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________________ (५२) मानस तप कहलाता है । इस शारीरिक, मानसिक, वाचिक रूपसे तीन प्रकार का तप लिखा है ८; अवक्रता को आर्जव कहते हैं ९, जिसमें पर की पीड़ा किसी प्रकार की न हो उसे अहिंसा कहते हैं १०, यथार्थ भाषण को सत्य कहते हैं ११, अत्यन्त ताड़न किये जाने पर भी मन में कुछ भी व्याकुलता नहीं आना अक्रोध है १२, उदार भावसे दान देनाही त्याग है १३, मन में उत्पन्न हुए विकल्पों को दबा देनाही शान्ति है १४, परोक्ष में दूसरे के दोषों को नहीं कहना ही अपैशुन्य है १५, धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चार पदार्थों में से किसी पुरुषार्थ के साधन करनेकी सामर्थ्यरहितदीन जीवों में अनुकम्पा करने को दया कहते है १६, विषय में लालच के त्याग को अलोलुपता माना है १७, अक्रूरता अर्थात् सरलता को मार्दव कहते हैं १८, अकार्य करने में लोकलज्जा को ही कहते हैं १९, अनर्थदण्डवाली क्रियासे मुक्त होकर स्थिरभाव रखना ही अचपलता है २०, दुःखावस्था में अपनी सत्ता से नहीं हटना अर्थात् गम्भीरताही तेज कहलाती है । २१, शक्ति रहने पर भी किसीसे व्यर्थ परिभवादि पाने पर क्रोध नहीं करनेको क्षमा कहते हैं २३, दुःखों की परम्परा आनेपर भी स्थिरता ( दृढ़ता ) रखना धृति कहलाती है २३, आभ्यन्तर और बाह्य पवित्रता को शौच माना है २४, किसी की बुराई करने की इच्छा नहीं करना ही अद्रोह है २५, अहंकाररहितता को नातिमानता कहते हैं २६ । भावि कल्याणवान् पुरुषकोही दैवी संपत् होती है; प्रायः दम्भ, मद, अहङ्ककार, क्रोध, निष्ठुरता तथा
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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