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( २२ ) और यह भी लिखा है कि" नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते कचित् । न च प्राणिवधः स्वय॑स्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् " ॥४८॥
- भावार्थ-प्राणियों की हिंसा किए विना मांस कहीं पैदा नहीं होता, और प्राणिका वध स्वर्गसुख नहीं देता, इसलिए मांस को सर्वथा त्याग करदेना ही उचित है। और भी कहा है
" समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम् ।
असमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्" ॥ ४९ ॥
तात्पर्य-मांस की उत्पत्ति एवं प्राणियों के वध तथा बन्ध को देखकर सर्व प्रकार के मांसभक्षण से मनुष्य को निवृत्त होना चाहिये ।
विवेचन-पूर्वोक्त मनुस्मृति के पञ्चम अध्याय के ४४ से ४९ तक के श्लोकों का रहस्य जाननेवाला कदापि मांसभक्षण नहीं करेगा। क्योंकि सीधा रास्ता छोड़कर विवादास्पद मार्ग में चलने की कोई भी हिम्मत नहीं करेगा । ४९ वें श्लोक में सब प्रकारके मांसों के भक्षण से निवृत्त होने का मनुजी ने उपदेश किया है। इससे विधिपूर्वक मांस खाने से दोष नहीं माननेवालों का पक्ष सर्वथा निर्बल ही है; क्योंकि देवताओं की मांसाहार करने की प्रकृतिही नहीं है। यदि सौ मन मांस देवता के सामने रक्खा जाय तो भी एक छटाँक भी कम नहीं