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रहता ही नहीं है; केवल बाह्याडम्बर ज्यादा रहनेसे लाभकी अपेक्षा जिसमें हानि विशेष होती है उसी कार्य को वे प्रायः बतलाते हैं। इसमें दृष्टान्त यह है कि-जैसे-चीटियों के बिल के पास लोग उनके खाने के लिए आटा और चीनी डालते हैं, जिससे विशेष चीटी वहां आ जाती हैं और वही उपाय पुत्रोत्पत्ति का मानते हैं क्योंकि बिचारे भोले लोग धर्मतत्त्व के अनभिज्ञ कर्मप्रकृति के अविश्वासी लाभालाभ को न विचार कर कितनेही देशोंमे ऐसी क्रिया करते हुए पाये जाते हैं, लेकिन यहाँ पर विशेष विचार का अवसर है कि जब आटा और चीनी डालने से चीटियां बहुतसी इकट्ठी होती हैं तो अगर वह आटा चीनी कोई जीव खाजायगा तो बहुतसी चीटियों का संहार होजायगा । प्रायः देखने में भी आया है कि पक्षी आटा खाकर चीटियों का संहार कर डालते हैं। यह एक बात हुई, दूसरी यह है कि चीटी संमूर्च्छन जीव होने से विना माता पिता से भी उत्पन्न होती है, तो आटा और चीनी के मिलनेसे हवा का संयोग होने पर नयी चीटियां भी उत्पन्न होती हैं, तब उनकी भी हिंसा होती है; इससे स्पष्ट है कि ऐसे कार्य में धर्म की अपेक्षा अधर्म विशेष है। पुत्र-प्राप्तिका उपाय तो परोपकार, शील, सन्तोष, दया, धर्म वगैरह ही है और ऐसेही धर्मकृत्योंके करने से पुत्र की प्राप्ति हो सकती है । लेकिन सपाप क्रिया करने से वैसा फल नहीं मिलता । अतएव जिसमें लाभ की अपेक्षा हानि विशेष हो वह क्रिया नहीं करनी चाहिए। समस्त तत्त्ववेत्ताओंने परोपकार को ही सार माना है और परोपकार