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" योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया । स जीवंश्च मृतचैव न कचित् सुखमेधते " ॥ ( निर्णयसागर की छपी म० अ० ५. श्लो० ४५ पृ० १८७) अर्थात् - अहिंसक ( निरपराधी ) अपने सुख की इच्छा से मारता है वह मृतप्रायः 'है, क्योंकि उसको कहीं सुख नहीं मिलता ।
जीवों को जो जीता हुआ भी
तथा
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“ यो बन्धनवशान् प्राणिनां न चिकीर्षति । स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखमत्यन्तमनुते " ॥४३॥
भावार्थ - प्राणियों के वध, बन्ध आदि क्लेशों के करने को जो नहीं चाहता वह सबका शुभेच्छु अत्यन्त -सुख रूप स्वर्ग अथवा मोक्ष को प्राप्त होता है ।
और भी देखिये -
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यद् ध्यायति यत् कुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च । तदवाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किञ्चन ॥४७॥
तात्पर्य - जो पुरुष दंश मशकादि सूक्ष्म अथवा बड़े जीवों को नहीं मारता है वह अभिलषित पदार्थ : को प्राप्त होता है और जो करना चाहे वही कर सकता है या जहां पुरुषार्थ ध्यानादि में लक्ष्य बांधे उसे अनायासही या जाता है अर्थात् अहिंसा करनेवाला प्रतापी पुरुष जो मन में विचारे उसे तुरन्त ही पासकता है ।