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________________ ( ३१ ) मनुजी ने ५३-५४-५५ वें श्लोक में जो अहिंसा मार्ग दिखलाया है वह समस्त मनुष्यों के माननेयोग्य है क्योंकि अहिंसा ही सब कल्याणों को देने वाली है, इस विषय में जैनाचार्यों के वाक्यामृत को देखिये - 16 क्रीडाभूः सुकृतस्य दुष्कृतरजः संहारवात्या भवो - दन्यन्नर्व्यसनान्निमेघपटली संकेतदूती श्रियाम् । निःश्रेणिस्त्रिदिवौकसः प्रियसखी मुक्तेः कुगत्यर्गला सच्चेषु क्रियतां कृपैव भवतु क्लैशैर शेषैः परैः " ॥ १ ॥ Y भावार्थ - प्राणियों में दयाही करनी चाहिये, दूसरे क्लेशों से कुछ प्रयाजन नहीं है । क्योंकि सुकृत का कीड़ा करने का स्थान अहिंसा है अर्थात् अहिंसा सुकृत को पालन करनेवाली है और दुष्कृतरूप धूली को उड़ाने के लिये वायु समान है, संसाररूपी समुद्र के तरने के लिये नौकासमान है, और व्यसनरूप दावाग्नि के शान्त करनेके लिये मेघकी घटा के तुल्य, तथा लक्ष्मी के लिये संकेतदूती है; अर्थात् जैसे दूती स्त्री या पुरुष को परस्पर मिला देती है वैसेही पुरुष का और लक्ष्मी का मेल अहिंसा करा देती है और स्वर्ग में चढ़ने के लिये सोपानपङ्क्ति है, तथा मुक्ति की प्रियसखी कुगति के रोकने के लिये अर्गला अहिंसा ही है । विवेचन - अहिंसा ही समस्त अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाली है । इस पर किसी २ को यह शङ्का उत्पन्न होगी कि ब्रह्मचर्य पालन, परोपकार, सन्तोष, ध्यान, तप, आदि धर्म, शास्त्र में जो कहे हुए हैं वह व्यर्थ हो जायेंगे
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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