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(५१) पहिलेही लिख दिया है, कि-" यज्ञायाचरतः कर्म " :अर्थात् ईश्वरार्थ कर्म के स्वीकार से ।
अत एव यहां पर भी वही अर्थ घटता है, क्योंकि अन्य यज्ञ के हिंसामय होने से अभय, अहिंसा, दया तीनों वस्तुएं पृथक् २ दिखलाई गई हैं। यदि यहां पर हिंसामय यज्ञ का कथन होता तो दैवीसंपत् के जो छब्बीस कारण गिनाये हैं, उनमें परस्पर विरुद्ध भाव हो जाता, अत एव यज्ञ का अर्थ यहाँ पर ईश्वरपूजा से अतिरिक्त दूसरा नहीं हो सकता है ६, तत्व विद्या का पाठ ही स्वाध्याय है ७; तप तीन प्रकार का है, वह पृ. ९४ अध्याय १७ वे में कहा है कि
" देवद्विजगुरुमाज्ञपूजनं शौचमार्जवम् । ___ ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते " ॥ १४ ॥ " अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते " ॥१६॥ " मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्धिरित्येतद् तपो मानसमुच्यते " ॥ १६ ॥
भावार्थ-देव, ब्राह्मण, गुरु और पण्डित की पूजा, शौच-अन्तःकरणशुद्धि, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसारूपही शरीर का तप कहलाता है। उद्वेग को नहीं करनेवाला वाक्य, सत्य, प्रिय, हितकर और स्वाध्याय तथा अभ्यास यह वाङ्मय तप है। मनकी प्रसन्नता, चन्द्रमाके तुल्य शीतलता, मौन होना, आत्मनिग्रह और भाव की शुद्धता