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( २९) "ज्ञानपालीपरिक्षिप्ते ब्रह्मचर्यदयाऽम्भसि । स्नात्वाऽतिविमले तीर्थे पापपङ्कापहारिणि" ॥१॥ "ध्यानाग्नौ जीवकुण्डस्थे दममारुतदीपिते ।
असत्कर्मसमित्क्षेपैरग्निहोत्रं कुरूत्तमम्" ॥ २ ॥ "कषायपशुभिर्दुष्टैधर्मकामार्थनाशकैः।
शममन्त्रहतैर्यझं विधेहि विहितं बुधैः" ॥ ३ ॥ "प्राणिघातात्तु यो धर्ममीहते मूढमानसः ।
स वाञ्छति सुधाष्टिं कृष्णाऽहिमुखकोटरात्" ॥४॥ ___ अर्थात्-ज्ञानरूप पाली से युक्त ब्रह्मचर्य और दयारूप जलमय अत्यन्त निर्मल पापरूप कीचड़ को दूर करनेवाले तीर्थ में स्नान करके ध्यानाग्निमय दमरूप वायु से संतप्त हुआ जीवरूप कुण्ड में असत्कृत्यरूप काष्ठों से उत्तम अग्निहोत्रों को करिये । क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायरूप दुष्ट पशुओं को (जो धर्म, अर्थ तथा काम को नाश करने वाले हैं ) शमरूप मन्त्र से मार कर पण्डितों से किये हुए यज्ञ को करो। और प्राणियों के नाश से जो धर्म की इच्छा करता है वह श्यामवर्ण सर्प के मुख से अमृत की वृष्टि चाहता है।
विवेचन-पूर्वोक्त चारों श्लोकों से अहिंसामय यज्ञ को पाठकलोग समझ गये होंगे । इस प्रकार यज्ञ करने से क्या स्वर्ग नही मिलेगा ? यदि इस विधि में वि. श्वास नहीं है तो विवादास्पद सदोष विधि में तो अत्यन्त विश्वास नहीं किया जा सकता, क्योंकि