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(५३) अज्ञानादि आसुरीसंपत् नरकगामी जीवको होती है, सर्वोत्तम दैवीसंपत् दिखाई है; उसमें अभयदानादि छब्बीस गुणोंका वर्णन देखनेसे सिद्ध होता है कि कदापि हिंसा से धर्म नहीं है देखिये-मनुस्मृति, वाराहपुराण, कूर्मपुराणादि में तो हिंसा करनेवाले को प्रायश्चित्त दिखलाया है; इसलिये भव्यजीवों को उस प्रायश्चित्त का भागी नहीं बननाही श्रेष्ठ है; क्योंकि " प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ” अर्थात् कीचड़ में पहिले पैर डालकर पीछे धोने की अपेक्षा उसमें पहिलेही से पैर नहीं डालना अच्छा है। यदि ऐसे महावाक्यों पर ध्यान दिया जाय तो कदापि प्रायश्चित्त लेने का समय ही न आवे । मनुस्मृति के ११ वें अध्याय का ४४८ वाँ पृष्ठ देखिये । यथा" अभोज्यानां तु भुक्त्वाऽन्नं स्त्रीशूद्रोच्छिष्टमेव च ।
जग्ध्वा मांसमभक्ष्यं च सप्तरात्रं यवान् पिबेत् "॥१५९॥
भावार्थ-जिसका अन्न खानेलायक नही है जैसे चमार आदि शूद्रों का अन्न खाकर, और स्त्री तथा शूद्र का जंठा खाकर, तथा सर्वदा अभक्ष्यही याने नहीं खानेलायक मांस को खाकर यदि कोई शुद्ध होना चाहे तो सात दिन तक यव का पानी पीना चाहिये। इत्यादि ।
विवेचन-प्रायश्चित्त विधि में मांस खानेसे प्रायश्चित्त भी दिखलाया है, तो भी हिंसा से लोग क्यों नहीं डरते हैं ? विधिविहित मांस खाने में दोष न माननेवालों को देखना चाहिये कि श्रीमद्भागवतीय चतुर्थ स्कन्ध के २५