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(३०) वेद के माननेवालों में भी बहुत से लोग हिंसाजन्य कार्य से विपरीत हैं । देखिये अचिमागियों के उद्गारयथा" देवापहारव्याजेन यज्ञव्याजेन येऽथवा ।
नन्ति जन्तून् गतघृणा घोरां ते यान्ति दुर्गतिम्" ॥१॥
भावार्थ-देव की पूजा के निमित्त या यज्ञ कर्म के निमित्त से जो निर्दय पुरुष प्राणियों को निर्दय होकर मारता है वह घोर दुर्गति में जाता है, अर्थात् दुर्गति को पाता है।
वेदान्तियों के वचन को सुनो" अन्धे तमसि मज्जामः पशुभिर्ये यजामहे । हिंसा नाम भवेद् धर्मो न भूतो न भविष्यति" ॥१॥
भावार्थ-जो हमलोग यज्ञ करते हैं वह अन्धकारमय स्थान में डूबते हैं क्योंकि हिंसा से न कदापि धर्म हुआ
और न होगा, ऐसे वाक्य अनेक जगह में दिखाई पड़ते हैं । तथापि आग्रह में डूबे हुए पुरुष लाभालाभ का विचार न करके सत्य वस्तु का आदर नहीं करते हैं
और न युक्ति को देखते हैं । देखिये व्यासजी ने चौथे श्लोक में कहा है कि-यदि सर्प के मुख से अमृतवृष्टि होती हो तो हिंसा से भी धर्म हो सकता है, यह व्यासजी का कैसा युक्तियुक्त वाक्य है और युक्तियुक्त वाक्य किसीका भी हो तो उसके स्वीकार करने को समस्त लोग तैयार होते हैं; फिर व्यास ऐसे कविवर के वाक्य को कौन नहीं मानेगा ? ।