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( २८ ) करके शुद्ध करने योग्य, तथा सप्रत्यवमर्ष अर्थात् यदि न होवे तो पुण्य भोगने के समय हिंसाजन्य पाप भी अवश्य सहना पड़ेगा इत्यादि ।
यद्यपि इस विषय में वैदिकधर्म को नहीं मानने वाले के साथ विवाद है तो भी मनुजी ने मांसाहार त्याग करने से जो फल दिखलाया है वह तो सबके मत में निर्विवाद और अनायाससाध्य होने से सर्वथा स्वीकार करने के योग्य है । ५४ वें श्लोक में लिखा है कि, मुनियों के आचार पालने से जो पुण्य मिलता है वह पुण्य केवल मांसाहार के त्याग करने से ही मिलता है, अर्थात् शुष्क जीर्ण पत्राहारादि से जो लाभ होता है वह लाभ मांसाहार के त्याग करने से होता है। ऐसे सरल, निर्दोष, निर्विवाद, मार्ग को छोड़कर सदोष, विवादास्पद, पर के प्राणघातक कृत्यों से स्वर्ग को चाहनेवाले पुरुष को ५५ वें श्लोक पर अवश्य दृष्टि देनी चाहिए । मांस शब्द की निरुक्ति में ऐसा लिखा है कि "मांस याने मुझको खानेवाला " सः" याने वह होगा, जिसका मांस में खाता हूं, ऐसा मांस शब्द का अर्थ मनुजी कहते हैं। अब मनुजी के वाक्य को मान करके यज्ञादि करने वालों को ध्यान रखना चाहिए कि स्वर्ग जाने के लिये बहुत से रास्ते हैं तो फिर समस्त प्रजा के अनुकूल रास्ते से जानाही सर्वथा ठीक है याने प्रजा वर्ग के प्रतिकूल रास्ते से जाना उचित नहीं है ।
पुराणों ने भी पुकार २ कर हिंसा का निषेध किया है। देखिये व्यासजी ने पुराणों में इस तरह -