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जीवदया का पुत्र है, क्योंकि जैसे विना माता के पुत्र का जन्म नहीं होता वैसे ही दया विना परोपकार नहीं होता है । देखिये 'इसी : परोपकार पर व्यासजी का
वचन
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अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् " ॥ १ ॥
अर्थात् - अठारह पुराणों में अनेक बातें रहने पर भी मुख्य दो ही बातें हैं । एक तो परोपकार, जो पुण्य के लिये है और दूसरा ( पर पीड़न ) दूसरे को दुःख देना, जो पाप के लिए है । अर्थात् परपीड़ा से अधर्म ही होता है और जीवदया रूप परोपकार होने से पुण्यही होता है और इसीसे स्वर्ग तथा मोक्ष मिलता है । अब लोकव्यवहार से विरुद्ध, अनुभवसिद्ध शास्त्र - द्वारा अहिंसा के स्वरूप का यथावत् दिग्दर्शनमात्र कराया जाता है
सकल दर्शनकारों ने हिंसा को अधर्म में परिगणित fकया है और सबसे उत्तम दयाधर्म ही माना है । इसमें किसी आस्तिक को भी विवाद नहीं है, तौ भी हरएक धर्मवालों को यहां पर शास्त्रीय प्रमाण देनेसे विशेष दृढता होगी, इसलिए हिन्दूमात्र माननीय मनुस्मृति, तथा महाभारत और कुर्मादिपुराणों की साक्षी समय २ पर दी जायगी ।
उनमें पहिले मनुस्मृति को देखिये