारह दूषण रहित, ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय, शुद्ध, बुद्ध निरञ्जन, वीतराग देव, जो कि अर्हन्अरिहन्तादि शब्दों से प्रसिद्ध है उसी को ईश्वर माना है । आत्मा के संबन्ध में जैन शास्त्रकारों ने जो खोज की हैं वह दूसरे दर्शनों में कहीं भी देखने में नहीं आती है । जैनों का नित्यानित्य का स्वरूप जो पक्षपातरहित देखा जाय तो अवश्य ही एकान्तपक्ष बुद्धिमानों से तिरस्कारदृष्टि से देखा जायगा । 1 आत्मा मूलरीति से नित्य है किन्तु जन्म मरणादि धर्मों को लेकर नये नये पर्यायान्तर को धारण करता है इसलिये अनित्य दिखलाया है । सापेक्षित आशयों को न जानकर जो पण्डितलोग अंड बण्ड कहने को साहस करते हैं वह उनकी बडी भारी भूल है । हिंसा कर्म से युक्त श्राद्धादि जा है उसको ही जैन नहीं मानते हैं, इतनाही नहीं, किन्तु उस श्राद्ध करनेवाले की भी निषेध करते हैं । यथा " एकस्थानचरोऽपि कोऽपि सुहृदा दत्तेन जीवन्नपि प्रीतिं याति न पिण्डकेन, तदिदं प्रत्यक्षमालोक्यते । जातः क्वाप्यपजीवितच किल यो, विभ्रन्नलक्षां तनुं मुग्धैः श्वव स तते प्रियजनः पिण्डेन कोऽय नयः ॥ १ ॥ भावार्थ - एक स्थान में रहनेवाला हो तथा जीता भी हो तो भी वह मित्र के दिये हुए कल्पित अन्न से तृप्ति को प्राप्त नहीं होता है । यह बात प्रत्यक्ष देखने में आती है, अर्थात् स्वयं भोजन करने से ही तृप्ति होती Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) है । मृत्यु पाकरके कहीं पर उत्पन्न हुए तथा परोक्ष शरीर को धारण करनेवाले प्रियजन अर्थात् माता पितादि कुत्ते की माफिक मूर्ख लोगों से भोजन कराकरके तृप्त किये जाते हैं । यह कौनसा न्याय ह ? । दूसरी बात यह है कि मांस विना श्राद्ध क्रिया ठीक नहीं होती है वैसेही कल्पित युक्तियाँ देकरके ब्राह्मणों की मांसद्वारा तृप्ति की जाती है। किन्तु ऐसे श्राद्ध करने की सम्मति कौन धर्मप्रिय देगा ? । एक दफे ऐसा हुआ था कि पिताके श्राद्ध के रोज पुत्र ने एक भैंसा खरीदा, जोकि पिता का जीव था, उसको मारकर उसने श्राद्ध किया और ब्राह्मणों को सन्तुष्ट किया। उसके बाद स्वयं जब भोजन करने बैठा, तब एक ज्ञानी महात्मा भिक्षा के निमित्त वहाँ गये, किन्तु महात्मा जी भिक्षा न लेकर ही चले गये, इससे वह श्राद्ध करनेवाला मुनि जी के पीछे चला और पैर पर पड़कर बोला कि हे पूज्यवर्य! मेरे घर पर आप पधार कर भी विना लिये ही क्यों चले आये। मुनि ने शान्त स्वभाव से जवाब दिया कि जहां मांसाहार होता हो वहां से भिक्षा लेनेका मुनियों का आचार नहीं है । मुझे तुमारे घर में आने से वैराग्य की वृद्धि हुई है । तब उसने कहा कि मेरे घर जाने से आपकी वैराग्य वृद्धि का क्या कारण है सो कृपाकरके कहिये । उसके उत्तर में मुनि ने उपकारबुद्धि से कहा कि जिसका श्राद्ध तुमने किया है उसी का जीव जो महिष था उसे तुमने मारा है । और जो कुत्तो मांसमिश्रित हड्डी को खाती है वह तेरी माता है, और जिसको तूं गोद में बैठा कर मांसयुक्त कवल देता है वही तेरा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) पक्का दुश्मन है इत्यादि कारणों को देख करके मुझे वैराग्य हुआ है । तब उसने कहा कि यह बात सत्य है कि नहीं इसमें निश्चय कैसे हो ? । मुनि ने कहा कि कुत्ती जहां जमीन खनतो है वहां पर द्रव्य है अर्थात् कुत्ती तुझे गडा हुवा धन बतावेगी । कुत्तों के स्वभावानुसार कुत्तीने उस जमीनको खनडाला, तदनन्तर उसमें से द्रव्य प्राप्त हुआ । और उसको निश्चय हुआ कि श्राद्ध करने से यह अनर्थ हुआ । अर्थात् हिंसा हुई। श्राद्ध करने से पिता को पहुँचता है यह बात झूठी है क्योंकि अपना किया हुआ ही अपने को मिलता है। श्राद्धादिकृत्य स्वार्थान्ध मनुष्योंने अपनी जीविका के लिये ही चलाया है। यह समझकरके, उसने प्रतिज्ञा की कि आज से कभी श्राद्ध नहीं करना । यह बात जान करके भी मांसाहार के लोलुप बहुत से ब्राह्मणाभालों ने मिलकर विचार किया कि श्राद्ध में साधुओं को भिक्षा नहीं देनी चाहिये । जो बात आज भी पूर्वदेश में प्रचलित है कूर्मपुराण में लिखा है कि अतिथि-साधु वगैरह को भोजन कराकर श्रोद्धकरनेवाले को भोजन करना चाहिये । तथा उनको न खिलाकर खानेवाले को बडा पातक कहा है । यथा___ "भिक्षुको ब्रह्मचारी वा भोजनार्थमुपस्थितः । उपविष्टस्तु यः श्राद्धे कामं तमपि भोजयेत् ॥ १॥ अतिथिर्यस्य नानाति न तत् श्राद्धं प्रशस्यते । तस्मात् प्रयत्नात् श्राद्धेषु पूज्या ह्यतिथयो द्विजैः॥ २॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७) आतिथ्यरहिते श्राद्धे भुञ्जते ये द्विजातयः । काकयोनि वजन्त्येते दाता चैव न संशयः ॥ ३ ॥ . कूर्मपुराण २२ अध्याय पृ० ६०८ वर्तमान समय में उपरोक्तलेख से विपरीत ही प्रवृत्ति दिखाई देती है। अतएव पूर्वोक्त बात से श्राद्ध में साधुओं को भिक्षा न देने की प्रवृत्ति चलाई गई है । ____ अब अन्त में जैनलोग ईश्वर तथा आत्मा इत्यादिको पूर्वोक्त रीतिसे मानते हैं श्राद्धको नहीं मानते । क्योंकि अहिंसा से उत्पन्न होनेवाला धर्म क्या हिंसासे हो सकता है ? । जलसे उत्पन्न होनेवाला कमल क्या अग्निसे हो सकता है ? । मृत्युदेनेवाला विष अगर जीवनबुद्धिसे खाया नाय तो क्या वह जीवन दे सकता है ?। वैसेही पापका हेतुभूत वध क्या कथनमात्रसे अवध हो सकता है ? । . सजनो! अपने अन्तःकरण में मैत्रीभावको धारण करो, भ्रातृभावशब्द को आगे करके कितनेही लोग मैत्री को भूल गये हैं। भ्रातृभाव यह है कि मनुष्यों के साथ प्रेमभाव रखना, और क्षुद्र जन्तुओंसे लेकरके इन्द्रतक प्रेमभाव को ही मैत्रीभाव कहते हैं। जब इस मैत्रीभाव को याद करोगे तबही तो मांसाहार छूटेगा और मांसाहार के छूट जाने पर ही वास्तविक में परमेश्वर के भक्त बनोगे ॥ Page #136 --------------------------------------------------------------------------  Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांसाहारनिषेध के विषय में पाश्चात्य विद्वानों के अभिप्रायों का संग्रह । अंग्रेजी के प्रसिद्ध विश्वकोश इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में मांसाहारपरित्याग के विषय में जो कुछ लिखा है उसका सारांश नीचे दिया जाता है। “ मांसाहार परित्याग के लाभ अनेक बतलाये जाते हैं जिनमें प्रसिद्ध केवल ये ही हैं(१) स्वास्थ्यसम्बन्धी लाभ-जो लोग मांसाहार करते हैं संभव है कि उन्हें वे रोग पकडले जोकि उस पशुके शरीर में रहे हो जिसका मांस वे खाते हैं। इसके अतिरिक्त जो पशु अपने नैसर्गिक भोजन घासके अतिरिक्त और २ पदार्थ खाते हैं उनका मांस खानवाले बहुधा गठिया, वात, पक्षाघात प्रभृति वात-विकारोंसे उत्पन्न रोगों से आक्रान्त होते हैं। (२) अर्थशास्त्र सम्बन्धी लाभ-फलाहार की अपेक्षा मांसाहार अधिक खर्चीला होता है । जितने में दो चार आदमी खा सकते हैं मांसाहार की व्यवस्था करने से उतनेमें एक आदमीको भी पूरा नहीं पड़ेगा। सामाजिक लाभ-एक एकड़ भूमि में धान, गेहूं, आदि बोये जाँय तो उसमें उत्पन्न अन्नको जितने मनुष्य भोजन कर सकेंगे वही पैदावार यदि आहारोपयोगी पशुओंको खिला दी जाय Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो उन पशुओके मांस से उतने मनुष्यों का पेट नहा भरेगा। जैसे मान लिजीय कि एक एकड़ भूमि में सौमन धान पदा हुआ, उसे एक मनुष्य सालभर अपने सारे परिवारवर्गों के साथ खाता है लकिन यदि हम दस पशु पालते हैं और उनके उतनी भूमि निकाल दी है तो देखते हैं कि वे जानवर शीघ्रही उसे खा जाते हैं और उनके मांससे एक आदमी का भी साल भर तक भोजन निर्वाह होना मुश्किल है । ) जातीय उन्नति-सभी सभ्य जातियों का यह उद्देश्य होना चाहिये कि हमारी जाती में अधिक परिश्रमी और कार्यक्षम व्यक्ति उत्पन्न हों और उनकी संख्या की उत्तरोत्तर वृद्धि हो यह तभी संमव है जब कि लोग अधिक शाकाहार करें । ऐसा करने से यह होगा कि ज्यों २ निरामिष भोजन करनेवालों की संख्या बढ़ेगी त्यो २ कृषक लोग अधिक पारश्रम करक अन्न उत्पन्न करनकी चेष्टा करेंगे और इस प्रकार स उस जाति या समाज में अधिक परिश्रमी लोग उत्पन्न होंगे ।। (५) चारित्रिक उन्नति-जिस मनुष्य में साहस, वीरता और निर्भयता आदि गुण आरम्भ में आ चुके हो उसे उचित है कि ज्यों २ उसका ज्ञान बढ़ता जाय त्यों २ मनुष्यता सीखे आर पीडित जीवोंके साथ सहानुभूति करनेका अभ्यास पैदा करे । अतएव चूकि निरामिष आहार करने से, मांसाहारद्वारा पशुओं पर जो अत्याचार किया जाता है और उन्हें पोड़ा पहुँचायो जाती है वह दूर हो जायगी इसलिये मांसाहारको प्रवृत्तिका अवरोध करनाही सर्वथा उचित है। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) (२.), खोराक, आरोग्य और बल. लंडनकी काउन्टीकौंसिलका प्रयोग. - इ० स० १९०८ में 'लंडन वेजीटेरियन एसोसीएशन' के सेकेटरी मिस, एफ, आइ, निकलसनने १०००० लड़कोंको छ महीने तक वनस्पति के खोराक पर रक्खा था, और ' लंडन काउन्टीकौंसिल ने इतनेही लडकोंको छ महीने तक मांसाहार पर रक्खा था छ। महीने पश्चात् इन दोनों विभाग के बालकों की परीक्षा वहाँ के वैद्यकशास्त्र के जाननेवाले विद्वानोंने की थी, और उसमें यह सिद्ध हुवा कि ' वनस्पति के आहार करनेवाले बालक मांसाहारी बालकों से अधिक तन्दुरस्त, वजन में विशेष, और स्वच्छ चमडीवाले थे। 'लंडन काउन्टीकौंसिल' की विनति से उसी के प्रबन्धमें लंडनकी वेजीटेरियन एसोसीएशन सभा', लंडन के हजारों गरीब बालकोंको वनस्पति के आहार पर रखती है । (३) प्रॉ. एच. शाफहोझेन महाशय कथन करत हैं कि-मांस खाने का स्वभाव यह कोई मनुष्य की मूल प्रेरणा नहीं है कि पूँछ रहित बन्दरों की भाँति वह उसके दाँतों पर से मेवा खाने वाला है और इसी लिये मांस खाने के वास्ते तो उत्पन्न ही नहीं हुआ है, डॉ. सिल्वेस्टर ग्रेहाम महाशय कहते हैं कि- शरीर संबन्धि बनावट के मुकाबले की. विद्या सिद्ध करती है कि मनुष्य स्वाभाविक रीति से फक्त अन्न, फल, बांज, मेवा आर अनाज के दानों के ऊपर निर्वाह करने वाला प्राणी है, Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) ( ५ ) प्रमाणभूत डॉक्टरों का ढंढोरा ( उद्घोषणा ) बहुत दफे ऐसा पूछा जाता है कि, वेजीटेरियन याने अन्न, फल और वनस्पति के भोजन के विषय में कौनसे प्रसिद्ध डॉक्टरों का मत है ? उनलोगों के लिये यह जाहेर सूचना बहुत ही उपयोगी होगी । यह सूचना प्रसिद्ध डॉक्टरों ने प्रकट की है, और लंडन के पत्रों में भी छपी थी । इन डॉक्टरोंने स्वयं वेजिटेरियन भोजन पर रह करके अपने रोगियों पर प्रयोग करने के पश्चात् ही प्रसिद्ध किया है कि ' मनुष्यों की संपूर्ण तन्दुरस्ती के लाभ को अत्यन्त उपयोगी भोजन वेजीटेरियन है, न कि मांस मछली का | 66 हम नीचे हस्ताक्षर करने वाले डॉक्टरों ने बेजीटेरियनीक्षम याने अन्न, फल, वनस्पति के खोराक को विद्याकी सूक्ष्मता से अन्वेषण किया है और उनके मूलतत्त्वोंका अनुभव लाने के बाद यह सूचना करके प्रसिद्ध करते हैं कि - ' वेजीटेरियन खोराक की रूढि विद्याके दृढ़ सिद्धान्त पर रची हुई है इतना ही नहीं किन्तु वह मनुष्य की जिन्दगी को उत्तम दशा की और लेजानेवाली है । अन्न, फल, वनस्पति का खोराक, शरीर के बन्धनों को उपयोगी तत्व देता है, और रसायनिक तथा पदार्थ-विज्ञान शास्त्र की प्रयोगशाला के प्रयोगों पर से नहीं किन्तु बहुत से मनुष्योंने नियमित रीति से जी करके अपने उदाहरण से ऐसा सिद्ध कर दिखाया है कि, वे तत्त्व, मांस में से मिलते हुए तत्त्व से बहुत ही शीघ्र पाचन होते हैं । हम वेजीटेरियनीलम को, विद्या की दृष्टि से संपूर्ण और संतोषकारक रूढि कहते हैं, तदुपरान्त पशु और जानवर दुःखों के आधीन होते हैं इस बात को ध्यान में लेनेसे और अन्न, फल, वनस्पति से प्राप्त होनेवाले भोजन का स्वच्छ हाल देखन से निश्चय से मानते हैं कि मांसका भोजन छोड़ देने से तंदुरस्ती को लाभ होता है तथा सुन्दरता की दृष्टिसे देखने से " टेरियन भोजन अध्यन्त दर का 1 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 4 ) ( इस सूचना में तेरह हस्ताक्षर देखने में आते हैं। ) रोबर्ट बेल, एम, डी. जीयोर्ज ब्लेक, एम, बी, ( एडिन ) ए, जे, एच, केस्पी, एम, आर, सी एस. एच, एच, एस, डोरमन, एम, डी. ओगस्टस जोन्स्टन, एम, बी, आर, सी, एस. एच, वेलेन्टाइन, नेग्स, एम, आर, सी, एस. एल, आर, सी, पी. ओल्बर्ट प्रेसवेल, एम, ए, एम, डी. रोबर्ट, एच. पर्क्स, एम, डी, एफ, आर, सी, एस. वॉल्टर आर, हेडवेन, एम, डी, एल, आर, सी, पी, एम, आर, सी, एस. जे, स्टेन्सन हुकर एम, डी. ओफेड बोल्सेन, एम, डी. जोन रीड, एम. बी. सी. एम. ज्योर्ज बी, वोल्टर्स एम, डी. ( ६ ) प्रमाणभूत रसायन शास्त्रओं का ढंढोरा. उपर्युक्त ढंढोरे के उपरान्त एक दूसरा ढंढोरा सायन्टिस्टों का है जो कि अन्न, फल, वनस्पति के खोराक की लोगों में प्रचार करने की कोशिश करते हैं, क्याकि यह खोराक मजबूती और तन्दुरस्ती को देनेवाला तथा सस्ता भी है, यह सूचना इस तरह की है : O · लिये 'इन्टर - डिपार्टमेन्टल " प्रजाकी शारीरिक हानि की नोंधके कमेटी नियंत की थी, उसीकी रीपोर्ट में जो मत दिया है उसको हम लोग अनुमोदन देते हैं कि- शरीर के बन्धनों को बिनानेनाले बहुत कार्यों में Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक खास कारण 'खराब रीति से लिया हुआ और संपूर्ण जत्थे में नहीं लिया हुआ भोजन है' और यही रीति शराब पीने को प्रेरणा करती है। पुनः इस रीपोर्ट द्वारा मालूम होता है कि- खोराक को बराबर रीति से तैयार करने में बहुतसा अज्ञानपना देखने में आता है जो खोराक थोडे खर्च में संपूर्ण पोषण देता है वह खोराक ज्ञानस बहुत दु:ख कम हो, इस लिये लंडन के दूसरे शहरों के लार्डमेयरो, और मेयरो, विगैरह को ऐसे ज्ञानके प्रचार करने के लिये सूचना करते हैं। इस में खोराक की मांसरूढी की हिमायत नहीं करके कहते हैं कि-गेहूँ का आटा, जव, चावल, मकई, मटर, दाल, सूखा मेवा, ताजी और सूखी फूट, हरी वनस्पति विगैरह “ वेजीटेरियन खोराकों की करकसर की रीतिसे और पुष्टि देनेवाली बाबत में, वास्तविक तत्त्वकी योग्यता पहेंचानना सिखलाओ, क्योंकि इस अन्न, फल, वनस्पति के खोराक के उपयोग से समस्त वर्गकी तन्दुरस्ती बढ़ा सकोगे." इस सूचना में प्रसिद्ध नामों के अतिरिक्त और भी हस्ताक्षर हैं:सर जेम्स, किचटन ब्राउन, एफ. आर, एस. सर विल्यम, क्रुकस, एफ, आर, एस. सर लोडर ब्रान्टन एफ, आर, एस. डॉ. रोबर्ट हचीन्सन. ' डॉ. जॉन बरडो एफ, आर, एस. डॉ. राबर्ट मीलर. डॉ. डबल्यु, आर, स्मिथ. .. मि. ए, डी, क्रीप, के, सी, पी, ओ, सी, वी. ....... मि. उबल्यु, बी, तेगेटमीर एफ, एल, एम. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. ए, पियर्स गोल्डन. डॉ. सीम्स वुडहेड, मि. ज्यार्ज हेन्डसलो. सर म्युअल, विल्कस, वेरोनेट, एफ, आर, एस. बरन क्युवियर महाशय कहते हैं कि मनुष्य संबन्धि शरीर की बनावट हरएक सक्षमता में, फकत अन्न-फल-शाक के भोजन के लिये योग्यता सिद्ध करती है । यह ठीक है कि मांस के भोजनको छोड देने के लिये इतना कठिन प्रतिबंध लेने में आता है कि कितनेक मनुष्य कि जो कठिन मनवाले नहीं होते हैं वे कदाचित् ही तिसको हटा सकते हैं परन्तु यह कोई उसके पक्ष में जाने वाला सिद्ध नहीं हो सकता है, इस भाँति तो एक मेंढे को नाविकों ने कितनेक समयतक मांसाहार पर पाला था उस मढ ने मुसाफरी पूरी होने पर अपने स्वाभाविक भोजन (शाकाहार) लेने की मनाही की और इसी भाँति घोडे, कुत्ते और कबूतरों के भी उदाहरण मिलते हैं कि जिन्हों ने दीर्घकाल तक मांसाहार करने पर भी अन्त में अपने स्वाभाविक भोजन के मिलने पर, मांसाहार के भोजन पर तिरस्कार दिखलाया । प्रो. लोनियस कहते हैं कि मेवा, फल और अनाजका भोजन मनुष्य के लिये सबसे विशेष योग्यता वाला है कि जो चौपार्यो, 'एनालोजी' के नियमों, जंगली मनुयों को, बन्दरों, मुख होजरी और हाथों की बनावट पर से सिद्ध होती है। प्रा. सर रीचर्ड ऑवेन महाशय कथन करते हैं कि- बन्दरों को कि जिसके साथ दांत की वनावट में सव प्राणियों की अपेक्षा विशेष रूपसे मनुष्य मिलता आता है. वे, फल, अनाज, गुठली वाले फलोंके बीज Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) और दूसरे आकार कि जिसमें वनस्पति-वर्ग के सबसे पुष्टिकारक और रसकसवाले सोहरम धारण करनेवाल तत्व आते हैं वैसी वस्तुओं में से अपने नियमित भोजन को प्राप्त करते हैं आर मनुष्यों और बन्दरों के दांतो के बीच का घनिष्ठ संबन्ध सिद्ध करते हैं कि मनुष्य दुनियां के प्रारम्भ काल से ही बगीचे के वृक्षों के फल खाने के लिये ही उत्पन्न किये गये थे. प्रो. पीयरगेसेन्डी-कि जो सतरमीसदी क सब विद्वनों से श्रेष्ठ और सबसे नामाङ्कित तत्त्वज्ञानी होगये हैं वे कहत हैं कि मैं यहां पर पुनः कहता हूं कि अपने स्वभाव की असली बनावट पर से अपने दांत मांसाहार करने के लिये नहीं परन्तु फक्त मेवा खाने के लिये बनाये थे। जगत्पसिद्ध महान् विद्वान् चाल्स डारविन स्पष्ट रीति से कहते हैं कि-उस काल में और उस स्थल में (फिर चाहे जो काल और जो स्थान हो) कि जब मनुष्य ने पहले पहल अपने बलका ढकना नष्ट कर दिया तब वह अनुमान से गरम देशका रहनेवाला था यह वृत्तान्त फल फलादिकी तर्फ जाता है कि जिस फल फलादि के भोजन पर मुकाबले के नियम द्वारा अन्वेषण करते हुए वह उस समय निर्वाह करता था। प्रॉ. सर चार्लस बेल, एफ, सी, एस. महाशय कहते हैं किमेरा ऐसा अनुमान है के इस भाँति कथन करने में जरा भी आश्चर्य नहीं है कि मनुष्यकी बनावट के साथ संबन्ध रखने वाला हरएक वृत्तान्त सिद्ध कर देता है कि मनुष्य मूल से ही ट-फल खाने वाला प्राणी तरीके उत्पन्न हुआ था यह मत दांतों और पाचन करने वाले अङ्गोंकी रचना पर से तथा चमडी की बनावट तथा उसके अवयवों की रचना के उपर से मुख्य करके बनाने में आया है /