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(५०) कर चलना चाहिए, जिससे कोई जीव मरने न पावे । यदि किसी को कुछ भी द्रव्य न खर्च करके धर्म करने की इच्छा हो तो उसके लिये अहिंसा धर्म के सिवाय कोई दूसरा धर्म नहीं है । इसीसे श्रीमद्भगवद्गीता में भी देवीसम्पत् और आसुरीसंपत् जो दिखलाई गई हैं, उनमें दैवीसम्पत् तो मोक्ष को देनेवाली है, और आसुरीसम्पत् केवल दुर्गति का कारण है। और दैवीसंपत् में भी केवल अभयदान को ही मुख्य रक्खा है । यथा" अभयं सत्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् " ॥ १ ॥ " अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम् " ॥ २ ॥ " तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानता । भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत !" ॥ ३ ॥
गीता, अ० १६ भावार्थ-अभय याने भयका अभाव १, सत्त्वसंशुद्धिचित्तसंशुद्धि, अर्थात् चित्तप्रसन्नता २, आत्मज्ञान प्राप्त करने के उपाय में श्रद्धा ही ज्ञानयोगव्यवस्थिति है ३, और अपने भोगने की वस्तु में से यथोचित अभ्यागत को देने को दान कहते हैं ४, बाह्येन्द्रियों को नियम में रखना ही दम कहलाता है ५, तथा ईश्वर की पूजा रूप ही यज्ञ है, क्योंकि यज्ञ का यह अर्थ भगवद्गीता के पृ. २८ कर्मयोग नामक तीसरे अध्याय में २३ वा श्लोक